Guest post by ANIL [freelance journalist and researcher, Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalay, Wardha]
इक्कीसवीं सदी का पहला दशक ख़त्म हो गया है. 1991 में उदारवाद के अभियान की बुनावट जिन आकर्षक शब्दजालों से शुरू हुई थी अब उसके परिणाम सतह पर स्पष्ट दिखने लगे हैं. इन दो दशकों में इज़ारेदारी ने सियासत से लोकतंत्र के मूल्यों के पालन की उम्मीद को तो पहले ही दफ़्न कर दिया था लेकिन इस क्रम में जो हालिया प्रगति हुई है वह और ख़तरनाक संकेत दे रही है.
केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम हाल में महाराष्ट्र के गढ़चिरोली जिले के दौरे पर थे. इस दौरान गड़चिरोली के अतिरिक्त जिला कलेक्टर श्री राजेंद्र कन्फोड पर एक बयान के लिए ’अनुशासनात्मक’ कार्यवाई कर दी गई है. जिला अतिरिक्त कलेक्टर ने सिर्फ़ इतना कहा था कि इस तरह के ’हवाई दौरों से नक्सल समस्या का समाधान नहीं हो सकता. इसके लिए रोज़गार और समानता के अवसर मुहैया कराने की ज़रुरत है.’ इतना कहने के आधार पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने राजेंद्र कन्फोड पर कार्यवाई करते हुए उन्हें निलंबित कर दिया है.
वहीं एक अन्य घटनाक्रम में, डॉ. बिनायक सेन को राजद्रोह का दोषी बनाकर उम्रक़ैद की सज़ा के फ़ैसले पर भूतपूर्व न्यायाधीशों की टिप्पणी पर केंद्रीय क़ानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने नसीहत देते हुए कहा है कि यह लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है. डॉ. बिनायक को अन्य दो लोगों के साथ बेहद कमज़ोर और अस्पष्ट सबूतों के आधार पर ’राजद्रोह’ का दोषी बनाते हुए उम्रक़ैद की सज़ा दी गई है. नागरिक अधिकार, मानवाधिकार समेत अन्य कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों ने इस फ़ैसले पर नाराज़गी भरी कठोर प्रतिक्रियाएं दी हैं. उम्रक़ैद के इस फ़ैसले की सभी हलकों में तीखी आलोचना हो रही है. उच्चतम न्यायालय के दो भूतपूर्व मुख्य न्य़ायाधीशों ने भी इस फ़ैसले के सैद्धांतिक पहलुओं पर अपनी राय रखी है. भूतपूर्व न्यायाधीश वी.एन.खरे और ए. अहमदी ने इस फ़ैसले पर दुख जताया है. उन्होंने कहा है कि राजद्रोह के आरोप के लिए कमज़ोर सबूत नहीं होने चाहिए. सरकार द्वारा नागरिक अधिकार के मुद्दों पर अभिव्यक्त इन महत्वपूर्ण राय को प्रबंधित और निर्देशित करने के जो उपक्रम किए जा रहे हैं वे ख़तरनाक इशारे हैं. अभिव्यक्ति की आज़ादी के सूत्र की यहां पड़ताल की जाए. क़ानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने सेवामुक्त न्यायधीशों द्वारा डॉ. बिनायक सेन के मामले में व्यक्त राय पर टिप्पणी करते हुए कहा कि यह न्यायपालिका के लिए अच्छा नहीं है. और भूतपूर्व न्यायाधीशों को ऐसी
टिप्पणियों से बचने सलाह दी है. जबकि एक दिन पहले डॉ. बिनायक सेन को दी गई सज़ा के मामले पर पत्रकारों ने जब केंद्रीय क़ानून मंत्री से राय मांगी तो उन्होंने इस मामले पर कोई टिप्पणी करने से इंकार कर दिया था.
राजेंद्र कन्फोड के बयान पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री द्वारा कार्यवाई करना और डॉ. बिनायक सेन को उम्रक़ैद की सज़ा के फ़ैसले पर भूतपूर्व न्यायाधीशों की राय पर क़ानून मंत्री द्वारा नसीहत देना इन दोनों में काफ़ी क़रीबी रिश्ते हैं. अब यह साफ़ संदेश दिया जा रहा है कि सरकार में बैठे नुमाइंदे असहमति के किसी भी स्वर को पसंद नहीं करेंगे. शासन के विभिन्न पायदानों में यह बात हर हाल में स्थापित रहनी चाहिए कि लोगों को आधिकारिक लाइन से असहमति की भारी क़ीमत चुकानी पड़ेगी. दुनिया के सर्वाधिक बड़े लोकतंत्र का दंभ भरने वाले राजनीतिक वर्ग की असलियत यह है कि इसने अंग्रेज़ी शासन के दुराचारों की फ़ेहरिश्त को भी छोटा कर दिया है. तभी तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को चुप करने की कोशिश के लिए अंग्रेज़ों ने जिस धारा ’राजद्रोह’ का इस्तेमाल किया, डॉ. बिनायक सेन और उन जैसे सैकड़ों-हज़ारों नागरिकों पर दंड संहिता की ऐसी ही, समय के प्रचलन से बाहर निकाल फेंकी गई, दमनकारी और अन्यायी धाराएं थोप दी गई हैं. और वैधानिक मांगों को लगातार कुचला जा रहा है.
चुनावी हेर-फेर में उलझे राजनीतिक दलों से उनके अंदरूनी कार्य-व्यवहारों में लोकतंत्र के मूल्यों के पालन करने का आह्वान अब अपनी सार्थकता खो चुका है. ख़ासकर ऐसे में जबकि नागरिक आज़ादी को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर ये दल अपनी कोई स्पष्ट राय तक नहीं रखते. डॉ. बिनायक सेन का मामला इसकी एक बानगी है. 125 साल पूरे कर चुकी कांग्रेस अपनी सरकार से अलग जाने की सोच भी नहीं सकती इसलिए उसने कुछ भी कहने से इंकार कर दिया है और भाजपा अभी भी दुष्प्रचार और चरित्र हनन में लगी है. लेकिन राज्य-संरचना और शासन-व्यवस्था के स्तर पर भाजपा और कांगेस के बीच फ़र्क़ मिट जाता है. इस आलोक में देखे तो पाएंगे कि गढ़चिरोली के अतिरिक्त जिला कलेक्टर राजेंद्र कन्फोड को निलंबित किए जाने का मामला महाराष्ट्र में कांग्रेस सरकार कि हरकतों की एक प्रतिछाया मात्र है. आदर्श सोसाइटी हाउस घोटाले में लिप्त महाराष्ट्र के दो मंत्री अभी भी हेठी के साथ पद पर बने हुए हैं. कहा जा रहा है कि इन मंत्रियों पर सत्ताधारी दल के आलाकमान का
वरदहस्त है. इसलिए इन मंत्रियों पर मुख्यमंत्री कोई कार्यवाई नहीं करेंगे.
इस साल की चंद घटनाओं से इस धारणा की पुष्टि होती है कि देश के तंत्र में कुछ बेहद महत्वपूर्ण परिवर्तन घटित हो चुके हैं जो देश की परंपरागत राजनीतिक प्रणाली से हटकर हैं. ये आगे चलकर एक स्वस्थ लोकतंत्र, न्याय, समता और गरिमा की राह के नुकीले कांटे बनेंगे. इस बात के लिए किसी ख़ास प्रमाण की ज़रुरत नहीं है कि देश के प्रमुख राजनीतिक दल अकूत भ्रष्टाचार के दलदल में लिथड़े हुए हुए हैं. हां, बेचैन सच्चाई यह है कि एक ओर भ्रष्टाचारी राजनेता, बिचौलियों की मदद से अपने अवैध कारोबार जारी रखेंगे और आनन फानन में स्वयंभू कॉर्पोरेट में तब्दील हो जाएंगे तो दूसरी ओर इसकी क़ीमत आम आदमी को ही चुकानी पड़ेगी जिसकी सरल और सक्षम सुनवाई लोकतंत्र के मौजूदा किन्हीं संस्थानों में बमुश्किल ही हो पा रही है. यह भलीभांति स्थापित तथ्य है कि 1947 के बाद जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व
में जब देश का पुनर्गठन किया जा रहा था तो आज़ादी की लड़ाई से हासिल मूल्यों और सपनों को साकार करने की चुनौती थी. एक स्वतंत्र, संप्रभु, बराबरी पर आधारित देश का निर्माण जिसमें हरेक आदमी को भोजन और आवास की सुनिश्चितता के साथ गरिमापूर्ण ज़िंदगी जीने के सहज अवसर उपलब्ध हों. अंग्रेज़ों ने अपने शासन काल में भारत की जनता पर जैसी मानसिक ग़ुलामी थोपी थी उससे छुटकारा पाते हुए एक आधुनिक, प्रगतिशील, पंथनिरपेक्ष राज्य बुनने का ख़्वाब प्रमुख निर्देशक तत्व था. देश के कंधे से औपनिवेशिकता के जुंए को उतार फेंकना था और विशाल आबादी को आत्मनिर्भर और गरिमामयी नागरिक में रूपांतरित करना एक प्रमुख उत्तरदायित्व था. एक ऐसा राज्य निर्मित करना अत्यंत ज़रुरी कार्यभार था जो सदियों से अपने नागरिकों की दमित की गई अभिव्यक्तियों को प्रोत्साहन और संरक्षण दे सके. राजनीतिक दलों को मनुष्यता की उदात्त संकल्पना को यथार्थ में परिणत करने वाली जीवंत संस्कृति का वाहक बनना था. लेकिन यह सब दिवास्वप्न बनकर रह गया. राजनीतिक दलों के आचरण तो पहले ही लुट पिट गए. इनकी विश्वसनीयता तो बड़े पैमानों के अभूतपूर्व घोटालों के बुलबुलों से पहले भी संदेह से परे नहीं थी. लेकिन विडंबना यह है कि अब तो न्यायपालिका समेत अन्य संस्थान भी ढहने को बेताब हैं.
1975 का आपातकाल एक घृणित उदाहरण है जब विरोधियों को ख़ामोश करने के लिए सत्ता के नशे में बेतरह धुत लोगों ने हरेक संवैधानिक उसूल का क़त्ल कर
दिया था. राजनीतिक दलों की जन-विरोधी कार्यप्रणाली की अनिवार्य परिणति यह थी कि घोटालों की बाढ़ आ गई. और सरकारें उदारवादी अर्थव्यवस्था के अंकगणितीय लक्ष्यों की पिछलग्गू बनी रहीं. असमानता की खाई बढ़ती गई. समाज में टकराव तीखे होते गए. राजनीतिक बेशर्मी खुल्लमखुल्ला फैलती गई. न्याय तंत्र के आचरण में छिपे रहने वाले भ्रष्टाचार के इक्के दुक्के मामलों की तादाद अब बढ़ने लगी. अधिकांश, विपदा के मारे नागरिकों के लिए न्याय अभी भी वहनीय नहीं था. यह बहुत ख़र्चीला और साधारण नागरिकों की आसान पहुंच से काफ़ी दूर स्थित था. लोकतंत्र के दूसरे ’रक्षक’ संगठनों, जैसे पुलिस, नौकरशाही और न्यायपालिका तक की इमारत ब्रिटिश उपनिवेशवाद की बुनियाद पर ही टिकी रही. बल्कि पिछले दो दशक में इन संगठनों का अंग्रेज़ी शासन की बुनियाद पर अमेरिकी प्रभावों वाला जो बेहूदा ढांचा निर्मित हुआ है वह पुराने शासकों की चालबाज़ियों को भी पीछे छोड़ देने वाला है. अब देश में आधिकारिक लाइन से असहमति को अपराध घोषित कर दिया गया, मानवाधिकार तक के
लिए उठने वाली आवाज़ को कुचला जाने लगा. जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ में ’मानवाधिकारों के वैश्विक घोषणापत्र, 1948’ में हस्ताक्षर करने वाले देशों में भारत प्रमुख है. अब सरकारें अपनी आलोचना का मुंह बंद करने के लिए ठीक उन्हीं तरह के क़ानूनों का इस्तेमाल करने लगीं जैसा कि आज़ादी की लड़ाई का दमन करने के लिए ब्रिटिश शासन करता था. यानी कि जिस देश को औपनिवेशिक विरासत से मुक्त होना चाहिए था वह देश उल्टे अंग्रेज़ी शासन की बर्बर राहों का पर चलने लगा. दमनकारी क़ानूनों, जैसे यूएपीए (ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि निवारक अधिनियम), छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम, आफ़्स्पा आदि, के ख़तरनाक इरादे और इस्तेमाल यह दिखाते हैं कि देश में संवैधानिक उसूलों, मौलिक अधिकारों को कभी भी ख़ारिज़ किया जा सकता है.
देश में व्याप्त ढांचागत संकट की गहनता का अनुमान लगाया जा सकता है. पिछले बीस सालों में इजारेदारी अर्थ-तंत्र के मकड़जाल में उलझी राजनीतिक ताक़तों ने जनतंत्र का दम घोंट दिया है. लोकतंत्र की रक्षा करने वाले सारे संस्थानों को भीतर ही भीतर खोखला बना दिया गया है. सभी जानते हैं कि पुलिस और प्रशासन सत्ता के इशारों पर ताक़तवरों के पक्ष में ही काम करता है. सरकारें हक़, अधिकार की मांग कर रहे किसानों, मज़दूरों, विद्यार्थियों, वकीलों पर लाठियां भांजने और गोलियां चलाने के आदेश देती हैं. संकट का चरम यह है कि न्यायपालिका भी भ्रष्टाचार और अन्याय की बीमारियों से बुरी तरह ग्रस्त है. जन-साधारण के लिए तो न्यायालय की “प्रक्रिया ख़ुद एक सज़ा” बनी हुई है.
और अब हालिया प्रगति यह है कि सरकार के आक्रमण के दायरे का विस्तार लेखकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं तक हो गया है. भारी पैमाने पर लोगों को ग़ैरक़ानूनी ढंग से गिरफ़्तार करने, जेल भेजने, हिरासत में यातना देने और कई बार गुपचुप हत्या तक कर देने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है. न्यायपालिका न सिर्फ़ ख़ामोश है बल्कि सरकार के अनुचित क़दमों को जायज़ ठहराने की मुहिम में भी शामिल होती जा रही है. यह लोकतंत्र के चिराग़ को बुझाने पर आमादा आंधी जैसा है.
(लेखक पत्रकार हैं)
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