वामपंथ, माकपा और जनवादी क्रांति बकौल प्रभात पटनायक

[This post is a response to Prabhat Patnaik’s article ‘Why the Left Matters’ which appeared in the Indian Express on 17 March. A version has appeared in two parts in Jansatta]

पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव हो रहे हैं. इनमें से दो, बंगाल और केरल वाममोर्चा शासित प्रदेश हैं. केरल में तो भारत के अन्य राज्यों की तरह  चुनावों के परिणामस्वरूप सरकारें बदलती रही हैं , बंगाल ने पिछले  चौंतीस  साल से वाम मोर्चे के अलावा किसी और सरकार का तजुर्बा करना ज़रूरी नहीं समझा है. इसे अक्सर बंगाल की जनता की राजनीतिक परिपक्वता के तौर पर व्याख्यायित किया गया है. बौद्धिक जगत में साम्यवादी विचार की वैधता के लिए भी जनता द्वारा दिए गए इस स्थायित्व का इस्तेमाल वैसे ही किया जाता रहा है जैसे कभी सोवियत संघ और अन्य पूर्वी युरोपीय देशों या अभी भी चीन में  साम्यवादी दल के  सत्ता के अबाधित रहने से उसे प्राप्त था.  बल्कि कई बार इसे अन्य  राज्यों की जनता के राजनीतिक दृष्टि से पिछ्ड़े होने के प्रमाण के रूप में भी पेश किया जाता रहा है . इस बार स्थिति कुछ बदली हुई लग रही है. अगर बंगाल में अनेक स्तरों के स्थानीय निकायों के चुनाव कुछ इशारा कर रहे हैं तो वह सत्ता परिवर्तन का है.

Prabhat Patnaik, leading CPI-M aligned intellectual
Prabhat Patnaik, leading CPI-M aligned intellectual

संसदीय प्रणाली पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस प्रकार का परिवर्तन जीवन का नियम माना जाता है, बल्कि इस अस्थिरता में ही उसकी जीवंतता का स्रोत भी देखा जा सकता है. लेकिन बंगाल की जनता द्वारा मत-परिवर्तन की संभावना एक विशेष बौद्धिक संवर्ग के लिए चिंता का विषय बन गई है. प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने कुछ पहले इस संकेत की असाधारणता की ओर ध्यान दिलाते हुए एक टिप्पणी लिखी है. बल्कि यह जनता और विशेषकर भारत के शिक्षित समुदाय से एक अपील ही है – भारत की लोकतांत्रिक क्रांति की रक्षा की अपील. उनके कहने का सार यह है कि भारत की सतत वर्धमान लोकतांत्रिक क्रांति पर प्रतिक्रांतिकारी शक्तियों के बादल मंडरा रहे हैं और इस बार यह खतरा वास्तविक और आसन्न है. इस खतरे का सामना करने के लिए प्रभात आवश्यक मानते हैं कि वामपंथ को चुनाव में प्रतिकूल परिणाम न झेलना पड़ॆ.  उनके अनुसार वामपंथ को कोई भी चुनावी धक्का दरअसल लोकतांत्रिक क्रांति के लिए मरणांतक आघात साबित हो सकता है.

वामपंथ को केरल और बंगाल में सत्तासीन बनाए रखने की ऐसी  अपील किसी पार्टी बुद्धिजीवी के द्वारा किया जाना स्वाभाविक ही है. लेकिन प्रभात ने इस लेख में अपना परिचय एक अध्यापक और अर्थशास्त्री का दिया है. इसका अर्थ यह है कि यह अपील बौद्धिक व्यापार  के विशेष गुण, उसमें अंतर्निहित आलोचनात्मकता के आश्वासन के सहारे हम तक पहुंचना चाहती है. अर्थशास्त्री के तौर पर प्रभात ने विश्वसनीयता का जो अधिकार  हासिल किया है , यहां उसका उपयोग किया जा रहा है. लेकिन इस विशेष स्थिति में शायद बौद्धिक ईमानदारी इसमें थी कि वे भारतीय वाम ही नहीं, भारत  की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) से अपनी संबद्धता का उल्लेख भी करते. इस तथ्य को उजागर न करने से  संदेह पैदा होता  है. एक पार्टी बुद्धिजीवी क्यों और किस स्थिति में सार्वजनिक बुद्धिजीवी की निष्पक्षता का लाभ खो बैठता है, इस  पर विचार का अवकाश यहां नहीं है.

अभी हम मान कर चल सकते हैं कि जैसे ही कोई बुद्धिजीवी किसी दल विशेष से जुड़ने का निर्णय करता है , किसी एक विशेष स्थिति में उसे अपनी आलोचनात्मकता को स्थगित रखने की बाध्यता का सामना करना ही पड़्ता है. यह भी हमें पता है कि पार्टी उनकी इस बौद्धिक अपील  का अपने निर्णयों का औचित्य निरूपण के लिए इस्तेमाल भी करती है. सिंगूर और नंदीग्राम में राज्य शक्ति के सहारे सी.पी.एम. की हिंसा के विरोध को कुंद करने के लिए प्रभात जैसे बुद्धिजीवियों ने वक्तव्य जारी किए और लेख भी लिखे. प्रसंगवश इसका उल्लेख किया जाना चाहिए कि प्रभात ने ऐसे विश्लेषणात्मक निबंध लिखे हैं , जिसके कारण उनके दल के ही दूसरे राजनीति शास्त्री जावीद आलम की तरह उन्हें भी  प्रकाश करात की भर्त्सना का सामना करना पड़ा  है. ऐसा करके बौद्धिक जगत में वे अपनी विश्वसनीयता की रक्षा तो कर लेते हैं लेकिन जब भी उन्हें इस विशेषज्ञता के दायरे से बाहर एक वृहत्तर समुदाय को संबोधित करना होता है, वे हमेशा पार्टी का  बौद्धिक पक्ष निर्माण और उसके निर्णयों का औचित्य निरूपण करने को बाध्य होते हैं. वे खुद को हमेशा जिस अस्तित्वगत द्वैध और दुविधा में फंसा हुआ महसूस करते होंगे, उसे समझा  जा सकता है और उनके प्रति सहानुभूति रखी जा सकती  है. यहां तो इन सावधानियों के साथ ही प्रभात पटनायक की चेतावनी का विश्लेषण करना ही हमारा उद्देश्य है.

प्रभात पटनायक का कहना यह है कि भारत में लोकतांत्रिक क्रांति चल रही है. इसकी विशेषता यह है कि इसके कारण ‘अस्पृश्यता’ और अदृश्यता’ जैसे विरूप सिद्धांतों पर आधारित सांस्थानिक असमानता से ग्रस्त भारतीय समाज बीसवीं सदी में बदला है. अब वह  सार्वजनिक मताधिकार पर आधारित संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली के ज़रिए सारे नागरिकों के लिए कतिपय बुनियादी अधिकारों के सहारे एक प्रकार की वैधानिक समानता का दावा कर सकता है. हालांकि वह वास्तविक समानता के लक्ष्य से अभी भी दूर है, प्रभात इसे अपनी ‘दीर्घ लोकतांत्रिक क्रांति’ की मह्त्वपूर्ण उपलब्धि मानते हैं.

यह विकसमान लोकतांत्रिक क्रांति अभी अभूतपूर्व संकट से घिर गई है, यह प्रभात की दूसरी प्रस्थापना है. उनका कहना है कि क्रांति स्थिर नहीं रह सकती, या तो वह आगे बढ़ेगी, या उसे प्रतिक्रांतियों के द्वारा पीछे धकेल दिया जाएगा. अभी भारत में प्रतिक्रांतियां ताकतवर होती जा रही हैं. इसका कारण वे बड़ी बोर्जुआजी की स्थिति में परिवर्तन को मानते हैं.  उनका कहना  है कि यह कई तरीकों से किया जा रहा है. इन्दिरा गांधी द्वारा आपातकाल या भारतीय जनता पार्टी  द्वारा संविधान समीक्षा के नाम पर नागरिक अधिकारों को सीमित करने की कोशिश  की गई जो नाकामयाब रही.  दूसरा तरीका साम्प्रदायिक फासीवाद का है. उनके मुताबिक बीच-बीच में इसकी जंजीर खोल दी जाती है और फिर इसके हमले से त्रस्त जनता गैर साम्प्रदायिक –उदारवादी-बुर्जुवा की शरण में सुरक्षा और इत्मीनान खोजने पर बाध्य होती है. तीसरा तरीका किसी भी प्रकार के विरोध को सत्ता के द्वारा आत्मसात कर लेने का और जिसे वह न कर पाए, उसे अपराध के दर्जे में डाल देने का है. मुख्यतः वैसा विरोध जो नव उदारवादी , वित्तीय पूंजीआधारित विकास को चुनौती देता है, जुर्म माना जाता है और इसके लिए जनसंचार माध्यम भी फिजां बनाते हैं. प्रभात कहते हैं कि विकास का यह तर्क पार्टी की हदबदियां तोड़ देता है. चौथा रास्ता समाज में बढ़ती हुई धार्मिकता में और आधुनिकतापूर्व के खाप पंचायत जैसे  सामाजिक संगठनों के उभार में, प्रतिक्रांति को मिलता है. इससे जनता का अराजनीतिकरण होता है और उसे विखंडित इकाइयों में विभक्त कर दिया जाता है.

प्रभात का कहना है कि भारत में एकमात्र वामपंथ ही है जो इन सभी प्रतिक्रांतियों से सुसंगत रूप से संघर्ष करता रहा है. इसीलिए यदि लोकतांत्रिक क्रांति की उपकब्धियों की रक्षा की जानी है तो वामपंथ को मजबूत बनाए रखना होगा. प्रभात के इस तर्क-विधान में कई पूर्वमान्यताएं हैं जिन पर पहले बात करना आवशय्क होगा.

प्रभात लेख में ‘वामपंथ’ पद का प्रयोग बिना किसी विशेषण के करते हैं. यह  अस्पष्ट पद है क्योंकि इस देश में अनेक दल अपने आप को वामपंथी और अन्य को छद्म वामपंथी कहते पाए जाते हैं. उनकी मुराद वस्तुतः सी.पी.एम.के नेतृत्व वाले वाममोर्चे से है जो मुख्यतः तीन  राज्यों में, केरल, बंगाल और त्रिपुरा, सक्रिय है. अन्य राज्यों में अनेकबार यही मोर्चा वाममोर्चा नहीं रह जाता, उदाहरण के लिए बिहार और उत्तरप्रदेश  जैसी जगहों में सी.पी.एम. ने अन्य वामदलों से अलग जा कर चुनाव लड़ा. तात्पर्य यह कि प्रभात का वाम दरअसल वह है जो सी.पी.एम. के नेतृत्व में चलता है. फिर इस संसदीय दायरे से बाहर कार्यरत वाम को कहां रखें, इसकी कोई स्पष्टता प्रभात के लेख  में नहीं है. जाहिर है उन्हें अतिवाम या विपथगामी वाम कहना होगा.

प्रभात ने भारतीय समाज में व्याप्त गैरबराबरी के दो रूपों को प्रमुखता दी है, अस्पृश्यता और अदृश्यता. यह दिलचस्प इसलिए  है कि वामपंथ ने न तो औपनिवेशिक दौर में और न स्वाधीन भारत में , कभी भी इन दोनों को अन्य असमानताओं के ऊपर प्राथमिकता दी. स्वाधीनता आंदोलन में भी दो बिलकुल भिन्न नज़रियों से महात्मा गांधी और बाबा साहब अंबेडकर ने इन्हें   भारतीय समाज की असमानता को समझने के लिहाज से महत्वपूर्ण माना था. भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने न तो अपने   सैद्धांतिक  निरूपण में और न अपने राजनैतिक कार्यक्रम में इनके विरुद्ध संघर्ष को प्राथमिकता दी. स्वाधीनता के बाद तो इसे पूरी तरह से राज्कीय हस्तक्षेप और कानूनी उपायों के सहारे छोड़ दिया गया. जातिगत भेदभाव और उसके कारण एक बड़े तबके की राजनीतिक और सामाजिक भागीदारी का  प्रश्न भी वामपंथ के लिए इस प्रकार विचारणीय नहीं रहा कि उसके लिए वह  अलग से कोई राजनैतिक कार्यक्रम बनाए.यह तो गैरवामपंथी राजनीति की सफलता थी जिसने बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में वामपंथ को बाध्य किया कि वह जातिगत भेदभाव और असमानता को आनुषंगिक अभिव्यक्ति न मान कर असमानता के कारकों के रूप में स्वीकार करे. उसी प्रकार स्त्रियों की असमानता के विशेष रूप की भी पहचान वामपंथ नहीं कर पाया. उसके स्त्री संगठन तो रहे पर वे मुख्य राजनीतिक दल के कार्यकमों के इर्द-गिर्द औरतों की गोलबन्दी करने तक सीमित  रहे हैं. भारत के नारीवादी आंदोलनों से वामपंथ के तनाव पर अलग से अध्ययन किया जाना चाहिए. कम्न्युनिस्ट पार्टियों ने कभी भी अपने निर्णायक निकायों में स्त्रियों को या जातीय श्रेणी में ‘निचली’ पायदान पर ख़ड़े सदस्यों को कर्तृत्व के योग्य नहीं माना. ‘पिछड़ी जातियों” और दलित समुदायों को अपनी  राजनीतिक अभिव्यक्ति के लिए अलग संगठन बनाने पड़े.

लोकतंत्र के विस्तार के लिए और उसे दृढ़ करने के लिए इन सवालों पर सामाजिक संघर्ष की ज़रूरत भी थी. वामपंथ ने शायद इसे चेतना का प्रश्न समझा और अपना ध्यान आधारगत परिवर्तन पर केन्द्रित किया.  वर्ग भेद को सिद्धांत और राजनीतिक कार्यक्रम के लिए बुनियादी मानने के कारण यह हुआ. जातिगत भेदभाव के विरुद्ध उभरने वाली चेतना को अस्मिता का प्रश्न मान कर स्थगित किया जा सकता था या उसकी स्वीकृति तभी थी जब वे वर्ग चेतना में अंतर्भुक्त हो. यह समझ प्रभात  की भी है. पिछले साल माओवादियों को संबोधित अपने एक लेख में उन्होंने उनपर यह आरोप लगाया था कि वे आदिवासियों को अस्मिता की राजनीति के तहत संगठित कर रहे हैं और इस अप्रकार वर्ग राजनीति को कमज़ोर कर रहे हैं. वे यह मानने को तो तैयार हैं कि वर्ग राजनीति  अस्मिता के साथ संबंध बना सकती है, जिसका अर्थ यह है कि वह उसमें अंतर्भुक्त है लेकिन वे अस्मिता के रास्ते वर्ग तक पहुंचने की संभावना खारिज करते हैं.

सतत विकसमान लोकतांत्रिक क्रांति के लिए एक बड़ा खतरा साम्प्रदायिक फासीवाद है. प्रभात इसे एक ऐसा कुत्ता कहते हैं जिसकी  जंज़ीर बड़ी बोर्जुआजी के हाथ है. इसे बीच –बीच में जनता पर टूट पड़ने  के लिए ढीला छोड़ दिया  जाता है . इसके  नतीजे भयावह होते हैं. फिर जब जंज़ीर खींच ली  जाती है तो   इसके फिर खुलने की आशंका  से ग्रस्त जनता गैरसांप्रदायिक फासीवादी- बोर्जुआ शासन के नव-उदारवादी एजेंडे से समझौता करने को बाध्य हो जाती है. भारत में संप्रदायवाद के रूपों, उसकी राजनीति और रणनीति पर इतन अध्ययन और शोध हो चुका है कि प्रभात की यह सतही वर्ग-मूलवादी व्याख्या दयनीय रूप से हास्यास्पद प्रतीत होती है. यह भी संप्रदायवाद  को एक स्वतंत्र परिघटना के रूप में मान्यता देने से इनकार है और उसकी षड्यंत्रवादी व्याख्या है. प्रभात यह दावा करते हैं कि वामपंथ ने सुसंगत रूप से, बिना किसी समझौते के इसके खिलाफ संघर्ष किया है. लेकिन संसदीय राजनीति में वामपंथ हमेशा यह तय करता रहा कि बड़ी बोर्जुआजी का असल प्रतिनिधित्व कौन सा राजनीतिक दल कर रहा है और इसीलिए राजनीतिक स्तर पर भी ज़रूरत पड़्ने पर उसे सांप्रदायिक फासीवाद के साथ जाने में न तो साठ के दशक में हिचकिचाहट हुई और न अस्सी के दशक में जब उसके खूंखारपन को लेकर कोई शक न बच गया था. पहले जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी के साथ रणनीतिक तालमेल के उदाहरण वामपंथ के इतिहास में हैं जिन्हें वह ऐतिहासिक बाध्यता कह कर टाल देता रहा है.

राजनीति और धर्म के गठजोड़ की विषाक्तता की चर्चा अक्सर की जाती है.  प्रभात समाज में बढ़ती धार्मिकता को बड़ा खतरा मानते हैं. लेकिन वह भी सामजिक चेतना और  आचार –व्यवहार का मसला है. इसे तो वामपंथ ने कभी मुख्य राजनीतिक कार्यभार निर्धारित करने के लिहाज से मह्त्वपूर्ण माना ही नहीं. संभवतः यह  भी इसीलिए हुआ कि बुनियादी तब्दीली के बिना चेतनागत परिवर्तन कठिन है, यह समझ बनी रही. बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि वामपंथ का आधार जो जनता है, उसके मनोविज्ञान से छेड़-छाड़ करने से मुख्य संघर्ष से उसके बिदक जाने का खतरा भी था. संवेदनशील धार्मिक मसलों पर  सार्वजनिक रूप से वामपंथ कोई भी स्पष्ट राय जाहिर करने से बचता रहा , धार्मिकता के प्रसार के बरक्स किसी जन अभियान की बात तो दूर है. 1961 में जब अष्टग्रह योग को लेकर एक धार्मिक अन्धविश्वासी आतंक देश में फैलाया जा रहा था तो हिन्दू जनता के वोट मिलेंगे या नहीं, इसकी चिंता छोड़ कर सिर्फ जवाहरलाल नेहरू ही जन सभाएं संबोधित कर रहे थे. यह अलग बात है कि कम्युनिस्ट का पर्याय धर्मविरोधी मान लिया गया. शायद यह भी एक वजह हो कि इसे राजनीतिक मुद्दा बनाने में वामपंथ को संकोच रहा. बल्कि, बीच-बीच में धार्मिक भावनाओं का अप्रत्यक्ष इस्तेमाल करने में उसे हिचकिचाहट नहीं रही है. बंगाल से तस्लीमा नसरीन को निकाल बाहर करने में के प्रसंगमें इसे आहत मुस्लिम भावनाओं के आगे उसकी निरुपायता और निष्क्रियता विचारणीय है. इसके ठीक पहले नंदीग्राम में वाम शासन के खिलाफ हुए विरोध में मुसलमानों की भागीदारी के कारण बंगाल के मुख्यमंत्री ने उसे मुस्लिम सांप्रदायिक तत्वों द्वारा संचालित कहा था. ऐसा करके वे बड़ी चतुराई से हिंदू जनता के भीतर मुस्लिम राजनीतिक सक्रियता को एक ही नाम देने का जो अभ्यास है, उसका सहारा ले रहे थे और उसे इस आन्दोलन के खिलाफ एक ऐसा तर्क दे रहे थे जो साम्प्रदायिक सहज बोध द्वारा स्वीकृत हो. उसके भी  पहले  जब वे मुसलमानों को अपने बच्चों को मदरसों में न भेजकर मुख्यधारा के विद्यालयों में भेजने की सदाशय अपील कर रहे थे तो बहुसंख्यक सांप्रदायिकता द्वारा मुसलमानों को लेकर स्थापित कर दिए गए पूर्वग्रह का सहारा लेकर हिन्दू मन को संतुष्ट कर रहे थे. यह इसलिए भी अक्षम्य था कि यह तथ्य सम्मत नहीं था. बंगाल के मुसलमान अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में ही भेज रहे थे और अगर वे पढ़ नहीं पा रहे थे तो इसका कारण यह था कि सरकारों ने   पर्याप्त संख्या में विद्यालय खोले नहीं थे.

जनता के बीच व्याप्त धार्मिकता वाम के लिए रणनीतिक उपयोग की वस्तु रही है. बंगाल में खुलेआम दुर्गापूजा समियों में वाम दलों की  भूमिका की काफी चर्चा हो चुकी है. ऐसे निर्णय को जनता की  परंपरागत संस्कृति के साथ रचनात्मक संबंध निर्माण के प्रयोग के रूप में उचित ठहराया जाता रहा  है.

प्रभात पटनायक ने खाप पंचायतों जैसी सामाजिक संस्थाओं के प्रबल होते जाने पर ठीक ही चिंता व्यक्त की है. लेकिन लगभग चार दशक तक बंगाल के समाज के हर स्तर पर नियंत्रण कर लेनेवाले वाम ने वहां के ग्रामीण समाज की शालिसी सभा की संस्था को कभी कोई वैचारिक चुनौती दी हो, इसका प्रमाण नहीं. शालिसी सभाएं वैसे  ही व्यक्ति विरोधी और प्रतिगामी फैसले लेती हैं, जैसे खाप पंचायतें लेती हैं.  वामदलों के तीन दशक से अधिक बंगाल के जीवन पर वर्चस्व की एक विशेषता यह रही है कि प्रचलित सभी  सामाजिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं पर वाम दलों ने, विशेषकर सी.पी.एम. ने नियंत्रण तो कर लिया लेकिन उनके पारम्परिक  वैचारिक ढांचे को कोई चुनौती नहीं दी. शायद इसके लिए लोकतांत्रिक क्रांति के अगले स्तर पर पहुंच जाने की प्रतीक्षा की जा रही हो. जो भी हो, प्रभात जिन सामंती अवशेषों को लेकर चिंता व्यक्त कर रहे हैं वामपंथ ने उनसे सीधे मुकाबला वैचारिक स्तर पर और सांगठनिक स्तर पर करना रणनीतिक कारणों से आवश्यक नहीं समझा.

भारत की लोकतांत्रिक क्रांति के रास्ते में अगली बाधा वे पूंजीवादी विकास के रास्ते के वैचारिक वर्चस्व को मानते हैं. उनका कहना है कि इसे बुनियादी चुनौती देने वाला अपराधी की श्रेणी में डाल दिया जाता है.हम यह भी कह सकते हैं कि उसे राष्ट्र्द्रोही कह कर बहस हे खत्म कर दी जाती है. ‘विकास सर्वोपरि’ नारे के सहारे यह नागरिक अधिकारों की हर तरह की कटौती को जायज़ ठहराने की कोशिश करता है. उनका कहना है कि एकमात्र वामपंथ ही इस प्रसंग में सुसंगत रवैया अपना सकता है क्योंकि यह पूंजीवाद के परे सोच सकता है. हाल में बंगाल में सिंगुर और नंदीग्राम की घटनाओं के बाद प्रभात के इस तर्क से सहमत होना कठिन है. बंगाल में पूंजीवादी विकास के आदर्श को चुनौती देने वालों को न सिर्फ विकास विरोधी कहा गया, बंगाल द्रोही भी ठहराया गया. उन्हें न सिर्फ अपराधी ठहराया गया , बल्कि जनविरोधी भी कहा गया और राज्य के साथ पार्टी की भी हर ताकत का इस्तेमाल उसे कुचल डालने के लिए किया गया. बंगाल की बाहर विरोध कर रहे बुद्धिजीवियों की खिल्ली उड़ाई गई और उन्हें बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई. विकास के पूंजीवादी आदर्श पर सवाल खड़ा करने के नतीजे क्या हो सकते हैं, यह बिनायक सेन के साथ छत्तीसगढ़ राज्य और न्यायपालिका के व्यवहार से स्पष्ट है. बिनायक के अधिकार के लिए वे भी खुल कर बोले जो विकास के पूंजीवादी आदर्श के हामी हैं लेकिन जनता के आलोचना के अधिकार को लोकतंत्र के लिए सर्वोपरि मानते हैं. इस मसले पर बंगाल में सी.पी.एम. नीत वाम की  जो सतर्क खामोशी बनी रही , वह क्या लोकतांत्रिक अधिकारों के पक्ष में उसकी तत्परता को लेकर आश्वस्तकारी है?

भारत में वामपंथ के इतिहास और उसके  वैचारिक पक्ष से परिचित किसी भी व्यक्ति को प्रभात की यह बात अपाच्य होगी कि वामपंथ पूंजीवाद के परे सोच सकता है. अभी तक किसी वामदल ने ऐसा कोई प्रमाण नहीं दिया है जिससे माना जा सके कि विकास की पूर्वापरता पर आधारित स्तरवार परिकल्पना से आगे वह कुछ सोच सका है. उसकी वैचारिक संरचना में पूंजीवाद के  रास्ते ही समाजवाद  तक जाया जा सकता है. पूंजीवाद से पिछड़ी उत्पादन पद्धतियों और उनसे जुड़े जनसमुदायों को लेकर उसके भीतर तिरस्कार ही है.

प्रभात पटनायक ने बार- बार नागरिक अधिकारों के संकुचन की बात कही है. लेकिन पिछले बरस विविध प्रकार के नए संघर्षों के भी रहे हैं जिनके जरिए लोकतांत्रिक अधिकारों का  विस्तार किया जा सका है. यह बात दीगर है लेकिन वाम पंथ के लिए विचारणीय कि यह सब कुछ प्रचलित वामपंथी राजनीति के दायरे के बाहर किया गया है. अगर गत पांच सालों की चर्चा करें तो सूचना का अधिकार या ग्रामीण रोजगार गारंटी का अधिकार या आदिवासियों के परम्परिक संसाधनों पर अधिकार , ये सभी लोकतांत्रिक अधिकारों के दायरे को विस्तृत करते हैं और ये जनता के लिए वास्तविक  अधिकार हैं. इनके अलावा सीमित अर्थ में ही सही, शिक्षा का बुनियादी अधिकार एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है. इनमें से किसी भी अधिकार की संकल्पना और सिद्धांतीकरण वाम ने नहीं किया. इनके लिए वैचारिक संघर्ष भी वामपंथ ने नहीं किया और न राजनीतिक आन्दोलन. जब ये विचार के स्तर पर ग्राह्य होने लगे और इन्हें समाज में मान्यता मिलने लगी, वाम ने अपना विचारधारात्मक संकोच त्याग कर इन्हें स्वीकृति दी. इस मामले में किसी भी बोर्जुआ दल से बेहतर रिकॉर्ड उसका रहा हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता. बल्कि उसने हमेशा यह मुद्रा अपनाई कि उससे अंतिम वैधता लिए बिना किसी भी संघर्ष का ऐतिहासिक औचित्य साबित ही नहीं हो सकता. इसलिए पिछले समय के लोकतांत्रिक अधिकाओं के संघर्ष में उसने कर्ता की जगह पुरोहित की भूमिका ही अदा की है.

कानूनों की बात अगर छोड़ दें और देश में चल रहे लोकतांत्रिक अधिकारों के संघर्षों को देखें तो मालूम पड़्ता है कि इनमें से ज़्यादातर विस्थापन, प्राकृतिक संसाधनों पर सामुदायिक अधिकार या अस्मिताओं के प्रश्न पर चल रहे हैं. इनमें से प्रायः सबको पारम्परिक वाम ने, सी.पी.एम. जिसका अगुआ है, पहले संदेह से देखा और कुछ का विरोध भी किया, अस्मिताओं को लेकर चलने वाले आंदोलनों का तो खासकर.जैसा पहले भी कह गया है, खुद प्रभात को अस्मिता के प्रश्न को प्राथमिकता देने में और स्वायत्त रूप से सम्मान देने में वैचारिक बाधा मालूम पड़्ती है. गोरखालैंड हो या झारख़ंड, सी.पी.एम. ने इनके प्रति हमेशा विरोधी रुख रखा और इसके लिए बांगला राष्ट्रीयता की भावना का दोहन करने से भी गुरेज नहीं किया. जैसे प्रभात के लिए, वैसे ही विशेषकर सी.पी.एम.के लिए जब तक ऐसे प्रश्न व्यापक वर्ग आधारित वैचारिक परियोजना में अंतर्भुक्त नहीं होते , उनकी वैधता संदिग्ध बनी रहती है.

वामपंथ की मुश्किल यह रही है कि पूंजीवाद के रूप बदलने के साथ वे स्थल संकुचित या लुप्त होते गए जो पहले वर्गाधारित राजनीति के संगठन के लिए पहचाने हुए थे और शास्त्रीय मार्क्सवाद-सम्मत भी थे. संघर्ष के नए स्थलों की पहचान करने के लिए वामपंथ ने पर्याप्त बौद्धिक श्रम या उद्यम नहीं किया. इसलिए जब प्राकृतिक संसाधनों पर हमला बढ़ा तो उसका सामना करने के लिए जनता को अपने साधन और अपनी भाषा भी ईजाद करनी पड़ी. छोटे-छोटे संगठन भी बने जो गैरवामपंथी  प्रतीत हुए. वामपंथ ने जनता की वास्तविक स्थिति जानने के लिए न तो कोई शोध किया और न नए वैचारिक उपकरण खोज पाया. उसमें इतना साहस भी न था कि वह इन आन्दोलनों का खुल कर स्वागत कर सके. समझ की वैकल्पिक भाषा के ‘वर्ल्डसोशल फोरम’ जैसे प्रयास की उसने शुरू में भर्त्सना की. बाद में उसे व्यापक अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलते देख वह सुविधापूर्वक अपने पिछले विरोध को भूल गया और इस प्रक्रिया में न सिर्फ शामिल हो गया बल्कि इसके नेतृत्व में जा पहुंचा. ऐसा करने के पहले उसे अपनी स्थिति में परिवर्तन की व्याख्या की ज़रूरत भी नहीं मह्सूस हुई.

भारतीय वामपंथ चूंकि वर्ग विभाजन के सिद्धांत को सर्वोपरि और जीवन का संचालक मानता है , इसलिए वह जनता को किसी प्रकार की स्वायत्तता देने में उलझन महसूस करता है. बंगाल का समाज इसी कारण पक्ष-वरण करने को बाध्य किया जाता है. सी.पी.एम. का जुलूस निकले और ग्रामीण समुदाय का कोई सदस्य उसमें हिस्सा न ले तो वह निश्चय ही वर्ग-शत्रु के गोल में मिल गया है और इसके लिए उसे दंड दिया जाना उचित ही है. इसीलिए बंगाल में पार्टी द्वारा जनता पर की गई हिंसा को प्रभात जैसे पार्टी बुद्धिजीवी इतना महत्वपूर्ण नहीं मानते कि लोकतांत्रिक अधिकारों के  हनन  के प्रसंग में उसका उल्लेख भी किया जाए. वे इस मामले को तूल दिए जाने के पक्ष में नहीं हैं और नंदीग्राम की हिंसा के शिकार लोगों के न्याय के संघर्ष को भी लोकतांत्रिक मान्यता देने को तैयार नहीं. इस तर्क से 1984 की दिल्ली की हिंसा या गुजरात की 2002 की हिंसा के अपराधियों की  शिनाख्त और इन सबको सजा दिलाने का संघर्ष भी व्यर्थ हो जाता है. या प्रभात यह कहना चाहते हैं कि इतिहास की गति के विरुद्ध खड़ी जनता मनुष्य होने का अधिकार खो बैठती है और ब्रेख्त के शब्दों में उसे भंग कर दिया जाना चाहिए.

भारत में वामपंथ की  ऐतिहासिक भूमिका से इनकार नहीं लेकिन उसे यह सोचना होगा कि वह क्यों अप्रासंगिक होता गया है. यथार्थ के तीव्र गति-परिवर्तन को पह्चान पाने में असमर्थता और बुद्धि-शैथिल्य तथा जड़सूत्रवादी रवैये की जकड़न उसे म्रियमाण बना रही है. यही वजह है कि प्रभात पटनायक को संसदीय राजनीति में एक बार की पराजय की आशंका इतनी भयावह लग रही है कि वे उसे पूरे भारतीय  लोकतंत्र के लिए मरणांतक आघात बता रहे हैं.क्या इसका कारण यह है कि सी.पी.एम. को बंगाल की सत्ता के सुक्षात्मक कवच के हटते ही भारतीय संसदीय राजनीति में सक्रिय वाम पर अपने वर्चस्व के छिन जाने का खतरा है ? लेकिन इस पराजय में सी.पी.एम.से इतर वाम के अपने आप को पुन: परिभाषित करने और अपने लिए नए जीवन स्रोत खोजने का एक मौका भी तो हो सकता है!

17 thoughts on “वामपंथ, माकपा और जनवादी क्रांति बकौल प्रभात पटनायक”

  1. kafila should publish an abstract or brif summary for articles in Hindi. If there is a translation available in web the link can be given.Or better still is to have hindikafila leaving the original kafila for non-hindi readers like me.

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    1. In this day and age when multilingualism has come to be accepted as a norm the world over, it is a pity that the colonial mindset for (linguistically divided) two worlds prevails.

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  2. i am in waiting for that article in urdu too. and why only urdy in all indian language. mr. underdog plz do labour and search original article otherwise you are free to live it. and one solution is also available taht learn hindi as soon as possible. its enhance your understanding strenght.

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  3. Underdog, Kafila has from the beginning had the ambition of being a multilingual blog. As it happens, our resources for languages other than Hindi are relatively limited – though Kafila members participate in their own language debates on other forums quite often. We do not intend to make Kafila an exclusively English blog and hope that increasingly, we will make it more and more multilingual. That does mean that everybody cannot read everything but there will be enough english writing that is accessible to all. We also do not agree with Amitesh’s tone and demand that everyone must learn Hindi. Yes, we all could benefit by knowing as many languages as possible but why should that be true only of Indian languages!

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    1. Thanks much for the effort to post articles in multiple languages. Also, just wanted to point out above that “English writing” is hardly “accessible to all”!!

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      1. AD, Very smart! Let me, in that case inform you that NO language is accessible to ALL – NOT EVEN to all its speakers. Would you like a discussion on that?

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        1. obviously, and I am in total agreement. I’d commented because of a discomfort with the common structure of thought where English stands in for a default monolingual cosmopolitanism vis-a-vis multiple vernacularized languages, which might not have been your intention or argument, and of course one recognizes the practical exigencies of using English as the default for a blog like this.

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  4. Great write up. For the first time i liked Kafila.Thansks Aditya Nigam for posting such articles.

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  5. I am new to Kafila, just about a month old. I have come to think of it as much more inclusive than many other mainstream media. But the way Underdog has been censured for his very moderate comments leaves me disheartened. And Kafila’s own author’s retort that resources in languages other than Hindi are limited is downright bogus. There are plenty of resources to present in English the articles written in other languages (especially from Hindi and Urdu).

    I really appreciate the open-mindedness to make Kafila multilingual. I welcome articles that shall be published in languages other English. It is the content that matters and not the medium.

    However, embracing multilingualism in the digital world can be done in a much better way, I mean, if you really care. It could be as simple as translating your article to other languages (preferably English) using, say, Google’s language tools followed by a quick review. That doesn’t take much time, does it? True, multilingualism is being encouraged everywhere, but the practice of it involves translation (at least transliteration). Open-minded multilingualism is not making certain articles available to a selective linguistic group. When the worlds are divided along linguistic lines you bring them together not by complaining about it but appreciating and accepting the plurality.

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    1. Rahonam,
      May I request you to read what I said in response to underdog:

      “As it happens, our resources for languages other than Hindi are relatively limited – though Kafila members participate in their own language debates on other forums quite often.”

      Please compare this with what you attribute to me:

      “And Kafila’s own author’s retort that resources in languages other than Hindi are limited…”

      It should be clear that I meant our (Kafila’s) resources and not resources in Hindi in general. I really do not understand why you thought I was ticking off underdog; it was simply a clarification in response to his comment.

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  6. wen I open the page and noted that there are 11 comments, I was expecting discussion on the article. But only one comment is on the article and rest about the medium. I am just wondering if anything written in other than english will not generate debate.

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  7. Thanks Arshad. You make an important point. No further comments on the language (medium) issue will be approved – as we have already made our position clear.

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  8. Three people started an organization with the claim of collaboration and cooperation. Few more people joined them as they expected this to an alternative space. In two years time that space was divided on the line of brain(?) and hand(?) and became extremely repressive and a perfect animal farm! (Please note, discrimination doesn’t need caste/colour/religion/gender. It’s in the mind which is constantly looking for privilege. You get rid of one another will pop-up.)

    So expecting a ‘communist’ or ‘socialist’ state to exist is more than a utopia. Whether it was USSR or West Bengal left front government privilege was dominating the imagination of leadership all through the history. Here I am not discussing the technical details on capitalism/state-capitalism or any other debates of political economy. I am particularly focusing on the idea of privilege in a community or a society.

    People like me or Aditya Nigam hang on to these organizations from 7-17 years with a hope and a myth of egalitarianism.

    But interestingly since the Nandigram and Singur occurred most unfortunate thing that unfolded is intellectual community is divided in a binary formation, whether to support Left front or TMC-INC. I am really surprised the way hierarchies (CPM/TMC/Maoists/BJP/any other political organisations) manages to capture the imagination of intellectual community. This reminds of intellectual community of 1930s and 40s only protesting against Fascists and Nazis as if rests of the state mechanisms are working perfectly for the mankind!

    For that matter whole Anna Hazare episode unfortunately also manages the same. And of course the North African and Middle East political turmoil makes (some of) us feel that liberation is at door step!

    What actually happens that in this cacophony of civil rights and righteous politics alternative ideas and thoughts loose voices. We stop listening to other thoughts emerging on social relations beyond these hegemonic representative social conditions. Can we think of a society without representation? In Europe some people are increasingly refusing the hegemony of the state thinking about community based social relations, local currencies, community gardens to grow vegetables. These ideas are not necessarily practical or successful. But surely they are looking for alternatives. These people are not ‘communists’ that is the best part of it.

    While we criticize SEZ and we should think of alternative lifestyle that doesn’t demand so much of repressive industrial production structure? This is the high time that we stop being myopic and looks through the window. The well is not the world!

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