मई दिवस और गणपति

मई दिवस और गणपति में सम्बन्ध ही क्या हो सकता है? दोनों की न तुक मिलती है और न ही अनुप्रास की छटा दोनों के पासपास होने से बिखरती है. फिर गणपति  शुद्ध हिन्दू देवता हैं, गणेश चतुर्थी के अवसर पर तो उनका नामजाप समझ में आता है, लकिन मई दिवस पर उनका आह्वान? इससे बड़ा दूषण हो ही नहीं सकता और इसका दंड उन्हें तो किसी न किसी रूप में भुगतना ही पड़ेगा. सो हुआ.

सती  अनामंत्रित अपने पिता दक्ष के घर गई थीं  और अपमान न सह पाने के कारण उन्हें यज्ञ वेदी में ही कूद कर जल  मरना पड़ा . किसी भी जगह बिन बुलाए  नहीं जाना चाहिए, इसकी सीख देने के लिए   यह कथा वे  सुनाते हैं जिन्हें इस समय भी कुछ कथाएँ याद रह गयी हैं. निश्चय ही त्रिथा को यह प्रसंग या तो पता न होगा या वे इसे भूल गईं जब मई दिवस पर जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में  एक वामपंथी छात्र संगठन द्वारा आयोजित एक संगीत संध्या में मंच पर वे  अनामंत्रित गाने चली गईं. एक तो वे स्वयं अनपेक्षित , अतः किंचित अस्वस्तिकर उपस्थिति थीं , दूसरे आयोजकों और श्रोताओं  को , जो मई दिवस पर संघर्ष और क्रान्ति के जुझारू गीत सुन कर अपने शरीर के भीतर जोश  भरने आये थे इसकी आशंका थी कि वे इस पवित्र अवसर पर जाने  क्या गा देंगी. और आखिरकार  उन्होंने इस आशंका को सही साबित कर दिया, जब वे शास्त्रीय संगीत के नाम पर वक्रतुंड, महाकाय …. गाने लगीं. थोड़ी देर पहले जो  सैकड़ों शरीर हिल्लेले हिलोर दुनिया पर झूम रहे थे, उनसे नहींनहीं का शोर उठा. इस छात्र जनता के नेता जनभावना का आदर करते हुए मंच पर पहुंचे और त्रिथा को अपना गाना बीच में रोक कर मंच से जाना पड़ा.एक मई को जे.एन.यू. में पाकिस्तान के लाल बैंड को सुनाने हज़ारों की तादाद में सिर्फ जे.एन .यू . के ही नहीं , दूसरी जगहों के भी छात्र नौजवान और हमारी तरह के पूर्वयुवा भी पहुंचे थे. इन लोगों के वहाँ  आने की तीन वजहें रही होंगी : कुछ मईदिवस की भावना में  शामिल होने , कुछ हिन्दुस्तानपाकिस्तान मैत्री की भावना के साथ और कुछ तो  सिर्फ संगीत प्रेम के कारण   , जो उन्हें मीलों दूर ले जा  कर रातरात भर जगाता है ,आए थेलालबैंड के पहले पटना की संस्था हिरावल की इस आयोजन  से संगति थी. अपने सादा अंदाज में उन्होंने जो सुनाया , वह वहां इकट्ठा जन समुदाय की इच्छाओं के मुताबिक़ ही था. लेकिन उनके जाने के बाद लालबैंड के गायक ने मंच पर त्रिथा को बुलाया जिन्हें कोई जानता नहीं था. वे युवा हैं, अभी संगीत के क्षेत्र में  जानी नहीं जातीं. फिर यह बताया गया कि वे तीन गीत सुनाएंगी . त्रिथा ने  युवावस्था के कच्चे उत्साह में अपना लाल आँचल लहरा कर कहा कि मैं भी लाल हूँ. उस पूरे माहौल  में स्वीकार किये जाने का यह आग्रह कैसे ग्रहण किया गया , मालूम नहीं. फिर वे गाने लगीं. लेकिन जो गा रही थीं, वह कोई जन गीत नहीं था, न क्रांतिकारी संगीत ही. वह शास्त्रीय  रागों की उनकी आवाज और पाश्चात्य वाद्ययंत्रों के मेल से की गई अदाकारी थी. आवाज़ में दम था तो आशंकित श्रोतावर्ग पर उन्होंने असर छोड़ा. लेकिन तीसरा गीत गणपतिजैसे ही उन्होंने शुरू किया, जनसमूह में बेचैनी की लहर दौड़ने लगी. ‘वापस जाओ‘, ‘गो बैककह कर उन्हें दुरदुराया  जाने लगा.तुरत ही मंच पर आयोजक पहुँच गए और त्रिथा को उन्होंने गाना बंद कर देने को कहा. यह सामूहिक  सहमति से कलाभिव्यक्ति की ह्त्या की एक घटना थी . इसे  बिना प्रतिवाद किये हम सब देखते रहेजो हुसेन से लेकर रामानुजन तक के प्रसंग में अभिव्यक्ति  की स्वतन्त्रता के लिए नारे लगाते हैं 

मेरी किशोरी बेटी ने लौटते हुए पूछा कि लोगों ने त्रिथा को क्यों हटाया. उसे उसकी आवाज़ की ताकत ने मुतास्सिर किया था. मैंने जब आयोजकों में से एक से अपना प्रतिवाद जताया तो उसने बुदबुदाते हुए जो कहा , उसका आशय यह था कि किसी धर्मविशेष से जुड़ी  चीज़ को इस मंच पर इजाजत  देना ठीक न होता. अगले    दिन  अपनी एक विदुषी अध्यापक  मित्र से मैंने इस प्रसंग पर राय जानना चाही तो उन्होंने त्रिथा को रोक दिए  जाने को बिलकुल सही ठहराया. उन्होंने कहा कि  मई दिवस जैसे मौके पर गणपति जैसी हिन्दू चीज़ गाने का कोई तुक नहीं था , इसलिए भी कि जे.एन.यू. एक ऐसी जगह है जहाँ दलित राजनीति बड़ी मज़बूत है.

 तब से मैं इस पूरी तर्क पद्धति को समझने की कोशिश कर रहा हूँ. त्रिथा के गणपति गायन को अगर धार्मिक होने के कारण अनुचित माना गया तो फिर लाल बैंड के फरीद और बुल्लेशाह को किस तर्क से मुनासिब मान लिया गया? सूफी संगीत धार्मिक  और रहस्यवादी तत्वों  से मुक्त नहीं होता. दूसरा तर्क यह था कि मई दिवस इस तरह के गायन का सही अवसर नहीं था. किसी और मौके पर त्रिथा इसी समुदाय के सामने यह गातीं , तो कोई आपत्ति न होती. मई दिवस तो संघर्ष के गीत गाने और सुनने का दिन है

मई दिवस का अवसर है क्या आखिर  ?  मई दिवस  श्रमिकों द्वारा सिर्फ काम के घंटे कम किए जाने के संघर्ष की याद नहीं है. काम के घंटे कम किए जाने की मांग के पीछे श्रमिकों की मनुष्य की तरह जीने की अनिवार्य शर्त, यानी, अवकाश हासिल करने की आकांक्षा थी. अवकाश,  जिसमें वे उत्पादन की अनिवार्यता के दबाव से मुक्त सृजन कर सकें, या अपना पुनःसृजन कर पाएं. वरना मनोरंजन तो मात्र अभिजन का अधिकार रहा  था. गोदान का वह दृश्य याद करें जिसमें राय साहब रामलीला का आयोजन करते हैं. होरीजैसे लोगों को उसके लिए इंतज़ाम भर करना है. उसमें होरी भी हिस्सा लेता है, तो  इसलिए कि वह ग्रामीण  समाज है.  शहरी पूंजीवाद मेलजोल के ये अवसर भी नहीं देता. फिर मजदूर श्रमिक एकदूसरे से मिलें कैसे जब उनके शरीर मात्र उत्पादक यंत्र भर  रह गए हों.

 कार्ल मार्क्स ने अपनी 1844   की पांडुलिपियों  में लिखा , ” जब कम्युनिस्ट कामगार एक दूसरे  से मिलते है, सिद्धांत , प्रचार, इत्यादि उनका पहला मकसद होता है. लेकिन ठीक उसी वक्त, इसे मेलजोल के चलते उनमें एक नयी आवश्यकता का बोध जागता हैसमाज की आवश्यकता. और जो साधन  मालूम पड़ता है, साध्य बन जाता है. इस व्यावहारिक  प्रक्रिया में सबसे उम्दा नतीजे देखने को आते हैं जब फ्रेंच समाजवादी श्रमिक साथसाथ देखे जाते हैं. तम्बाकू के मज़े लेना, खापीना, आदि, अब कोई मिलने का माध्यम भर नहीं  रह जाते. मिलनाजुलना, संगसाथ, गपशप उनके लिए अपनेआप में पर्याप्त है , बंधुत्व उनके लिए नारा भर नहीं, एक जीवनतथ्य है..मानवीय गरिमा  की  प्रभा  से उनके श्रमकठोर शरीर दमकते रहते हैं.”   

दिक्कत शायद यह है कि मई दिवस    संभवतः  श्रमिक के    जीवन चक्र का स्वाभाविक अंग नहीं बन पाया है. यह अभी तक श्रम और श्रमिक जीवन के व्याख्याकारों का आयोजन है , जो पुनः उनके जीवनक्रम में भी कर्तव्यवश है , उससे अभिन्न नहीं  है. वरना जो अभिव्यक्ति उनके लिए  एक जगह स्वीकार्य है, वह यहाँ वर्जित कैसे हो जाती?  दूसरे रूप में यह मुख्यतः उनका आयोजन है जो स्वयं श्रम के अनुभव से विलग हो चुके हैं. जिनकी रोजाना की ज़िन्दगी ही एक जंग है, वे जंग के गीत अलग से नहीं रचते.  जो वे  खुद रचते और  गाते रहे  हैं, वह क्या मई दिवस के मंचों पर कभी सुना जाता है? और क्या वह कभी स्वीकार्य  होगा? वह तो अशिक्षित जन की अपरिष्कृत अभिव्यक्ति होगी

जिनके जीवन में श्रम के अनुभव कम हैं ,संघर्ष के  अनुभवों  का भी  उन्हें आयात करना होता है. एक प्रकार से वे संघर्षरत नहीं, संघर्ष के अनुभव के उपभोक्ता ही रहते हैं. हामिद सर्वहारा है, लेकिन वह ईद मनाता है जब कि उसकी मुक्ति के लिए लड़ने वाले ईद मिलन  का आयोजन करते हैं क्योंकि वह उनके लिए जन संपर्क का एक अवसर होता है.

गणपति को किसने रचा होगा? हाथी से चहरे वाले तुंदियल देवता की कल्पना करने की क्षमता क्या गंभीर दार्शनिकों ने की होगी?  वह वक्रतुंडहै और महाकाय‘   है, उसे लम्बोदर के संबोधन से भी अपमान नहीं लगता. साधारण जन की सर्जनशील प्रतिभा ने ही तो मैथिलों के विद्यापति के लिए शिव जैसे भंगेड़ी और  गणेश जैसे हाजिरजवाब को गढ़ा होगा. वह एक कलानुभाव है जो लोककल्पना को पर्याप्त अवकाश देता है कि वह  उसे तोड़े मरोड़े और  कुछ का कुछ बना दे. वरना वह कला और साहित्य का देवता क्योंकर  होता? शब्द से तो उसकी प्रतिबद्धता इतनी है कि व्यास का डिक्टेशन लेते वक्त कलम गिर जाने के कारण , व्यास के सृजनप्रवाह में बाधा न आए, यह  सोच अपना एक दांत तोड़ कर उसी से लिखना उसने जारी रखा और एकदंत लोकप्रिय हुआ. वह खुद भी हंसता है और बच्चों को हंसाता भी है.

 लेकिन इतिहास बनाने वाले हंस नहीं पाते, हंसी  उनके लिए बाधा है. तभी  तो हमारे कवि ने , जिसका नाम अज्ञेय है , लिखा, ” जिनका इतिहास होता है/ उनके देवता हँसते हुए नहीं होते:/ कैसे हँस सकते?/ और जिनके देवता हँसते हुए होते हैं/ उनका इतिहास नहीं होता/कैसे हो सकता? ” अज्ञेय की कविता पढ़कर मुझे  इस पूरे प्रसंग पर अपने  क्षोभ की  छद्मगंभीरता का अहसास हुआ . तो कवि का उपदेश ही मान लूं, ” इसी बात को लेकर /मुझे आज हंसना चाहिए….” और इस प्रकरण को समाप्त करूँ.  

( First carried by Jansatta in its 6 may, 2012 Sunday number)

19 thoughts on “मई दिवस और गणपति”

  1. इस घटना को उजागर करने के लिए धन्यवाद . जो लोग अपने आपको ‘क्रांति’ के अगुआ और आधुनिक सोच के स्त्रोत दर्शाते हैं वोह असल में संकीर्ण मानसिकता में बंधे हुए हैं और हिन्दू धर्म से शायद उनकी कुछ बनायीं हुई दुशमनी है . JNU को अपनी मानसिकता के बारे में गंभीर विचार करना चाहिए.

    Like

  2. मेरे विचार से
    १. यह जेएनयूएसयू का कार्यक्रम था, इसलिए छात्रों को यह हक था कि जो चीज़ उनकी संवेदनाओं से टकराती है, जिसे सुनने वो वहाँ नहीं आये हैं, तो उसका विरोध करें .. अपूर्वानंद जी शौक से कैम्पस में मंगलाचरण का कार्यक्रम करवाएं, तमाम पूजाएँ तो होती ही हैं, हम (जिन्हें नहीं जाना है)जाएँगे ही नहीं.
    २. बाबा फरीद के गाने लाल द्वारा पहले गाए गए हैं, और धर्म के अन्दर ही धर्म के पाखण्ड से ऊपर उठने की बात उनमें हैं, मुझे किसी भी दिन यह तय करने में कोई परेशानी नहीं होगी कि जन-संतों, कबीर, रैदास, मीरा, बुल्लेशाह, शाह बाहू, बाबा फरीद की रचनाएँ सनातनी श्लोकों से अलग कर देखी जाएँ, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता हर धर्म को मिली है, लेकिन हम अपने कार्यक्रमों में क्या गाया जाना चाहिए और क्या नहीं यह निर्णय कर सकते हैं..
    ३. लेखक के विचार में हमारे अवाम में जो भी प्रचलित है वह जनवादी है, मुझे याद पड़ता है ऐसा ही कोई तर्क जनाब प्रभाष जोशी ने सती प्रथा पर दिया था, जिसके कारण तमाम तगड़ी पत्रकारिता के बावजूद उनका विरोध जरूरी हो गया था. मैं मानता हूँ कि धर्म और जन समुदाय का जो जुड़ाव है उसे समझने की जरूरत है, लेकिन क्या धर्म, और उसके भी प्रचलित तरीकों के ही जरिये मजदूरों-आम लोगों से नज़दीकी रिश्ता कायम किया जा सकता है? और क्या इस हिसाब से शिवसेना अवाम के बहुत नज़दीक है? क्योंकि बड़े बड़े गणेशोत्सव उनकी खासियत रहे हैं.
    यह बड़ा जटिल सवाल है कि अवाम क्या चाहेगी यह कौन तय करेगा, लेकिन मुझे लगता है कि अवाम को नए प्रतीकों से जोड़ने की कोशिश अगर होगी तो वो प्रशंसनीय है, तिलक ने आजादी के आन्दोलन के दौरान गणेशोत्सव -दुर्गोत्सव वगैरह का प्रयोग किया था, लेकिन आज के हालात बदल चुके हैं, हमें नए प्रतीकों की जरूरत है. रही बात संघर्ष के अनुभवों की तो हम में से कई को बिना धार्मिक प्रतीकों को साथ लिए भी संघर्ष का अनुभव है.

    सादर
    इकबाल अभिमन्यु

    Like

    1. मित्रवर मै व्यक्तिगत रूप से आपको नहीं जानता लेकिन अपूर्वानंद जी ने घटनाओ को जिस तरह पेश किया था उसे पढ़ा कर जो आक्रोश मेरे मन में पैदा हुआ था उसे पहली ठंडक आपका कमेन्ट पढ़ कर ही मिली थी . मीरा विश्वनाथन ने बाद में चीजों को और भी उलझा दिया . इस कड़ी का सबसे शानदार लेख http://www.debateonline.in/abhivyakti-ki-aazadi-aur-nak-ka-sawal/ आज सामने आया है. इस लेख ने तो सारा विमर्श ही उलट कर रख दिया है. मजेदार बात यह है कि लेखक ने खुद आपसे, आदित्य निगम और निवेदिता मेनन जी के कमेंट्स से प्रेरित होने की बात लिखी है. बधाई स्वीकार करें.

      Like

  3. Ganapati can also mean ‘tribal head’! So he represents such people who are more deprived than the so-called Dalits!! But the point is it is not proper etiquette to call a singer to sing and then stop it in the middle. The organizers have bungled seriously. It is said: “Familiarity breeds contempt.” So, in a predominantly Hindu society, youth who are already in touch with Ganapati songs and many of them to the extent of getting bored by such, would have felt tremendous pain in having to hear those again on an occasion not at all suitable for such songs; but many of them would not know – not in touch with the Sufi or other Muslim mystic streams and so find no harm or objection in listening to it, just because it is new to them. May Day may not be taken as just fighting day for working people, it can also be taken as a general remembrance day and even rejoicing day – it depends on the moods of people participating.

    Like

    1. Mallikarjuna, I have stated my views on this event in my reply to Apoorvanand, but to respond to part of your comment here, I think you have conveniently appropriated historical scholarship that traces how non-Aryan (adivasi, dravidian, dalit, pagan) deities have been incorporated into the brahminical pantheon as children and wives of the male trinity. This incorporation into supporting roles cannot be seen as “representing” the people whose powerful autonomous deities these were.

      Like

  4. Apporvanand’s anxiety might be coming from his personnel involvement with religion and religious experiences. But representing it in Kaafila with this note, I don’t think will make any deeper sense, what he may be trying to bring a some dialog kind of thing on behalf of Tritha. For more elaboration I just want to express that he completely misses location of political in his description of even. Even when he talks about any ‘Ganesha’ or any this type of mythological bearings, he is bringing the whole discourse in popular kind of mythological description which misses the political location of hermeneutics that is present i what he proposes and now become popular term ‘people’. Here comes the talk of multiple interpretations. For instance only I want to mention here one photograph yesterday which came in ‘the hindu’ where lot of Tribals were lying in the mud and praying for rain to come but this involves different location of interpretation and gives larger connotation than often popularized notion of mythology. List is very long. Quite interestingly India’s first worker’s strike occurred because the arrest of Lokmanya Tilak later popularized as icon of Ganesh Pooja in Maharashtra. But doesn’t it carries malleability in translation and homogenizing the all locations of interpretations under one Umbrella. Struggles carry their own sense of receiving and giving, and I thing here Bakhtin is important to take reference, where he talks about norms of anserwability. Thus the opposition or counter of any popular action involves protest against this one dimensional notion of judgement. We are revising Marx a lot but deeply need to think where the cement of inertia lies.

    Like

  5. अपूर्वानंद, चूंकि मैं खुद भी उस जगह मौजूद था जहाँ का ज़िक्र आपके लेख में है, मुझे आपकी चंद बातों से अपने नाइत्तेफकी का इज़हार करने की ज़रूरत मालूम हो रही है.
    पहली बात तो यह की शायद यह घटना उतनी बड़ी है नहीं जितनी आप उसे बना कर पेश कर रहे हैं. ना ही इसका किसी भी अर्थ में ‘अभिवयक्ति की स्वतंत्रता’ से कोई रिश्ता है. रामानुजन और हुसैन के उदहारण तो मुझे यहाँ बिलकुल गलत और भ्रामक मालूम पड़ते हैं.
    ऊपर इकबाल अभिमन्यु ने अपनी प्रतिक्रिया में जो बातें उठाई है, अपने आप में बिलकुल सही हैं. मैं उन्हें दोहराना नहीं चाहता. मैं यहाँ सिर्फ यह कहना चाहता हूँ की उस घटना के कई पाठ संभव हैं – जिनमें से एक आपने पेश किया है. आप के पाठ के पीछे कई ऐसी मान्यताएं काम कर रही हैं जो दर असल घटना-विशेष से कम, वामपंथ की आपकी (और शायद मेरी) आलोचना और समझ से ताल्लुक रखती है. वामपंथ और मजदूर वर्ग से उसके रिश्ते पर आपने जो कुछ भी फ़रमाया है उससे बुनियादी सहमति के बावजूद भी मेरी अपनी प्रतिक्रिया वहाँ बिलकुल अलग थी.
    मई दिवस क्या है, यह अपने आप में एक सवाल है. आपने लिखा है की दरअसल दिक्क़त यह है की ‘मई दिवस आम श्रमिक के जीवन चक्र का अंग नहीं बन पाया ह’. यह बात अपने आप में दुरुस्त है. दरअसल हमारे यहाँ मई दिवस उस अर्थ में कई कारणों से (जिन पर बहस की यहाँ गुंजाईश नहीं है), एक वामपंथी/ मार्क्सवादी रिचुअल बन कर रह गया है. आम तौर पर चंद औपचारिक मजदूर जुलूसों जुलूसों तक सीमित. मगर मई दिवस की कहानी यहाँ खत्म नहीं होती. मई दिवस एक गाथा है, संघर्ष की एक महागाथा – जिसने ना सिर्फ आम मजदूरों की जिंदगी में काम के घंटे मुक़र्रर कर के बीसवीं सदी में मजदूरों की जिंदगियां बदल डालीं, बल्कि यह उस संघर्ष की महागाथा है जिसके चलते आज जिसे हम जम्हूरियत या लोकतंत्र के नाम से जानते हैं, उसे एक कंटेंट दिया. मई दिवस, नारी दिवस और सफ्फ्राजेट जैसे आंदोलनों के बिना यह जम्हूरियत वह नहीं होता जो वह आज है. लिहाज़ा, मजदूरों के आलावा भी अगर मई दिवस मानाने वाले लोग आज हैं तो उनके इस हक को उन तर्कों के सहारे ख़ारिज कर देना जिन्हें आपने इस्तेमाल किया है, मुझे सही नहीं लगता. ऐसे लोगों को सिर्फ ‘मजदूरों के व्याख्याकार’ कहकर आप मई दिवस मानाने के उनके अधिकार पर ही सवालिया निशान लगा देते हैं.

    अब रही बात उस रोज की घटना-विशेष की, तो वह मुझे कुछ इस तरह दिखाई दी. एक हुजूम था जो मई दिवस के मौके पर पाकिस्तान के लाल बैंड को सुनने जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी में उस शाम उमड़ पड़ा था. लाल बैंड की शोहरत भी एक वामपंथी बैंड के रूप में ही है ओर मेरा खयाल है की शायद ही उस हुजूम में कोई ऐसा था जो बिलकुल मासूम ढंग से वहाँ फक़त संगीत का आनंद लेने चला आया था. हम में से बहुत से लोग तो दरअसल इस बात से भी भी बहुत खुश थे की बरसों बाद सियासत की हवा कुछ बदलने का अहसास उस शाम वहाँ पार्थसारथी रौक्स पर हो रहा था. एक औपचारिक, कर्मकांडी मजदूर जलूस की जगह बदलाव की ख्वाहिश रखने वालों का एक नायाब जमावड़ा – जिसमे हिंदुस्तान और पाकिस्तान के अवाम के आपसी रिश्तों का मसला भी ज़ोरदार ढंग से उठ रहा था. जो लोग इन ख्वाहिशों को लेकर वहाँ आये थे, उनके जज़्बात का आपने जैसे मखौल सा उडा दिया है. मैं अगर सवाल को थोड़ा उलट कर आपसे पूछूं की क्या एक ऐसे जलसे में आने वाले के का क्या कोई दायित्व नहीं? कोई ज़िम्मेदारी नहीं की वह समझने की कोशिश करे या औरों से जानकारी हासिल करे की यह हुजूम यहाँ किस लिए इकठ्ठा हुआ है? दरअसल त्रिथा के खिलाफ पहली खुसफुसाहट मुझे तभी सुनायी देने लगी थी जब अपने पहले ही गाने के बाद उन्होंने अपना प्रचार करते हुए अपनी वेबसाइट और फेसबुक का हवाला देना शुरू किया. ज़ाहिर था की उस कलाकार के लिए यह एक कैप्टिव भीड़ थी जो उसके लिए शायद अपने सेल्फ प्रोमोशन के ज़रिये के सिवा कुछ नहीं थी. मुझे लगा था की कुछ लोग उनके इस व्यावसायिक अंदाज़ से पहले ही बिफरने लगे थे. ‘वक्रतुंड’ ‘महाकाय’ ने तो और आग में घी डालने का काम किया. आप का यह मानना की यह इसलिए था की वह एक हिंदू वंदना थी, मेरे खयाल से सरासर गलत है. हम में से बहुत से लोग अन्य अवसरों पर यह सब सुना और उसका रस लिया ही करते हैं, मगर कुछ खास मौके ऐसे होते हैं जहाँ हम शायद ऐसा करना पसंद नहीं करते. और यह कोई गुनाह नहीं है.
    और अंत में, यह मसला किसी भी तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मसला नहीं बनता. किसी ने किसी को अपनी अभिव्यक्ति से नहीं रोका, बस इतना भर कहा की देखिये, हमारे यहाँ इस वकत मूड कुछ और है और आप बराए मेहेरबानी हमारे घर आकार रंग में भंग ना डालें. इसे आपने रामानुजन और हुसैन से बराबर रख कर मुद्दे को बेवजह गलत ढंग से पेश किया है.

    Like

  6. इकबाल अभिमन्यु और आदित्य ने काफी हद तक वह सारी बातें सामने रखी हैं जो मैं कहना चाहती थी. फिर भी क्यों की मैं वो नाचीज़ हूँ जिसको अपूर्वानंद ने “विदुषी” बताया है, जिसके साथ उनकी ज़ोरदार बहस चली प्रोग्राम के अगले दिन, मैं कुछ आगे भी कहना चाहती हूँ. पहली बात यह की मई दिवस हम सब के लिए माइने रखता है जो एक नयी और न्यायपूर्ण दुनिया की उम्मीद रखते हैं, भले ही उस नयी दुनिया के रूप की हमारी कल्पनाएँ बदलती आई हैं. यह कहना की सिर्फ मजदूरों की ज़िन्दगी में इस दिवस का कोई मतलब है, मुझे लगता है, राजनीति में प्रतीकों के महत्त्व के बारे में नासमझी दर्शाता है. हाँ, अगर मजदूर बस्ती में मई दिवस पर मजदूर लोग खुद गणेश वंदना से कार्यक्रम शुरू करते, तो वह बात अलग है. जितनी भी हमें उससे तकलीफ होती, हम उस बात को समझने की कोशिश करते, उन मजदूरों को दुत्कारते नहीं.
    उस दिन jnu के पर्थसारथी रौक्स में जो माहौल था, एक अरसे बाद jnu में देखने को मिला था. याद रखिये की चार साल बाद स्टूडेंट्स’ यूनियन के चुनाव हुए थे, और यह नए जनुसू का पहला पब्लिक कार्यक्रम था, जिसमें न सिर्फ jnu के छात्र, टीचर और कैम्पस में रहनेवाले अन्य लोग, बल्कि शहर के और कई जगहों से लोग लाल बैंड को मई दिवस पर सुनने आये थे, जैसे आप खुद आये, २० किलोमीटर की दूरी से, जो आप शायद ही एक unknown पर्फोर्मेर से भजन सुनने के लिए करते. हज़ार से ज्यादा लोग थे वहां, और ये सब ख़ास मौके पर और ख़ास अपेक्षाओं के साथ आये थे. जब तक त्रिथा की बारी आई (और यह साफ़ ज़ाहिर था की लाल बैंड के निमंत्रण पर वे वहां थी, न की जनुसू के निमंत्रण पर), उसे समझ आना चाहिए था, भाषण, नारेबाजी और ‘हिरावल’ बैंड के गानों से, की यह कैसा प्रोग्राम था. उसने यह भी कहा – “देखिये, मैंने भी लाल पहन रखा है.” उस ख़ास दिन पर लाल का क्या मतलब है, अगर वे तब तक नहीं समझ पाई, तो उसे पब्लिक पेर्फोर्मेर बनने में अब बहुत देर है. उसके दो पहले गानों को ज़्यादातर लोग आराम से सुन रहे थे, जो बिना शब्दों का फ्यूशन म्यूजिक टाइप का था. थोड़ी सी बेसब्री तो ज़रूर थी, क्यों की लाल बैंड का इंतज़ार था, और आदित्य ने त्रिथा के सेल्फ प्रोमोशन के बारे में भी बताया है. “वक्र तुंड महकाया” जैसे ही शुरू हुआ, मैं खुद चौंक गयी, इससे पहले की औडिएंस से कोई प्रतिक्रया शुरू हुई, क्यों की यह सन्दर्भ गणेश वंदना का नहीं था. वैसे लगा जैसे किसी भक्त को लगता अगर गणेश चतुर्थी के कार्यक्रम पर किसी ने ‘ले मशालें” गाया हो. जैसे इकबाल अभिमन्यु ने कहा, धर्म में भी तरह तरह की परम्पराएं होती हैं, और मसला हिन्दू धर्म का नहीं था, बल्कि एक ख़ास ब्रह्मिनिकल परंपरा का है. अगर त्रिथा कबीर के गाने गाती, भले ही उसमें राम का नाम लिया हो, या मीरा के पद, तब भी इतनी तकलीफ वहां मौजूद लोगों को नहीं होती. गणेश वंदना, बुल्ले शाह और बाबा फरीद को एक जैसे समझना मेरे ख़याल में बहुत बड़ी गलती है.
    अभिव्यक्ति की आज़ादी सन्दर्भ सन्दर्भ में समझी जानी चाहिए, और यह कतई असीमित नहीं मानी जानी चाहिए. मसलन, हम काफिला में “हेट स्पीच” की अनुमति नहीं देते, और हेट स्पीच क्या है, यह हम (काफिला) तय करेंगे. महिला दिवस के जुलूस में लोग “शीला की जवानी” नहीं सुनना चाहेंगे लेकिन उन में से कई लोग उसी गाने पर फेमिनिस्ट दोस्तों के साथ शाम को पार्टी में नाच भी सकते हैं. इसलिए, इस सन्दर्भ में अभिव्यक्ति की आज़ादी, रामानुजन और हुसैन के विवाद को यहाँ लाना बिलकुल अप्रासंगिक है.

    Like

  7. “पहली बात तो यह की शायद यह घटना उतनी बड़ी है नहीं जितनी आप उसे बना कर पेश कर रहे हैं. ना ही इसका किसी भी अर्थ में ‘अभिवयक्ति की स्वतंत्रता’ से कोई रिश्ता है. रामानुजन और हुसैन के उदहारण तो मुझे यहाँ बिलकुल गलत और भ्रामक मालूम पड़ते हैं.”
    अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आखिर होती क्या है ? किस पैमाने पर वह ‘अभिव्यक्ति’ कही जायेगी कि उसकी ‘स्वतंत्रता’ चिंतनीय मुद्दा बने . इस तर्क से तो कोई कहेगा कि ‘जश्ने आज़ादी’ एक फिल्म भर है ( और वो भी सेंसर से पास नहीं हुई है. )
    त्रिथा कौन हैं, मैं नहीं जानता , पर उनकी आत्ममुग्धता , सेल्फ प्रमोशन के किस्से यहाँ और अन्य जगहों पर भी पढ़े हैं . ये किस्से ही उन्हें रोके जाने का कारण बताए जाने के नाम पर लिखे जा रहे हैं . भारत -पाकिस्तान की मैत्री इससे आहत न होती हो तो मैं पूछूं – क्या लाल बैंड के प्रस्तुतीकरण में ये आत्ममुग्धता नहीं थी ?क्या हमारे अपने साथियों में ये सेल्फ प्रमोशन बड़े ही subtle ढंग से नहीं दीखता है . त्रिथा इस परिष्कृत आत्ममुग्धता को प्राप्त नहीं कर पाईं तो यह उनकी मूर्खता है और हमारे पास उन्हें रोके जाने का पर्याप्त कारण ?
    अब हमें पता है कि कम से कम चार लोग थे जो वक्रतुंड महाकाय की असंगति को जानते ( और शायद असहमतियां भी रखते हुए ) भी उस गाने को पूरा होने देना चाहते थे , पर …वे चार थे . यदि , यदि खुदा न खास्ता जनता ( भीड़ नहीं कहूँगा ) लाल बैंड के किसी गीत पे ‘वापिस जाओ’ के नारे लगा देती , और वो कुल जनता का बावन प्रतिशत होती तो क्या उसे रोका जाता ?

    Like

  8. I am amazed to see that the so called progressive people here are writing praises to Ganpati. Who cares whether Ganapati is good or bad or god of masses or etc. Tritha or any other who sings Ganapati vandana in the morning or on any other occasion does not do it to please the ‘tribal head’ or any such thing. He is worshiped under the Brahminical rituals and as one of the Gods which have been used to spread occupation and subjugation of people, to deprive them from their thinking capabilities. Therefore useless points regarding the merits and demerits of a deity is sign of intellectual bankruptcy and victory of Brahminical hegemony where you can only find an understanding of people’s culture under the standards set up by it.

    Freedom of speech yes but all useless talks on Ganapati no.

    Like

    1. I was disappointed that Laal Band of Pakistan could not come for their scheduled performance in Hyderabad. It was one of those rare occasions that I had made up my mind to shell out Rs 1200/- for my ticket – I had even settled with the thought of having to pay for a student who would accompany me to the show. But it was cancelled.

      The I read articles critical of ‘Vakratunda Mahakaya..’ sung prior to their performance in JNU – the posts were from Reyazul Haque on behalf of DSU, a radical left student organisation, a rival of AISA that won the JNU students’ body elections recently. As an nearly elderly anarchist with sympathies towards left anywhere in the world, I felt sorry for AISA that they had to take this heat from DSU. I wished these guys could work together instead of fighting on trivia. Specially because the articles mentioned somewhere that someone had actually stopped the singer from continuing to sing the song.

      Then there were posts by AISA sympathisers on how JNU turned all ‘Laal’ on 1st May.

      And finally these two articles by Apoorvananda and Meera Vishwanathan (tirchhispelling.wordpress.com) intensely critical of JNUSU for stopping Tritha from singing ‘Vakratunda Mahakaya..’ .

      I have listened to Tritha on Youtube. And like most privileged people of my kind, exposed to Jazz and Blues to contemporary hip-hop, I like her – I am madly in love with her music. But I started thinking, if I was one of the audience that day, a 25 year old, on May day waiting for Laal, how would I feel listening to Ganapati from Tritha. Specially, if I was a North Indian student, not cultured in listening to South Indian classical temple music, what would I make of that song. I probably would have wondered why was she singing the Sanskrit devotional stuff there. I can very well imagine that I would have done the same mistake that AISA or other left students did that day. It was a mistake on several counts. First and foremost, once on the stage, Tritha should have been respected and she should have been allowed to finish the song. It would have made the DSU kids a little noisier over the next few days, but left can survive this much of a liberal and tolerant behaviour. After all, she had sung the same piece a few days back at Habitat Centre.

      Meera Vishwanathan in her post makes a point that Ganesha is a ‘people’s God’ appropriated by the Brahamanical culture’ She translates the words in the song to explain this. But do all the students in JNU know this? Honestly, even I, in spite of a fair amount of understanding of Sanskrit words, did not think of this until I read her post. After reading her post, and then with the general theme of Dravidian and tribal cultures appropriated by the Sanskritic tradition in the back of my mind, it kind of made sense. Do members of the Tritha band know this? Perhaps someone amongst the organisers should have explained this to the audience before she started her song?

      Someone among the organisers should have known that her music has no political content. Here is the biggest mistake – knowing that this is what Tritha is, why not discuss the content beforehand and take appropriate cautions – like may be an enlightened MV or some friend like that could have been asked to explain the political aspect of the song.

      A good question is – should everything be political, can’t people enjoy music for what it is? This is where I wonder if we are being too naive to think that an event featuring the Laal band on May day is a purely musical event. I also wonder if we are being naive to think that everyone should look at Sanskrit and Sanskritic tradition as apolitical and accept all interpretations as innocent. Since the readers of this comment are likely to be more educated in such matters than I am, let me just say things are more complicated than they seem. Post facto claims that ‘Ganapati’ is as political as Sufi or Bulle Shah is silly. It is like saying that no, they do not symbolise apparently different political values. Well, I wish it was so.

      Finally, often I feel upset by overwhelming prevalence of revivalist tendencies at the institution where I work. I can imagine that others elsewhere may similarly feel upset when overwhemed by rhetoric from the left. We see with glasses that are tainted by our location. And in reaction, we often make statements that on later thinking may seem a little excessive in, ahem, rhetoric. Apoorvanand is a friend I respect a lot. But isn’t comparing this case with Sati immolating herself after being humiliated by Daksha a little too much? Tritha is hardly going to be affected by what happened on 1st May and we are going to enjoy her music forever. It was a case of intolerance of a kind that needs to be debated alright, but I would not judge it as harshly as Apoorvanand and MV have done.

      An irony is that – Ragtime/Jazz/Blues…– in a way the precursor to most of the interesting fusion music of today and certainly of the kind of fusion that Tritha has – unlike where it all originated, in countries like ours it is the music of the privileged. It is a music that we enjoy while sipping our screwdrivers and bloody Marys, with no feeling of pickin’ cotton on a God damn Sunday in a God damn Southern plantation. It shuns the political space that it came from. Not that this is always true. There are exceptions. And even if there weren’t any, music should be appreciated for what it is.

      Like

    2. “I am amazed to see that the so called progressive people here are writing praises to Ganpati.”

      Why? Are progressives expected not to identify with any religion or deity at all? Or is there a religion or deity that in your opinion is congruent with progressivism.

      “Freedom of speech yes but all useless talks on Ganapati no.”

      That’s not freedom of speech, nor freedom of religion. What exactly DO you stand for, Abdul?

      Like

  9. पिता-पुत्र सम्वाद!

    हिमालय के सफेदपोश पहाड़…
    बैठे हुए हैं इस पर पद्मासन लगाए
    अधखुली आँखें
    वहीं पर मौज़ूद हैं पर्वत-पुत्री गौरी
    ऋद्धि-सिद्धि के साथ-साथ
    गणेश भी हैं गोद में!
    कार्त्तिक कहीं गए हैं घूमने
    बसहा खड़ा ‘पाज’ कर रहा है
    और क्या चाहिए उनको?
    “प्रिय बटुक, पता है तुम्हें-
    कुण्ठा क्या है?
    क्या है संत्रास?
    क्या है मृत्युबोध?
    कैसा होता है आक्रोश का विस्फोट?
    अल्पजीवी और लघुप्राण व्यक्ति से मिले हो तुम?”
    गणेश तुरंत उतर गए गोद से
    चार हाथ की दूरी पर खड़े होकर
    लंबे और लाल होंठ हिलाते हुए बोले-
    “बता तो मैं दूंगा…
    पर आप समझेंगे नहीं!
    हिमालय की सफ़ेदपोश पहाड़ों को छोड़ कर
    नीचे के इलाकों की ओर देखा है कभी?”
    पिता को मौन गंभीर देख कर
    माँ की तरफ देखने लगे गणेश
    तभी, सहज स्नेह से अभिभूत पार्वती बोली…
    “इस तरह भी कोई उल्टा-सीधा बाप को देता है जवाब?
    जाओ गणेश, क्या कहूँ तुम्हें…
    अपने बड़े भाई से कुछ तो सीखा होता!”

    –बाबा नागार्जुन की मैथिली कविता का त्रिपुरारि कुमार शर्मा द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद। साभार- जानकी पुल

    Like

  10. यह अज्ञानी दो बाते कहना चाहेगा ; एक कि सरसरी तौर पर एक मई मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाता है, क्या एक मजदूर सिर्फ वामपंथी ही हो सकता है, क्या कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं ? वह भी उस देश में गणेश वन्दना गई जा रही थी, जहां मजदूरों का एक बड़ा तबका हिन्दू है !
    दूसरी बात : यहाँ पर मार्क्स और माओ के चेले अपनी अपने टांग ऊपर रखने के लिए एडी-चोटी का जोर लगा रहे है! और ये वही वामभक्त है, जो हिंदुत्व वादी संघठनो पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन करने की अपनी भड़ास पानी का घुट पी- पी कर जब तब निकालते फिरते है, इन्हें यह जो इन्होने किया और फिर जो उस किये का समर्थन करते हुए ज़रा भी लज्जा नहीं आ रही? शालीनता से एक पर्ची आगे भिजवाकर भी गायिका से अपने प्रोग्राम को बीच में ही रोकने को भी तो कहा जा सकता था !

    Like

  11. I have read this pade rather late, and am adding my two-bit now only because I think one important point is being missed. The JNU Students’ Union is a public institution – and I think we do demand that such institutions remain ‘secular’ – secular not just in terms of ‘not communal’ but also in terms of ‘not religious.’ The JNUSU simply cannot have prayer on its public platform – be it a Hindu, Muslim, or Christian hymn, without compromising its secular character. It will become like those government offices that have pictures of gods in them. That is not to say such chants or hymns have no place in JNU. Anyone can pray privately or publicly. Even Tritha is welcome to sing in JNU on any other occasion or platform.
    There are those who are making the point that Ganapati hymns are just as secular as, say Bulle Shah or Kabir, because Ganapati has a non-brahmin, tribal lineage. I beg to disagree, having been brought up on Carnatic music with its innumerable, beautiful songs dedicated to that deity, which I continue to listen to with great pleasure. Ganapati today has a place in the Brahminical pantheon of deities. The songs of Bulle Shah and Kabir had a critique of Brahminism and fundamentalism – which critique I fail to find in Vakratunda Mahakaaya. I too was at JNU that night; thanks to my musical training, I do understand every word of ‘vakratunda mahakaya’. But I feel the matter at hand is not Tritha’s freedom of expression or JNU’s tolerance or lack of it. Instead, I feel the issue is JNUSU’s right to decide how it wants to uphold its commitment to keeping its platform secular. The reason why JNU students set up a protesting cry against the hymn was not because it was not what they wanted to hear, but because they recognised that that particular song would be highly inappropriate on JNUSU’s platform. I for one would have been deeply disappointed in JNU had JNU students failed to protest, and instead passively accepted whatever was dished out as ‘entertainment.’ Their reaction showed they were not there as passive consumers looking for instant gratification, but that they were there with some political expectations.

    Like

We look forward to your comments. Comments are subject to moderation as per our comments policy. They may take some time to appear.