संसद राजनीति और लोकतंत्र पर स्कूली किताबों में कार्टून नहीं चाहती है. इस मसले को लेकर संसद के दोनों ही सदनों में सारे राजनीतिक दलों में अभूतपूर्व मतैक्य देखा गया. एक राजनीतिक दल, जिसका नाम नेशनल कान्फरेंस है, इस दमनकारी बहुमत से अलग स्वर में बोलने की कोशिश करता रह गया, उसे क्रूर बहुमत ने बोलने नहीं दिया. आखिर वह एक बहुत छोटे से इलाके का था! मुख्य भूमि में बन रही सहमति में विसंवादी स्वर पैदा करने की अनुमति उसे दी ही कैसे जा सकती थी? उसे उसकी लघुता के तर्क से नगण्य माना जा सकता था. यह स्वर कश्मीर से आ रहा था जिसे भारत का अंग बनाए रखने के लिए देश के क्रूरतम क़ानून की मदद लेनी पड़ती है.
यह विवरण यहाँ अप्रासंगिक लग सकता है.लेकिन मुझे इसमें एक तरह की प्रतीकात्मक संगति दिखलाई पड़ती है. वह संगति असहिष्णुताजन्य अधैर्य के तत्व से निर्मित होती है जो हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को परिभाषित करता है और इसीलिए सरलीकरण की पद्धति उसके चिंतन की दिशा तय करती है.आधुनिक स्कूली और परवर्ती शिक्षा को सरलीकरण के विरुद्ध एक मानवीय उद्यम के रूप समझा जा सकता है. आधुनिक होने के चलते वह चीज़ों और प्रक्रियाओं को उनकी पूरी जटिलता में उद्घाटित करते का यत्न करती है.इस क्रम में वह सतही दृष्टि का प्रत्याख्यान करने का प्रयास करती है.यह कठिन है क्योंकि समाज में व्याप्त सहज बोध निरंतर उसका प्रतिरोध करता है. शिक्षा हमेशा इस सहज बोध को चुनौती देती प्रतीत होती है. उदाहरण के लिए समाज को काला क़ानून कहने की आदत है, पुरुषों को ही नहीं स्त्रियों को भी स्त्री अंगों को इस्तेमाल करते हुए गाली देने की आदत है. शिक्षा इस सामाजिक भाषिक व्यवहार में छिपे पूर्वग्रहों और हिंसा को पहचानने के लिए विश्लेषणात्मक उपकरण जुटाती है. बच्चे के चारों ओर जो सहज है, उसके लिए असहज हो जाता है.संक्षेप में, वह हर चीज़ को संदेह की निगाह से देखना सीख जाता है.शिक्षा को चाहें तो वस्तुतः प्रतिशिक्षा के रूप में ही समझ सकते हैं क्योंकि समुदाय, धर्म , बाज़ार, राज्य अपने –अपने ढंग से स्कूल के बाहर लगातार दिमागों को अनुकूलित करने का काम तो करते रहते हैं. स्कूलों में नियोजित शिक्षा का इसके साथ सम्बन्ध असुविधाजनक ही हो सकता है.
यह शिक्षाशास्त्रीय समझ समाज में बने हुए शक्ति–संतुलन को चुनौती दे सकती है, इसलिए सत्ता–प्रतिष्ठान के साथ उसका सम्बन्ध हमेशा ही असहज रहता है. आधुनिक राष्ट्र–राज्य शिक्षा को एक उपयोगी ,उत्पादक और अनुशासित नागरिक तैयार करने की दृष्टि से ही देख पाता है. शिक्षा उसमें एक स्वायत्त कर्ता की सम्भावनाओं को जीवित रखने का प्रयास करती है. इसी वजह से राज्य शिक्षा की सारी प्रक्रियाओं को नियंत्रित करने का उपाय करता रहता है. नियंत्रण की सबसे सुविधाजनक भूमि बचपन और उससे जुड़े सारे स्थान हैं, स्कूल का नंबर जिनमें सबसे पहला है. क्या बच्चे को एक स्वंत्र निर्णय–क्षमता संपन्न कर्ता माना जा सकता है जिसके अपने अधिकार और उनसे निर्मित होने वाली स्वायत्तता है? 1989 में बच्चों के अधिकार से सम्बंधित अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन में बच्चे के जानने, विचार करने और अभिव्यक्त करने की स्वतन्त्रता को स्वीकार किया गया है. भारत ने इस पर दस्तखत किया है. क्या हमारी संसद इसके वास्तविक आशय को नहीं समझ पा रही है और क्या इसीलिए वह बच्चे की सोचने –समझने की प्रक्रिया को नियंत्रित करना चाहती है?
जिन पाठ्यपुस्तकों को लेकर संसद में बेचैनी है, वे लोकतंत्र और राजनीति पर केन्द्रित हैं. लेकिन वे एक समग्र पाठ्यपुस्तक–रचना प्रक्रिया का हिस्सा हैं जो 2005 के राष्ट्रीय पाठ्यचर्या के सिद्धांतों के अनुसार भारत के श्रेष्ठ राजनीतिविज्ञानियों, इतिहासकारों, भाषाविदों, गणितज्ञों और वैज्ञानिकों ने बाल–मनोविज्ञान के विशेषज्ञों के साथ मिल कर चलाई थी. पलट कर आठ साल पीछे के उन क्षणों को देखना उपयोगी होगा.भारतीय जनता पार्टी नीत गठबंधन के शासन की जगह कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन ने सत्ता संभालने के साथ स्कूली शिक्षा में परिवर्तन करना शुरू किया. 2000 की स्कूली पाठ्यचर्या में एक विचारधाराविशेष के प्रभुत्व से चिंतित बौद्धिक समुदाय ने किताबों और पाठ्यचर्या की समीक्षा की आवश्यकता महसूस की थी. तत्कालीन सरकार ने इसके लिए एन. सी. ई. आर.टी. को यह निर्देश दिया कि वह 1992-93 की स्कूली शिक्षा संबंधी यशपाल समिति की रिपोर्ट को आधार बना कर समीक्षा की प्रक्रिया आरम्भ करे. यशपाल की दिलचस्पी स्कूल को विचारधाराओं की जीत–हार का नकली अखाड़ा बनाने की जगह बच्चे की समझने की प्रक्रिया में अधिक थी. स्कूली शिक्षा को एक संश्लिष्ट अनुभव के रूप में देखने का प्रस्ताव किया गया , पाठ्यपुस्तक जिसका एक ज़रूरी लेकिन एकमात्र साधन न थी. इसके साथ ही शिक्षक की स्वायत्तता को स्वीकार करने पर जोर दिया गया. शिक्षक का काम सिर्फ कुछ विशेषज्ञों द्वारा तैयार राजकीय ज्ञान को छात्र तक पहुंचाने का नहीं था. उसे छात्र के साथ मिल कर कक्षा में ज्ञान –सृजन की अर्थपूर्ण गतिविधियाँ संयोजित करने की आज़ादी की वकालत 2004-5 की पाठ्यचर्या– प्रक्रिया ने की . कहा गया कि यह खामखयाली के अलावा कुछ नहीं. कुछ शंकालुओं ने इसे सैद्धांतिक रूप से ठीक मानने के बावजूद इसकी व्यावहारिकता को लेकर सवाल उठाए. फिर भी यशपाल की दुर्धर्ष आशावादिता ने एन.सी.ई.आर.टी. के तत्कालीन निदेशक कृष्ण कुमार को साहस दिया कि वे अपनी शिक्षाशास्त्रीय समझ का प्रयोग करें . वे अब तक के अपने लेखन में स्कूली शिक्षा के इच्छित राष्ट्रीय छवि निर्मित करने के उपकरण के रूप में उपयोग की आलोचना करते रहे थे.
पाठ्यपुस्तक को पाठ्यचर्या में बच्चे की रचनात्मक और आलोचनात्मक क्षमता के विकास में सहयोगी के रूप में देखा गया. इसलिए वह किसी एक सत्य को मानने की जगह बच्चे को प्रचलित सत्यों को लेकर सवाल करने को प्रवृत्त करने की दृष्टि से निर्मित की गई. अनेक स्थलों पर कहा जा चुका है कि इस काम में अपने –अपने ज्ञान–क्षेत्रों के श्रेष्ठ मस्तिष्क सामने आए. जो पाठ्यपुस्तकें इस प्रक्रिया में बनीं, वे 2004 की पुस्तकों की प्रतिच्छवि नहीं थीं. वे एक नितांत भिन्न जीवन–दृष्टि प्रस्तावित कर रही थीं. शिक्षक और बच्चे का सम्मान और उनकी केन्द्रीयता इनका आधारभूत तर्क था. दूसरे, पाठ्यपुस्तक की रचना एक सम्पूर्ण ऐन्द्रिक अनुभव के रूप मेंकी गई. इसलिए वे अमूर्त धारणाओं की व्याख्या भर नहीं थीं जिनमें शब्दों के अलावा कुछ नहीं रहता है, वे विभिन्न संज्ञानात्मक युक्तियों का उपयोग कर रही थीं. पाठ्यपुस्तकों में कार्टून, जैसा कहा जा रहा है, हास्य के तत्व के सहारे ज्ञान के गंभीर उपक्रम में सिर्फ राहत देने के लिए नहीं हैं बल्कि वे पाठ की संरचना के लिए अनिवार्य हैं , उसके अन्य तत्वों से अभिन्न हैं. पाठ्यपुस्तक–समिति ने जो श्रम इन्हें खोजने , चुनने और फिर इन्हें मिला कर पाठों की रचना में किया है, उसके पीछे एक समग्र दृष्टि काम कर रही है. कार्टून भाषा की अनेक संभावनाओं को अपने भीतर छिपाए रखते हैं. इस रूप में वे प्रश्नों और शंकाओं का अवकाश पैदा करते हैं. उन्हें हटा कर ठीक उसी पाठ की कल्पना करना वैसा ही है जैसे प्रेमचंद की किसी कहानी के पात्र या संवाद को हटा कर कहानी का वही अनुभव उपलब्ध करना.
२००५ के बाद बनी पाठ्यपुस्तकें बच्चों को वयस्कों के अधीन अधूरी कृतियों के रूप में न देख कर चुनाव और निर्णय की क्षमता से संपन्न स्वतंत्र सत्ता के तौर पर देखती और उनसे बात करती हैं. इस समझ के मुताबिक़ उनकी पहचान भी स्थिर , प्रस्तरीकृत नहीं है, उसमें पर्याप्त तरलता है. वे अपनी सामुदायिक पहचानों के बंदी रहने को बाध्य नहीं हैं. जाहिर है , इस पहचान में निरंतर निवेश के जरिये जो इससे राजनीतिक मूल्य अर्जित करना चाहते हैं, उन्हें यह स्वीकार न होगा. इसलिए पाठ्यपुस्तक हो या कुछ और जो बच्चे को स्वतंत्र होने में उसकी मदद करना चाहेगी, उससे उनका द्वंद्व स्वाभाविक है.पिछले दिनों जो संसद में हुआ ,वह पहले से चले आ रहे द्वंद्व का अगला चरण है.
हो सकता है कि इस बार कार्टून हट जाएं और किताबें क्षत–विक्षत कर दी जाएं . लेकिन वह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है. असल बात यह है कि पाठ्यपुस्तक निर्माण के पुराने तरीके की श्रेष्ठता हमेशा के लिए संदिग्ध हो चुकी है और पीछे लौटना अब उतना आसान न होगा. इन किताबों ने शिक्षकों को भी उनकी स्वायत्तता का जो अहसास करा दिया है, उसे भी बुझाना कठिन होगा.
2005-06 में कुछ वामपंथी बौद्धिकों ने इन किताबों का विरोध बच्चों की स्वायत्तता में इनके विश्वास के कारण किया था. आज वे ही इनके साथ खड़े हैं, वे पाठ्यपुस्तक–निर्माण की प्रक्रिया की गरिमा के पक्ष में बात कर रहे हैं. जो अखबार 2006 में इस प्रक्रिया की जटिलता को नहीं समझ पाए थे, वे आज इनकी तरफ से तर्क दे रहे हैं. हमारी समझ बच्चों के बारे में और उन्हें शिक्षित करने की विधियों के बारे में 2005 से आगे ही जा सकती है. 1992-93 की यशपाल रिपोर्ट को भी दफ़न मान लिया गया था. 2004 में उसने नया जीवन प्राप्त कर लिया. उसी तरह 2005 के पाठ्यचर्या और पाठ्यपुस्तक –सिद्धांतों को दफ़न कर देना अब मुमकिन नहीं. प्रेमचंद के सूरदास की तरह ही इस हार को अंतिम न मान कर अगली पारी के लिए तैयार हो जाना चाहिए.
2004-05 में विचारधारात्मक ढांचे से शिक्षा की स्वायत्तता के संघर्ष में ऐसा लगा था कि विचारधारात्मक नज़रिए को पीछे धकेल दिया गया है. 2012 की इस घटना से पता चलता है कि संघर्ष अभी समाप्त नहीं हुआ. बल्कि कोई प्रश्न शायद अंतिम तौर पर कभी हल नहीं कर लिया जाता.
इस बार हमें पता है कि पाठ्यपुस्तकें अगर इस बार एक कदम पीछे हटेंगी तो अपनी कमजोरी के कारण नहीं , बल्कि इसलिए कि हमारे समाज की राजनीति पर अभी असुरक्षा हावी है. क्या हम यह मान लें कि वह हमेशा इसी अवस्था में रहेगी?
बच्चों के बारे में
बच्चों के बारे में
बनाई गई ढेर सारी योजनाएं
ढेर सारी कविताएं
लिखी गईं बच्चों के बारे में
बच्चों के लिए खोले गए
ढेर सारे स्कूल, ढेर सारी किताबें
बांटी गई बच्चों के लिए
बच्चे बड़े हुए
जहाँ थे
वहाँ उठ खड़े हुए बच्चे
बच्चों में से कुछ बच्चे
हुए बनिया हाकिम
और दलाल
हुए मालामाल और खुशहाल
बाकी बच्चों ने
सड़क पर कंकड़ कूटा
दुकानों में प्यालियाँ धोईं
साफ किया टट्टीघर
खाए तमाचे
बाजार में बिके कौड़ियों के मोल
गटर में गिर पड़े
बच्चों में से कुछ बच्चों ने
आगे चलकर
फिर बनाई योजनाएं
बच्चों के बारे में कविताएं लिखीं
स्कूल खोले
किताबें बांटी
बच्चों के लिए। गोरख पाण्डेय
llllppppppPPपाण्डेय
गोरख पाण्डेय मोल
गटर में गिर पड़े
बच्चों में से कुछ बच्चों ने
आगे चलकर
फिर बनाई योजनाएं
बच्चों के बारे में कविताएं लिखीं
स्कूल खोले
किताबें बांटी
बच्चों के लिए।
गोरख पाण्डेय
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