मेरी मिट्टी जब मिट्टी में मिल रही हो तो मुझे तसल्ली रहे और मेरे दोस्तों को भी कि इसने वाकई अपने आप को खाक कर दिया था. मेरी आखें जो और जितना देख सकती हों, देख चुकी हों, मेरी त्वचा जितने स्पर्शों का अनुभव कर सकती थी, कर चुकी हो, मेरे पैर जितना चल सकते थे, चल चुके हों ;मेरे हरेक अंग और एक-एक इंद्रिय ने, कुदरत ने जो कुछ उन्हें बख्शा था और फिर उन्होंने खुद जो कुछ भी उस नेमत में जोड़ा था, सब का सब लौटा दिया हो.मैं अपने आखिरी लम्हे में मिट्टी के अलावा कुछ और न रह जाऊं , अपने साथ जो कुछ कमाया था, उसमें से कुछ बचा ले जाने का अफ़सोस न रह जाए. मैं ऐसी ही मौत और ऐसी ही ज़िंदगी चाहता हूँ.
क्या विनोद रायना ने लैटिन अमरीकी कवि हिमनेज के जीवन-सिद्धांत की इस कसौटी पर खुद को कस कर इत्मीनान की आख़िरी साँस ली होगी?विनोद रायना सिर्फ तिरसठ साल के थे. कैंसर ने जब उनकी हंगामाखेज ज़िंदगी पर शिकंजा कसना शुरू किया होगा और उन्हें इसकी भनक लगी होगी,उन्होंने भी जवाब में अपनी रफ़्तार चौगुनी कर दी होगी,ऐसा मुझे लगता है. क्या एक साल को चार साल के बराबर जिया जा सकता है? क्या आप एक घंटे में चौबीस घंटा कस दे सकते हैं ? विनोद ने जैसे यही करना तय कर लिया हो. लेकिन यह वे कोई अभी ही कर रहे हों,कैंसर की पहली आहट जब उन्होंने अपने शरीर में सुनी होगी, ऐसा नहीं है. हम उनसे मजाक किया करते कि हिन्दुस्तान के ऐसे कोने का नाम बताइये जो आपके चरण रज से पवित्र न हुआ हो! विनोद हमेशा कहीं-से-कहीं के बीच में होते थे. फिर भी आप जब इस बीच उनसे मिल रहे होते तो वे आपसे इतने इत्मीनान से बात करते कि इसका अहसास ही नहीं हो पाता कि यह शख्स अभी एक घंटा पहले ट्रेन या हवाई यात्रा करके आया है और इसे घंटे भर बाद ही कहीं और के लिए रवाना हो जाना है. व्यक्तित्व में यह इत्मीनान दुर्लभ है,विशेषकर उनमें जो ‘एक्टिविस्ट’ कहे जाते हैं. इस वजह से उनसे मिलने वाले किसी में कभी न तो हीनता बोध आया और न अपराध बोध. यह भी विरल है. अक्सर ऐसी मुलाकातों के बाद आप आत्म-भर्त्सना के शिकार हो सकते हैं कि आपकी ज़िंदगी उस एक्टिविस्ट के मुकाबले हेच है, आप किसी काम के नहीं. विनोद ने सामनेवाले को कभी यह अहसास होने नहीं दिया, बल्कि इसका उलटा ज़्यादा ठीक है : हर किसी को यह विश्वास दे पाना कि वह सार्थक जीवन जी रहा है और उसमें संभावना है.
मैंने विनोद को बहुत थोड़े अंतराल पर दो बिलकुल अलहदा क्षेत्रों के विषयों पर होने वाली बैठकों में हिस्सा लेते देखा है. और मैंने यह पाया कि वे जिस क्षण जहाँ होते थे,पूरी तरह वहीं के लिए होते थे. हर लम्हे को उसका पूरा पावना दे पाना दीर्घ अभ्यास और साधना के बिना संभव नहीं. हम पटना के डॉक्टर ए.के. सेन के बारे में कहा करते थे कि वे स्विच ऑन-ऑफ करना जानते हैं.विनोद को कई स्विचों पर नज़र रखनी होती थी.भूल या चूक उनसे शायद ही हुई हो. इसलिए जब उन्हें किसी ख़ास मुद्दे पर काम करने वाला समूह बुलाता था तो उसे आश्वस्ति थी कि वे उसके मुद्दे के साथ पूरी गंभीरता बरतेंगे. ऐसे कुछ ही मौके थे जहां विनोद की उपस्थिति तकल्लुफाना या औपचारिकता हो,प्रायः वह सार्थक हुआ करती थी. इसीलिए अगर किसी ने मात्र उनके यश के चलते अगर एक बार उन्हें बुलाया हो तो फिर वह बार-बार उनसे संपर्क रखना चाहता था.
विनोद में एकाग्रता का यह गुण,जिसने हर क्षण से उसका अधिकतम अर्जित करने की क्षमता उन्हें दी, कैसे आया होगा ? यह तभी संभव है जब आप अपने जीवन के विधाता को पहचान सकते हों. हर किसी का विधाता भिन्न होता है. जीवन को पूर्णता में जीना तभी हो पाता है जब हम सही समय पर अपने इस विधाता को पहचान लें. दूसरे, जब श्रेष्ठता हमारे जीवन का संचालक –सिद्धांत हो. विनोद ने एक बार बताया कि दिल्ली विश्वविद्यालय में भौतिक शास्त्र पढ़ाते हुए उन्हें इसका आभास हो गया कि वे कोई आइन्स्टीन या खुराना या रमन नहीं होने जा रहे.और उन्होंने विश्वविद्यालय में अध्यापन छोड़ देने का फैसला कर लिया. इसके मायने यह नहीं कि उनमें शोध की क्षमता नहीं थी. लेकिन उनकी पुकार कहीं और थी जिसका उत्तर उन्हें ही देना था. उन्होंने विज्ञान के शिक्षण की नई विधि की तलाश का मकसद चुना. और वे होशंगाबाद विज्ञान प्रयोग के लिए रवाना हो गए. दिल्ली छोड़ कर मध्यप्रदेश के इस कस्बे में धूनी रमाना आसान न था. पर वे अपने जीवन से जो सर्वश्रेष्ठ हासिल कर सकते थे उसके लिए यही जगह थी. बाद में ‘एकलव्य’ का निर्माण,राष्ट्रीय साक्षरता अभियान के वक्त भारत ज्ञान विज्ञान समिति का गठन और पूरे भारत से ज्ञान-विज्ञान जत्थों का अभियान और फिर विज्ञान को लोकप्रिय करने के मकसद से पॉपुलर साइंस मूवमेंट का संगठन आगे के तार्किक कदम थे. विनोद रायना पिछली सदी के साथ के दशक की युवावस्था के प्रतीक थे. नेहरू के ज़माने की रूमानियत ने इस पीढ़ी को गढ़ा था. वे युवा मानसिकता की पीढ़ी के सदस्य थे. साठ के दशक में दुनिया के बदलने, उसमें तोड़-फोड़ कर सकने, विद्रोह कर पाने और सपने देख पाने की सलाहियत और कुव्वत थी. उस पीढ़ी के स्वभाव के अनुरूप ही विनोद एक रोमांटिक शख्सियत के मालिक थे.
विनोद लेकिन घोर यथार्थवादी भी थे. रूमानियत ने उन्हें निराशावादी होने से बचाया तो यथार्थवाद ने उन्हें परिस्थितियों की जटिलता का बोध प्रदान किया और उसके लिए आवश्यक सावधानी भी दी.विनोद में ब्रेख्तीय जिजीविषा का कौशल था,यह कि जो जीवन मिला है उसका मूल्य है और उसे किसी काल्पनिक जीवन पर निछावर नहीं किया जा सकता, उसके आगे इसका तिरस्कार एक छल से अधिक कुछ नहीं.शहादत में रूमानियत में उपलब्धि का छद्म संतोष है.जीवन को उसके ब्योरों में जीना कहीं अधिक बड़ी चुनौती है.विनोद ने बड़ी सावधानी से ब्योरों से निबटने की तैयारी की. शिक्षा के बुनियादी हक के क़ानून का मसविदा तैयार करते समय उनके इस अभ्यास ने उसमें ऐसी बातों का प्रवेश कराया जो यों न आ पातीं. याद आता है कि उस मसविदे पर काम करने के दौरान मातृभाषा में शिक्षा के अधिकार का अंश कैसे लिखा जाए, इस लेकर उन्होंने रमाकांत अग्निहोत्री के नेतृत्व वाली एन.सी.ई.आर. टी. की भारतीय भाषाओं के शिक्षण संबंधी समूह के सदस्यों से कितनी बार बात की थी.
ब्योरों को महत्त्व देने के कारण ही संभवत विनोद को शिक्षा पर भरोसा था. उन्हें शिक्षाविद कहा जाता है जोकि वे थे. लेकिन विश्वविद्यालय में अध्यापन छोड़ दने के बावजूद वे स्वभावतः शिक्षक ही थे.शिक्षा हमारी ज़िंदगी के साथ कुछ कर सकती है, हमें ऐसा नुक्ता-ए-नज़र दे सकती है जो उसके बिना हमें न मिलता, यह यकीन उन्हें था. लोगों को शिक्षित किया जा सकता है और किया जाना चाहिए, यह वे मानते थे. इस रूप में वे आधुनिक बौद्धिक थे. उनका विश्वास नएपन में भी था. और इस बात में कि नयापन अपने आप नहीं हासिल होता,उसमें शिक्षा की भूमिका है. उसे आधुनिकता की तिरस्कृत कर दी परियोजना के साथ घूरे पर फेंकने को वे तैयार न थे. इसीलिए शिक्षा को एक बुनियादी इंसानी हक के तौर पर कानूनी मान्यता दिलाने के लिए उन्होंने मशक्कत करना तय किया. यह जितनी जहनी थी उतनी ही शारीरिक. इस क़ानून की अर्याप्तता के बारे में शायद इसके आलोचकों से अधिक वे बोल और लिख सकते थे. लेकिन जीवन और परिस्थितियों की सीमितता के अपने ज्ञान के कारण वे जो मिल रहा था उसे ठुकरा देने को तैयार न थे.
शिक्षा और शिक्षण विनोद रायना के जीवन का सार है. विज्ञान पर उनका भरोसा था लेकिन वे विज्ञानवादी नहीं थे. इस लिहाज से देखें तो कह सकते हैं कि वे नकारात्मक अर्थों में विचारधारात्मक व्यक्ति नहीं थे. वे मूलतः समूहवादी और संवादवादी थे. इसका अर्थ यह नहीं कि उनकी अपनी कोई पोजीशन नहीं थी और वे हमेशा कोई औसत पोजीशन खोजते थे जिसे सब पसंद कर सकें या यह कि वे विवाद से बचते थे. विनोद के मृदु आवरण के पीछे कुछ बुनियादी सिद्धांतों की दृढ़ता थी और यह दृढ़ता ही उन्हें कटु होने या निराशाजन्य क्रोध से में गर्क होने से बचा लेती थी. वे कोई अजातशत्रु नहीं थे. मित्र बनाने की क्षमता उनमें थी और अपने हिस्से की शत्रुता भी उन्होंने कमाई. उनमें लड़ाकूपन खासा था और उसने प्रतिपक्षियों को ज़ख्म भी दिए ही होंगे. लेकिन उनमें संवाद के लिए तत्परता और उत्सुकता हमेशा पाई जाती थी.
विनोद संगठन के व्यक्ति थे. संगठन ने तो गांधी के व्यक्तित्व को भी क्षरित किया था. विनोद का व्यक्तित्व भी संगठन के अपने तर्कों से हमेशा निर्दोष बच पाया हो, संभव नहीं. लेकिन अपनी सख्त पसंद नापसंद के बावजूद मैंने उन्हें अप्रिय से अप्रिय व्यक्ति और परिस्थिति के साथ काम करने से कतराते नहीं देखा अगर वह किसी वृहत्तर उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ज़रूरी हो.
विनोद मार्क्सवादी थे लेकिन कठमुल्लापन उनमें न था. उन्हें इसका पूरा आभास था कि इक्कीसवीं शताब्दी का मानवीयता का संघर्ष ऊर्जा और पर्यावरण की नई समझ के बिना मुमकिन नहीं. वर्गीय संघर्ष से नज़र हटाए बिना वे इस नए ब्रह्मांडीय पैमाने के संकट की व्याप्ति के प्रति भी सचेत थे.
अपनी संगिनी अनीता रामपाल के साथ संगीत का आनंद उठाते,पुलिस की हिरासत में डूब कर गीत गाते जिसने विनोद को देखा है , वह जानता है कि वे मुक्तिबोध की जगह वे भी यह कह सकते थे,“ज़िंदगी बड़ी तल्ख़ है, लेकिन मानव की मिठास का क्या कहना! जी होता है सारी ज़िंदगी एक घूँट में पी ली जाए.”
( 14.09.2013 की जनसत्ता में प्रकाशित लेख का विस्तृत रूप)
बहुत बढ़िया और दिल छूने वाला आलेख, अपूर्व. बधाई!
विनोद जी का आकषर्क व्यक्तित्व्रअौर विचार ,हमेशा याद रहेंगे.श्रृद्दांजलि.
विनोद रायनाजी को एक-दो बार सुना और उनके कुछ आलेख’ भी पढे थे लेकिन इस आलेख में अपूर्वानन्द जी ने उनके बारे में विस्तृत और सार्थक जीवन के लिए प्रोत्साहित करने वाले एक महान शक्शियस के लिए लिखा है, इस आलेख से एक बार पुन: हमारा सिर उनके प्रति श्रदा से झुका दिया और प्रेरणा के रूप में आस्था जागृत की है। — ख्यालीराम स्वामी (शिक्षा विमर्श)
I knew Vinod from mid 1980s when Adult Literacy and Non-formal Education were prominent in then Ministry of Education. His emphasis on science teaching in Non-formal education was a major contribution. He lived a life that was full of energy and creativity. Loss of a good friend.
He was a motivator for all activists and a friend and guide for all of them. He lived education and breathed for it. He was a brilliant orator and the whole science movement will feel the void left by him
Aaj hame vinod rayana se sikhane ki jarurat hai ki bina ruke bina thake kis tarah ham samaj ko kuchh behtar de sake or iske liye hame apne virodhiyo se bhi madad ki jroorat ho to to ham leor hamare pas kuchh hai to de.
Aaj hame vinod rayana se sikhane ki jarurat hai ki bina ruke bina thake kis tarah ham samaj ko kuchh behtar de sake or iske liye hame apne virodhiyo se bhi madad ki jroorat ho to to ham leor hamare pas kuchh hai to de.
Bahut Umda lekh.
Vinod was someone who could make time
he had the ability to draw out more from every moment, every breath, every hour and every day and it was this ability that made him achieve so much in 60 odd years that we will not be able to do even if we had twice as much time as he had.
Dear Apoorva thank you this.
I always found Raina in good mood , always looking for creative activities , always positive and energatic. I enjoyed many musical evenings with the couple. He knew how to enjoy music. He did his best for the society. R I P vinod bhai. You will always be remembered by us.