दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जानेवाला हिन्दोस्तां और दुनिया के सबसे ताकतवर लोकतंत्र में शुमार संयुक्त राज्य अमेरिका – जो पिछले दिनों बिल्कुल अलग कारणों से आपस में एक नूराकुश्ती में लगे हुए रहे हैं – के दो अहम शहर न्यूयॉर्क और दिल्ली, पिछले दिनों लगभग एक ही किस्म के कारणों से सूर्खियों में रहे। अगर न्यूयॉर्क में मेयर पद पर डी ब्लासिओ का चुनाव और उनका शपथग्रहण, जिन्होंने 12 साल से कायम रिपब्लिकन नेता को बेदखल किया, और सबसे बढ़ कर उनका प्रोग्रेसिव एजेण्डा सूर्खियों में रहा तो सूबा दिल्ली में एक साल पुरानी पार्टी ‘आप’ (आम आदमी पार्टी) के नेता अरविन्द केजरीवाल और उनकी टीम ने सूर्खियां बटोरी।
दोनों को एक तरह से आन्दोलन की ‘पैदाइश’ के तौर पर देखा गया।
दो साल पहले अमेरिका में ‘आक्युपाई वॉल स्ट्रीट’ के नाम से खड़े आन्दोलन ने आर्थिक विषमता पर बहस को एक नयी उंचाई दी थी, जब उसने 1 फीसदी बनाम 99 फीसदी का नारा दिया था, हजारों लोगों की सहभागिता ने और उनके अभिनव तौरतरीकों ने पूरी अमेरिका के मेहनतकशों में नयी ऊर्जा का संचार किया था। डेमोक्रेट पार्टी से जुड़े शहर के वकील डी ब्लासिओ ने आन्दोलन की हिमायत की थी, एक अस्पताल की बन्दी को लेकर चले विरोध प्रदर्शन में उनकी गिरफ्तारी भी हुई थी। मेयर पद के लिए चले चुनाव प्रचार के दिनों में ही उन्होंने रईसों पर अधिक कर लगाने की बात की थी और ‘रोको और तलाशी लो’ जैसे न्यूयॉर्क पुलिस के विवादास्पद कार्यक्रम को चुनौती दी थी। वहीं अरविंद केजरीवाल , जनलोकपाल के लिए चले आन्दोलन जिसे लोकप्रिय जुबां में ‘अण्णा आन्दोलन’ कहा गया, उसके शिल्पकार कहे गये और उसके बाद अम्बानी जैसे कार्पोरेट घरानों का पर्दाफाश, सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाडरा के आर्थिक सौदे में कथित तौर पर नज़र आनेवाली अनियमितताओं को उजागर करने या महंगी बिजली का विरोध करने के लिए कई स्थानों पर बिजली का तार भी जोड़ते देखे गए।
तय बात है कि अब जब दोनों की ताज़पोशी हुई है, लोगों की उम्मीदों को नयी उंचाइयों पर ले जाने में सफल दोनों अग्रणियों के हर कदम पर पारखी लोगों की निगाह रहेगी। अपनी तकरीरों में शहर में ही बसे ‘दो शहरों’ की बात करनेवाले डी ब्लासिओ, जो अपने बहुनस्लीय परिवार के लिए भी मशहूर हैं – जिनकी पत्नी अश्वेत समुदाय से हैं – की कथनी और करनी के अन्तराल को लगातार जांचा जाएगा, उसी तरह सियासत में सादगी लाने के लिए प्रतिबद्ध कहे जानेवाले जनाब केजरीवाल – जो लालबत्ती संस्कृति को अलविदा करना चाहते हैं – उन्हें भी मीडिया से लेकर अन्य राजनीतिक पार्टियों की सतत निगरानी को झेलना पड़ेगा।
अगर अपनी चर्चा को भारत पर फोकस करें तो इसमंे कोई दोराय नहीं कि केजरीवाल के आगमन ने भारत की सियासत में चल रही मोदी की चर्चाओं पर थोड़ा विराम लगा दिया है, सोशल मीडिया पर भी वह मोदी से अधिक लोकप्रिय स्टार दिख रहे हैं, राजनीति करने के उनके गैरपारम्पारिक प्रयास ने कई ऐसे तबकों को राजनीति में लाने का काम किया है जो आम तौर पर हाशिये पर ही दिखते थे, आम लोगों में भी यह विश्वास एक हद तक जनमा है कि वह चाहे तो राजनीति की धारा बदल सकते हैं, एक पारदर्शी किस्म की राजनीति को रिकवर करने, नयी तकनीक का बखूबी इस्तेमाल करने में वह आगे रहे हैं। यह अकारण नहीं कि दक्षिण से लेकर वाम तक सभी पार्टियों ने ‘आप’ से सीखने की बात की है। आप की बढ़ती लोकप्रियता का आलम है कि कार्पोरेट बोर्ड में बैठनेवाली शख्सियतो से लेकर फिल्म स्टार तक, अनुभवी राजनेताओं से लेकर नवस्नातक तक सभी उससे जुड़ने के लिए लालायित दिखते हैं।ै
प्रश्न उठता है कि क्या वह सबकुछ कर पाएगी जिस भरोसे के साथ नए नए लोग उससे जुड़ रहे हैं।
दिल्ली की विशिष्ट परिस्थिति जिसमें कांग्रेस शासन के भ्रष्टाचार के तमाम काण्डों एवं महंगाई के चलते पनपे लोगों के सुषुप्त गुस्से को वह अपने पक्ष में कर सकी, उस किस्म की स्थिति और किसी राज्य या इलाके में फिलवक्त नहीं दिखती। अब जबकि सत्ता की बागडोर उसे कांग्रेस द्वारा दिए गए बिनाशर्त समर्थन से मिली है, तब किस तरह इन अलग अलग तबकों को साथ में ले जा सकेगी, जनता की जबरदस्त गुडविल के चलते आगे का रास्ता उसे फिलवक्त सुगम जान पड़ता हो , मगर उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि यही गुडविल काफूर होने में अधिक वक्त नहीं लगता। उसे यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 24 7 मीडिया – जिसने जनलोकपाल आन्दोलन के दिनों में अरविन्द केजरीवाल और उसकी टीम का जबरदस्त साथ दिया है – और उसे मिली सफलता के बाद अब फिर एक बार उसे सर आंखों पर लिए हुए है, वह भी इस मामले में संकोच नहीं करेगा कि अवसर दिखने पर वह भी कूद पड़े। मीडिया के लिए सर्वोपरि है टीआरपी रेटिंग।
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‘आप’ की सफलता के सन्दर्भ में पहले ही यह स्पष्ट करना जरूरी है कि यह कोई पहला अवसर नहीं है जब पहले आन्दोलन और फिर पार्टी के गठन जैसे प्रयोग को हम लोग देख रहे हैं। विगत कुछ दशकों में चले आन्दोलनो में भ्रष्टाचार के खिलाफ चले ‘नवनिर्माण आन्दोलन’ को देखें या उसके बाद बिहार आन्दोलन को देखें, या असम गण परिषद के अनुभव को देखें, मुद्दा आधारित आन्दोलन से सत्ता की राजनीति की तरफ चलने के प्रयास इसके पहले भी हुए हैं।
‘आप’ की सर्वाधिक अधिक परीक्षा दरअसल भ्रष्टाचार के उसी मुद््दे को लेकर होगी, जिसकी बात अरविन्द और उसके वालेंटियरों ने लगातार की है। ‘सच की राजनीति और स्वराज्य का संकल्प’ लाने के लिए अपने आप को प्रतिबद्व कहलानेवाली आप भ्रष्टाचार को लेकर सरकारी मशीनरी को चुस्त करने की, दुरूस्त करने की बात अपने घोषणापत्रा में करती है। और उसने उन संरचनात्मक कारणों की लगातार अनदेखी की है कि भ्रष्टाचार -जिसे आम जनमानस में भी ‘अवैध लूट’ का दर्जा हासिल है – का मुल्क की आर्थिक नीतियों से क्या रिश्ता हो सकता है। एक अहम सवाल हमेशा ही पीछे छूटता रहा है कि कि ‘अवैध लूट’ का उजागर होता हिमखण्ड का सिरा पूंजी के इस निजाम में सहजबोध बने ‘वैध लूट’ के विशाल हिमखण्ड से किस तरह जुड़ा है।
मिसाल के तौर पर हम कार्पोरेट क्षेत्र को मिलनेवाली छूट को देखें, क्या उन्हें हम नीति का हिस्सा मान सकते हैं या भ्रष्टाचार का ? उदाहरण के लिए विडिओकान नामक चर्चित कम्पनी के बारे में ख़बर आयी थी कि उसने टैक्स बचाने तथा अन्य वजहों से तीन सौ सबसिडीअरी कम्पनियोका निर्माण किया है और यह सब ‘कानूनन’ किया है। उसी तरह से दो साल पहले ख़बर आयी थी कि किंगफिशर एयरलाइन्स के बारे में समाचार छपा कि उसे कर्जे से उबारने के लिए सरकारी बैंकों से कहा गया है जो उन्हें बेहद सस्ते दर पर ऋण मुहैया कराएंगी। सरकारी बैंकों के नानपरफार्मिंग एसेटस अर्थात ऐसे ऋण जो लम्बे समय से लौटाए नहीं गए हैं, उनका भी वही किस्सा है। कुछ समय पहले सीपीआई से सम्बद्ध टेªड यूनियन के नेता ने अख़बार को बताया था कि किस तरह बैंकों के एनपीए का नब्बे फीसदी से अधिक हिस्सा बड़े छोटे पूंजीपति घरानों के नाम होता है, जो कभी उसे लौटाने की बात भी नहीं करते और कुछ समय बाद ‘खराब कर्जे’ कह कर उसे लेखाजोखा विवरण से भी हटा दिया जाता है। आम किसान या मजदूर द्वारा लिए गए छोटे मोटे कर्जे की वापसी न होने पर उसे गिरफ्तार करने के लिए पहुंचती सरकारी मशीनरी ऐसे कर्जो पर नोटिस भेजना भी मुनासिब नहीं समझती। स्पेशल इकोनोमिक जोन्स अर्थात विशेष आर्थिक क्षेत्रा की बहुचर्चित नीति को भी देखें जहां अरबों रूपए के भूखण्ड मामूली दामों पर पूंजीपति घरानों को सौंपे जाते हैं जहां अपने मनमाफीक नियम बना कर काम कर सकते हैं, उसे क्या कहेंगे।
यह बात सर्वविदित है कि 90 के दशक के शुरूआत से भ्रष्टाचार में जबरदस्त उछाल आया है। आखिर क्या वजह रही होगी इस उछाल के पीछे। भ्रष्टाचार बनाम सदाचार जैसे द्विविध अर्थात बाइनरी में यकीं रखनेवाले लोग कह सकते हैं कि इसका ताल्लुक लोगों के अधिक बेईमान होते जाने से जुड़ा है। निश्चित ही यह स्पष्टीकरण नाकाफी है। किसी अलसुबह सारे नेतागण/नौकरशाह अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को पूरी तरह निभाते हुए काम करने लग जाएं तो भले सरकारी संसाधनों की ‘अवैध कही जा सकनेवाली लूट’ भले बन्द होगी मगर वह सिलसिला पूरी ‘वैधता’ के साथ चलता रहेगा, जो सरकारी नीतियों के तहत सामने आता है।
एक बात जो आसानी से समझ में आती है कि इस दौरान मुल्क की आर्थिक नीतियों ने एक तरह से करवट ली है।
विदित हो कि 90 के दशक में राव-मनमोहन सिंह जोड़ी के सत्तासीन होने के बाद आजादी के बाद से चली आ रही आर्थिक नीतियों के साथ एक रैडिकल विच्छेद किया गया था और बाजारशक्तियों को खुली छूट देने का सिलसिला तेज हुआ था, उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के लिए रास्ता सुगम किया गया था। नवउदारवादी आर्थिक फलसफे के तहत राज्य द्वारा आर्थिक गतिविधियों में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप को न केवल निरूत्साहित किया गया था बल्कि साथ ही साथ पूंजीपतियों की आर्थिक गतिविधियों पर राज्य द्वारा पहले से चले आ रहे नियमनों को लगातार ढीला किया जाता रहा। यही वह दौर था जब तमाम नए पूंजीपति सामने आए जो जल्द ही पहले से स्थापित पूंजीपति घरानों को टक्कर दे सकते थे। निचोड के तौर पर 1991 के पहले के दौर और 91 के बाद के दौर की तुलना करें तो कई फरकों को आसानी से देख सकते हैं। 91 के पहले के दौर की खासियत के तौर पर चन्द बातें चिन्हित की जा सकती हैं: राज्य का नियमन, पूंजी पर नियंत्राण, उदा मोनोपाली एण्ड रिस्ट्रिक्टिव प्रेकिटसेस एक्ट, आयात प्रतिस्थापन, आर्थिक विकास दर धीमी, वहीं 91 के बाद साफ तौर पर राज्य के नियमन में कमी, पूंजी को खुली छूट, उदारीकरण-निजीकरण-भूमण्डलीकरण की नीतियां, बाजारशक्तियों को खुली छूट, विकास दर तेज आदि बातें नज़र आती हैं।
कहने का तात्पर्य यही कि भ्रष्टाचार महज पोलिटिकल क्लास की बेईमानी (जो अपने आप में एक विराट परिघटना है) का मसला नहीं है बल्कि उसका ताल्लुक हुकूमत सम्भालनेवालों की तरफ से अपनायी जाती आर्थिक नीतियों से भी अभिन्न रूप से जुड़ा मसला है।
साल भर पहले इकोनोमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली’ (16 फरवरी 2013) के अंक में जनाब एस पी शुक्ला ने आप के ‘विजन डाक्युमेट’ की समीक्षा करते हुए कहा था। ‘विजन डाक्युमेण्ट बीमारी का उसके लक्षणों के साथ घालमेल करता है। वह अमीरों एवं गरीबों के बीच बढ़ती खाई की बात करता है,… मगर कहीं भी वह समस्या की जड़ में नहीं जाता जिसका ताल्लुक शासक वर्गों द्वारा अपनायी गयी नवउदारवादी नीतियों से है, जिसमें न केवल सत्ताधारी एवं विपक्षी पार्टियों के संकुल शामिल है, बल्कि बड़ी पूंजी और सम्पन्न मध्यम वर्ग भी शामिल है …क्या ‘आप’ के अनुयायियों का अच्छा खासा हिस्सा समाज के इसी तबके से जुड़ा है, जिसके चलते इस दस्तावेज के पीछे अन्तर्निहित विजन/दृष्टि विकृत एवं धंुधली हो गयी है।’
दलितों, आदिवासियों एवं अन्य पिछड़ी जातियों के लिए प्रदत्त रिजर्वेशन को लेकर भी उसका यही विभ्रम नज़र आता है। वह इस हकीकत से भी अनभिज्ञ दिखता है कि भारत के संविधान ने ऐसे विशेष कदम उठाने की बात कही थी। एस पी शुक्ला स्पष्ट लिखते हैं कि ‘सामाजिक अन्याय की लम्बे समय से चले आ रहे पैमाने को विजन डाक्युमेण्ट में उल्लेखित ‘आर्थिक पिछड़ेपन’’ के समकक्ष नहीं रखा जा सकता। इस तरह का विरोध आरक्षण के विरोधी करते रहे हैं।’
(‘जनवाणी’ में प्रकाशित लेख का अविकल रूप)
समुद्र मंथन तब और अब
———————-
अंततःअसुरों की हार हुई
तय थी
समुद्र मंथन में
असुर जो ठहरे
उन्हीं का सहारा
अमरत्व का झाँसा
वे हारे
छल / धोखे से
रणनीतिक साझेदार
भगवान विष्णु कच्छप
वासुकि नाग रस्सी
मन्दराचल पर्वत मथानी
भीषण गर्जन हुआ
चौदह रत्नों को निकलना ही था
कामधेनु ऋिष ले गये
एरावत इन्द्र
विष्णुजी को स्वयं वरा माँ लक्ष्मी ने
अप्सरा रंभा
देवलोक गई
इन्दर सभा में रिझानें लगी
बाक़ी रत्नों का भी देव न्याय हुआ
असुरों के हाथ लगा अमृतघट
बल से
हताश देवत्व
भगवान मोहनी बने
नैन बाण चलाये रिझाया
असुरों को सोमरस पिला मदहोश किया
अमृत पंक्ति में जा बैठा चालाक राहू
कंठ से अमृत उतार न पाया
धड़ से सिर कटवा बैठा
‘सुदर्शनचक्र’ के वार से
राहूू-केतु बन पड़ा है अभी
भुनभुनाता आकाश की किसी लूप लाईन में
प्रभु तेरी लीला अपंरमपार
तेरी माया तू ही जानें
*
छल आज भी हुआ
आम आदमी के संग
नाम उसका लिया
वैश्विकरण के अनुष्ठान / विकास मंथन में
शामिल नहीं किया
हाशिये पर बैठाया
विचार विहीन मंथन
दंुदुभि बजी
रत्नों का ज़ख़ीरा निकला
स्विस बैंक लाकर की चाबी
स्वर्ण भंडार / करंसी चेस्ट / कुर्सियाँ
कोयला खदानें / गैस भंडार / खनिज / स्काच
भू सम्पदा / वन / स्पेक्ट्रम
एअरपोर्ट / पावर स्टेशन / थाई मसाज
भौतिक सुख
मंथन के साझेदार बने
नेता / सरकार / अधिकारी / अपराधी / उद्योगों के’पति’
देशी विदेशी कंपनियाँ
‘सेज’की सजी सेज तश्तरी में
सत्ता का मक्खन
‘श्रेष्ठी वर्ग’के हाथ
मंथन में सुमरनियां मिली
बीस सूत्रीय / ग़रीबी हटाओ / फ़ीलगुड / मंदिर बनाओ
मंडल लाओ / कमंडल भगाओ
साम्प्रदायिक ज़हर
कुछ साफ्टवेयर नौकरियाँ / पैंसठ वर्ष के जवान सपने
मनरेगा / बीपीएल कार्ड
खजुराहो -सेफई महोत्सव
लाड़ली योजना / मुफ्त तीर्थ यात्रा / पोलियो का टीका
आम जन की छाछ
ता ता थैया
‘छछिया भरी छाछ पे नाच नचावे’
मध्यमवर्ग फेरने लगा सुमरनी
गिनने लगा मनके
चंद सुख के टुकड़े उछले भुक्कड़ो की जमात में
भगदड़ मच गई
मंथन अभी चल रहा
उम्मीद अभी बाक़ी है
पिक्चर अभी बाक़ी है
***
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It is a post from Countercurrents:
Topi Pahno Na Pahno
(Wear the Cap or Not)
By Braj Ranjan Mani
05 January, 2014
Countercurrents.org
Topi pahno na pahno dimaag khula rakkho
Ho arsh par ya farsh par dil dariya rakkho
Nek aur sachche ho to koi kasar kyun rakkho
Har buraai ke khilaf inqalaab zinda rakkho
(Whether you wear the cap or not, keep the mind open.
High in the sky or low on the ground, keep the heart open.
If you’re good and truthful, why don’t you go all the way.
Against every wrong keep the revolution alive.)
Nek se ek aur behtar banane ka jazba rakkho
Aur bhi hain umde log aur vichar yaad rakkho
Bechain log bahut hain darwaza khula rakkho
Har tangdili ke khilaf inqalaab zinda rakkho
(Use goodness to aspire and strive for the better—
Bond with other good folks, other good ideas.
For them, for all the restless souls, keep the doors open.
Against all pettiness keep the revolution alive.)
Amiron ka nahin faqeeron ka tareeqa rakkho
Jo hain bebas bacche sabse aage unko rakkho
Kisi ko doodh ya phool ka mohtaz mat rakkho
Har saazish ke khilaf inqalaab zinda rakkho
(Embrace the ways of the selfless, not of the wealthy.
Value the vulnerable, restore them their dignity.
Get all kids food and flowers, let them blossom.
Against all withholding keep the revolution alive.)
Baz ko kabootaron ka sarparast mat rakkho
Badmashi ka koi ho rang virodh jari rakkho
Andhera ab jeet lenge log koshish jari rakkho
Har jor-zulm ke khilaf inqalaab zinda rakkho
(Don’t put the doves under the protection of falcons.
Uncover, confront whatever the hues of villainy.
It’s time the suffering people wage the war and win.
Against all atrocities keep the revolution alive.)
Satta se aage hai manzil sangharsh jari rakkho
Laro haro jito lekin chingari sulagaye rakkho
Andhera to hai par dil ka diya roshan rakkho
Har nainsaafi ke khilaf inqalaab zinda rakkho
(The goal is not power politics, keep the struggle up.
Contest, fight, win or lose, but don’t give up the fire.
Yes, there is darkness still, light your heart bright.
Against every injustice keep the revolution alive.)
Topi pahno na pahno dimaag khula rakkho
Ho arsh par ya farsh par dil dariya rakkho
Nek aur sachche ho to koi kasar kyun rakkho
Har buraai ke khilaf inqalaab zinda rakkho
(Whether you wear the cap or not, keep the mind open.
High in the sky or low on the ground, keep the heart open.
If you’re good and truthful, why don’t you go all the way.
Against every wrong keep the revolution alive.)
Braj Ranjan Mani is the author of Debrahmanising History: Dominance and Resistance in Indian Society (2005). Manohar has recently published Mani’s important new work Knowledge and Power: A Discourse for Transformation.
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