हैदर: नैतिक दुविधा का बम्बइया संस्करण

 

“एकतरफा,स्त्री विरोधी और अतिसरलीकृत सपाटदिमागी… रूपात्मक और सौन्दर्यात्मक दृष्टि से भी ‘हैदर’ एक लचर और बोरिंग मसाला फिल्म है जो बहुत लंबी खिंचती है.”

कायदे से दर्शन के युवा अध्येता ऋत्विक अग्रवाल की इस समीक्षा के बाद ‘हैदर’ के बारे में और कुछ  नहीं कहना चाहिए. लेकिन ‘हैदर’ देखकर चुप रहना भी तो ठीक  नहीं.

दिल्ली के पी.वी.आर रिवोली सिनेमा हाल में ‘हैदर’ देखना यंत्रणादायक अनुभव था. हाल में काफी  कम दर्शक थे. ज़्यादातर युवा थे. फिल्म शुरू हुई और कुछ देर आगे बढ़ी कि फुसफुसाहटें तेज़ होने लगीं.फिर वह दृश्य आया जिसमें हैदर का चाचा उसकी माँ के साथ ठिठोली कर रहा है.और किसी हास्यपूर्ण प्रसंग की प्रतीक्षा में बैठी जनता ने हँसना शुरू कर दिया. विशाल भारद्वाज ने सोचा होगा कि वे एक बहुत तनावपूर्ण दृश्य रच रहे हैं जिसमें हैदर में हैमलेट की आत्मा प्रवेश करती है.जनता ने इसमें ‘कॉमिक रिलीफ’ खोज लिया. ध्यान रखिए,फिल्म में अभी कुछ देर पहले इस औरत के पति को फौज उठा ले गई है और उसका घर उड़ा दिया गया है!फिर तो जगह-जगह हँसी का फौवारा फूट पड़ता था. चाहे सलमान खान के दीवाने दो सरकारी मुखबिरों का दृश्य हो या हैदर को प्यार करने वाली अर्शी का कश्मीरी उच्चारण हो! लोग जैसे हंसने के लिए तैयार बैठे थे और कोई मौक़ा हाथ से जाने न देना चाहते थे . मैंने सोचा कि फिल्म आगे चलकर दर्शकों को शर्मिन्दा कर देगी और खामोश भी. लेकिन वह न होना था,न हुआ. आख़िरी हिस्से में जहाँ बर्फ पर कब्र खोदते हुए बूढ़े नाटकीय ढंग से गा रहे हैं, फिर हँसी छूट पड़ी. बिलकुल अंत में जब इखवानियों और इन बूढों के बीच गोली-बारी हो रही है, एक बूढा उसी गीत को गाता है और हाल में हँसी तैरने लगती है.

मुझे ‘पीपली लाइव’ देखना याद आ गया. वह मैंने बत्रा सिनेमा हाल में देखी थी.वहां भी बात-बेबात हंसने को तैयार बैठे दर्शक थे.

हिंदी फिल्में किस तरह का दर्शक तैयार कर रही हैं,यह अलग अध्ययन का विषय है.यह बहुत साफ है कि पिछली सदी के सत्तर-अस्सी के दशक में फिल्म देखने के अभ्यास को बदलने की जो चुनौती फिल्मकारों   के एक हिस्से ने कबूल की थी,अब वह उनके लिए कोई जिम्मेवारी नहीं रह गई है.देखने के उसी प्रचलित तरीके में, बिना उसे विचलित किए, वे अपनी बात कहने की फाँक खोज रही हैं.

विशाल भारद्वाज लेकिन सिर्फ दर्शकों से शिकायत नहीं कर सकते. उनकी फिल्म,अगर फिल्म बनाने के श्रम को ध्यान में रखकर रियायत बरती जाए तो कह सकते हैं,एक चालू बम्बइया फिल्मी मुहावरे में  गंभीरता का बाना पहन कर एक लचर कहानी कहने की दयनीय कोशिश है.बात इस पर सिर्फ इसलिए करनी पड़ रही है कि इसने शेक्सपीयर और कश्मीर, जैसे दो भारी-भरकम शब्दों पर सवारी गांठी है.

हैदर कलात्मक ईमानदारी से ख़ाली फिल्म है. मसलन, काश्मीरी उच्चारण से हास्य पैदा करने का प्रयास सस्ती और ठेठ बम्बईया हिकमत है. पूछा जा सकता है कि यह उच्चारण सारे पात्रों का क्यों नहीं है और क्यों कुछ का ही है? और अर्शी की पढ़ाई ने क्यों उसकी ज़ुबान साफ नहीं की?इसलिए कि वह एक दृश्य में ‘लवड’ के बाद ‘फकड’ बोलकर मल्टीप्लेक्स के दर्शकों को ‘फक्ड’ की याद दिलाकर गुदगुदा सके?

फिल्म के संवाद एक नकली,पनीली,कवियाई हुई हिंदी में गढ़े गए हैं.फिल्म जगह-जगह ‘लिरिकल’होने की कोशिश करती है.और नाटकीय होने की भी.लेकिन जब बंबई की आज की फिल्म-भाषा की संवेदना का सर्वोच्च प्रसून जोशी में व्यक्त हो तो उसके लिए दुआ ही की जा सकती है. एक सख्त राजनीतिक भाषा से अपरिचय के कारण संवादों से रूमानीपन टपकता रहता है और माहौल को लसलसा बना देता है.

‘हैदर’ के फिल्मकार को जहाँ बिलकुल माफ़ नहीं किया जा सकता, वह है उनके स्त्री पात्रों का चरित्रांकन.काश्मीर में जिस औरत के पति उसकी आंख के आगे हिन्दुस्तानी फौज उठा ले जाए और उसका घर मिसाइल से तबाह कर दिया जाए,वह उसके फौरन बाद अपने देवर के घर उसका गाना सुनती दिखे,इससे फिल्मकार की निगाह अपना राज तो दे देती है.याद रहे,यह औरत स्कूल में पढ़ाती है और उसका जवान बेटा बाहर पढ़ रहा है.विशाल भारद्वाज यह भी भूल गए कि हिंदी सिनेमा पहली बार ‘आधी बेवा’ शब्द का उच्चारण इस फिल्म में कर रहा था. उसे बहुत जिम्मेदारी के साथ बोलने की ज़रूरत थी. विशाल भारद्वाज यहाँ पूरी तरह चूक गए.डाक्टर मीर की बीवी अपने गुम शौहर की तलाश में नहीं भटकती, अपने तबाह घर का हिसाब नहीं माँगती, बस, अपने पति के मुखबिर भाई के झाँसे में आ जाती है!

इस फिल्म में सिर्फ दो स्त्री पात्र हैं. हैदर की स्कूल अध्यापिका माँ और उसकी पत्रकार प्रेमिका. दोनों ही परले दर्जे की भोली दिखाई जाती हैं. जैसे कश्मीर में राजनीतिकरण सिर्फ मर्दों का होता है! हैदर की माँ से एक पीढ़ी आगे की पत्रकार अर्शी, जो एक पुलिसवाले की बेटी है, इतनी मूर्ख है कि अपने बाप को अपने प्रेमी का राज दे बैठती है! हैदर की माँ के भोलेपन का शिकार उसका शौहर होता है और अर्शी के भोलेपन के चलते हैदर मौत के मुँह में पहुँच जाता है!

किसी भी अच्छी हिंदी फिल्म की तरह इन दोनों औरतों को फिल्म के अंत में अपनी जान देकर प्रायश्चित करना होता है. इससे तो हजार गुना अच्छी मौत ‘माचिस’ फिल्म की नायिका की थी,तब्बू ही  इत्तफाक जिसकी भूमिका निभा रही थीं.

अभिनय की बात छोड़ दें.यह मेरी समझ के बाहर है कि अभिनय के सारे पहचाने लटके-झटकों के बावजूद क्यों हमारे ‘समझदार’ दर्शक तब्बू , इरफ़ान और के.के. मेनन पर लट्टू हैं.फ़िल्म का यह पक्ष तो और भी निराशाजनक है.

‘हैदर’के पास मौक़ा बड़ा था. वह हिंदी सिने-दर्शक को ‘आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर एक्ट’,इखवान,आधी बेवा, दहशतगर्दी,आज़ादी से गुंथी भाषा में दीक्षित करने का था जिनके बिना काश्मीर की कहानी कही नहीं जा सकती  लेकिन राजनीतिक समझ या साहस की कमी के चलते फ़िल्म सिर्फ शुरू से अंत तक एक ही शब्द बोलती रह जाती है :इंतकाम. यह एक मर्द बेटे की अपने बाप को धोखा देने वाली खूबसूरत माँ और उसके प्रेमी से इंतकाम की कहानी बन गई.

अगर फिल्म में कश्मीर की ख़ूबसूरती पर अलग से ध्यान जा रहा है तो वह अपने आप में इस फिल्म  की सौन्दर्यात्मक अक्षमता का प्रमाण है.

हिंदी सिनेमा को अभी काश्मीर पर फिल्म बनाने के लिए कुछ और इन्तजार की ज़रूरत है.उसे भाषा सीखने की, राजनीति पक्की करने की और सबसे बढ़कर असंतुलन का साहस हासिल करने की ज़रूरत है.

फिल्म को अगर गैरईमानदार न कहना चाहें तो नैतिक रूप से दुविधाग्रस्त ज़रूर कह सकते हैं.  रहे शेक्सपीयर! उनका शोक अलग से मनाने की ज़रूरत होगी!!

12 thoughts on “हैदर: नैतिक दुविधा का बम्बइया संस्करण”

  1. कभी एक जर्मन लघुनाटिका पढ़ने का मौक़ा मिला था | नाटिका नाजी जर्मनी के एक परिवार में घटने वाली छोटी सी घटना पर आधारित है | एक किशोर अपने मां-बाप से चॉकलेट या ऐसी ही किसी चीज के लिए पैसे की माँग करता है और इच्छा पूरी नहीं होने पर नाराज होकर घर से निकल जाता है | माता-पिता की उद्विग्नता बढ़ जाती है कि कहीं उनका बच्चा नाजी खुफिया तंत्र के लिए तो काम नहीं करता |

    शायद यह ब्रेख्त की लघुनाटिका है , लेकिन मुझे पक्के तौर पर याद नहीं है| किसी और की भी हो सकती है |

    जब कोई सर्वग्रासी आतातायी सत्ता किसी समाज में प्रवेश करती है तो उसका चोट समाज-विशेष की परिधि पर ही नहीं पड़ता है, वह उसके संबंधों के भीतरी सामाजिक-पारिवारिक ताने-बाने को भी काटती-पीटती है|

    एक की तो कौन कहे कश्मीर में तो दो उद्दंड, जिद्दी राष्ट्रों का अंतहीन अमानवीय नाटक चल रहा है | और स्थानीय स्तर पर फल-फूल रहा एक राष्ट्रवाद है जो किसी भी बहुलतावाद के खिलाफ है| गायब हो जा रहे किशोर और युवा हैं जिनका सालों तक कोई अता-पता नहीं चलता, आफ्शा है और unmarked graveyard भी | फिर कश्मीर के किसी सिनेमाई आख्यान में सीधे-सपाट प्लाट की गुंजाइश कहाँ बचती है? या तो फिल्मकार इससे न उलझें या फिर मिशन कश्मीर या रोजा बनाएं |

    फ़िल्म अंत तक नहीं बताती कि हैदर की माँ ने जानबूझ कर मुखबिरी की या उसने अपनी सहज ढंग से अपनी बेचैनी का साझा अपने देवर से किया जो एक मुखबिर निकला | एक जगह वह अपने बेटे से कहती है कि चाहे कुछ भी हो विलेन तो उसे ही होना है | फिर इस फ़िल्म को unqualifies ढंग से स्त्रीविरोधी कैसे कह सकते हैं? ठीक उसी तरह यह सवाल उलझा ही रह जाता है कि रूहदार डबल एजेंट है, पाकिस्तान समर्थित उग्रवादी है या हैदर के पिता का दोस्त |

    कश्मीर की त्रासदी को तो हम महसूस कर सकते हैं, लेकिन कश्मीर की कहानी की उलझी सिराओं को सुलझा नहीं पाते | यह लोकतांत्रिक नागरिक के रूप में हमारी बौध्दिक और नैतिक त्रासदी है | यह फ़िल्म भी कश्मीर की त्रासदी को ही पेश कर पाती है | सबसे सघन ढंग से उस दृश्य में जिसमें एक आदमी अपने घर में प्रवेश तभी करता है जब उससे उसका पहचान-पत्र माँगा जाता है |

    शेष हिन्दुस्तान के बौध्दिक कश्मीर नाम के नैतिक संकट को अपने पास फटकने ही नहीं देना चाहते | पी वी आर में हंसने वाले दर्शक चाहे हंस कर इस फ़िल्म को टालना भी चाहें, लेकिन यह फ़िल्म आफ्शा , हाफ बेबा, क्रैक डाउन, फेक एन्काउंटर, डिसअपीयरेंस को शेष हिन्दुस्तान के दर्शकों के सामने आँख की किरकिरी की तरह पेश करता है | फिल्म पर बात करने की काबिलियत मुझमें नहीं है, लेकिन मुझको लगता है विशाल भारद्वाज और बश्हारत पीर की टीम का इस बात के लिए एहतराम होना चाहिए कि उन्होंने पी वी आर के दर्शकों के सामने कश्मीर का जो सिनेमाई आख्यान पेश किया वह रोजा और मिशन कश्मीर से आगे का आख्यान है| इस बात में किसे शक है कि विशाल का मुहावरा बम्बइया मुख्यधारा सिनेमा के मुहावरे से बुनियादी तौर पर भिन्न नहीं है |

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  2. ‘हैदर’ फिल्म के केंद्रबिंदु में ‘पिता का इंतकाम’ है जो आतंकवाद में तब्दील हो जाता है| आतंकवादी की मानवीयता के आधार पर इलाज करने वाले हैदर के पिता की गुमशुदगी की वजह भारतीय सेना को बताया गया है| भारतीय सेना की यंत्रणा से आतंकवाद को पनपते हुए दिखाया गया है| पूरे फिल्म में भारतीय सेना कश्मीर में ज्यादती करते दिखाई गई है| वहीँ अंत में फिल्म की शूटिंग के लिए भारतीय सेना को ही धन्यवाद दिया गया है| एक आम मुस्लिम की छवि आजाद कश्मीर के रूप में पेश की गई है| हैदर द्वारा अपने माँ के चरित्र पर लांछन लगाते दिखाया गया है| फिल्म के निर्देशक विशाल भारद्वाज फिल्म की कथावस्तु को तार्किक आधार नहीं दे पाए हैं | सनसनीखेज घटनाओं के समुच्चय द्वारा ‘हैदर’ फिल्म दहशतगर्द लोगों के लिए एक मनोरंजक फिल्म बन गई है जो मानवीयता का माखौल उड़ाते दिखती है|

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  3. aapne durust farmaya, lekin shaayad ab vishal bhardwaaj ki majboorion ko bhi samajh sakte hain, aur maujooda siyaasi mahaul mein, jab ke humaari ‘tolerance’ ka paimana kam-tar ho chuka hai, shaayad bhardwaaj ne haqeeqat to nahi dikhayi, lekin haqeeqat ki taraf ishara zaroor kiya hai. aur ya isse meri na-umeedi kahiye ya na-ahli, lekin in surat-e haal mein main iss baat se hi khush hoon

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  4. ..विशाल भारद्वाज की ‘हैदर’ को मैंने शेक्सपियर के हेमलेट से जोड़कर नहीं देखा |
    विशाल के साथ वही समस्या जुड़ गयी है जो अक्सर बेहतरीन काम करने वालों के साथ पेश आती है | आप अपने काम का स्तर खुद तय कर देते हैं और फिर आपके प्रशंसक भी आपको उस स्तर से नीचे बर्दाश्त नहीं कर पाते | मकबूल और ओंकारा दोनों फिल्में अलग अलग तरह से अपने उद्देश्यों को सामने रखने में सफल हुई | अंडरवर्ल्ड की राजनीति हो या राजनीति के अभिन्न अंग के रूप में स्थापित हिंसा, स्त्री पुरुष संबंधों की जटिलताएं ,प्रेम कहानियों की त्रासदी जो कि इन फिल्मों की कहानियों के मूल में विद्यमान हैं, एक बहतरीन ट्रीटमेंट पाने में सफल हुई |
    हैदर निसंदेह एक बेहतरीन फिल्म हैं | अभी तक पढ़ी इसकी अधिकतर समीक्षाएं भी इसकी खूबियों पर ही आधारित है | लेकिन जैसा कि मैंने ऊपर लिखा कि विशाल भारद्वाज ने अपने लिए खुद इतने ऊँचे मानदंड स्थापित कर दिए हैं कि उनसे अब कम की उम्मीद की ही नहीं जा सकती |
    फिल्म अंत तक ये स्थापित नहीं कर पाती कि कहानी के केंद्र में क्या है ? कश्मीर की समस्या ?…. कश्मीर में आम जनता पर सेना का अत्याचार अथवा प्रेम की मनौवैज्ञानिक त्रासदी…
    कहानी में फ्रायड बार बार याद आते हैं …फिल्म में कई जगह प्रतीकों का प्रयोग दिखता है और कई प्रतीक बहुत कमजोर हैं | बहस का मुद्दा भी यही है कि कहानी में प्रतीक ‘बेवजह घुसाए गए’ से मालूम पड़ते हैं | उन्हें कहानी में एक सहज तरीके से आना चाहिए था | एक आम कश्मीरी अपने घर में बिना तलाशी के नहीं घुसता क्यूंकि उसे तलाशी की आदत हो गयी है …ये प्रसंग मंटो के ‘खोल दो’ कहानी से प्रेरित है जिसका प्रयोग किसी मनोरोगी के सन्दर्भ में या मजाक में होना चाहिए था जहाँ ये चिपकाया हुआ सा महसूस नहीं होता |
    वही प्रेम के सन्दर्भ में माँ का बेटे के प्रति प्रेम या बेटे का माँ के लिए ख़ास लगाव भी कहानी के केंद्र में है | यहाँ भी चीजें बहुत साफ़ नहीं हो पायीं है | पति ,पति का भाई या बेटा और इन सब के बीच एक स्त्री उसकी जरूरतें ,उसकी आकांक्षाएं उसकी महत्वकांक्षाएं क्या है कहानी बहुत साफ़ करने में असमर्थ है |
    विशाल ने हाल फिलहाल में मार्क्सवाद और कलाकार के मेल को अनिवार्य बताने की कोशिश की | तो इस कहानी में उस अनिवार्यता का प्रयोग तब्बू के चरित्र को और स्पष्टता देने में किया जा सकता था | तब्बू से उपन्यास में कहलवाया भी गया कि हर कहानी की विलेन में ही होती हूँ|
    लेकिन इस फिल्म की सबसे खतरनाक और कमजोर पक्ष भारतीय सेना के अत्याचारी रूप को अतिरंजित रूप में दिखाना है | एक डॉक्टर का मिलिटेंटों की मदद करना एक दृष्टि से मानवीय लग सकता है लेकिन देश की सुरक्षा के लिहाज से इसे सही कदम नहीं ठहराया जा सकता |और पूरी कहानी इस कदम से पैदा हुए नतीजों को जस्टिफाई और महिमामंडित करती दिखती है

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  5. Its clear from your review that you neither have the sensibility nor even sense to appreciate the literary nuances of the film. Will substantiate what I am saying in a subsequent post.

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  6. ये “नैतिक रूप से दुविधाग्रस्त” होना क्या होता है ? क्या नैतिकता खुद ही दुविधाओं के टकराव की पैदाइश नहीं है? क्या जीवन कोई एक केंद्रवाला वृत है, जिसमें सिर्फ एक ही रंग भरा जा सकता है? या फिर यह कई वृतों वाली रंगोली है! जिसमें कई केंद्र हैं और कई रंग भरे जा सकते हैं? क्या यह “… दुविधा” हमारे समय में सबसे सुलभ नहीं है? फराज़ का एक शेर है “मेरे झूठ को तुम तोलना भी खोलना भी/ मगर अपने सच को भी मीज़ान में रखना”। क्यों ‘हैदर’ में तब्बू को अपने गुमशुदा शौहर और तबाह हुए घर का हिसाब करना चाहिए, क्या सिर्फ इसलिए कि वह समाजी तौर पर उसका शौहर था? इसलिए की तब्बू एक महिला है? फिल्म का पंचनामा लिखने वाले नक्काद अपने नुख्ते नज़र को थोड़ा और व्यापक करें, “हैदर” में तब्बू अपने दूसरे रिश्ते के बारे में कहीं पछताती नज़र नहीं आती और न ही प्रेम के लिए अपनी अस्मिता से जुड़े अपने बेटे को छोड़ देती है।
    हम कतई ‘समझदार’ दर्शक नहीं हैं। अजी समझदार दर्शक तो दूर कि बात है हम तो समझदार नागरिक भी नहीं हैं, हम नहीं समझ पाते हैं कि क्यों इस देश का प्रधानमंत्री राजनीति की ऐसी घटिया समझ रखता है, हम नहीं समझ पाते हैं कि कैसे वह गांधी, जेपी, और भगत सिंह के विचारों को रूम हीटर की तरह इस्तेमाल कर के माहोल को गर्म रखता है, हम नहीं समझ पाते कि क्यों इस देश की जनता इतनी भोली है (हैदर में तो सिर्फ दो महिलाएं ही हैं ) कि बिना किसी योजना के, सफाई करने सड़कों पर निकल आती है। क्या हैदर को ‘रियल टाईम रियलिटी’ के साथ नहीं देखा जाना चाहिए? हैदर का गैर राजनीतिकरण और उसका अत्याधिक भावनात्मक होना क्यों स्वाभाविक नहीं है, क्या इसलिए कि वह हिन्दी सिनेमा का हीरो है? क्या होता यदि यही कहानी मणिपुर, तमिलनाडू (श्रीलंका से सटे हुए इलाकों में) के पसेमंजर में फिल्माई गई होती। छोड़ दीजिये कश्मीर की भाषा को, ‘हैदर’ तो “बिटविन द शॉर्ट्स” देखने वाली फिल्म है। जिसमें हर किरदार किसी न किसी से प्रेम कर रहा है और अंत में कोई भी साबुत नहीं बचता।

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  7. I feel you have failed to understand the beauty in the movie. I disagree with much of what you said. Adaptation of a classic like hamlet and doing it while giving the characters depth and layers is not an easy job. I think Mr. Bharadwaj has done a very good work of it. You have judged the movie poorly and for all the wrong reasons.

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  8. Mujhe lagta hai ki aap waha sahi kah rahe ki kashamir pe film banane ke liye filmkaro ko aur bhi sikhana hoga par mujhe lagta hai ki vishal sir ne kashamir aur sekshpiyer jaise do bare mudde ko ek sath jorane ki jo koshis ki hai wahi wo thore se chuk gaye hai.apni pichhli film jisme unhone sekshpiyer ki kriti ko omkara me dhala tha waha wo us khubsurti ko kayam rakh paye the jo shekspiyer ki rachana me hoti hai.aapko padh kar kai jagh aesa lagta hai ki shyad aapko pata nahi ki vishal ne haimalet ko addapt karne ki kosish ki hai.ha aesa kah sakte hai ki haimalet ke kandhe pe haidar ko baithakr jo unhone kashamir jaise bhari bharakam subject ko dikhane ki koshis kiye hai wahi thore se chuk gaye hai par nakam nahi hue……film dekhte hue hame ye khayal to rakhana hi chahiye ki film ne sekshpiyer ki koat pahan rkhi hai jiske undar kashamir ka dhudhala chehra hai…….

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  9. Thanks for writing. At least now there is an official critique of the film from an activists/activist-intellectual platform. Unfortunately, it is a ridiculous one. I do not know what you mean by एकतरफा? Does it mean that the film does not show the Indian State’s position? Or that of the Kashmiri Pandits? स्त्री विरोधी? On the contrary, the film gives women a lot more agency–both psychological and political–than the early modern Hamlet does. Ophelia/Horatio has profound political agency. The film also extends, without much pretension,the task of the uncommon reader, the question of the mind of Gertrude. As for the oversimplification charge one can only say that film is not about the Kashmir Problem as it is known and has dynamically grown in the last seven decades. It ventures into finding correlatives of some Hamlet-like in the Kashmir that we see. While doing so there will of course be many omissions but they can hardly be a reason to to call it poor. The problem, to my mind, is that the mainstream subjects that we are, we think of Kashmir as only an issue, a chapter, or even a footnote (however much complex it may be) and hence we expect a ‘single’ film to engage with it in its entirety. This is the paradox of Apoorvanand, apart from the fact, as every sentence testifies, that he has not read Hamlet.

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  10. शेक्सपियर के मुहावरे भी अपने समय के लोकप्रिय मनोरंजन के ही मुहावरे थे. यह रोजाना देखे जाने वाले नाटक थे, जिनके दर्शक समाज के हर तबके के थे, और censorship के परदे के दोनों ओर मानचित होते थे. यह मुहावरे ही उनकी रोजी रोटी भी थे, और ये मुहावरे ही उनकी राजनीति के सूक्ष्म उपकरण भी थे. विशाल की फिल्मों से यह उम्मीद मत कीजिये की वोह इन मुहावरों को ही बदल दें. उनकी काबीलियत इसमें हैं की वे इन्ही मुहावरों से खेलते हुए, इसी मंच से वह कह देते हैं जो आज तक इन मुहावरों में कैद था. इस अर्थ में वे Shakespearean हैं. और इसी अर्थ में हैदर (फिल्म) हैमलेट (नाटक) का रूपांतर है. कश्मीर की समझ के लिए हैमलेट की समझ क्यूँ जरूरी है, यह एक दूसरा मुद्दा है.

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