ऐसी कलम सदियों में एक होती है जिसमें इंसानी खून की धमक और दमक साथ हो.ऐसी ही एक कलम , इंसानी दर्दमंदी से लबरेज़ आज रुक गई है. वह किसी एक जुबान की कैदी न थी. पूरी कायनात उसकी नोक पर रक्स करती थी. एदुआर्दो गालियानो , सलाम,अलविदा!!
जूता
1919 को इंकलाबी रोज़ा लक्समबर्ग का बर्लिन में क़त्ल कर दिया गया.
कातिलों ने उसे राइफल से कुचल-कुचल मारा और एक नहर के पानी में फेंक दिया.
बीच में, उसका एक जूता निकल गया .
किसी ने उसे उठा लिया, कीचड़ में पड़े उस जूते को .
रोज़ा एक ऐसी दुनिया की तमन्ना करती थी जहां इन्साफ को आज़ादी के नाम पर निछावर नहीं कर दिया जाएगा और न आज़ादी इन्साफ के नाम पर तर्क कर दी जाएगी .
हर रोज़ कोई हाथ उस बैनर को उठा लेता है.
कीचड़ से, उस जूते की तरह .
आजादों का राज
यह पूरी सत्रहवीं सदी में होता है.
भाग निकले गुलामों की बस्तियां कुकुरमुत्तों की तरह उग आती हैं. ब्राज़ील में उन्हें क्विलोम्बो कहते हैं.यह एक अफ्रीकी लफ्ज है जिसके मायने हैं समुदाय हालांकि नस्लवादियों ने इसका अनुवाद किया चंडूखाना या वेश्यालय .
पल्मारेस के क्विलोम्बो में, पूर्व गुलाम अपने मालिकों से आज़ाद रहे और चीनी की तानाशाही से भी जो और कुछ भी उगने नहीं देती.वे हर तरह के बीज रोपते हैं और सब कुछ खाते हैं.उनके पूर्व-मालिकों का भोजन जहाज़ों से पहुँचता है. उनका मिट्टी से.अफ्रीकी तर्ज पर बने उनके लुहारखाने उन्हें कुदाल, खुरपी, फावड़े देते हैं जिससे वे धरती पर काम कर सकें और छुरे,कुल्हाड़ी और भाले कि वे उसकी हिफाजत कर सकें.
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एदुआर्दो गालियानो / ऐरे गैरे
मक्खियाँ अपने लिए एक कुत्ता खरीदने का ख्वाब देखते हैं,
और देखते हैं ऐरे गैरे, अपनी गरीबी से दूर भागने की स्वप्नों में: आयी एक है तिलिस्मी दिन, अचानक बाल्टियां भर भर के गिर रही उन पर खुशकिस्मती की बारिश।
पर आयी नही वह दिन बीत गयी कल, न आयी आज, न आयेगा वह आनेवाला कल, या कभी भी।
आती नही खुशनसीबी की महीन फुहार भी मगर, लगा लें कितनी ही ज़ोर नथ्थु खैरे अपनी कल्पना पर,चाहे झनझनाता हो उनकी बांयी हाथ, या करें वे शुरुआत नयी दिन की दांये पैर को पहले बढ़ा कर, या नयी साल को करें सलाम अपनी झाड़ु ही क्यों न बदल कर।
हैं ये ऐरे गैरे: औलाद जो नथ्थु के ठहरे, विरासत में कुछ भी तो नहीं मिला रे।
नथ्थु खैरे: न अहम, न देहि, दौड़ के खरगोश जैसा, मरते हैं ज़िन्दगी भर, होकर बरबाद हर तरफ।
वे हैं नहीं,पर हो सकते हैं।
उनकी जुबान नहीं है, है बोली।
उनके धर्म नहीं है, जो है सो कुसंस्कार।
वे कला के सर्जन नहीं करते, वो तो महज हस्तशिल्पकार।
उनकी काहे की संस्कृति, होंगे लोकवार्ता दो चार।
वो मानव नही है, हैं मात्र सम्पदों के मानवीय आधार।
उनके शकल नहीं है, पर है हाथ।
उनके कोई नाम नहीं है, पर है आंकड़ों के पहाड़।
दुनिया के तारीख में इनके नाम नहीं गिनाये जाते,
वे तो सिर्फ थानेदार के स्याहीचट पर प्रगट होते।
ऐरे गैरे, जो गोली उन्हें करती है ढेर, उससे भी कीमती नहीं हैं, हैं ये नथ्थु खैरे।
[अनुवाद अपूर्वानंद जी को समर्पित। प्रदीप बकशी, कोलकाता, १६ अप्रैल २०१५।]
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