
गांधी से खुद को जोड़ने की कोशिश करने वाले ज़्यादातर लोग राजघाट तो जाते हैं लेकिन बिड़ला भवन नहीं, क्योंकि वहां जाने के मायने हैं उस व्यक्ति की हत्या से रूबरू होना जिसे राष्ट्रपिता कहा जाता है.
या जैसा एक लेखक ने कहा, बिड़ला भवन में एक प्रेत रहता है. हम उसका सामना करने से घबराते हैं. वह किसका प्रेत है?
गांधी की हत्या को उचित मानने वालों की संख्या कम नहीं है और वे सब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिंदू महासभा या शिव सेना के सदस्य नहीं हैं.
कुछ महीने पहले राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में एक सभा में इस हत्या का जिक्र करने के बाद एक श्रोता ने सुझाव दिया कि इस हत्या की आलोचना करते वक्त दूसरे पक्ष के तर्क को नज़रअंदाज नहीं करना चाहिए.
विद्यालय के एक कर्मी ने पास आकर बहुत शांति से पूछा कि क्या मैंने इस पर कभी सोचने की जहमत उठाई है कि नाथूराम गोडसे जैसे सुशिक्षित व्यक्ति को यह कदम उठाने की ज़रूरत महसूस क्यों हुई?
“आखिर कुछ सोच-समझकर ही उन्होंने यह कदम उठाया होगा !”

एक घनिष्ठ संबंधी ने मुझसे इस पर विचार करने को कहा कि गांधी की सारी महानता के बावजूद यह तो कबूल करना ही होगा कि अपने अंतिम दिनों में वह जो कर रहे थे वह एक नवनिर्मित राष्ट्र के हितों के लिहाज़ से घातक था.
जब पाकिस्तान भारत के ख़िलाफ़ आक्रामक कार्रवाइयों में लगा था, गांधी जिद बांधकर उपवास पर बैठ गए थे कि भारत पाकिस्तान को अविभाजित देश के ख़जाने से उसका हिस्सा, पचपन करोड़ रुपये देने का अपना वादा पूरा करे. यह किसी भी दृष्टि से क्षम्य नहीं हो सकता था.
गांधी को समाप्त करना एक राष्ट्रीय बाध्यता बन गई थी क्योंकि यह अनुमान करना कठिन था कि जीवित रहने पर अपनी असाधारण स्थिति का लाभ उठाते हुए भारत सरकार को वे कहां-कहां मजबूर करेंगे कि वह राष्ट्रहित के ख़िलाफ़ फ़ैसला करे. आखिर सरकार उनके शिष्यों की ही थी!
भगत सिंह और सुभाष

गांधी की उपस्थिति और उनका जीवन अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग दृष्टि से असुविधाजनक था. उनके प्रति नाराज़गी उनके अपनों में भी थी.
अपने पक्के गांधीवादी अनुयायियों की जगह, जो धार्मिक भी थे, उन्होंने एक ‘नास्तिक’ जवाहरलाल नेहरू को स्वतंत्र भारत का नेतृत्व करने के लिए अधिक उपयुक्त पाया था.
उनके इस निर्णय के लिए आज तक गांधीवादी उन्हें क्षमा नहीं कर पाए हैं.
साम्यवादियों की समस्या यह थी कि गरीबों की मुक्ति का दर्शन तो उनके पास था लेकिन वे खुद गांधी के पास थे.

इसके लिए वे गांधी की पारंपरिक भाषा और मुहावरे को ज़िम्मेदार मानते थे जो सामान्य जन को उनके अंधविश्वासों के इत्मीनान में रखकर एक लुभावना भ्रमजाल गढ़ती थी.
क्रांतिकारी समझ नहीं पाते थे कि जनता यह क्यों नहीं समझ रही कि वे कहीं अधिक कट्टर साम्राज्य विरोधी हैं और गांधी के बहकावे में क्यों आ जाती है.
यह बात कुछ-कुछ भगत सिंह ने समझने की कोशिश की थी. उनके लेखन से इसका आभास होता है कि अगर वह जीवित रहे होते तो संभवतः उनका गांधी से संवाद कुछ नई दिशाएं खोल सकता था लेकिन भगत सिंह की फांसी के लिए भी गांधी को ही जवाबदेह माना जाता है.

गांधी को सुभाष चंद्र बोस का अपराधी भी माना जाता है.
गांधी की अहिंसावादी राजनीति ने समझ लिया था कि बोस में ऐसे रुझान थे जो उन्हें आखिरकार हिटलर और जापानी नेता हिदेकी तोजो के करीब ले गए. यह बात तो तरुण भगत सिंह ने भी लक्ष्य कर ली थी और वह भी 1928 में.
प्रेत का डर
समाज के निरक्षर, गरीब, नीच जाति के लोगों को सर चढ़ाने के लिए ज़मींदार और उच्च जाति के लोग गांधी से यों ही खफ़ा थे.

गांधी ने राजनीति को और राज्यकर्म को संपन्न और अपनी सामाजिक स्थिति के कारण शिक्षित समुदाय के कब्जे से कुछ-कुछ आज़ाद कर यह साबित कर दिया था कि सिर्फ मनुष्य होना ही काफी है.
गांधी से न तो पूरी तरह हिंदू खुश थे और न मुसलमान, ख़ासकर दोनों के संपन्न और ऊंचे तबके.
यह बात अधिकतर लोगों के ध्यान में नहीं कि हिंदू राष्ट्र का नारा देने वाली हिंदू महासभा और इस्लामी राष्ट्र का परचम बुलंद करने वाली मुस्लिम लीग को एक दूसरे के साथ मिलकर सरकार बनाने में उज्र न था.

लेकिन दोनों ही समावेशी राष्ट्रीयता के गांधीवादी सिद्धांत का नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार न थे.
आखिरकार गांधी के समावेशी राष्ट्रीयता के आग्रह ने उन्हें ऐसे तमाम लोगों की निगाह में अपराधी बना दिया जो एक धर्म के आधार पर एक साफ़-सुथरी राष्ट्रीय पहचान चाहते थे.
गांधी यह ज़िद करके कि हिन्दू-मुसलमान-सिख-ईसाई या अन्य मतावलम्बी साथ-साथ बराबरी से रह सकते हैं, सब कुछ धुंधला कर रहे थे.
गांधी के इस कृत्य के लिए उन्हें माफ़ करना मुश्किल था इसलिए जिस व्यक्ति ने भी उन्हें मारा हो, उसने एक साथ अनेक लोगों की शिकायत पर अमल किया.

तभी तो उस मौत पर एकबारगी सदमा तो छा गया लेकिन फिर हत्या की उस विचारधारा के साथ उठने बैठने, हँसने-बोलने में हमने कभी परहेज नहीं किया.
इसीलिए हम बिड़ला भवन जाते नहीं; डरते हैं, कहीं वह प्रेत हमारी पीठ पर सवार न हो जाए !
First published by BBC HINDI on 30 January,2015
Gandhi tried to appease all religions but could not appease any religion because of his clumsy philosophy with internal contradictions. As Bernard Shaw said, it is dangerous to be good. The most valuable Gandhi philosophy is the recognition of poor and poverty albeit his solutions are impractical.
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एक हाथ हर रोज गाँधी को जिंदा करता है
दूसरा लँगोटी भी उतार सरे आम मार देता है
🙈🙊🙉
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देश में गाँधी से दूरी है
विदेश में तो मजबूरी है
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