कन्हैया ‘देशद्रोही’ से देश का दुलारा बन गया है.कल तक जो उसकी जान लेने को आमादा थे, आज उसे अपने भविष्य का नेता मान रहे हैं.ऐसा क्यों हुआ और कैसे?
ऐसा हुआ तो इसलिए कि इस बार कन्हैया को ध्यान से, गौर से सुना जा सका है. पहले कन्हैया की आवाज़ नारों के शोर में दब गई थी.आज हम टेलीविज़न चैनलों की आपाधापी में,उनके शोर शराबे में कन्हैया को सिर्फ देख नहीं रहे, सुन रहे हैं,सुनने की कोशिश कर रहे हैं.
सुनना एक सचेत क्रिया है. ‘सुनो, सुनो’, आप फुसफुसाते हुए गाँधी को सुनते हैं, जब वे उत्तेजित भीड़ को शांत करने की कोशिश कर रहे होते हैं. सुनने के लिए पहले उत्तेजना का शमन आवश्यक है.उत्तेजित अवस्था में हम वह सुनते हैं, जो हमारे भीतर पहले से बज रहा होता है, हमारे अपने पूर्वग्रहों के कारण या कामनाओं के कारण.
जेलखाने से वापस जवाहर लाल विश्वविद्यालय पहुँचने के बाद एक पत्रकार को कन्हैया ने कहा, ‘मेरी चिंता यह है कि आज हम इतनी हड़बड़ी में हैं कि किसी लंबी चर्चा का इत्मीनान या धीरज हममें नहीं रह गया है.’
कन्हैया जो चिंता व्यक्त कर रहे हैं, वह राष्ट्रीय चिंता होनी चाहिए.अक्सर सभाओं में या जमावडों में हम बोलने वाले को जोर से बोलने के लिए कहते हैं. इसके उलटा भी किया जा सकता है. सुनने वाले और ध्यान से सुनने का प्रयास कर सकते हैं.
प्रश्न सिर्फ वक्तृत्व कला का नहीं है.ऐसे वक्ता की तलाश का नहीं है जो श्रोताओं को सम्मोहित क्र ले.यह एक खतरनाक अवस्था होगी जिसमें सुननेवाला इस कदर सम्मोहित हो जाए कि उसकी सोचने-समझने की क्षमता ही सो जाए.
प्रायः हम मजमेबाजों को अच्छा वक्ता कहते हैं.लेकिन वक्ता और वक्ता में फर्क होता है:एक वक्ता वह होता है जो सुननेवाले सहमति और वाहवाही के अलावा और कुछ नहीं चाहता.दूसरा वह होता है जो प्रश्नों की अपेक्षा करता है और उनका स्वागत भी करता है.
सुनना निष्क्रिय क्रिया नहीं है.हमारे पास श्रवणेन्द्रिय है लेकिन हमारी श्रवण क्षमता उतनी भी स्वाभाविक नहीं है जितना हम उसे मान लेते हैं.
सुनने की कला विकसित करना शिक्षा का एक प्रमुख दायित्व है. यहाँ सुनना समझने और संवाद शुरू करने से लेकर उसे विकसित करने की क्रिया का एक अनिवार्य अंग है.
लेकिन इस पर शायद ही ध्यान दिया जाता है. स्कूलों और विश्वविद्यालयों से परे बाहर टेलीविज़न के ज़रिए होने वाली शिक्षा में सुनना एक अनायास क्रिया है.वहाँ सवाल भी हड़बड़ी और असावधानी से तैयार किए जाते हैं और उनका जवाब तुरत चाहिए होता है.शायद ही कोई ऐसा चैनल हो जो चर्चा करने वालों को पहले से सवाल बताए.शायद इसके पीछे उत्तर देने वाले को औचक पकड़ लेने की और अचंभित कर देने की मंशा होती है.यह किसी संवाद की शुरुआत निश्चय ही नहीं है.
कक्षाओं में इसका लोभ होता है कि सवाल किए जाते ही उसका उत्तर दे दिया जाए.किसी प्रश्न का, जिसे पहली बार सुना जा रहा है, तुरत उत्तर कैसे दिया जा सकता है? एक तार्किक और सुसंगत उत्तर के लिए आवश्यक सूचनाओं,आंकड़ों को इकट्ठा करने से लेकर तर्क विकसित करने में वक्त लगता है.इसका धीरज प्रायः न तो छात्रों में होता है,न अध्यापकों में.
प्रश्न और उत्तर के बीच अंतराल पैदा करके ही सुनने के लिए अवकाश उत्पन्न किया जा सकता है.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पर उठा विवाद इस अंतराल के लुप्त हो जाने का एक नतीजा है.हमने छात्रों को सुनने की जहमत नहीं उठाई, वे हमसे जिस ध्यान या धीरज की मांग कर रहे थे,वह हमारे सामाजिक- सांस्कृतिक जीवन से गायब हो चुका है.इसकी सजा छात्रों को भुगतनी पड़ रही है.
टेलीग्राफ अखबार ने एक रिपोर्ट छापी है कि तिहाड़ के एक जेलकर्मी ने कहा कि हम पहले कन्हैया को पीटना चाहते थे, लकिन उससे बात करने के बाद हमारा ख्याल बदल गया.
जेलकर्मी और कन्हैया के बीच की बातचीत का एक टुकड़ा बहुत दिलचस्प है:
जेलकर्मी: क्या तुम धर्म मानते हो?
कन्हैया: धर्म मानने के लिए पहले उससे जानना मेरे लिए ज़रूरी होगा.
जेलकर्मी:तुम्हारा जन्म तो किसी परिवार में ही हुआ होगा न?
कन्हैया: मैं संयोगवश हिन्दू परिवार में पैदा हुआ.
जेलकर्मी:तो कुछ तो अपने धर्म के बारे में मालूम होगा?
कन्हैया:भगवान ने ब्रह्मांड रचा है और वह इसके कण-कण में व्याप्त है.आपका क्या कहना है? आप बताइए?
जेलकर्मी:बिल्कुल सही.
कन्हैया:और कुछ लोग भगवान् के लिए कुछ रचना चाहते हैं.
जेलकर्मी:ये तो महा बुरबक आईडिया है .
यह एक बातचीत है,जिसमें कोई उत्तेजना नहीं है.दोनों एक दूसरे को सुनने को तैयार हैं, बल्कि उत्सुक हैं.बातचीत जहाँ खतम होती है,वहाँ हिंदू जेलकर्मी इस नतीजे पर पहुँचता है कि रामजन्मभूमि मंदिर के निर्माण जैसा विचार मूर्खता से अधिक कुछ नहीं.
कन्हैया को लेकर एक पछतावा भी दिखाई पड़ रहा है,वह बाकी छात्रों के लिए भी होगा अगर हम उन्हें भी गौर से सुनेंगे.उसके लिए अपने आग्रहों से मुक्त होकर उनकी बात पर ध्यान देना आवश्यक होगा.ये आग्रह राष्ट्रवादी हो सकते हैं या कोई और भी.
कन्हैया के विश्वविद्यालय में लौटने का क्षण आज के भारत के लिए खुद को वापस हासिल करने की शुरुआत हो सकती है. उसे मजमेबाजों से भी खुद को आज़ाद करना होगा.अचानक एक शान्ति का क्षण रच दिया गया है. इसमें आजादी का नारा अपनी पूरी गरिमा के साथ सुना जा सकता है , पूरी अर्थवत्ता के साथ.इसपर भी विचार किया जा सकता है कि आज़ादी की मांग करने वाले नौजवानों को हमने जेल में क्यों डाल दिया था और अपनी इस गलती के लिए इनसे माफी भी माँगी जा सकती है.
( satyagrah.com पर साप्ताहिक स्तंभ प्रत्याशित की 5 मार्च की कड़ी के रूप में पहले प्रकाशित)