जिशा, मेरी दोस्त, दलितों की जान इतनी सस्ती क्यों है? चिंटू

अतिथि पोस्ट : चिंटू

Josh
जिशा

जिशा, मेरी दोस्त मेरी यार, क्या कहूँ यार तुम्हारे साथ जो दंविये बर्बरता हुई उसके लिए मुझे  शब्द नहीं मिल रहे हैं कुछ कहने को. ये देश ये समाज हर रोज़ ऐसे झटके  देता रहता है और इतना देता है, इतना देता है, की हमारे लिए वीभत्स से वीभत्स घटना क्रूरतम से क्रूरतम घटना साधरण बन गई है और इन घटनाओं को पचाने की क्षमता में भी हम माहीर हो गए है. देखो न दोस्त, असाधारण कहाँ कुछ रह गया है. बचपन से आज तक तो यही सब देख- देख कर पले बढे हैं हम सब की, जो कुछ हो अपना हक़ मत मांगना, पढने लिखने की बात मत करना , बाप या भाई लात घूंसे  मार- मार कर तुम्हे अधमरा कर दे लेकिन एक शब्द भी उनके खिलाफ बोलने की गुस्ताखी मत करना, गाँव के उच्च जाति वर्ग के सामंती तुम्हे अगर छेड़े तुम्हारा बलात्कार करे तो उसका बहिष्कार मत करना कियोंकि ये तो उनका जन्म सिद्ध अधिकार है.

तुम्हारे लिए जो लक्ष्मण रेखा खिंची गई है उससे बाहर जाने की कोशिश की तो तुम्हारी शामत आना पक्की है. और शादी? ये तो दूसरी जात में तो दूर की बात अपनी जाति  में भी करने का अधिकार या आजादी की बात मत करना ये तय करना घर के बड़े पुरुषों के कंधे पर छोड़ो. सती सावित्री बनो, एक सद्गुणी बेटी, बहु और पत्नी बनो इसी में तुम्हारी भलाई है.

 

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[ Photograph by Biju Ibrahim ]

लेकिन जिशा तुमने ये क्या किया? तुमने तो सामाजिक नीतियाँ जो की मनुस्मृति  ने महिलाओं के लिए बनाई है उनके आदर्शों पर चलने की बजाय उन नीतियों को तोड़ दिया, जर्जर कर दिया. तुम्हारी ये हिम्मत कैसे हुई की तुम एक महिला और वो भी दलित महिला होकर भी तुम्हारे लिए बनी सारी नीतियों के तोड़कर यूनिवर्सिटी में लॉ की पढाई करने चली गई? तोबा रे तोबा इस मनुवादी व्यवस्था के प्रति बड़ा अन्याय किया तुमने और जब इतनी बड़ी गुस्ताखी की तो सजा तो मिलनी ही थी.

यार तुम कितनी बड़ी गलती कैसे कर बैठी? तुम तो जानती हो न की इस देश में दलितों, महिलाओं,मुसलमानों, आदिवासियों, गरीबों, वंचितों और पिछड़ों के जीवन का कोई मोल नहीं हैं. अगर थोड़ी सी भी ऊँची आवाज़ उठाओगे तो वैसे ही कुचल दिए जाओगे जैसे कीड़े मकोड़े.

तुमने अपने अतीत से भी कोई सीख नहीं ली. तुमने देखा नहीं निर्भया ने रात में बाहर निकलने की गलती की तो उसका क्या क्या हश्र हुआ? तुमने देखा नहीं था की बदायु में दो दलित लड़कियों को बलात्कार करके कैसे पेड़ पर लटका दिए गया था? तुमने देखा नहीं  की बथानी टोला में रणवीर सेना द्वारा  कैसे पुरे के पुरे गाँव की महिलाओं को किस तरह जलाया मारा काटा गया था .उनके साथ भरी दोपहरी में राज्ये और प्रशासन के संरक्षण में बलात्कार किया गया था. यहाँ तक की गर्भवती महिलाओं के गर्भ को चीरकर- फाड़कर उसके अजन्मे बच्चे तक पर तलवार घूंसा कर आसमान में उछल दिया गया था ? कारण दिया गया की अगर इनके बच्चे बचे रह गए तो नक्सली बन जायेंगे.

तुमने देखा नहीं की खैरलांजी की दलित महिलाओं को कैसे नंगा करके गाँव में घुमाया गया था बलात्कार किया गया था और उसके बाद उनका बलात्कार किया गया था? तुमने क्या जाना नहीं था की भगाना दलित महिलाओं को  किस तरह जाटों द्वारा अगवा करके उनका बलात्कार किया था ? सोनी सोरी जो आदिवासी अधिकारों के लिया अपने जल जंगल ज़मीन के लड़ रही हैं और गलती से आदिवासी होकर भी शिक्षिका बन गई है उनके साथ क्या-क्या नहीं हुआ. उनको पुलिस कस्टडी में कितना सुरक्षित रखा गया था? उनको कस्टडी में बलात्कार के साथ सुरक्षा देने वाले अंकित गर्ग को गलेंट्री अवार्ड से नवाज़ा गया.उससे भी संतुष्टि नहीं मिली तो उनके चहरे पर तेजाब लगाकर उनके चेहरे को काला किया दबंगों ने. हलाकि ये बात अलग है की मानवता के दुश्मनों ने  उनका चेहरा जितना काला किया  उनका चेहरा उतना ही चमका और इतना चमका की उनके चेहरे के  रौशनी से सत्ता वर्ग की ऑंखें भी चौंधिया गई.

अब देखो न मनोरमा देवी ने भी यही गलती की थी उन्होंने तो सर्वमान्य, सर्व्सत्य AFSPA पर ही सवाल खड़ा कर दिया था तो उनको भी उसी के अनुसार उनके हिस्से की सजा मिली. दरिंदगी के साथ उनके गुप्तांगों को जख्मी किया गोली मारा,रेप किया और जंगल में उठ कर फेंक दिया था. और  कुछ भी करो सेना पर तुम कैसे सवाल उठा सकते हो.

जिशा, तुमने तो बिहार के कुरमुरी में रणवीर सेना के कमांडर ने जो छह नाबालिक मुसहर जाती की कूड़ा चुगने वाली लड़कियां जिनमे अधिकतर 15 साल की उम्र  से नीचे  की थी के साथ जो जबरन बलात्कार किया रस्सी में बंधकर जो घंटों -घंटो उनका दोहन किया गया उसके बारे में भी पढ़ा होगा . बिहार स्टेट ने उस अपराधी को बचाने में पूरी जान लगा दी.  तो क्या हुआ ? उसमे क्या बड़ी बात हो गई ऊँची जाति के बर्चास्व और शक्ति पर सवालिया निशान कैसे लगा सकते हो? ये तो उनका  जन्मसिद्ध अधिकार है.

कश्मीर और नार्थ ईस्ट की तो बात ही मत करना कियोंकि वहां तो ऐसा साशन चलता है जिसमे औरत तो दूर मर्दों का भी मुह सील कर दिया जाता है. कुनान्पोश्पुरा में तो मिलिट्री अपना संविधानिक अधिकार समझकर पुरे गाँव की महिलाओं के साथ बलात्कार करती है न ? और वास्तव में संविधान तो वहां की सेना खुद है दूसरे संविधान की ज़रूरत क्या है ? हाल ही में तो कश्मीर के  हडवारा में एक नाबालिक लड़की के साथ पुलिस द्वारा छेड़-छाड़ करने का आरोप सामने आया. इसके बाद पुलिस और अर्धसैनिक बलों द्वारा गोलीबारी में  5 लोगों  लोगों की जाने भी गईं. यहाँ तक की उस नाबालिक लड़की को अब तक नज़रबंद करके रखा गया है. इस घटना की जितनी ही निंदा की जाये कम है.लेकिन कश्मीर में बनी नई नवेली सरकार पर भी कोई असर नहीं देखने को मिला. उस नाबालिक के सारे मानव अधिकारों को उससे छिना गया. लेकिन कौन से नेता ने उसकी  बात की? डेल्टा मेघवाल के साथ क्या हुआ? तुम खुद देख लो मुज़फ्फरनगर हो या गुजरात दंगा किसमे महिलाओं को बक्शा गया  है? और अब मै ज्यादा नाम नहीं गिनाना चाहती कियोंकि उसका कोई अंत नहीं है.

देखो न जिशा इनमे से कितनों को न्याय मिला? सही बोलो तो न्याय की जगह न्याय की हत्या जी गई, इनमे से ज्यादातर को न्याय से वंचित किया गया . न्याय की आस में लोग मर मिटते हैं लेकिन सच्चाई तो ये है की न्याय उनके लिए बना ही नहीं. फिर भी मैं बराबर न्यायालय पर विश्वास जताने की कोशिश करती रहती हूँ. लेकिन बार -बार न्याय का गला घोंटते देख काफी निराश हो जाती हूँ. शायद तुमने सोचा होगा की लॉ की पढाई करके तुम इनकी आवाज़ उठाओ जो अब तक न्याय से वंचित हैं. लेकिन हिन्दू जाती व्यवस्था के अनुसार तो ये घोर पाप किया तुमने, न्याय देना तुम्हारा  काम थोड़े ही था जो चल पड़ी लॉ की पढाई करने. महिलाओं के प्रति बेरहमी, दरिंदगी, क्रूरता, अपमान ये सब समाज के नोर्म्स हैं इसको सवाल किया तो तुम्हारी खैर नहीं. महिलाओं और खासकर दलित महिलाओं के प्रति अमानवीयता इतना साधारण और ज़िन्दगी का एक अटूट हिस्सा इस समाज ने बना दिया है की आज इसपर कोई ध्यान ही नहीं देता.महिलाओं को इतना बुद्धिहीन साबित कर दिया गया है की अगर हिन्दू लड़की किसी मुस्लमान से अपनी इच्छा से भी शादी करे तो वो लव जिहाद हो जाता है. कहा जाता है की मुस्लमान लड़के उन्हें बहलाकर चोकलेट  और मोबाइल देकर फुसला लेते हैं. महिलाओं को इसी हैसियत और निगाहों से देखा जाता है जो सिर्फ ठगी  जाती हैं, उनकी कोई स्वायता नहीं हो सकती, कोई स्वतंत्र  सोच नहीं हो सकती, उनके अन्दर विवेक नहीं है इसलिए मर्दों के विवेक को उनपर थोपा जाता रहा है.महिलाओं का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, अपनी कोई पहचान नहीं है.

लेकिन तुम लोग हो की उसी के फ़िराक में लगी हो स्कूल और कॉलेज जाकर उसी पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती देती रहती हो. इतने बड़े पाप को ये समाज कैसे पचा सकता है.और सच पूछो  तो महिलाओं के प्रति ये हिंसा दुष्कर्म और बलात्कार कोई सेक्सुअल अर्ज के कारण नहीं होती वास्तव में इस समाज में जो पिरिसत्तात्मक सोच है, सामंती- जातिवादी वर्चस्व है और शक्तिशाली होने का  जो उनका अहंकार है   उस वर्चस्व और अहंकार  को बनाये रखने के लिए ये हिंसा किया जाता है. ताकि तुम अपनी हदों को पार न कर लो और उनकी शक्ति और वर्चस्व को चुनौती न दे सको. लेकिन फिर भी महिलाये उनको चुनौती दे रही हैं, वो अपने स्वतंत्र सोच और पहचान की लड़ाई लड़ रही हैं  और  वो बोल रही है की हम बच्चा देने की मशीन नहीं है न ही तुम्हारे गुलाम है. सिर्फ इसी की सजा उनको मिल रही है.

जिशा मुझे समझ नहीं आता की इस देश में दलितों की जान इतनी सस्ती किउन हो गई है? दलित गरीब मजदूर महिलाओं की बात तो छोड़ो तथा कथित ऊची जाती के उच्च विचारों वाली महिलाओं को भी नहीं बक्शा गया है. जिशा लॉ की पढाई करके जो तुमने गुस्ताखी की वही गुस्ताखी हम सबको करनी होगी. पुरुष प्रधान सामंती और जातिवादी मनसिकता वाले इस विचार के खिलाफ जो भी हो हमें एकजूट हो लड़ना ही होगा.कियोंकि अकेले में तुम्हारी आवाज़ और गले को घोंट दिया जायेगा और तुम गुम हो जाओगी.ये जंग एक लम्बा जंग है और इसकों जीतना  हमारा ध्येय होना पड़ेगा नहीं तो इस सड़ी-गली व्यवस्था में महिलाये सदियों से ऐसे ही सताई जाती रहेंगी. और जब हम ऐसा कह रहे हैं तो इसका मतलब ये नहीं है की महिलाओं के वर्चास्व वाला समाज चाहते हैं .हम तो सिर्फ बराबरी का अधिकार चाहते है जिसमे महिला पुरुष एक साथ मिलकर एक आज़ाद समाज की रचना करें . एक ऐसा समाज जो महिलाओं का भी हो, पुरूषों का भी हो, दलितों, अद्वासियों, अल्पसंख्यकों पिछड़ों  वंचितों, गरीबों और महिलाओं का भी उतना ही हो जितना की उच्च जाती वर्ग का है.

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चिंटू

पीएचडी शोधार्थी सेंटर फॉर पोलिटिकल स्टडीज ,jnu

फोर्मर महासचिव JNUSU, AISA एक्टिविस्ट

चिंटू जेएनयू में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर छात्रों में से एक है

4 thoughts on “जिशा, मेरी दोस्त, दलितों की जान इतनी सस्ती क्यों है? चिंटू”

  1. I empathise with the feelings of Chintu , a woman belonging to a large section of women in India.
    However , alluding it to Manusmriti, appears as if Manusmriti is some kind of religious book people follow religiously and criticising it is equivalent to criticising the thought-base of such line of thinking. I believe , though politically it serves to organise some groups, it is a mistake for social reforming process. It only highlights a ‘ victim syndrome’ without providing a solution. A crime against a woman is a crime against humanity and should be dealt as such.
    I fully agree that this is a crime of misogynist mentality, but would like to add this happens in every social group in India, in some parts more and in some parts less. It exists nevertheless.

    We must condemn these misogynist thought process in the entire society , no matter which caste , creed and religion it belongs to and keep moving on. This buys more legitimacy and wider support. There are many, trust me, who, despite being in different social groups, very much empathise with such thoughts .

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  2. ” kaun rootaa hai kisie aur key khatir , AI dost!
    Ab toe apney hi kisie baat peh roona aayaa
    Kabhi khud peh kabhi haalaat peh roona aayaa
    Baat Nikli toe har baat peh roona aayaa….”
    SAHIR
    (Who cries for others sorrow, oh! My friend!
    Now I cry for some of my own musings
    Sometimes on myself and at times my surroundings I cry…
    When some words blurt out, (I) cry on every word of mine….
    Free Translation)

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