नामवर सिंह के नब्बेवें जन्मदिन के उत्सव को लेकर विवाद चल रहा है. यह आयोजन इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में, उसके द्वारा आयोजित किया गया.केंद्र राष्ट्रीय महत्त्व की संस्था है. लेकिन आजतक उसने किसी जीवित व्यक्ति का जन्मदिन मनाया हो,इसके उदाहरण नहीं हैं. यह असाधारण अपवाद नामवरजी के लिए किया जा सकता है क्योंकि वे हैं भी असाधारण व्यक्तित्व.तकरीबन सत्तर साल तक वे हिंदी साहित्य के केंद्र में बने रहे हैं.हिंदी ही नहीं,अन्य ज्ञानानुशासनों के बीच भी उनकी प्रतिष्ठा है. वे जैसे लेखक हैं, वैसे ही प्रखर वक्ता.कोई राष्ट्रीय संस्था उन्हें सम्मानित करे,इसमें क्या विवाद हो सकता है?
सामान्य समय होता तो न होता. लेकिन हम असाधारण समय में रह रहे हैं.भारत को अघोषित लेकिन निश्चित रूप से हिन्दू राष्ट्र में बदला जा रहा है.शायद ही कोई दिन जाता हो जब किसी देश के किसी हिस्से में गाय या किसी और बहाने से मुसलमानों पर हमला न हो रहा हो या उन्हें अपमानित न किया जा रहा हो. दलित अब हमलों के नए शिकार हैं.लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि निशाने पर मुसलमान हैं.गाय के नाम पर हमलों को सड़क छाप गुंडों की हरकत मानकर नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता. सरकार बनने के तुरत बाद सीमा सुरक्षा बल की तारीफ़ करते हुए गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि उन्हें इसलिए शाबाशी दी जानी चाहिए कि उन्होंने सीमा पर चौकसी इतनी सख्त कर दी है कि बांग्लादेश को गायों की तस्करी रुक-सी गई है.उसी भाषण में उन्होंने कहा कि इससे उस देश में गोमांस की कीमत बहुत बढ़ गई है. फिर उन्होंने जवानों का आह्वान किया कि वे ऐसा उपाय करें कि पड़ोसी देश के लोग गोमांस खाना ही भूल जाएँ.
पूरी आबादी के खानपान को बदल देने की यह इच्छा कितनी हिंसक है, कहने की ज़रूरत नहीं. अधिकारियों और राजनेताओं को गृह मंत्री के साथ मंच साझा करने की मजबूरी है.लेकिन आखिर एक साहित्यकार इसके लिए बाध्य क्यों महसूस करे कि वह ऐसे हिंसक व्यक्ति को अपना सम्मान करने की इजाजत दे? लेकिन राजनाथ सिंह को एक उदार व्यक्ति के रूप में पेश किया जाने लगा है.और भले संघी तत्त्वों की खोज की जाने लगी है, जिनके साथ सार्वजनिक रूप से उठा बैठा जा सके. दूसरी तरफ,संघ को भी अब व्यापक स्वीकृति और वैधता की आवश्यकता है.
कला केंद्र लेकिन संघ की संस्था नहीं है. भले ही आज के उसके अध्यक्ष संघ-परिवार के हों! तो क्या उनके वहां होने की वजह से केंद्र के कार्यक्रमों में शिरकत बंद कर देनी चाहिए, जो भारतीय करदाताओं के पैसे से चलता है? क्या विश्वविद्यालयों में संघ के या उसके करीबी कुलपतियों के होने के कारण उनमें पढ़ना और पढ़ाना बंद कर देना चाहिए? इसी तर्क के अनुसार क्या नामवरजी को केंद्र के आयोजन में सिर्फ इसलिए नहीं जाना चाहिए कि उसके अध्यक्ष संघ-सदस्य हैं?
यह तर्क-पद्धति हमारी बहुत मदद नहीं करती. इसलिए कि नामवरजी के जन्मदिन का उत्सव तब किया जा रहा था जब देश के श्रेष्ठ लेखक और कलाकार संघ और सरकार के हमलों के शिकार हो रहे थे.ये हमले जारी हैं, यह हाल के रक्षा मंत्री के आमिर खान के खिलाफ दिए गए बयान से जाहिर है.
लेखकों पर सरकारी आक्रमण इसलिए कि उन्होंने मुसलमानों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसक-अभियान की आलोचना की. उनकी आलोचना इन अल्पसंख्यक समूहों के लिए एक बड़ा नैतिक सहारा है क्योंकि संघ-विरोधी राजनीतिक संवर्ग की प्रतिक्रिया आश्वस्तकारी नहीं रही है.
संघ के ‘बुद्धिजीवियों’ ने लेखकों-कलाकारों पर हमलों का समर्थन ही किया है. क्या इस परिस्थिति में कुछ भी ऐसा किया जाना उचित है जिससे उनकी सार्वजनिक स्वीकार्यता और वैधता में वृद्धि हो? क्या मुझे उन लोगों को अपना सम्मान करने की इजाजत देनी चाहिए जो मुस्लिम,ईसाई विरोधी हैं,धर्मनिरपेक्ष भारत की जड़ खोदने पर लगे हैं और मेरे हमपेशा वर्ग पर हमला कर रहे हैं? मेरी पेशेवर और नागरिक नैतिकता क्या कहती है?
अपने जन्मदिन में गृह मंत्री और संस्कृति मंत्री के साथ नामवरजी के खड़े होने के प्रतीकात्मक संदेश को वे न समझते हों, ऐसा नहीं. गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि वे चूँकि एक घोषित वामपंथी के सम्मान में शामिल हैं, अब उन्हें असहिष्णु न कहा जाना चाहिए. इसका कोई उत्तर उस कार्यक्रम में न दिया जा सका. यह करने का साहस वहाँ न होगा, यह कहने का कारण नहीं.लेकिन यह तो साफ़ है कि वहाँ ऐसा करने की इच्छा न थी, या उसकी ज़रूरत न महसूस की गई.बल्कि विडंबना यह कि ऐसा करना शायद शिष्टाचार के विरुद्ध समझा गया हो. राजनाथ सिंह ने अपने बयान से एक तरह से लेखकों के असहिष्णुता-विरोधी अभियान की खिल्ली उड़ाई,क्या यह समझना इतना मुश्किल है?
ऐसा कुछ भी जिससे आलोचना की प्रवृत्ति अप्रासंगिक हो जाए, क्षणिक रूप से सही, क्या होने देना चाहिए? जैसे इन्साफ रोजमर्रा की ज़रूरत है ,वैसे ही आलोचना भी. उसे स्थगित नहीं किया जा सकता, विशेषकर तब जब आलोचक का सम्मान हो रहा हो.
इस आयोजन से नामवरजी संघ या सरकार के पाले में चले गए, यह मानना मूर्खता है. यह कहना भी भी कि यह उनकी लाल से भगवा की यात्रा है, एक चुस्त अखबारी फब्ती से अधिक कुछ नहीं. आज से डेढ़ दशक पहले इस सरकार के अधिक मुलायम संस्करण के सत्तासीन होने के समय ही आलोचना का दुबारा प्रकाशन शुरू होना था.सम्पादक नामवर सिंह ने उसका पहला अंक फासीवाद विरोधी विशेषांक के तौर पर निकाला था.
फासीवाद के साथ हाईडेगर के जाने से की घटना की याद करना अभी असंगत है. नामवरजी ने संघ की राजनीति के पक्ष में कोई वक्तव्य नहीं दिया है. गोर्की जैसे अपने जीवन के उत्तरकाल में स्टालिन के साथ चले गए थे, वैसा कुछ भी अभी नहीं हुआ है.
ऐसे बहुत कम व्यक्तित्व होते हैं जो अपने समय को परिभाषित करते हों. कुछ ऐसे होते हैं जो अपने रचनालोक के मुकाबले बड़े हो जाते हैं. दूसरी श्रेणी में वे होते हैं जिनका रचनाकर्म उनसे बड़ा होता है. ऐसे व्यक्तित्व भी होते हैं, लेकिन बहुत कम, जिनमें दूसरे अपनी आशाओं का निवेश इस कदर कर बैठते हैं कि उनका हर कदम तलवार पर चलने जैसा हो जाता है. वे हमेशा सार्वजनिक निगरानी में रहते हैं. इसलिए अगर वे अपने किसी ‘मानवीय’ क्षण में कुछ ऐसा कर बैठें जिससे उनका प्रतीकात्मक अर्थ खंडित होता हो, तो उन्हें उनके प्रिय भी क्षमा नहीं करते. उनके जीवन की विडंबना यही है कि उन्हें किसी चूक की छूट नहीं. खंडित मूर्ति की पूजा करने की परंपरा हिंदू-संस्कृति में नहीं है,यह किसे नहीं पता!
( सत्याग्रह में पहले 6 अगस्त, 2016 को प्रकाशित)