एक विद्रोहिणी का अकेलापन

इरोम हम जैसा होना चाहती है ?
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(Photo Courtesy : Times of India)
कुछ कुछ तस्वीरें ताउम्र आप के मनमस्तिष्क पर अंकित हो जाती हैं।
चंद रोज पहले टीवी के पर्दे पर नज़र आयी और बाद में प्रिन्ट मीडिया में भी छायी उस तस्वीर के बारे में यह बात दावे के साथ कही जा सकती है। इस फोटोग्राफ में इरोम शर्मिला – जो आज़ाद भारत के सबसे खतरनाक दमनकारी कानून सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (Armed Forces Special Powers Act) के खिलाफ संघर्ष की एक प्रतीक बनी रही हैं – अपना सोलह साल से चल रहा अनशन तोड़ती दिख रही हैं। उन्हें एक चम्मच में शहद आफर किया जाता है और वह बेहद भावुक हो जाती हैं, महज एक बंूद लेकर उसे लौटा देती हैं।
ईमानदारी की बात है कि इस तस्वीर को कई कोणों से पढ़ा जा सकता है – एक कोण हो सकता है कि एक किस्म का हताशाबोध कि दुनिया के पैमाने पर ऐतिहासिक कही जा रही इतनी लम्बी भूख हड़ताल के बावजूद इस खतरनाक कानून को टस से मस नहीं किया जा सका, एक अन्य कोण हो सकता है इस एहसास का कि यह सरकार इस कदर संवेदनाशून्य हो चुकी है कि उससे लड़ने के लिए एक नयी किस्म की रणनीति की जरूरत है – बेकार में जान देने के बजाय, अपनी उर्जा को नए सिरेसे एक नए किस्म के संघर्ष मंे लगाने का – तीसरा कोण यह भी हो सकता है कि  महामानव या महामानवी घोषित किए गए किसी व्यक्ति का उस आरोपित प्रतिमा से तौबा करते हुए यह बताने का कि वह भी एक साधारण मानवी है, जिसके अन्दर बाकी लोगों जैसा जीवन जीने की हसरत है।

मालूम हो कि जिस तरह आज से सोलह साल पहले इरोम ने अनशन करने का फैसला लिया था, खुद अपने तईं और अपने संकल्प पर अडिग रही थी, उसी तरह उसने इस अनशन को समाप्त करने का फैसला लिया है। ख़बरों के मुताबिक उसने अपने बायफ्रेंड से शादी करने तथा चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर की है तथा इस जरिए संघर्ष को आगे बढ़ने का इरादा रखती है।
एक तटस्थ नज़रिये से देखें तो यह समझा जा सकता है कि इरोम का यह फैसला अचानक नहीं आया है।
इरोम के साथ नजदीकी से काम करनेवाले बताते हैं कि भले ही वह इस संघर्ष की आयकन बनी हो, जीते जी उसका संघर्ष दंतकथाओं में शुमार हुआ हो, देश के बाकी हिस्से में लोगों ने उससे प्रेरणा ली हो, मगर हाल के वर्षों में मणिपुर के अन्दर उसके प्रति समर्थन में लगातार कमी दिखाई दी है।
देश के राजनीतिक माहौल में आए बदलाव ने भी निश्चित ही इस फैसले को प्रभावित किया है। याद रहे कि कांग्रेस की अगुआई में संप्रग सरकार के हटने तथा दो साल पहले भाजपा की सरकार बनने के बाद ऐसे तमाम इलाकों में जहां मिलिटेण्ट समूह सक्रिय हैं , सुरक्षा बलों को चुनौती देते दिखते हैं, संवाद की सभी संभावनाएं बिल्कुल समाप्त कर दी गयी हैं। यहां तक कि 2004 में मणिपुर में उठे व्यापक जनान्दोलन के बाद नियुक्त जीवन रेडडी आयोग – जिसे सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम में संशोधन सुझाने के लिए कहा गया था – की सिफारिशों को भी मोदी सरकार ने पूरी तरह से खारिज किया है। जाहिर है, नयी राजनीतिक परिस्थिति ने नयी रणनीति की जरूरत अवश्य पैदा की है।
तीसरे,े भले ही यह कानून वापस न हुआ हो, मगर पिछले माह के सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने इस कानून के तहत सुरक्षा बलों को मिले असीमित अधिकारो की बात को कमसे कम नए सिरेसे सूर्खियों में भी ला दिया है। इस कानून के खिलाफ जो संघर्ष जारी रहा है, जिन फर्जी मुठभेड़ों का सवाल उठता रहा है, उसे सुप्रीम कोर्ट ने सही ठहराया है और जांच के आदेश दिए हैं। सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और यू यू ललित की द्विसदस्यीय पीठ के 85 पेज के फैसले ने इस इलाके में सुरक्षा बलों द्वारा अंजाम दी गयी इन फर्जी मुठभेड़ो के सवाल पर मुहर लगायी है। गौरतलब है कि सवर्योच्च न्यायालय के सामने प्रस्तुत याचिका – जिस पर उसने अपना फैसला सुनाया – उन परिवारजनों द्वारा डाली गयी थी जिनके आत्मीय इसी तरह फर्जी मुठभेड़ांे में मार दिए गए है, जिन्होंने अपने आप को एक संस्था ‘ एक्स्ट्रा जुडिशियल एक्जिक्युशन विक्टिम फैमिलीज एसोसिएशन’ (Extra Judicial Execution Victim Families Association) के नाम पर संगठित किया है। प्रस्तुत संस्था की तरफ से जिन 1528 हत्याओं की सूची अदालत को सौंपी गयी है उन ‘आरोपों की सच्चाई को स्वीकारते हुए’ अदालत ने इन फर्जी मुठभेड़ों की नए सिरेसे जांच करने का आदेश दिया है।
फैसला इस मामले में ऐतिहासिक रहा है कि अदालत ने सरकार की इन दलीलों को सिरेसे खारिज किया कि अगर सुरक्षा बलों को दंडमुक्ति (impunity) प्रदान नहीं की गयी तो उसका उन पर विपरीत असर पड़ेगा, उनका ‘मोराल डाउन’ हो सकता है। उलटे उसने केन्द्र सरकार से इस स्थिति पर आत्ममंथन करने की सलाह दी है कि जनतंत्र में साधारण नागरिक को अगर बन्दूक के साये में रहना पड़े तो उसका उसपर कितना विपरीत असर पड़ सकता है।
हमेें नहीं भूलना चाहिए कि प्रस्तुत फैसले ने अशांत कहे गए इलाकों में सुरक्षा बलों के हाथों अंजाम दी जानेवाली मौतों के इर्दगिर्द कायम किए जानेवाले रहस्य के पर्दे को भेदा है और प्रत्यक्ष सेना के नियंत्राण में रहनेवाले संवेदनशील इलाकों में नागरिक एवं मानव अधिकारों की किस तरह रक्षा की जानी चाहिए इसे लेकर न्यायालयीय नज़ीर कायम की है। अदालत के शब्द थे
‘इस बात से कोई फरक नहीं पड़ता कि पीड़ित आम व्यक्ति था या मिलिटेण्ट था या आतंकवादी था, और न ही इस बात से फरक पड़ता है कि आक्रांता आम व्यक्ति था या राज्य था। कानून दोनों ही मामलों में समान रूप से चलना चाहिए.. यही जनतंत्र की जरूरत है और कानून का राज तथा व्यक्तिगत आज़ादियो की रक्षा की आवश्यकता है।’
जानकारों के मुताबिक इस कानून को पहली दफा इतना बड़ा झटका अदालत की तरफ से मिला है। अदालत ने साफ कहा है कि हथियारबन्द मिलिटेण्ट भी देश के अपने ही नागरिक हैं और उन्हें मार देने का सुरक्षा बलों को कोई अधिकार नहीं है।
कहने का तात्पर्य सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम के खिलाफ जारी संघर्ष को एक मुकाम पर पहुंचा कर और बदली परिस्थितियों में बदली रणनीति की आवश्यकता को समझ कर इरोम ने अपने अनशन को वापस लिया है। स्पष्ट है कि अपना अनशन समाप्त करने के इरोम के फैसले के अपने तर्क देखे जा सकते हैं ं, मगर यह फैसला मणिपुर की जनता को रास नहीं आ रहा है। वह उसे उसी रूप में देखना चाहते रहे हैं, जैसी छवि बहुचर्चित रही है। अब जो ख़बरें छन छन कर सामने आ रही हैं वह बताती हैं कि इरोम के इस फैसले से न केवल लोगों का एक हिस्सा गुस्से में है, यहां तक कि उसकी मां तथा अन्य आत्मीय जन भी खुश नहीं है। कुछ लोग इस वजह से भी नाराज बताए जाते हैं कि उन लोगों ने इरोम का तहेदिल से साथ दिया और आज भी दे रहे हैं, मगर इस फैसले की घड़ी में उसने उनसे सलाह मशविरा करना भी मुनासिब नहीं समझा।
कुछ रैडिकल समूहों को यह भी लगता है कि उसने आन्दोलन के साथ द्रोह किया है। यह अकारण नहीं कि अनशन समाप्त करने के उसके ऐलान के बाद मणिपुर में सक्रिय दो विद्रोही गुटों – कांगलाई यावोल कन्ना लूप और कांगलाईपाक कम्युनिस्ट पार्टी ने उसे एक तरह से अनशन वापस न लेने का अनुरोध किया था और संकेतों में यह धमकी दी थी कि अगर वह ऐसा करेगी तो उसे वह समाप्त भी कर सकते हैं। उनके अपने तर्क हैं – उनका मानना है कि एक ऐसे समय में जबकि सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम के खिलाफ संघर्ष नहीं हो पा रहा है उस वक्त इस मसले पर अंतरराष्टीय ध्यान आकर्षित करने में उसका अनशन एक अच्छा प्रतीक रहा है और अब इरोम के ‘हट जाने से’ वह ध्यान हट जाएगा।  उन्हें यह भी लगता है कि मणिपुर में अन्तरनस्लीय विवाह करने या संमिश्र विवाह करने का जो प्रचलन बढ़ रहा है – जिससे देशज आन्दोलन की पहचान मिटने की संभावना बन रही है – उसे एक नयी गति मिलेगी, अगर इरोम भी गोवा में जनमे ब्रिटिश नागरिक अपने बायफें्रड से शादी करेगी।
शायद यही असन्तोष अन्दर ही अन्दर खदबदा रहा था जो अनशन समाप्ति की घोषणा तथा मीडिया के सामने उसके अमल के बाद बाकायदा उजागर हुआ, जो किसी के लिए भी अप्रत्याशित था। प्रेस कान्फेरेन्स समाप्त होने के बाद वह पुलिस के वाहन में अपने उस दोस्त के घर जाने के लिए निकली, जिसने अपने यहां टिकने का उसे न्यौता दिया था। और पता चला कि उस कालोनी के गेट उसके लिए बन्द कर दिए गए हैं, यहां तक कि स्थानीय इस्कॉन मंदिर ने भी उसे शरण देने से इन्कार किया। अन्ततः उसे जवाहरलाल नेहरू अस्पताल के उसी कमरे में लौटना पड़ा जहां कड़ी सुरक्षा के बीच वह अपने इस अनशन को चला रही थी, जहां उसे नाक में डाली नली से द्रव्य पदार्थ दिए जा रहे थे। ताज़ा समाचार के मुताबिक स्थानीय रेडक्रास ने उसे यह आफर दिया है कि वह उनके यहां रह सकती है, जब तक उसकी इच्छा हो वह वहां निवास कर सकती है।
निश्चित ही लोगों के इस व्यवहार से – जिन्होंने उसे इतने सालों तक ‘लौह महिला’ के तौर पर देखा, सराहा ; मगर जो उसके इस ताज़ा फैसले से वह क्षुब्ध हैं – इरोम बेहद व्यथित हैं। एक पत्राकार से बात करते हुए उसने कहा कि ‘लोगों ने उसके इस कदम को गलत समझा। मैंने संघर्ष का परित्याग नहीं किया है, बस अपनी रणनीति बदली है। मैं चाहती हूं कि वह मुझे जानें .. एक निरपराध व्यक्ति के प्रति उनकी तीखी प्रतिक्रिया .. वह बहुत कठोर हैं।’ और वह मौन धारण कर लेती है।
फिलवक्त वह तमाम बातें इतिहास हो चुकी है कि मणिपुर की राजधानी इम्फाल से 15-16 किलोमीटर दूर मालोम नामक स्थान पर किस तरह सुरक्षा बलों की कार्रवाई के खिलाफ वह अनशन पर बैैठी थी। 2 नवम्बर 2000 को सुरक्षा बलों ने वहां बस स्टैण्ड पर अंधाधुंध गोलियां चला कर दस मासूमों को मार डाला था, जिस घटना से उद्विग्न इरोम अपने घर से सीधे  मालोम बस स्टैण्ड पहुंची थी, जहां के रक्त के दाग अभी ठीक से सूखे भी नहीं थे। और वहीं पास बैठ कर उसने अपनी भूख हड़ताल की शुरूआत की थी।
इरोम के ताज़ा फैसले से सहमति-असहमति अपनी जगह हो सकती है, मगर एक वक्त महामानवी के तौर पर उसका महिमामंडन और अब खलनायिका के तौर पर उसे देखना या उससे यथासंभव दूरी बनाने जैसा लोगों का पेण्डुलम नुमा व्यवहार, अपने समाज को लेकर गहरे प्रश्न खड़ा करता है। क्या उसे अदद वीरों/वीरांगनाओं की हमेशा तलाश रहती है जिनका वह गुणगान करे, जिनके नाम पर वह कुर्बान होने की या मर मिटने की बात करे, मगर उसका अपनी ताकत पर भरोसा नहीं होता है। और जिस क्षण वही वीरांगना उनके छवि की वीरांगना नहीं रहती या वीर उनके कल्पना का रणबांकुरा साबित नहीं होता, तो उसे खारिज करने में उसे वक्त नहंीं लगता।
यह भी दिखता है कि आज़ादी के सत्तर साल बाद भी अब भी व्यक्तिगत स्वतंत्राता की संकल्पना का उसके अन्दर गहराई से स्वीकार नहीं हुआ है, वह व्यक्ति को भी समुदाय के साथ पूरी तरह से नत्थी कर देता है और इस बात की चिन्ता नहीं करता कि उसकी अपनी निजता, अपनी आकांक्षाओं का, कामनाओं का वह किस कदर हनन कर रहा है।
लाजिम है कि इरोम शर्मिला की कुछ मानवीय हसरतें उसे आगबबूला कर देती हैं और वह फिर कुछ भी करने को तैयार हो जाता है।

3 thoughts on “एक विद्रोहिणी का अकेलापन”

  1. Sharmila ‘Ek shola hai Jo virodhi ke Mann mei aag jalati
    Sharmila ‘Ek Shannan hai Jo apnomei charaag jalati
    Sharmila ‘Ek sitara hai Jo logon ki aankhoon mei timtimati
    Sharmila ‘Ek kinara hai jahan aashaon ki pool khilkhilati

    Abhi doori hai manzil .. door hai kinara
    Aao sab Millar chale tum mai aur sharmila
    AFSPA ki andherey Tod kar karey ishara
    Sarkar hamaraa hogs ladenge bin Rike silsila

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  2. The reactions of these political groups is extremely selfish and exposes their very shallow commitment to the cause. When Irom Sharmila went on the fast, it was her decision. She was not directed by these political outfits to go on a fast for 16 years ! They supported her and it helped their cause also. Some disappointment to them is natural, but their reactions to the extent of finishing her is downright abominable exposing the extreme immaturity.

    It exposed that their support to Sharmila’s cause of civil liberty was only to the extent of political mileage without actually having any commitment to the cause of civil liberties (which of course included Sharmila’s liberty also).

    This is the danger of support of people without any real understanding of the issue. This is what Karl Marx talked about when mobilizing support for the communist movement in USSR .

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