Guest Post by ROHIN KUMAR
संस्थान के गेट पर सरस्वती की प्रतिमा थी ही. नारद पहले पत्रकार बताए जाते रहे हैं. अब बचा था हवन वो भी होने ही वाला है. आईआईएमसी मीडिया स्कैन नामक संस्था के साथ मिलकर ‘वर्तमान परिदृश्य में राष्ट्रीय पत्रकारिता’ पर सेमिनार आयोजित करने जा रहा है. इसकी शुरुआत हवन से होनी है. उसमें पांचजन्य के संपादक और बस्तर का खूंखार आईजी कल्लूरी आमंत्रित है. चौंकाने वाली बात है कि कल्लूरी जिसने सबसे ज्यादा आदिवासियों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को तंग किया, उनपर फर्जी केस डाले वो ‘वंचित समाज के सवाल’ पर बोलने आ रहा है.
हमें इसकी सूचना दो दिन पहले मिली. सोशल मीडिया पर इसके पोस्टर रिलीज़ किये गए थे.
सबसे पहले हम छात्रों ने इसका सोशल मीडिया पर विरोध दर्ज किया. इसमें कई पूर्व छात्रों का हमें समर्थन भी प्राप्त हुआ. संस्थान में पढ़़ाने वाले शिक्षकों को फ़ोन किया, उनसे जानना चाहा कि आखिर उनकी इसपर कोई राय है?
जानकर हैरानी हुई कि उन्होंने छात्रों से बिलकुल डरे सहमे अंदाज़ में बात किया. इस बाबत जानकारी से इनकार कर दिया. फिर डिप्लोमेटिक जवाब देने शुरू किये- “चुंकि हमें कोई आधिकारिक सूचना इस कार्यक्रम के बारे में नहीं मिली है इसलिए मैं इसे फेक न्यूज़ मान रहा हूं.” इतना कहकर मीडिया एथिक्स पढ़ाने वाले टीचर ने कन्नी काट लिया.
रेडियो वाली मैम को फ़ोन किया. उन्होंने जानकारी होने की बात कुबूली लेकिन कोई भी कमेंट करने से साफ़ इंकार कर दिया. हिंदी पत्रकारिता के विभागाध्यक्ष से क्लास के व्हाट्सअप ग्रुप में सवाल किया. ग्रुप में हवन पर बहस छिड गई. विभागाध्यक्ष ऑनलाइन रहे, सन्देश पढ़ते रहे लेकिन बार-बार आग्रह करने के वावजूद कुछ भी नहीं कहा.
महानिदेशक केजी सुरेश के ऑफिस में फ़ोन किया. उनके पर्सनल असिस्टेंट ने फ़ोन उठाया. बताया कि साहब 6 बजे के बाद आएँगे. 6 बजे के बाद दो बार फ़ोन किया. फुल रिंग होते रहा किसी ने फ़ोन नहीं उठाया.
उसी रात मैं और हमारे कई साथियों ने महानिदेशक समेत सारे फैकल्टी मेंबर्स को ईमेल भेजा जिसमें स्पष्ट तौर से अपील की गई कि इस कार्यक्रम को तुरंत रद्द किया जाए. शिक्षकों से निवेदन किया गया कि कृपया स्टैंड लीजिए. आपके आँखों के सामने संस्थान को खोखला किया जा रहा है. लेकिन अफ़सोस शिक्षकों ने हमारा यकीन तोड़ा.
अब कार्यक्रम होने में महज 24 घंटे का वक्त बाकि है इसलिए मैं काफिला के माध्यम से अकादमिक संस्थानों, पत्रकारों, और शिक्षकों के नाम एक खुला पत्र लिख रहा हूँ –
सबसे पहले इस ‘अदम्य’ साहस के लिए प्रथम छात्रविरोधी फासीवादी महानिदेशक को शुभकामनाएं- ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोहम्’.
केजी सुरेश की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से नजदीकियां रही है. वो विवेकानंद फाउंडेशन (आरएसएस का थिंक टैंक) से जुड़े रहे हैं. पायनियर में जेएनयू को दुत्कारते रहे हैं, वहां छात्रों के छात्रों और शिक्षकों को देश द्रोही कहते रहे है. संस्थान में हवन करवाना इसी बड़े प्रोजेक्ट का एक एजेंडा है.
मुख्य सवाल शिक्षकों से है. आईआईएमसी की विरासत तैयार करने में छात्रों और आप शिक्षकों की भूमिका रही थी. डीजी का कार्यकाल तीन साल का ही होगा. लेकिन जो नुकसान वो एक साल में कर चुके हैं उसके आधार पर मैं दावे के साथ कह रहा हूं- तीन साल में वो संस्थान ले डूबेंगे. उस दिशा में हम आगे बढ़ भी चले हैं.
आप लोग देशभर के शिक्षण संस्थानों के भीतर के हालत देख रहे हैं. शिक्षण संस्थानों के अकादमिक माहौल पर लगातार हमलें जारी हैं. विविधताओं को ख़त्म कर एक रंग में रंगने की साजिश है. अब हमला हमारे ऊपर हो रहा है. वक्त है की आप हमारे साथ हमारा साथ दें. आपने जो पढ़ाया उसे हकीकत में आजमाने का वक्त आ चुका है. अब नहीं बोलेंगे तो कब? आपका काम सिर्फ क्लासरूम के लेक्चर तक नहीं था. आपकी समाज में भी एक सक्रिय भूमिका होनी थी. एक एक्टिविस्ट होना था.
आप अमित सेनगुप्ता के ट्रान्सफर पर चुप रहे, 25 दलित सफाई कर्मचारियों को बाहर निकाल दिया गया, नरेन सिंह राव को अचानक टर्मिनेट कर दिया गया, आपके स्टूडेंट को बिना नोटिस के सस्पेंशन दिया गया, संस्थान में जबरदस्त सर्विलांस है (हर जगह कैमरा लगवा दिया, सोशल मीडिया पर लाइक-कमेंट तक पर डीन स्टूडेंट वेलफेयर प्रिंटआउट निकल लेती है) संस्थान के भीतर महिला कर्मचारी ने क्लर्क पर रेप का आरोप लगाया…इतने के बावजूद आपलोग चुप रहे.
मुझे गैंग्स ऑफ़ वासे्पुर याद आ रही है. जहाँ फैज़ल की माँ फैज़ल से पूछती है- ‘तेरे बाप को, भाई को मार दिया. तेरा खून कब खौलेगा रे?’ मैं भी आपलोगों से पूछना चाहता हूं- ‘संस्थान को खोखला किया जा रहा है आपका मुंह कब खुलेगा?’
हमें सिर्फ दो प्रश्नों के उत्तर दीजिये-
क.) भारतीय राज्य द्वारा संचालित संस्थान किसी धार्मिक यज्ञ समारोह का हिस्सा कैसे हो सकती है?
ख.) ‘राष्ट्रीय’ पत्रकारिता क्या होती है?
महानिदेशक बयान दे रहे हैं कि यज्ञ भारतीय परंपरा का हिस्सा है. इससे उनका एजेंडा साफ़ है. संघ की कोशिश और क्या है? हर हिन्दू धर्म की मान्यताओं को भारतीय बनाकर पेश करे. अपने-आप दुसरे उससे बाहर हो जाएंगे. सावरकर की हिन्दू राष्ट्र थ्योरी क्या थी? चुंकि मुसलमानों और ईसाईयों का पवित्र स्थान मक्का और जेरूसलम है इसलिए वो बाहरी है. जैन और बुद्ध को हिन्दू धर्म में समाहित करने की कोशिश करते ही हैं.
डीजी कह रहे हैं कि कल को संस्थान में नमाज भी होने देंगे यही सेकुलरिज्म है. संघ का सेकुलरिज्म यही है और डिबेट को बरगलाने की कोशिश है. हॉस्टल में छात्र नमाज पढ़ते हैं, भगवान की फोटो रखते है..कोई विरोध करता है? नहीं न क्योंकि वो व्यक्तिगत स्तर पर करता है. उसमें राज्य भागीदार नहीं होता. यहाँ राज्य की संस्था उसमे भागीदार है. हमारे संविधान ने राज्य और उसकी संस्थाओं को सैधान्तिक दूरी बना कर चलने का प्रावधान दिया है.
आईआईएमसी ना तो सरस्वती शिशु मंदिर है ना ही मदरसा है जहाँ संस्थान यज्ञ या नमाज़ को प्रमोट करेगी.
गंभीर समस्या है- ‘राष्टीय पत्रकारिता’? पत्रकारिता का राष्ट्रवाद क्या है? इन तीन वर्षों के पहले तो कभी भी ये नहीं सुना था. किसी चिन्तक ने राष्ट्रीय पत्रकारिता की बात नहीं की? इन तीन वर्षों में ऐसा क्या हो गया है जो पत्रकारों के काम की राष्ट्रीयता जांची जाएगी?
आज सत्ता और राष्ट्र एक दूसरे का पर्याय बन चुके है. दंगाई शासक महान कहलाने लगे हैं. प्रधानसेवक की आलोचना देशद्रोह हो चुकी है. आप सेना पर सवाल नहीं कर सकते. सर्जिकल स्ट्राइक, ईवीएम, कुलभूषण जैसे मामलों पर आप सरकार से सवाल नहीं कर सकते. आपको स्टेट का नैरेटिव ही मानना होगा. ऐसे राष्ट्रवाद में जनसरोकार कहां है? सेमिनार में बुलाये गए वक्ताओं की लिस्ट देखिये, उसमे कोई भी प्रतिष्ठित पत्रकार या बुद्धिजीवी नहीं है. किसी का भी कोई विश्वसनीय काम नहीं है और वो बोलने आ रहे हैं कश्मीर पर, इतिहास के पुनर्लेखन पर.
देश की बुनयादी समस्याओं जनसरोकार की ख़बरें हवा हो गई इस तथाकथित ‘राष्टीय’ पत्रकारिता में. हम सूडो वेबसाइट, फर्जी खबरें, पोस्ट ट्रूथ के ज़माने में आ गए. बतौर पत्रकारिता के छात्र और टीचर हमें इनसे लड़ना है. इनसे पार पाना है. प्रोपगेंडा पहचाने और उसे खत्म करने की जिम्मेदारी हमारी है. क्या हमारे प्यारे टीचर्स इतने मासूम हैं कि ये समझ ही आ रहा है? क्लासरूम में समझ आता है लेकिन इस समय पत्रकारिता संस्थान ही पत्रकारिता को एक और धक्का दे रहा है..आप खामोश है?
संस्थानों को बच्चों को क्रिटिकल थिंकिंग के लिए तैयार करना था. उन्हें भेड़़-बकरी की तरह हांक दिए जाने वाले झुंड नहीं तैयार करने थे. इस समूचे अकादमिक माहौल को ख़राब करने के लिए ही विश्वविद्यालयों और संस्थानों में ऐसे लोगों को बिठाया जाना शुरू हुआ जो उन पदों के लायक थे ही नहीं. एफटीआईआई से लेकर हाल में बहाल किये गए आईसीएसएसआर तक और उसी कड़़ी का एक हिस्सा आईआईएमसी के केजी सुरेश भी हैं.
गुजारिश है कि कम से कम संस्थान के उद्देश्य और उसे क्यों तैयार किया गया था इसपर दोबारा विचार किया जाए. इसकी विरासत बनाये रखने की जिम्मेदारी भी हम छात्रों और टीचर्स की ही है. पूर्व निदेशक जेएस जादव ने भी संस्थान के भीतर हो रहे इन बदलावों पर चिंता जताते हुए कहा है कि इस तरह के कार्यक्रम संस्थान के भीतर कभी नहीं हुए थे.
हमारे प्यारे टीचर्स, इस सुविधाजनक चुप्पी से आप सिर्फ अपना ही नुकसान नहीं कर रहे बल्कि समूचे शिक्षक और स्टूडेंट के बीच के यकीन को तोड़़ रहे हैं. पत्रकारिता बचा लीजिये. देश तार्किकता के स्तर पर पचास साल पीछे जा रहा है. संघ और प्रोपगेंडा से संस्थान को बचा लीजिये.
बस्तर का खूंखार आईजी कल्लूरी ‘वंचित समाज के सवाल’ पर बोलने आ रहा है. वाह, और आप इसे होने दे रहे हैं. क्या आपलोगों को नहीं मालूम कि उसने वहां आदिवासियों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को नक्सली बताकर फर्जी केस में बंद करवाया है? मानवाधिकार आयोग ने छत्तीसगढ़ पुलिस को कितनी बार दोषी माना है. ऐसा व्यक्ति वंचित समाज के उत्थान पर बोलेगा फिर तो कल को आपलोगों को भी साइड लगाकर अर्नब गोस्वामी से मीडिया एथिक्स, सुभाष चंद्रा से मीडिया स्वामित्व पर बुलवाया जाने लगेगा और इसकी शुरुआत आपकी चुप्पियों और ‘वेट एंड वाच’ प्रवृति से होगी.
आपकी ख़ामोशी की बड़ी वजह यही है न कि आप केजी सुरेश के नज़रों में खटकने लगेंगे? कल को आपका ट्रान्सफर या सस्पेंशन हो जाएगा? इसी से तो लड़ना है. आखिर राज्य ने दक्षता और राजकोष का तर्क देकर ही कॉन्ट्रैक्ट और टेंडर व्यवस्था लागू कर दी. आज आउटसोर्सिंग की नौकरियों का हाल आपके सामने है. ये व्यवस्था हमारे अधिकारों पर लगाम, नियंत्रित और भय पैदा करने के लिए शुरू हुआ था.
यह सोचने-बोलने वालों को धीरे-धीरे ख़त्म कर देने की साजिश है. संस्थानों को संघ की शाखा में बदल देने की साजिश है. लोगों के अंदर ऐसा डर भर देना है कि कोई मुंह ना खोले. कोई चूं-चां तक भी करने की हिम्मत ना करे. सारे विश्वविद्यालयों/कॉलेजों में विविधता ख़त्म कर देना चाहते हैं. छात्रों को क्रिटिकल थिंकिंग के लिए तैयार करना था. इन साजिशों का पर्दाफाश करना, आवाज उठाना हमारा प्रतिरोध है. प्रतिरोध करना ही खुद के ज़मीर को बचाए रखना है.
डीजी साहब आप ओब्जेक्टिविटी का जिक्र करते हैं ना, अब इसका ओट मत लीजिएगा. विवेकानंद फाउंडेशन से आपका जुड़ना, ‘जेएनयू का प्रभाव कम होना’ अपने बचकाना इंटरव्यू को नोटिस बोर्ड पर लगवाना..आपका संघ में कद जरुर ऊंचा कर रहा होगा. लेकिन उसके लिए पत्रकारिता संस्थान को चौपट करने की क्या जरुरत थी? इसको छोड़ दीजिये सर. प्लीज.
जब सस्पेंशन पर हमारे साथी #IStandWithRohin चला रहे थे . आपने ट्विटर पर चलाया #IStandWithIIMC. तब भी हमने कहा था रोहिन आईआईएमसी का हिस्सा है. उसके विपरीत नहीं. आज भी हमसब #IStandWithIIMC ही हैं लेकिन आप #IStandWithRSS मोड में चले गए.
डीजी कह रहे हैं, “कुछ वामपंथी छात्र संस्थान का नाम ख़राब करना चाहते हैं.” सो क्यूट. हालांकि उनकी ये चिढ़ पुरानी है. इस कदर है कि उन्होंने संस्थान के नोटिस बोर्ड पर लगवाया था- ‘जेएनयू का प्रभाव हुआ कम’. अब हमें वामपंथी कहकर ख़ारिज करने की कोशिश कर रहे हैं. कीजिये. हमलोग मुद्दे पर बोलेंगे ही लाख वामपंथी कह लीजिये.