Guest post by KASHISH BADAR
हरियाणा सरकार को घू़ंघट पर कुछ बोलने से पहले इन महिलाओं की बात सुन लेनी चाहिए थी.
जब हरियाणा सरकार ने अपनी मासिक पत्रिका में एक घूँघट काढ़ी हुई औरत को राज्य की आन, बान और पहचान कहा तो मीडिया में इसका काफ़ी विरोध हुआ. फ़ेस्बुक पर लोगों का यह कहना था कि जब साक्षी मालिक, गीता फोगत, संतोष यादव और कल्पना चावला जैसी औरतें हरियाणा का नाम दुनिया भर में रौशन कर रही हैं, तब भी हरियाणा सरकार क्यूँ घूँघट वाली औरतों को ही अपनी शान समझती है. क्या उन औरतों की मेहनत, लगन और सफलता राज्य की शान नहीं है? क्या सिर्फ़ पुरुष खिलाड़ी ही राज्य को गर्व महसूस करवा सकते हैं?
स्वयं हरियाणा की औरतों के इस विषय पर विचार लेने मैं रेवाड़ी ज़िला गयी. वहाँ कुछ औरतों से घूँघट के और उनकी शान के विषय में बात की.
ममता यादव, सेंतिस साल की शादी शुदा औरत हैं.
उनका कहना था की “हम लोगों ने तो घूँघट निकाल लिया बिना किसी दिक़्क़त के, पर आगे आने वाली पीढ़ी पर इसके लिए प्रेशर नहीं होना चाहिए. अब सब पढ़े लिखे हैं और खुल के जीना चाहते हैं. हमने अपने बचपन से ही देखा है सबको घूँघट काढ़ते हुए. अब तो कम ही औरतें घूँघट रखती है. आने वाली पीढ़ी तो बिलकुल नहीं करेगी. हमें अब आदत हो गयी है, तो कोई हटाने के लिए बोलेगा भी तो हम नहीं हटा पाएँगे. इसके बिना शर्म आती है.”
नेहा यादव, एक पढ़ी लिखी सत्तायिस साल की नर्स हैं. इनके मायके में कोई घूँघट नहीं करता था, पर पिछले साल विवाह होने के बाद से इन्हें बाहर जाते समय घूँघट करना पढ़ता है. “मेरा मानना है कि घूँघट कोई ज़रूरी चीज़ तो है नहीं, पर प्रथा है तो निभानी पढ़ती है. जब पहली बार घूँघट निकाला था तो बहुत दिक़्क़त हुई थी. ना सीधा चल पा रही थी और ना कुछ काम कर पा रही थी. बढ़े बूढ़ों की वजह से मजबूरी में हमें इसका पालन करना पढ़ता है. वो लोग मना करदें घूँघट निकालने के लिए, तो हम निकालना बंद कर देंगे.
सुनिता यादव, जिन्होंने जिन्होंने बत्तीस साल की उम्र में अपनी पति को खो दिया था और उसके बाद अपने दोनों बेटों को अकेले ही पाला, आज आर्थिक रूप से पूरी तरह स्वतंत्र हैं. खेती और पशुपालन करके और थोड़ा लोन लेके इन्होंने अपने और अपने बच्चों के लिए ख़ुद दो मंज़िल का घर बनाया है. इनका कहना था की “घूँघट हटा दो तो आदमी दिल से इज़्ज़त नहीं करता औरत की. जब आदमी औरत को आँख में नहीं देखेगा तो दोनों में शर्म रहेगी. घूँघट हटाने से ये शर्म भी हट जाती है.”
आनंदी पचपन साल से घूँघट कर रही हैं. उनके लिए घूँघट उनके अस्तित्व का हिस्सा है, बोलती हैं कि “मैं शादी के बाद से ही घूँघट करती आ रही हूँ. आज तहत्तर साल की हूँ. शुरू में रीति रिवाज की वजह से काढ़ना पढ़ा, और धीरे धीरे आदत सी बन गयी. लेकिन मैंने कभी अपनी बहुओं को घूँघट करने के लिए नहीं बोला. मेरी बहुएँ पढ़ी लिखी है और घूँघट नहीं करती. और मझे इससे कोई ऐतराज़ नहीं. अठारह साल की थी जब मैंने घूँघट करना शुरू किया और मझे कोई दिक़्क़त नहीं हुई थी.”
रोशनी हरियाणा के हेल्थ डिपार्टमेंट में काम करती है. इन्होंने कभी घूँघट नहीं काढ़ा. इनका ये मान्ना है की शर्म और लिहाज़ इंसान के दिमाग़ में होते हैं. “मैंने कभी घूँघट नहीं काढ़ा, पर अपने बढ़ो की हमेशा इज़्ज़त करी और हमेशा उन्हें प्यार से रखा. उन्होंने भी कभी मझ पर किसी तरह का दबाव नहीं डाला. मैं चाहती हूँ हरियाणा के लोग इन बेड़ियों से बाहर निकले. पढ़े लिखे और आगे बढ़े.” रोशनी की बेटी IAS बन्ने की तय्यारी कर रही है.
अंग्रेज़ों से अपनी औरतों को बचाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला घूँघट, अंग्रेज़ों के जाने के बाद भी हमारे जीवन में ही रहा, और ना सिर्फ़ बाहर जाने के समय काढ़ा जाने लगा, बल्कि घर में भी आदमियों से पर्दा करने के लिए इस्तेमाल होने लगा. ऐसे ये हमारे रीति रिवाज का हिस्सा बन गया.
सभी ने ये माना की ये रिवाज आदमियों ने ही बनाया और वोहि इसका पालन करने के लिए बोलते हैं. अगर कोई औरत बिना घूँघट के आते-जाते इन्हें दिख जाती है, तो ये उसके बारे में इधर उधर बात ज़रूर करते हैं. अपने घर की औरतों से वे ये बात ज़रूर करते हैं, फिर वो औरतें आपस में इसपे चर्चा करती हैं.
इन सभी औरतों के लिए घूँघट रीति रिवाज का हिस्सा है. ये ज़रूर किसी के लिए उनके अस्तित्व का एक अहम हिस्सा बन गया है और कोई इसको सिर्फ़ एक मजबूरी के तहत काढ़ता है, लेकिन एक चीज़ जिस पर ये सब सहमत हुई वो थी ये कि ये उनकी शान नहीं है.
कशिश बदर गर्ल्ज़ काउंट से जुड़ी हुई हैं और जेंडर पर काम करती हैं।
निर्णय लेने से पहले सरकार को नारीवादी संगठनों से परामर्श करना चाहिए था