Guest post by YASH PAL ROHILLA and SANTOSH SHARMA
हाल के वर्षों में हुई दो घटनायें उल्लेख के लायक हैं। पहली एक कॉलेज में पढ़ने वाली छात्रा ने मुखौटा लगाकर भीड़ के सामने अपनी कहानी बयान की, जिसमें उसने बताया कि किस तरह से उसे कॉलेज की पढ़ाई के लिए, लिए गए कर्ज को उतारने में देह फरोख्ती का सहारा लेना पड़ा। दूसरी घटना मे लगभग एक लाख विद्यार्थी सड़कों पर उतर आए क्योंकि उन्हें मंजूर नहीं था कि उनके देश की सरकार परा-स्नातक की पढ़ाई के लिए भी ट्यूशन फीस ले। पहली घटना अमेरिका में हुई और दूसरी जर्मनी में। दोनों घटनाएं विचारधारा सम्मत हैं: पहली पूंजीवाद का फल है और दूसरी लुप्त होते सामाजिक लोकतंत्र की निशानी।
भारत की वर्तमान सरकार ने अमेरिका वाला रास्ता अपना लिया है। इसका एक पुख्ता उदाहरण है जवाहर नवोदय विद्यालय में फीस वृद्धि। जवाहर नवोदय विद्यालय की स्थापना करना एक विशिष्ट व आदर्शोन्मुख कदम था। यह कदम, तब जब राजीव गांधी प्रधान मन्त्री थे और पी.वी नरसिम्हा राव मानव संसाधन विकास मन्त्री, 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत लिया गया। इस नीति के तहत, अन्य कदमों के अतिरिक्त, देश के हर जिले में नवोदय विद्यालय होगा जिसमें छठी कक्षा में 80 सीटों पर दाखिला होगा; दाखिले के लिए पांचवीं स्तर से कठिन व मेधा मापने वाली प्रतियोगी परीक्षा होगी जिसमें कम से कम 75 प्रतिशत सीटें ग्रामीण क्षेत्र के विद्यार्थियों और बाकी शहरी क्षेत्र के विद्यार्थियों के लिए आरक्षित होगीं। एक तिहाई लड़कियों के लिए और अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए सरकारी प्रावधान के अनुसार। अन्य पिछड़ा वर्ग का आरक्षण अभी भी लागू नहीं है। हालांकि यह कहना आवश्यक है कि उस वक्त जब नवोदय विद्यालय की शुरूआत हुई थी तब कहीं पर भी यह आरक्षण नहीं था। विद्यालय आवासीय सुविधाएं देगा और सारा खर्च केन्द्र सरकार वहन करेगी।
पहले दो नवोदय विद्यालय 1986 में आरंभ किए गए जिसमें एक हरियाणा के झज्जर और दूसरा महाराष्ट्र के अमरावती में थे। 2018 में होने वाली प्रतियोगी परीक्षा की विवरणिका में बताया है कि अब तक अनुमोदित 660 विद्यालयों में से 626 विद्यालय कार्यरत हैं।
जैसा की नवोदय की वेबसाइट लिखती है सच में र्सिफ भारत ही नहीं बल्कि विश्व भर के नजरिए से यह विद्यालय एक अनूठा प्रयोग रहा है। एक विशेष विद्यालय होने के नाते नवोदय की उपलब्धियां भी उम्मीदों को लांघती व विशेष हैं। 12वीं के बाद राष्ट्र स्तर पर होने वाली दो प्रतिष्ठित व कठिन परीक्षाओं में नवोदय का प्रदर्शन बेहतरीन रहा है। 2017 के जे.ई.ई. मेन परीक्षा के परिणाम के अनुसार नवोदय विद्यालय के विद्यार्थियों का पास प्रतिशत 36 प्रतिशत है जो कि औसत से करीब 2 गुणा है। 2017 की ही एन.ई.ई.टी. (नीट) परीक्षा में भी नवोदय विद्यालय का परिणाम 83 प्रतिशत रहा जोकि भारत के औसत 56 प्रतिशत से कहीं अधिक है। बोर्ड परीक्षाओं में भी नवोदय का पूरे देश में अव्वल रहना लगभग एक आदत की तरह देखा जा सकता है।
आज नवोदय के सैंकड़ों विद्यार्थी देश के आई.आई.टी. में और अन्य बेहतर संस्थानों में पढ़ रहे हैं। हालांकि आई.आई.टी. को गुणवता का सर्वोचित मानक मानना संगत नहीं है, पर वर्तमान परिस्थितियों में मेहनत और मेधा की काबलियत का यह एक व्यावहारिक सूचक हो सकता है। इन सारे तथ्यों से यह कहने का प्रयास है कि नवोदय विद्यालय इस देश की साझी और विशेष सामाजिक धरोहर है जिसकी परिकल्पना की जड़ें सिमटती हुई आदर्शवादिता में मिलती हैं। मूलभूत प्रश्न यह है कि क्या शिक्षा आती हुई पीढ़ियों के लिए जाती हुई पीढ़ियों की नैतिक और भावनात्मक जिम्मेदारी है या खरीद फरोख्त की वस्तु ?
बाहर से नापे जा सकने वाले परीक्षाओं के परिणामों में सफलता के कारण बहुत मायनों में नवोदय की कक्षाओं और छात्रावासों में पली बसी मेधा है, पर इसके रिसाव को रोकती समता भी है। बाकी भारत में भी वो मेधा पैदा होती है पर उसका अधिकाधिक हिस्सा इस देश के गाँवों, कस्बों और शहरों में व्याप्त वर्ग, जाति, धर्म, स्थान और लिंग भेदों से जनित विरोधाभासों, अन्यायों और नीतिगत-पक्षपातों की बली चढ़ जाता है।
कुछ मायनों में बाहरी भारत का भेद-भरा वातावरण नवोदय की चारदीवारियों से बाहर ही रह जाता है। अपने-अपने गाँवों और शहरों से चुनिंदा होने की जिम्मेदारियों का वहन करते-करते और घर से दूर नए परिवेश में ढलते-ढलते ये विद्यार्थी भेद के उथलेपन और समानता के गहरेपन का अनुभव पाते हैं । इन विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्र-छात्राएं गाँव और शहर; उच्च, मध्यम एव निम्न आर्थिक श्रेणी; अधीन और आधिपत्य वाली जाति के विभाजनों और पूर्वाग्रहों को सहज नकारना व पार करना सीखते हैं । एक साथ एक तरह का खाना खाना, कपड़े पहनना, दिनचर्या व्यतीत करना, त्यौहार मनाना, खेलना और शिक्षित होना अबाध गति से यहाँ चलता रहता है। बाकी भारत में इतनी स्वच्छ मानसिकता और शुद्ध मानवीयता का माहौल पैदा नहीं हो पाया है। कम से कम इस तरह की कोमल निर्माणकारी उम्र के पड़ाव पर तो नहीं।
1986 से शुरुआत के बाद 2003 तक नवोदय में कोई फीस नहीं थी। 2003 में एन.डी.ए. सरकार ने पहली बार नौवीं से बारहवीं के छात्राओं, अनुसूचित जाति व जनजाति और गरीबी रेखा से नीचे सम्बंधित विद्यार्थियों के अतिरिक्त अन्य छात्रों से 200रु0 हर महीने फीस की शुरुआत की थी। अभी दिसम्बर 2017 में इसको 600रु0, और जिनके अभिभावक सरकारी कर्मचारी हैं उनके लिए 1500रु, करने के आदेश आए हैं जो अप्रैल 2018 से लागू होगें। प्राथमिक गणित के अनुसार इन कक्षाओं के अधिक से अधिक 40 प्रतिशत (क्विंट के अनुसार यह आँकड़ा 29 प्रतिशत है) विद्यार्थी यह फीस भरेंगे। यानि कि भारत वर्ष के कुल करीब 50000 छात्र लगभग 600 जिलों में 600रु0 हर महीने फीस भरेंगे तो एक विद्यालय से 50000 के आसपास राशि जमा होगी (यह आंकडा़ नवोदय की वेबसाइट पर दिए गए 2015-16 के ‘स्टुडेंट प्रोफाइल’ पर आधारित है) जोकि एक अध्यापक की एक महीने की पगार मानी जा सकती है।
यह कहना गलत न होगा कि भारत का हृदय उसकी बढ़ती जी.डी.पी के साथ सिकुड़ रहा है। तब, जब कि भारत आज के मुकाबले बहुत गरीब था, इसने अपने शिक्षा के सरोकारों को बेहतर राजनीतिक निष्ठा से निभाया। आज का भारत जिसके यशस्वी जी.डी.पी का भोंपू हर तरफ से बजाया जा रहा है, इस बेहद जरुरी कर्तव्य-निष्ठा को नकारता दिखाई पड़ता है।
नवोदय विद्यालय के देशव्यापी प्रांगणों में हर महीने फीस देने और न देने वालों में विभाजन नवोदय की मूल प्रयोजना के खिलाफ तो है ही साथ में यहां की नैतिक धरोहर को भी ध्वस्त करेगा। फीस की मात्रा की बजाए, जो कि बहुत अधिक नहीं कही जा सकती, इसका होना भर ही विद्यालयों के मूल ढांचे को क्षति पहुंचाएगा। क्या हर महीने फीस के नोटिस के साथ देरी से या बकाया राशियों के न देने वालों को मंच से या सभाओं में लज्जित किया जाएगा ? क्या उनको भोजन कक्ष में वर्जित किया जाएगा या कक्षाओं में रेखांकित किया जाएगा ?
अगर शिक्षा के क्षेत्र में हाल के वर्षों में हुए परिवर्तनों को देखें तो नवोदय में फीस वृद्धि अघिक नहीं चौंकाती। भारतीय प्रबंधन संस्थानों (आई.आई.एम), तकनीकी व अभियांत्रिक संस्थानों (आई.आई.टी और एन.आई.टी), फैशन तकनीकी संस्थानों (एन.आई.एफ.टी) की फीस में हाल के कुछ वर्षों में बेहद वृद्धि हुई है। सातवें वेतन आयोग को विश्वविद्यालयों में लागू करने के साथ सरकार ने विश्वविद्यालयों को अपना तीस प्रतिशत खर्च खुद वहन करने का जिम्मा सौंपा है। ये सारे परिवर्तन एक ही दिशा में हैं आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन की बागडोर बड़े पूंजीपतियों के सुपूर्द करना।
राजनीतिक ताकतवर तथा वर्ग और जाति के लाभों के जमाखोर इन सारी कवायदों को मोटे तौर पर निजीकरण, वैश्वीकरण, उदारीकरण तथा रिर्फाम जैसी भाषा के मकड़जाल में लपेटकर परोस रहे हैं। फिर भी भारत की अंदरूनी विविधता में जे.एन.वी जैसे टिमटिमाते बिंदू यहाँ-तहाँ नजर आते हैं। जिस तरह से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय भारत के उच्च शिक्षा के पटल पर एक विशेष राजनीतिक संवेदना को इंगित करता है उसी तरज पर जवाहर नवोदय विद्यालय भी आजकल की स्कूली-शिक्षा में एकतरफा झुकती वैचारिक चेतना (अधिक फीस माने अधिक गुणवत्ता) के सामने एक बेहतर विकल्प दिखते हैं । शायद यही कारण है कि इनका ऐसा होना, यानि कि इनके मूल रूप में होना—जिसमें एक में फीस नहीं है और दूसरे में नगण्य—पूंजीवाद की बंधक बुद्धियों को अखरता है।
शायद हमें बार-बार शिक्षा की मूल प्रकृति के प्रश्न पर वापस लौटना पड़ेगा: जिम्मेदारी या वस्तु ? लेकिन शायद आज की ताकतों ने पूंजीवाद को अपना ईष्ट देवता मान लिया है और वे कह रहे हैं कि हम मिलकर अपनी आने वाली पीढ़ीयों को खुले मन से कर्ज देंगे ताकि वो पढ़ सकें और आगे बढ़ सकें। कर्ज में डूबे बहुत सारे युवा क्या-क्या नैतिक-अनैतिक विकल्पों को चुनने के लिए बाधित होंगे, उस अमरीकन युवती की तरह, ये सोचना अधिक कठिन नहीं है. शायद कुछ एक मुखौटों की दुकानें भी चलेगी हमारे आने वाले भारत में।
यश पाल रोहिला और संतोष शर्मा अलग-अलग नवोदय विद्यालय से पढे़ हैं और आजकल शिक्षण में कार्यरत हैं।
Dada, very nicely stated by you. You have spoken the hearts of all navodayans across the gobe out that too very clear and loud. Appealling all to converge on one spirit in favour of the society as a whole to see the over-all impact of this decision on the entire talent pool in rural India with regards to the vision of the very entity – JNV. Thanks. Prosenjit Paul (JNV Assam)
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Powerful article regarding implementation of fee in Navodaya vidyalaya…we oppose it loudly
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Navodays is not merely a school for educating children it is a life time experience from which u will never dissociate until ur last breath. Let these institutions be insulated from the cruelty of Capitalism.
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It is very good article as capitalism creates economic inequality, anti-democratic and against human rights.
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