करोना से ग़लत सबक़ लेना घातक हो सकता है : राजेन्द्र चौधरी

Guest post by RAJINDER CHAUDHARY

पिछले दिनों हम ने ‘करोना के कुछ ज़रूरी सबक़’ पर चर्चा की थी. पर बड़ी संभावना यह है कि करोना के आधे अधूरे या गलत सबक निकाले जाएँ.  इस के लिए भी हमें तैयार रहना चाहिए.

बिलकुल गलत सबकों पर आने से पहले, कुछ संभावित आधे अधूरे सबकों की चर्चा कर लें. निश्चित तौर पर करोना के बाद की दुनिया में वैश्वीकरण ढलान पर होगा; अब आर्थिक वैश्वीकरण बढ़ने के स्थान पर घटेगा. विशेष तौर पर दवाइयों और स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी वस्तुओं के मामले में राष्ट्र आत्मनिर्भर होने की कोशिश करेंगे; करनी भी चाहिए पर यह अधूरा निष्कर्ष होगा. केवल स्वास्थ्य सम्बन्धी मामलों में ही नहीं, बल्कि जहाँ तक संभव हो हर मामले में आत्मनिर्भर होने की कोशिश होनी चाहिए. इस से भी आगे बढ़ कर यह आत्मनिर्भरता केवल राष्ट्रीय स्तर पर न हो कर स्थानीय स्तर पर भी होनी चाहिए.

ऐसा कम से कम तीन कारणों से ज़रूरी है. पहला तो यह कि हरियाणा-पंजाब से पूरे देश में गेहूं-चावल और गुजरात से पूरे देश में दूध पहुंचाने से, इतने बड़ी दूरी पर और इतने बड़े पैमाने पर होने वाली आवाजाही से होने वाला प्रदूषण, जो जलवायु परिवर्तन का एक बड़ा स्रोत है. (इस केंद्रीकृत उत्पादन के और भी कई दुष्प्रभाव हैं जैसे केवल गेहूं-चावल पर केन्द्रित खेती से हरियाणा-पंजाब सरीखे राज्यों की मिट्टी की उपजाऊ शक्ति भी कम हो रही है, पर इन पर विस्तार से चर्चा करना अभी ज़रूरी नहीं है.)  दूसरा, ऐसी केंद्रीकृत अर्थव्यवस्था से उत्पादन तो हो जाता है पर खरीदने वालों के पास खरीदने लायक आमदनी नहीं होती. इस से प्रवासी मजदूरों की संख्या बढ़ती है. घर/प्रियजन कहीं और, एवं रोज़गार कहीं और, शरीर कहीं और एवं मन कहीं और, अपवाद होना चाहिए; थोडा बहुत, थोड़े से लोगों के लिए और थोड़े समय के लिए. यह वर्षों तक चलने वाली सामान्य स्थिति नहीं होनी चाहिए. अगर बड़े पैमाने का प्रवास उचित होता तो करोना के फैलते ही सब देशों को दुनिया भर में अटके अपने नागरिकों को वापिस अपने देश में लाने की कवायद नहीं करनी पड़ती और न ही देश के अन्दर प्रवासी मजदूरों में भगदड़ मचती.

अर्थशास्त्र का एक प्रसिद्ध जुमला है ‘कुछ भी मुफ्त नहीं होता’ पर आम तौर पर इस को बड़े सीमित अर्थ में प्रयोग किया जाता है. इस जुमले का यह अर्थ भी है कि अर्थव्यवस्था के केन्द्रीकरण से ‘बढ़ी हुई उत्पादकता’ की भी एक कीमत होती है, बढ़ी हुई उत्पादकता या ‘उत्पादन लागत’ में कटौती भी मुफ्त में नहीं मिलती. इस की भी एक लागत होती है परन्तु क्योंकि यह कीमत प्रियजनों-परिजनों से दूरी के रूप में, अपरिचित माहौल में रहने से उपजी मानसिक/भावनात्मक रूप में होती है, इस लिए इस की गणना नहीं होती; पर वास्तव में तो व्यक्ति को यह कीमत चुकानी ही पड़ती है. केंद्रीकृत अर्थव्यवस्था के ये दो नुकसान तो नियमित हैं, निर्बाध चलते हैं या कहें कि ये तो स्वाभाविक प्रभाव हैं.  इन के अलावा तीसरा नुकसान है युद्ध/आपदा/राजनैतिक गतिरोध इत्यादि के चलते आपूर्ती में होने वाली रूकावट है. इस लिए वैश्वीकरण को सीमित कर के न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बुनियादी ज़रूरतों के लिए दूसरे देशों पर निर्भरता कम की जानी चाहिए अपितु कोशिश न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि स्थानीय स्तर पर आत्मनिर्भरता की होनी चाहिए ताकि न केवल यातायात जनित प्रदूषण कम हो अपितु प्रवास भी कम हो.  (यहाँ ‘स्थानीय’ को परिभाषित नहीं करेंगे क्योंकि उद्देश्य दिशा भर इंगित करना है; गाँधी एक मार्गदर्शक हो सकता है पर इस में रंग जनतांत्रिक प्रक्रिया से लोगों की भागेदारी से भरा जाना चाहिए.) इस लिए विकेन्द्रित विकास को बढ़ावा देना चाहिए.

करोना के बाद निश्चित तौर पर पूरी दुनिया में स्वास्थ्य सेवाओं पर ज्यादा ध्यान दिया जाएगा. इन पर सार्वजनिक निवेश भी बढ़ेगा पर यह बढ़ा हुआ सार्वजानिक निवेश पीपीपी यानी सार्वजानिक-निजी-भागेदारी का रूप भी ले सकता है. करोना ने दिखा दिया है कि बड़े पैमाने पर बाज़ार पर निर्भरता ठीक नहीं है और ‘सर्वजन हिताय’ की ज़िम्मेदारी सार्वजानिक व्यवस्था ही उठा सकती है. अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए उद्योगों को बड़े पैमाने पर सहायता देने की मांग उठ रही है, उठती रही है, तो फिर निजी क्षेत्र को ही सीमित क्यों न किया जाए. सार्वजानिक निवेश के पीपीपी स्वरूप में भी भ्रष्टाचार कम होने के कोई ठोस सबूत सामने नहीं आए हैं. जब खर्च का भार सार्वजानिक है, तो उस का नियंत्रण भी सार्वजानिक क्षेत्र में होना चाहिए. इस लिए स्वास्थ्य व्यवस्था नहीं अपितु सार्वजानिक स्वास्थ्य व्यवस्था मज़बूत बनाई जानी चाहिए; भले ही सार्वजानिक क्षेत्र का स्वरूप सामुदायिक, सहकारी और स्थानीय हो.

करोना का जो सब से बड़ा गलत सबक लिया जा सकता है वह यह है कि पूरे विश्व की सत्ता का केन्द्रीकरण हो.  यह संभावना है कि आर्थिक रूप से वैश्वीकरण कुछ कम होगा पर राजनैतिक केन्द्रीकरण के बढ़ावा मिले; फिर भले ही इस के केंद्र में चीन हो या अमरीका या कोई एक दो देशों का समूह.  यह कहा जा रहा है कि ‘चीन की गलतियों की कीमत पूरी दुनिया को चुकानी पड़ी है’. इस लिए राष्ट्रीय स्वायत्तता पर लगाम लगाने की मांग उठ सकती है. ऐसी ही केन्द्रीकरण की मांग देश के अन्दर भी उठ सकती है. यह सही है कि करोना जैसे महामारियां राष्ट्रीय/राज्य की सीमाओं को नहीं मानती, इस के लिए मिल-जुल कर ही प्रयास करने पड़ेंगे पर परस्पर समन्वय और सहयोग का अर्थ स्वायत्तता का खात्मा नहीं होना चाहिए; न अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और न राष्ट्रीय स्तर पर. केंद्रीकृत राजनैतिक प्रक्रिया के खतरे और भी भयावह हो सकते हैं. जनतांत्रिक प्रक्रियाएं छोटे स्तर पर जितनी प्रभावी हो सकती हैं, उतनी बड़े स्तर पर नहीं. इस लिए न केवल अर्थव्यवस्था का अपितु राजनैतिक प्रक्रियाओं का भी विकेंद्रीकरण होना चाहिए; सम्पर्क, सहयोग व्यापक हो पर नियंत्रण नहीं.

दूसरी बड़ी गलती यह होने की संभवना है कि करोना को हमारे ढाँचे/व्यवस्था में मानव और प्रकृति के संतुलन की बुनियादी समस्या के रूप में न देख कर एक अपवाद के रूप में या अधिक से अधिक एक जैव-आपदा के रूप में देखा जाए. अभी भले ही हमें करोना दिख रहा हो पर न हम ‘सार्स’ को भूलें, न इबोला को, न ‘सूअर बुखार’ को न ‘पागल गाय’ महामारी को (जिस के चलते इंग्लैंड इत्यादि में लाखों की तादाद में गायों को मार कर दबाना पड़ा था) या जब भारत में भी मुर्गियों को ऐसे ही लाखों करोड़ों की तादाद में मारना पड़ा था; न भूलें बार बार गांवों और कस्बों में घुस आने वाले जंगली जानवरों को और न ही भूलें हर साल होने वाले डेंगू चिकनगुनिया को या लगातार बढ़ते प्रदूषण को. करोना अपवाद नहीं है यह प्रकृति और इन्सान, और देशों व इंसानों के बीच के संतुलन के बिगड़ने से पैदा हुई बुनियादी समस्या है. केवल करोना केन्द्रित उपाय देर-सवेर किसी नई करोना को जन्म देंगे.

मूल समस्या को न समझ कर लक्ष्णों पर ध्यान केन्द्रित करने की यह प्रवृति अभी से दिख रही है (बल्कि इस को बढ़ावा दिया जा रहा है). निजामुदीन मरकज़ से फैले संक्रमण और इस से जुड़ी जमात को ही समस्या की जड़ मान लिया गया है. जैसे अगर यहाँ से संक्रमण न फैलता तो करोना से कोई बड़ी दिक्कत होनी ही नहीं थी. न केवल मरकज़ को समस्या की जड़ मान लिया गया है अपितु इसे जानबूझ कर की गई साजिश करार दिया गया है. मरकज़ द्वारा चिल्ला-चिल्ला कर ये कहना कि जब हमारे यहाँ कार्यक्रम हुआ तब कोई रोक नहीं थी, हम ने किसी कानून की अवज्ञा नहीं की, कि जो लोग बाहर से आए थे वो पासपोर्ट-वीज़ा लेकर सरकार की अनुमति से आए थे, कि जब हमारे यहाँ भीड़ इकट्ठी हुई थी, तो बाकी देश में भी भीड़ इकट्ठी हो रही थी, कि मार्च में ही पंजाब में हुए होला मोहल्ला कार्यक्रम में लाखों लोग इकट्ठे हुए थे, कि अब भी, अप्रेल में भी, नांदेड साहिब गुरूद्वारे में 4 हज़ार लोग फंसे हुए हैं क्योंकि तालाबंदी एकायक कर दी गई थी, कि अगर किसी मौलवी ने यह कहा है कि मस्जिद में इकठ्ठा होने पर अल्लाह कुछ नहीं होने देगा तो यह कहने वाले भी हैं कि चर्च में भी कुछ नहीं होगा और गोमूत्र पीने वाले का करोना कुछ नहीं बिगाड़ सकता, पर उन की कोई सुनवाई नहीं हो रही.  जब मैंने अपने कुछ परिजनों को ये सब बाते बताई तो वो बोले कि ‘हमें तो ये पता ही नहीं था, हमने तो कहीं ये ख़बरें नहीं पढी’. मैं भी तालाबंदी में घर पर ही बंद था इस लिए पढ़ा तो ये सब मैंने भी मीडिया में ही है पर झूठ फ़ैलाने वाले कहीं ज्यादा ताकतवर हैं. ये भी ध्यान देने वाली बात है कि यह झूठ जानबूझ कर फैलाया गया है. आम जनता जिस के पास छानबीन की फुरसत और साधन नहीं है वो तो मात्र भ्रमित हुई है, असली दोषी तो जानबूझ कर अफवाह फैलाने वाले लोग हैं; आमजन तो इन के हाथ की कठपुतली है.  सब से बड़ा खतरा यही है कि करोना की सच्चाई को दबाने वाली ताकते बहुत मज़बूत हैं.

तीसरा बड़ा खतरा यह है कि आपदा स्वरूप अपनाई गई ‘सामाजिक दूरी’ की व्यवस्था सामान्य न बन जाए. ‘घर से काम’ और ‘आन लाइन’ पढ़ाई को आदर्श व्यवस्था न समझ लिया जाए. एकांतवास भले ही अपवाद स्वरूप आवश्यक हो पर यह आदर्श नहीं बनना चाहिए. न केवल इस लिए कि मानव एक सामाजिक प्राणी है बल्कि इस लिए भी क्योंकि ‘आन लाइन’ पढाई एवं ‘घर से काम’ न सब के लिए संभव है और न अच्छा है. परिवारों में एकल बच्चे होने से ही कई तरह की विकृतियाँ जन्म ले रही हैं, अगर एकल बच्चे का एकांतवास भी हो जाएगा तो क्या होगा, सोच कर झुरझुरी उठती है.

कुछ हद तक ‘घर से काम’ या ‘आन लाईन’ पढाई सम्पन्न तबकों के लिए ही संभव है, मजदूरों के लिए नहीं.  संम्पन्न तबके ‘घर से काम’ या ‘आन लाईन’ पढाई के साथ साथ एक काम और कर सकते हैं. वे अपने लिए भीड़-भाड़ से दूर, पहाड़ों में, जंगलों में या दूर दराज़ के गावों में अपने लिए एक ‘दूसरे घर’ की व्यवस्था कर सकते हैं ताकि करोना सरीखी आपदा में या सर्दियों में दिल्ली जैसे शहरों के प्रदूषण से बचने के लिए वो भाग कर वहाँ जा सकें. इस से जहाँ एक ओर ग्रामीण अंचल में ज़मीनों और संसाधनों पर वैध-अवैध कब्ज़े बढ़ेंगे, खेती की जमीन में फार्म हॉउस बन जायेंगे, वहीं दूसरी ओर सार्वजानिक व्यवस्था का और सत्यानास हो जाएगा. जब सरकारी स्कूलों से संपन्न तबके, अफसर और नेता अपने बच्चों को बाहर ले जा कर अपनी अलग व्यवस्था बना लेते हैं, तो फिर सरकारी स्कूलों की अनदेखी होती सब ने देखी है.  जब ताकतवर तबके अपने एकांतवास या घर से काम और शिक्षा की व्यवस्था कर लेंगे तो फिर बाकी देश दुनिया का रब राखा.

पुनश्च: वैश्वीकरण की जिन सीमाओं को आज करोना ने रेखांकित किया है, दुनिया का बड़ा हिस्सा चिल्ला चिल्ला कर बरसों से ये बाते कह रहा था परन्तु वैश्वीकरण से पीछे हटते हुए दिखाया यह जाएगा कि ये परिणाम अनपेक्षित थे, पहले इन का आभास ही नहीं था. वास्तविकता यह है कि कहने वालों ने बहुत पहले ये सब कहा था पर उन को नज़रअंदाज़ कर दिया गया था. अब करोना ने उन बातों की याद दिला दी है. देर आयद, दुरुस्त आयद बशर्ते की अभी भी गलत/सीमित सबक न निकाले जाएँ.

राजिंदर चौधरी एम डी यूनिवर्सिटी, रोहतक के अर्थशास्त्र विभाग के भूतपूर्व प्रोफ़ेसर हैं और कुदरती खेती अभियान के सलाहकार हैं.

2 thoughts on “करोना से ग़लत सबक़ लेना घातक हो सकता है : राजेन्द्र चौधरी”

We look forward to your comments. Comments are subject to moderation as per our comments policy. They may take some time to appear.

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s