कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय.
ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय
क्या अपने ‘खुदा’ को आवाज़ देने के लिए बांग देने की जरूरत पड़ती है ?
आज से छह सदी पहले ही कबीर ने यह सवाल पूछ कर अपने वक्त़ में धर्म के नाम पर जारी पाखंड को बेपर्दा किया था. पिछले दिनों यह मसला नए सिरे से उछला जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस बारे में एक अहम फैसला सुनाया. अदालत ने कहा कि अज़ान अर्थात प्रार्थना के लिए आवाज़ देने की बात इस्लाम का हिस्सा है लेकिन वही बात लाउडस्पीकर के इस्तेमाल के बारे में नहीं कही जा सकती, लिहाजा रात 10 बजे से सुबह 6 बजे तक किसी भी ध्वनिवर्द्धक यंत्र का इस्तेमाल के इजाजत नहीं दी जा सकती.
अदालत के मुताबिक मुअज्जिन मस्जिद की मीनार से अपनी मानवीय आवाज़ में अज़ान दे सकता है और उसे महामारी रोकने के लिए राज्य द्वारा लगायी गयी पाबंदियों के तहत रोका नहीं जा सकता, अलबत्ता उसके लिए लाउडस्पीकर का इस्तेमाल वर्जित रहेगा.
ध्यान रहे कि अदालत यूपी पुलिस द्वारा जगह-जगह मनमाने ढंग से अज़ान पर लगायी गयी पाबंदी के खिलाफ दायर याचिका पर विचार कर रही थी. हाथरस, अलीगढ़ आदि स्थानों पर महामारी के कानूनों का हवाला देते हुए पुलिस वालों ने अज़ान देने पर ही पाबंदी लगायी थी, जिसके खिलाफ याचिकाकर्ताओं ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया था.
उम्मीद है कि अदालत के फैसले के मद्देनज़र यूपी पुलिस मनमाने तरीके से अज़ान पर नहीं रोक लगाएगी, निश्चित ही यह सुनिश्चित करेगी कि इसके लिए किसी ध्वनिवर्द्धक यंत्र का इस्तेमाल तो नहीं हो रहा है.
गौरतलब है कि अदालत ने संविधान के तहत प्रदत्त बुनियादी अधिकारों में शामिल आर्टिकल 19/1/ए का हवाला देते हुए जो इस बात को सुनिश्चित करता है कि‘किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह अन्य लोगों को बन्दी श्रोता (captive listeners) बना दें’ यह निर्देश दिया.
निश्चित ही मस्जिदों में जहां बिना अनुमति के लाउडस्पीकरों के इस्तेमाल पर पाबंदी रहेगी, वही बात मंदिरों, गुरुद्धारों या अन्य धार्मिक स्थलों पर भी लागू रहेगी ताकि आरती के बहाने या गुरुबाणी सुनाने के बहाने इसी तरह लोगों को ‘बन्दी श्रोता’ मजबूरन न बनाया जाए. ( Read the full article here :https://hindi.theprint.in/opinion/allahabad-high-court-ban-loudspeakers-at-prayer-places-exposes-hypocrisy-in-the-name-of-faith/140765/)