Guest Post by Musharraf Ali
क़ुव्वत ऐ फ़िकरो अमल पहले फ़ना होता है
फिर किसी क़ौम की शौकत पे ज़वाल आता है
(किसी क़ौम के दबदबे या रौब में तब गिरावट आती है, जब उसकी सोचने-विचारने की ताक़त खत्म हो जाती है)
8 जुलाई 2020 को तुर्की के राष्ट्रपति तय्यप इरदुगान ने चर्च से मस्जिद फिर मस्जिद से म्यूजियम बना दी गयी ऐतिहासिक इमारत हय्या सोफ़िया को फिर से मस्जिद बनाने की घोषणा की इसके बाद 10 जुलाई को वहां के सुप्रीम कोर्ट ने इरदुगान के फैसले के पक्ष में फैसला दिया। इस घटना के बाद दुनिया भर के मुसलमानों में खुशी की लहर दौड़ गयी और पस्ती में डूबी हुई क़ौम को एक विजय का अहसास हुआ। इस घटना के बाद मैं इंटरनेट पर मुसलमानों की प्रतिक्रिया का अध्ययन करता रहा था। मैं इस तलाश में था कि इस घटना के विरोध में इसकी मज़्ज़मत में मुस्लिमो की तरफ़ से कोई तो आवाज़ सुनाई देगी लेकिन जहां तक इंटरनेट पर मैं ढूंढ पाया एक भी आवाज़ विरोध की नही मिल पायी जबकि समर्थन करती और खुशियां मनाती पोस्टें भरी पड़ी थी। मेरी नज़र में यह घटना वैसी ही है जैसी बाबरी मस्जिद ढहने की है और वहां के सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी वैसा ही है जैसा नवम्बर 2019 में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद के संबंध में सुनाया। तुर्की में हय्या सोफिया को ढहाया नही गया लेकिन सांकेतिक रूप से माने तो यह ढहाने जैसा ही क़दम है। बाबरी मस्जिद, मंदिर तोड़कर बनाई गई अभी यह बात विवादित बनी हुई है लेकिन हय्या सोफिया 1453 से पहले चर्च था यह ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित है। जब मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने मस्जिद बना दिये गए चर्च को म्यूजियम में 1934 में बदला तब विवाद को समाप्त करने का उनका बहुत ही समझदारी भरा क़दम था मगर तुर्की राष्ट्रपति तय्यप इरदुगान ने कमाल अतातुर्क के सारे किये कराए पर अपने निजी स्वार्थ में पानी फेर दिया और दुनिया भर में मुसलमानों की जो खराब छवि बना दी गयी है उसको और खराब कर दिया। उनके इस काम से मुसलमानों की जो बुनियादी समस्याये हैं वो हल होने की जगह और बढ़ गईं।
उनका यह तरीक़ा वैसा ही है जैसा कि लोगों को रोज़गार देने उनकी गरीबी दूर करने की जगह किसी शहर का नाम बदल देना।
इरदुगान अपनी नाकामयाबी छिपाने के लिये इस तरह की हरकतें कर रहे है और वो इस तरह की हरकतों से दुनिया भर के मुसलमानों के ख़लीफ़ा बनना चाहते है। उन्होंने वैसे ही मुस्तफ़ा कमाल अतातुर्क द्वारा बनाये गए धर्मनिरपेक्ष तुर्की को गैर धर्मनिरपेक्ष रास्ते पर डालकर बर्बादी में धकेल दिया है। वो समस्या ग्रस्त अपनी जनता को ख़िलाफ़त ए उस्मानिया की वापसी का ख्वाब दिखा रहे है उनका यह ख्वाब वैसा ही है जैसा भारत मे हिन्दू राष्ट्र का दिखाया जा रहा है। अगर हिन्दू राष्ट्र का ख्वाब गलत है तो ख़िलाफ़त क़ायम करने का ख्वाब भी खारिज करने लायक है यह नही हो सकता कि एक तरह के राज की आप हिमायत करें और दूसरे तरह की मुखालफत और ऐसे काम की मज़म्मत या विरोध न करना या खामोश रहना भी इरदुगान निहायत ही गलत और अहमकाना काम का समर्थन करना होगा। जब बाबरी मस्जिद तोड़ी गयी थी तब भी भारत ही नही दुनिया भर की धर्मनिरपेक्ष गैर मुस्लिम लोगों ने उसकी मुखालफत और मज़म्मत की थी जबकि इरदुगान के इस नाजायज़ क़दम की मुसलमानों को मज़म्मत करनी चाहिये न कि समर्थन। कोई करे न करे लेकिन मेरी यह ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी बनती है कि मैं इस गैर जरूरी और अविवेकपूर्ण क़दम का विरोध और मज़म्मत करू।
( Courtesy Telegraph : People offer the evening prayer outside the Hagia Sophia
1. क़ुव्वत ऐ फ़िकरो अमल and not क़ुव्वत ओ फ़िकरो अमल for it to make sense.
2. This is incorrectly attributed to Iqbal. Poet unknown.
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Thanks. Done
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