Guest post by ARVIND KUMAR
अभय दुबे की पुस्तक हिन्दू एकता बनाम ज्ञान की राजनीति पर जारी बहस में एक योगदान।
दि प्रिंट में 8 जुलाई 2020 को योगेंद्र यादव का लेख ‘भारतीय सेक्युलरिज्म पर हिन्दी की यह किताब उदारवादियों की पोल खोल सकती थी मगर नज़रअंदाज़ कर दी गई है’, अभय दुबे की पुस्तक को केंद्र मे रखकर लिखा गया है. उन्होनें लिखा: “अगर अभय की किताब के तर्क उन सेकुलर बुद्धिजीवियों के कान तक टहलकर नहीं पहुंचे जिनके लिखत-पढ़त की उन्होंने आलोचना की है तो इसकी वजह को पहचान पाना मुश्किल नहीं. वजह वही है जिसे अभय ने अपनी किताब में रेखांकित किया है कि भारत के अँग्रेज़ीदाँ मध्यवर्ग की सेकुलर-लिबरल विचारधारा और देश के शेष समाज के बीच सोच समझ के धरातल पर एक खाई मौजूद है.” योगेंद्र के लेख के जवाब में, दि प्रिंट में ही 15 जुलाई को राजमोहन गांधी का लेख ‘भारत में धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा पराजित नहीं हुई है, इसके पैरोकारों को आरएसएस पर दोष मढ़ना बंद करना होगा’ पढ़कर संतोष और असंतोष दोनों हुआ. संतोष इसलिए कि योगेंद्र के आग्रह पर बुद्धिजीवियों ने बहस को आगे बढ़ाने की पहल तो की. इसी कड़ी में 16 जुलाई 2020 को काफ़िला में छपा आदित्य निगम का लेख ‘डिसकोर्स ऑफ हिन्दू युनीटी इन द स्ट्र्गल अगेन्स्ट द राइट’ को भी देखा जा सकता है.
बहरहाल, राजमोहन गांधी ने लिखा, “मैंने अभय दुबे की यह हिन्दी पुस्तक ‘हिन्दू एकता बनाम ज्ञान की राजनीति’ पढ़ी तो नहीं है मगर मैं यहाँ जो कुछ लिख रहा हूँ वह इस पुस्तक के निष्कर्षों का योगेंद्र यादव ने जो सार प्रस्तुत किया है उसके ऊपर आधारित है.” पढ़कर थोड़ा असंतोष हुआ. एक ही पुस्तक को अलग-अलग नजरिए से देखा और पढ़ा जा सकता है और बहुतेरे निष्कर्ष भी निकाले जा सकते हैं। संभव है कि इससे उपजा बहस किसी ऐसी दिशा में भी रुख कर जाए जिसकी कल्पना खुद लेखक ने भी न की हो. सो, इस लेख के माध्यम से मेरी कोशिश मात्र इतनी है कि पुस्तक के केंद्रीय बिन्दु और बहस के बीच के छूटते तार को जोड़ सकूँ. मैं गलत हो सकता हूँ, पर इस किताब को पढ़कर किताब के लोकार्पण के दौरान हुए लंबी बहस को सुन कर तथा स्वयं लेखक से अलग अलग मौकों इस सिलसिले में हुए बातचीत के आधार पर इतना भर तसल्ली से कह सकता हूँ: ये पुस्तक गैर-दक्षिणपंथी विचारकों एवं बुद्धिजीवियों के आत्ममंथन का घोषणा पत्र है. ऐसे विचारकों-कार्यकर्ताओं-बुद्धिजीवियों की कतार में गांधीवादी, नेहरुवादी लोहियावादी, फुलेवादी, अंबेडकरवादी, पेरियारवादी या फिर कोई अन्य वैचारिक धड़ा भी खड़ा हो सकता है जो दक्षिणपंथी बहुसंख्यकवाद की मुखालिफ़त करता हो. तीनों विद्वानों ने अभय दुबे की किताब के हवाले जो बातें रखी हैं, वे बेहद महत्वपूर्ण और सारगर्भित हैं, फिर भी बहस है जो जारी रहे.
ज्ञान की राजनीति के मायने
चूंकि बहस अभय दुबे की पुस्तक के इर्द गिर्द घूमती है इसीलिए उन्हीं से शुरू करते हैं. उन्होंने अपनी पुस्तक को, ‘न खत्म होने वाली उस बहस के नाम जिससे यह किताब निकली’ को समर्पित किया है. गाहे बगाहे ये बहस कम्यूनल बनाम सेक्युलर में सिमटता दिखता है, इसलिए ये बता देना निहायत जरूरी है कि ये मात्र आलोचना नहीं बल्कि आत्मलोचना की भी पुस्तक है. शायद इसीलिए लेखक पुस्तक के शुरुआती पन्नों में, साफ कहते हैं: “मेरी ये रचना न केवल सेकुलर-वामपंथी-उदारतवादी विमर्श (जिसे मैंने मध्यमार्गी विमर्श की संज्ञा दी है) की आंतरिक आलोचना करती है, बल्कि लंबे अरसे से चली आ रही मेरे जैसे बुद्धिजीवियों की कई धारणाओं को भी चुनौती देती देती है.” उन्होंने अपनी किताब को सामाजिक विज्ञान की दुनियाँ में प्रचलित पॉलिटिकल करेक्टनेस या राजनीतिक सहीपन के चलते गढ़े गए ढेर सारे आस्थाओं और प्रतिमानों को कौशलपूर्ण तर्कों के माध्यम से धराशायी किया हैं जिनमें से कई आस्थाओं का इस्तेमाल उन्होनें खुद अपनी पहले की लेखनी में किया है.
दुबे इस पुस्तक में विमर्श-नवीसी (डिस्कोर्स-मैपिंग) पद्धति का अप्रत्याशित इस्तेमाल करते हुए बताते हैं कि राजनीतिक सहीपन एक ऐसा वर्चस्वी आग्रह है जिसके तहत सार्वजनिक और बौद्धिक जीवन में सक्रिय लोग स्वयं को अपनी पहलकदमी पर सेंसर करते हैं। इस खास तरह के सेंसर की वजह से ऐसे सभी विचारों और तर्कों को ग्रहण करने से रोकते हैं जो उस राजनीतिक सहीपन के दायरे में फिट न होते हों. यहाँ तक कि राजनीतिक सहीपन के शिकार लोग मानते हैं कि वे किसी उच्चतर और बृहत्तर उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह सब कर रहे हैं। लेकिन अंततः इसके जरिये की गई ज्ञान की यह राजनीति उन उद्देश्यों के ठीक विपरीत चली जाती है जिनको साधना ही उनका मकसद होता है।
एक आत्म-विश्लेषणात्मक नजरिए से ऐतिहासिक समीक्षा करते हुए वे हिन्दू बहुसंख्यकवाद और सेकुलरवाद के संदर्भ में हम से और अपने आप से भी बड़े बेबाक शब्दों में वे पुछते हैं: “हमें यह भी सोचना होगा कि क्या हमें अपनी जिदों को छोड़कर वे व्यावहारिक तरीके नहीं खोजने चाहिए जो सेकुलरवाद को ‘हिन्दू विरोधी छवि’ से छुटकारा दिला सकें. ऐसा सेकुलरवाद हमारे किसी काम का नहीं हो सकता जो सिर्फ सेमिनार रूम में जीते और व्यवहारिक राजनीति में उसकी उपयोगिता केवल अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा तक ही सीमित रह जाये.” इसी क्रम मे वे लगे हाथ ये भी पूछ लेते हैं कि ‘दलित’, ‘दलित-चेतना’ ‘ब्रह्मणवाद’ ‘अंबेडकर-फुले-पेरियार विचारधारा’, ‘फासीवाद’, ‘सामाजिक-न्याय’, ‘बहुजनवाद’ जैसी श्रेणियों की जमीनी हकीकत क्या है और हमारे लोकतान्त्रिक राजनीति में इनकी कितनी उपयोगिता बची है. ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिसका हमारे समाजिक धरातल और और सामाजिक विज्ञान के वैचारिकी एवं विमर्श से गहरा संबंध है. इनके जवाब का ढूंढा जाना एक ऐतिहासिक जिम्मेवारी भी है.
हिन्दू-एकता परियोजना बनाम सामाजिक-न्याय का टूटता तिलिस्म
बहस की एक तार योगेंद्र यादव के लेख के शीर्षक से ही छुटती नजर आती है. उनका ये कहना, “अभय की किताब बताती है सेकुलर राजनीति की हार दरअसल सेकुलर विचारधारा की हार है.” मेरी नजर में थोड़ा भ्रम पैदा करता है. ये किताब दरअसल धर्म-निरपेक्षता या सेकुलरवाद से ज्यादा हिन्दू-एकता-परियोजना या फिर यों कहें, हिन्दू-बहुसंख्यकवाद के बारे में ज्यादा है. इस विषय वस्तु के चुनाव के पीछे लेखक ने उचित कारण भी बताए हैं. वे साफ मानते हैं, नए विमर्श की संभावनाएं खोलने के उद्यम में सेकुलरवाद की आलोचना खास मददगार नहीं हो सकती. ऐसा कहते हुए अभय दुबे ने 1980 के दशक में चला सेकुलरवाद की आलोचना वाला ‘महाविवाद’ को भी इस पुस्तक के एक फूटनोट मात्र में सीमित कर दिया है.
दक्षिणपंथी संगठनों ने हिन्दू-एकता की परिकल्पना और परियोजना को जिस रूप से मूर्त रूप दिया है वह फिलहाल काफी मजबूत दिख रहा है. ये पुस्तक बड़े सलीके से हमें बताती है कि 2004 से 2014 के बीच, भाजपा की चुनावी पराजय के दौरान भी संघ एवं भाजपा की हिन्दू-एकता की परियोजना कमजोर नहीं पड़ी. अतः थोड़ी देर के लिए यदि ऐसा मान भी लिया जाय कि निकट भविष्य में भाजपा की राजनैतिक हार हो जाय तो भी ये मान लेना भारी भूल होगी कि ये दक्षिणपंथी विचारधारा की भी स्थायी हार है. इसिलिए दुबे मानते हैं कि भविष्य में होनेवाली भाजपा की चुनावी पराजय बहुसंख्यकवाद की पराजय कतई नहीं होगी.
अब सवाल उठता है, संघ और भाजपा, हिन्दू-एकता की इस परियोजना को अमली जामा पहनाने में कामयाब कैसे हो रहे हैं. इसका जवाब दुबे राबर्ट फ्राईकेनबर्ग के शोध के हवाले से देते हैं. फ्राईकेनबर्ग के अनुसार भारत में हिंदुत्व की परियोजना एक्स्क्लुसन और इन्क्लूसन की प्रक्रिया पर टिकी है. ये दोनों ही प्रक्रियाएं साथ-साथ चलते हैं . एक तरफ जहाँ मुसलमानों, ईसाईयों, यहूदियों को पूर्ण रूप से भारतीय मानने से इंकार करते हुए उनका बहिर्वेशन (एक्सक्लूसन) ये कहकर किया जाता है कि भारत उनकी जन्मभूमि तो है पर पुण्यभूमि नहीं, वहीं दूसरी और पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों के अलावा बौद्धों, जैनों एवं सिक्खों को पूरी तरह से भारतीय मानते हुए, उनका अंतर्वेशन (इंक्लूसन) ये कहकर किया जाता है कि उनकी जन्मभूमि और पुण्यभूमी दोनों ही भारत में है.
1990 में केंद्र सरकार द्वारा मण्डल कमीशन की सिफ़ारिशें लागू होने के ठीक बाद ‘कमंडल बनाम मण्डल’ की राजनीतिक जुमलेबाजी अपने परवान पर थी. यहाँ कमंडल से तात्पर्य था दक्षिणपंथी राम-जन्मभूमी आंदोलन से जिसका उन्माद अपने उबार पर था और इसके विपरीत खड़ा था मण्डल जो सामाजिक-न्याय के वादे के साथ लोहियावादी, समाजवादी, बहुजनवादी, अंबेडकरवादी जैसे विचार वाले लोगों की गोलबंदी कर रहे थे लेकिन संख्या के लिहाज से हिन्दू-बहुसंख्यकवाद के खिलाफ बहुजनवाद का कुनबा तेजी से सिकुड़ता चला गया. सामाजिक न्याय के नाम पर बना तिलिस्म कैसे तार-तार हुआ, ये किसी से छुपा नहीं है. इस पूरे प्रकरण की चर्चा इस किताब में विस्तार से मौजूद है.
अप्रैल 2015 में जब आर.एस.एस. ने अपने मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ का विशेषांक बाबा साहेब आंबेडकर पर निकाला तो ढेर सारे मध्यमार्गी बुद्धिजीवियों को ऐसा लगा जैसे आंबेडकर का एकाएक भगवाकरण किया जा रहा है लेकिन अभय दुबे की पुस्तक हमें बताती है कि कैसे संघ ने 1983 में ही डॉ. आंबेडकर की जयंती मनाने का फैसला कर लिया था और इसके लिए समाजिक समरसता मंच का गठन किया गया जिसकी जिम्मेवारी दत्तोपंत ठेंगड़ी को दी गयी थी. संघ और भाजपा का अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के बीच संपर्क साधने का ही नतीजा है जो 2000 आते-आते भाजपा इस मुकाम पर पहुंच गयी कि उसके पास किसी अन्य पार्टी की तुलना में इन दोनों समुदायों के सबसे ज्यादा सांसद और विधायक थे.
उसी साल बंगारू लक्ष्मण को पार्टी का अध्यक्ष बनाकर इस पार्टी ने दुरगामी चाल चल दी थी. इस पुस्तक में मेरे लिए सबसे रोचक तथ्य ये जानना था कि जो आंबेडकर हिंदुत्व और यहाँ तक कि हिन्दू धर्म के खिलाफ भी इतने मुखर थे, फिर भी संघ और भाजपा द्वारा आंबेडकर को अपनाये जाने की आखिर क्या ख़ास वजह हो सकती है. इस पुस्तक को पढ़ने से पहले मैंने आंबेडकर के हिन्दू विवाह कानून(1955) और हिन्दू उत्तराधिकार कानून(1956) को इस नजरिये से कभी सोचा ही नहीं था. दुबे बताते हैं इन दोनों क़ानून की वजह से सनातनी, आर्यसमाजी, वैष्णव, शाक्त, शैव, द्विज जातियों के अलावा शूद्र जाति, अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति और बाद के संवैधानिक संशोधनों से कैसे सिक्खों और बौद्धों को भी अपनी आगोश में ले लेता है. एक तरह से कहें तो आंबेडकर द्वारा बनाये इन कानूनों से हिन्दू-एकता की परियोजना को कानूनी जामा मिल गया. लेकिन संघ और भाजपा जैसे दक्षिणपंथी संगठनों ने जातीय विरोधाभासों के जमीनी हकीकत को स्थायी रूप से साध लिया है ऐसा बिलकुल नहीं है. इस विचार की पुष्टी हेतु ही शायद आदित्य निगम ने अपने लेख में, हाल मे ही आई भँवर मेघवंशी की पुस्तक, ‘मैं एक कार सेवक था’ का जिक्र किया है.
सेकुलरवाद बनाम हिन्दू-बहुसंख्यकवाद
राजमोहन गांधी के लेख में ये तार कई बार टूटता नजर आता है. लेख के शीर्षक से उनका आग्रह साफ़ झलकता है. ये बात ठीक भी है कि भारत में धर्मनिरपेक्ष राजनीति की हार हुई है लेकिन इसे धर्मनिरपेक्ष विचारधारा की स्थायी हार मान लेना थोड़ी जल्दबाजी होगी या फिर नादानी भी, इसमें किसी को क्या ही आपत्ति हो सकती है. पर जैसा कि गाँधी बताते हैं, धर्मनिरपेक्ष विचारधारा की निंदा 15 अगस्त 1947 से ही शुरू हो गयी थी बल्कि 1946 की गर्मियों से ही इस निंदा ने हिंसक रूप ले लिया था. आगे गाँधी ये भी बताते हैं, आखिर कैसे 1947 और 1950 के बीच एक चमत्कार हुआ, जब पाकिस्तान इस्लामी मुल्क बनने के राह पर था और 1947 के उन्मादी खूनखराबे के जख्म अभी हरे ही थे; तभी भारतीय नेताओं और सविधान निर्माताओं ने दो राष्ट्र के सिद्धांत को खारिज कर दिया और इसके बाद हरेक पांच साल पर हुए चुनावों में जनता भी दो राष्ट्र के सिद्धांत को खारिज करती रही, इसके बावजूद कि उनको केंद्र और राज्य की कांग्रेस सरकारों में ढेरों खामियाँ दिखती थी. गाँधी के इन विचारों में कांग्रेस के प्रति वही पुरानी नरमी दिखती है, जिससे हुए वैचारिक और राजनैतिक घाटों का उल्लेख अभय दुबे ने अपनी किताब में विस्तार से किया है. यहाँ ये समझना जरूरी है कि क्या उस दौर में हुई कांग्रेस की राजनैतिक जीत, वाकई में सेकुलर विचारों की भी मुकम्मल जीत थी?
जिस प्रक्रिया को गाँधी ने चमत्कार की संज्ञा दी है, अभय दुबे ने इस मुद्दे की पड़ताल भी तमाम उत्तर-औपनिवेशिक स्त्रोतों की मदद से की है. इनमें सबसे प्रखर और बेबाक है, इम्तियाज़ अहमद द्वारा की गई भारतीय सामासिक संस्कृति की आलोचना. अहमद के हवाले से दुबे कहते हैं: “उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के दौरान द्विराष्ट्र सिधान्त का मुक़ाबला करने के लिए हिंदुओं और मुसलमानों के सामासिक राष्ट्रवाद की संकल्पना कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के उस हिस्से द्वारा विकसित की गई थी जो सेकुलरवाद और आधुनिकता मे विचारधारात्मक यकीन करता था. आजादी के बाद पाकिस्तान के इतिहासकारों ने हिन्दू-मुस्लिम विभेद को उभारकर द्विराष्ट्र सिद्धांत का औचित्य प्रतिपादन करने के लिए इतिहास लेखन किया. उसकी प्रतिक्रिया में भारत के इतिहासकारों ने इस तरह की दावेदारियाँ कीं जिनमें हिन्दू-मुस्लिम पहचान की पृथकता के बजाय उनके मिश्रित रूप पर बल दिया गया. इतिहासकारों की इस होड में भारत का सामाजिक यथार्थ पृष्ठभूमि में डाल दिया गया. इस प्रक्रिया के सातत्य ने एक दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम को जन्म दिया जिसके तहत बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी और सार्वजनिक जीवन में सक्रिय लोग यह मानने लगे की स्वातंत्रोत्तर सेकुलर राज्य का आधार भारत में बहुत पहले से मौजूद है. असलियत यह थी की आज़ाद भारत ‘सेक्युलर राज्य और कम्यूनल समाज की स्थिति में था, और समाज की सांप्रदायिकता राज्य के सेकुलरत्व के कार्यान्वयन के अक्सर आड़े आती हुई दिखती थी.”
गाँधी अपने लेख में ये तो बताते हैं की जवाहरलाल नेहरू ने 1958 में ही ये घोषणा की थी कि बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिकता अल्पसंख्यकों की साम्प्रदायिकता से कहीं ज्यादा खतरनाक है, और तब वे अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण नहीं कर रहे थे बल्कि भविष्य को देख पा रहे थे, शायद इसीलिए उन्होंने ये भी कहा था कि बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता ‘राष्ट्रवाद का चोंगा पहनकर आती है’. गाँधी के अनुसार नेहरू का ये अनुमान भारत, तुर्की और अन्य जगहों पर सही निकला है. लेकिन नेहरू के बाद के कांग्रेस पार्टी के बारे में उन्होंने कोई टिपण्णी नहीं की. वहीँ अभय दुबे ने सकॉट डब्लु हिबार्ड की मदद से अपनी पुस्तक में ये स्थापित किया है कि कैसे अस्सी के दशक में सत्ता में अपनी वापसी के बाद से ही इंदिरा गाँधी ने कांग्रेस की सेकुलर परम्परा के ठीक उलट राष्ट्रवादी विमर्श को अभिव्यक्ति देनी शुरू की जो मुस्लिम पृथकतावाद के डर और हिन्दुओं की हमदर्दी जीतने पर आधारित थी.
दुबे आगे बताते हैं, कैसे ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद से इंदिरा गाँधी ने खुल कर कहना शुरू कर दिया कि धर्म पर हमला किया जा रहा है और यह आक्रमण सिक्खों, मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों की तरफ से आ रहा है. और इसलिए दुबे बड़े अचरज से पूछते हैं कि ये कितनी अजीब बात है कि जो पार्टी विचधारात्मक रूप से सांप्रदायिक नहीं समझी जा रही है उसने कालांतर में सांप्रदायिक कार्ड एक दो बार नहीं खेला बल्कि पिछले पैंतीस साल से इसी तरह की राजनीति कर रही है. एक तरह से कहें तो भाजपा प्रत्यक्ष रूप से हिंदुत्ववादी है, लेकिन कांग्रेस कभी हिन्दू साम्प्रदायिकता का सहारा लेती है तो कभी मुस्लिम साम्प्रदायिकता का जो कम घातक नहीं है. बहस के तार एक बार तब भी टूटती है जब गांधी कहते हैं सेकुलरवाद के पैरोकारों को आरएसएस पे दोष मढ़ना बंद करना होगा जबकि दुबे ने इस संगठन को ठीक से न पढ़ने और उनके वैचारिकी को कमतर आँकने वाले बुद्धिजीवियों की भी पैनी पड़ताल की है।
कमियाँ और त्रुटियाँ किसी भी पुस्तक में हो ही सकती है, जिसकी वाजिब आलोचना होनी चाहिए और इसी के जरिये वैचारिकी का विमर्श और पुख्ता होता है. इस नजरिए से आदित्य निगम का लेख सकारात्मक आलोचना और अंतर्दृष्टि से लैस है. निगम ठीक ही लिखते हैं कि अभय दुबे ने अपनी किताब में ‘सेकुलरवाद’ की जगह ‘गैर-बहुसंख्यकवाद’ शब्द का विन्यास तो अच्छा किया है लेकिन ‘गैर-बहुसंख्यकवाद’ और और ‘मध्यमार्गी विमर्श’ का इस्तेमाल वे इस किताब में इस कदर करते हैं जिससे पाठकों के बीच एकांगी विमर्श की समझदारी का भ्रम पैदा हो सकता है जबकि असलियत में ऐसा है नहीं. अतः जिसे अभय दुबे ने मध्यमार्गी विमर्श का नाम दिया है उसके अंदर भी ढेर सारे विमर्शों की संभावनाएं हैं॰ निगम आगे बताते हैं इस क्रम में दुबे एक और बात को नजरन्दाज़ करते हैं और वह ये कि जब वे सामाजिक न्याय की भयानक विफलता और उदासीन दलित मुस्लिम एकता की बात करते हैं तो इसका कारण उनकी ‘प्रति-परंपरा’ में ढूंढा जा सकता है. फिर एक बार शुरू हुए महिशासुर की पूजा-अर्चना उसका एक जीवंत उधारण हो सकता है.
इस बड़ी बहस के रूह में छिपा एक सवाल है, आखिर हिंदुत्ववादी उभार से संघर्ष कैसे किया जाए? अभय दुबे का जवाब है: “जब तक विमर्श के धरातल पर वे अपना कील-कांटा दुरुस्त नहीं करेंगे तब तक सही रणनीतियाँ भी उनके हाथ नहीं लगेंगी…मुझे उम्मीद है कि यह डिस्कोर्स मैपिंग करने में हम सब की मदद करेगी. अगर मेरे इन तर्कों को मध्यमार्गी विमर्श के दायरों में एक आत्मीय सुझाव की तरह पढ़ा जा सका और इसके इर्द-गिर्द बहस चल सकी तो इस संगीन समय में हमारी दृष्टि और अधिक साफ़ हो सकेगी.”
डॉ. अरविन्द कुमार, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ सोशल एक्सक्लुसन एन्ड इन्क्लूसिव पॉलिसी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पढ़ाते हैं.
शानदार समीक्षा लिखा गया है, किताब ने राजनीति की हर करवट और करवट से बनी सिलवटों को ध्यान से समझा और विश्लेषित किया है. इस तरह की पुस्तक की कमी ज़माने से महसूस की जा रही थी. अभय जी ने इस कमी को पूरा किया है. अरबिंद जी की कलम ने किताब का मर्म बहुत सलीक़े से पकड़ा है । बधाई ……
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बढ़िया विश्लेषण के लिए बधाई।
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