Guest post by RAJINDER CHAUDHARY
कई लोगों को यह गलतफहमी है कि नए कृषि कानूनों से केवल किसान और वो भी केवल पंजाब के किसान परेशान हैं. दिल्ली की सिंघु सीमा से आन्दोलन स्थल के फोटो जिनमें सिक्ख किसानों की भरमार होती है, को देख कर यह गलतफहमी किसी भी अनजान व्यक्ति को हो सकती. यह भी सही है कि सड़कों पर जिस तादाद में पंजाब/हरियाणा/उत्तर प्रदेश के किसान आये हैं उस पैमाने पर शेष भारत से किसान इन कानूनों के खिलाफ होने के बावजूद सड़कों पर नहीं आये हैं. ऐसा दो कारणों से हुआ है. एक तो ये कानून केवल अंग्रेजी में उपलब्ध हैं. इस लिए देश के ज़्यादातर किसान स्वयं तो इन को पढ़ ही नहीं पाए. दूसरा मीडिया में केवल एमएसपी या न्यूनतम समर्थन पर खतरे का मुद्दा ही छाया रहा, जिस के चलते ऐसा प्रतीत हुआ कि केवल यही खतरा मुख्य है. अब जिन किसानों को वैसे भी आमतौर पर न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर फसल बेचनी ही पड़ती है, उन को यह लगना स्वाभाविक ही है कि इन कानूनों से उन्हें कोई विशेष नुकसान नहीं होने वाला.
परन्तु इन कानूनों को पढ़ सकने वाला कोई भी व्यक्ति जान सकता है कि दाव पर केवल एमएसपी नहीं है. और खतरा न केवल करार कानून के तहत हुए समझौतों से कम्पनियों के मुकर जाने का है. करार खेती कानून धारा 2 (डी), धारा 2 (जी) (ii), धारा 8 (ख) और सरकार द्वारा सदन में रखे गए बिल के पृष्ट 11 पर दिए गई कृषि मंत्री के ‘कानून के उदेश्यों एवं कारणों’ पर प्रकाश डालते हुए वक्तव्य से यह शीशे की तरह स्पष्ट है, भले ही मीडिया में यह मुद्दा पूरे जोरशोर से नहीं आया, कि अब कम्पनियां न केवल खेती को अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित करेंगी अपितु सीधे सीधे स्वयं खेती भी कर सकेंगी. एमएसपी पर संकट से भी बड़ा संकट यह है कि इस कानून के लागू होने के बाद ज़मीन भले ही किसान की रहेगी पर खेती कम्पनियां करने लगेंगी.
इस लिए इन कृषि कानूनों से खतरा केवल पंजाब-हरियाणा के उन किसानों को नहीं है जिन्हें एमएसपी का लाभ मिलता है, केवल उन किसानों को नहीं है जिन के पास बाज़ार में बेचने लायक उत्पादन होता है पर छोटे-बड़े उन सब किसानों को है जो खुद खेती करते हैं फिर चाहे वह भूमि के मालिक हों या न हों. जब गाँव में कम्पनियां खेती करने लगेंगी तो भूमिहीन पशुपालकों का जीवन भी दूभर हो जाएगा क्योंकि भूमिहीनों का पशु पालन खेतों की मंडेरों से घास ला कर चलता है. बीघे दो बीघे का जो भूमि मालिक शहर में रहने वाले पड़ोसी की ज़मीन बो कर अपना गुजरा चला लेता था उस का जीना भी कम्पनियों द्वारा खेती करने से मुश्किल हो जाएगा. इस लिए देश भर के छोटे बड़े सब किसानों को चाहे वह खेती करते हों, मछली पालन या पशु पालन, या भले ही उन फसलों की खेती करते हों जिन का एमएसपी घोषित ही नहीं होता, उन को भी सड़क पर आना चाहिए क्योंकि उन की आजीविका भी दाव पर है. अब कृषि भूमी हदबंदी कानून का रहा सहा प्रभाव भी ख़त्म हो जाएगा और गांवों में वापिस ज़मीदारी प्रथा लौट आयेगी.
दांव पर केवल किसानों की आजीविका ही नहीं है पूरी अर्थव्यवस्था है. अगर ऐसा कहना किसी को अतिशयोक्ति लगता है तो यह ध्यान रखना चाहिए कि जब अच्छे बुरे मानसून तक से ही पूरी अर्थव्यवस्था प्रभावित हो जाती है, तो जिसे सरकार भी बहुत बड़ा बदलाव कह रही है, उस का तो पूरी अर्थव्यवस्था एवं उपभोक्ता पर असर पड़ना लाजमी है। इस लिए इस देश के हर उपभोक्ता एवं नागरिक को अपने आप को इस विवाद का हितधारक समझना चाहिए। जब कम्पनियाँ खेती करने लग जाएँगी तो श्रम का प्रयोग कम हो जाएगा और मशीनों का प्रयोग बढ़ जाएगा। इस का परिणाम यह होगा कि खेती में रोज़गार के अवसर कम हो जाएँगे। अर्थव्यवस्था के जिस सेक्टर में आधी से ज़्यादा आबादी काम करती है, उस में रोज़गार घटने के दो प्रभाव होंगे। एक तो खेती से बाहर रोज़गार की तलाश करने वालों की संख्या बढ़ जाएगी – यानी शहरों/उद्योगों में रोज़गार के लिए प्रतियोगिता और बढ़ जाएगी। दूसरा, जब कृषि जैसे क्षेत्र में रोज़गार घट जाएगा तो पूरी अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता मांग घट जाएगी, जिस के चलते बाकी क्षेत्रों में भी रोज़गार के अवसर और कम हो जाएँगे।
दूसरे कानून के माध्यम से खाद्य-पदार्थों पर आवश्यक वस्तु अधिनियम की पकड़ ढीली कर दी गई है। इसकी वजह से आवश्यक वस्तु अधिनियम, जिस के तहत सरकार कीमतों और कालाबाज़ारी पर रोक लगाने के उपाय कर सकती है, बहुत कम स्थितियों में खाद्य-पदार्थों पर लागू हो पाएगा। अब सिर्फ़ गिनी चुनी परिस्थितियों में ही आवश्यक वस्तु अधिनियम लागू होगा, लेकिन जब यह कानून लागू भी होगा, तब भी खाद्य-उद्योग या निर्यात में लगी कम्पनियाँ इस के दायरे से बाहर होंगी. इस आशय का स्पष्ट प्रावधान कानून में किया गया है। यानी कम्पनियों द्वारा होर्डिंग पर कोई पाबंदी नहीं होगी। इस कानून से किसानों को कोई फ़ायदा नहीं होने वाला क्योंकि किसान तो आम तौर पर फ़सल को खेत-खलिहान से सीधे मंडी ले जाता है, उस की भण्डारण-क्षमता तो बहुत कम है। इस कानून को शिथिल करने का फ़ायदा तो बड़े व्यापारियों/कम्पनियों को होगा। अंतत: इस का सब से अधिक नुकसान उपभोक्ता और छोटे दुकानदार और व्यापारी को होगा, क्योंकि बड़े व्यापारी और कम्पनियाँ खाद्य-पदार्थों की कालाबाज़ारी करके इनकी क़ीमतों में और अधिक बढ़ोतरी कर सकेंगे।
तीसरा कानून है मंडी बाइपास कानून। अब नियंत्रित मंडी के बाहर, कहीं पर भी, सार्वजनिक निगाह से दूर भी, किसान से उपज ख़रीदी जा सकेगी। यानी, 1950-60 के दशक वाली कृषि-व्यापार की स्थिति लौट आएगी। अभी भी उपभोक्ता द्वारा सीधे किसान से फ़सल ख़रीदने और व्यापारियों के आपसी सौदों पर कभी कोई रोक नहीं रही है। मंडी कानून में अगर कोई रोक रही है तो केवल व्यापारी द्वारा सीधे किसान से फ़सल खरीदने पर है। यानी, वह ख़रीद पर्दे के पीछे, एकांत में न हो कर सार्वजनिक रूप से होनी थी। नए कानून के चलते किसान के लिए 1950-60 के दशक वाली स्थिति पैदा हो जाएगी, जहाँ एक ओर छोटा किसान होगा और दूसरी ओर बड़े बड़े व्यापारी या कम्पनियाँ।
नए कानून के चलते नियंत्रित मंडी का वही हाल हो जाएगा जो सरकारी स्कूलों/हस्पतालों का हुआ है। शिक्षा के निजीकरण के चलते आम परिवारों पर भी शिक्षा-ख़र्च का बोझ कम होने की बजाय बढ़ा है। स्कूलों के निजीकरण के बावजूद ट्यूशन और कोचिंग का बोझ बढ़ रहा है। अब यही हाल भोजन पर ख़र्च का भी होग। नए मंदी कानून से किसान को मिलने वाले भाव में तो गिरावट आएगी, लेकिन ख़रीददार का ख़र्च कम होने की सम्भावना न्यूनतम है। कारण स्पष्ट है कि कोई भी व्यापारी अपना मुनाफ़ा कम कर के कभी ग्राहक को सस्ता सामान नहीं देता। तात्कालिक रूप से, अपवादस्वरूप बेशक कुछ समय के लिए उपभोक्ता को सस्ता सामान मिल जाए पर उपभोक्ता को होने वाली बचत किसान को होने वाले घाटे से कहीं कम होगी। दूसरे शब्दों में, किसान को होने वाला घाटा उपभोक्ता को होने वाली बचत से कहीं ज़्यादा होगा। इस के अलावा ग़ैर-कृषि श्रम-बाज़ार में बढ़ने वाली प्रतियोगिता और अर्थव्यवस्था में आने वाली मंदी से होने वाला नुकसान भी उपभोक्ताओं को भुगतना पड़ेगा। बाज़ार-भाव और मुनाफ़ा कम होने से रोकने के मकसद से कम्पनियाँ उत्पादन घटाने और खेत ख़ाली रखने तक से गुरेज़ नहीं करतीं। इस लिए मंडी बाइपास कानून से किसान को नुकसान होने के बावजूद उपभोक्ता को फ़ायदा होने की सम्भावना बहुत कम है।
नए कृषि कानूनों के चलते खाद्य-पदार्थ महंगे हो जाएँगे। यह भी सम्भावना है कि खाद्य-पदार्थ ज़्यादा असुरक्षित हो जाएँगे क्योंकि कम्पनियों द्वारा की जाने वाली खेती में रसायनों का प्रयोग ज़्यादा होने और खेती के जैविक होने की सम्भावना कम है। ऐसा इस लिए है क्योंकि कम्पनियाँ इन्सानों का कम और मशीनों का ज़्यादा प्रयोग करेंगी। इस कारण से उन के लिए जैविक खेती (जो ज़्यादा श्रमसाध्य है) मुश्किल होगी। एक ओर जहाँ सरकार गौ आधारित जैविक/प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के प्रचार कर रही है, वहीं कम्पनियों द्वारा खेती की राह प्रशस्त करना निन्दनीय है।
यह भी हर व्यक्ति को स्पष्ट होना चाहिए कि अगर कृषि का कम्पनीकरण हो गया, तो अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में निजीकरण की बाढ़ आ जाएगी। पहले से ही सरकार इस ओर अग्रसर है, फिर चाहे वह रेलवे हो या सड़क परिवहन हो या बैंक। अभी तक रिलायंस सरीखी कम्पनियों द्वारा बैंकों में निवेश पर 1960 के दशक से लगी हुई रोक जारी है पर अब सरकार द्वारा जारी प्रस्ताव के अनुसार यह रोक हटा ली जाएगी – यानी आम जनता की छोटी-छोटी बचत को बैंकों के माध्यम से जमा कर के बड़े उद्योग-घराने अपने उद्योगों में लगा सकेंगे जिस से पैसा डूबने का ख़तरा बढ़ जाएगा। केवल बाज़ारवाद के कट्टर समर्थक, जो यह मानते हैं कि ज़्यादा से ज़्यादा अर्थव्यवस्था को कम्पनियों के भरोसे छोड़ना ही चाहिए, वही मान सकते हैं कि कृषि क्षेत्र को कम्पनियों के लिए खोल कर सरकार ठीक ही कर रही है। पर थोडा सा भी विचारशील व्यक्ति यह पायेगा कि सब कुछ बाज़ार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। बाज़ार/अर्थव्यवस्था पर सरकार/समाज का नियंत्रण रहना चाहिए। और अगर कृषि-क्षेत्र में कम्पनियाँ घुस गईं और सरकार ने अपना पल्ला किसान से झाड़ लिया, तो फिर यह प्रक्रिया कहीं नहीं रुकेगी और देश चंद रईसों का बंधक हो जाएगा।
इस के अलावा एक ओर कारण है जिस के चलते इन कृषि कानूनों को वापिस लिया ही जाना चाहिए। जनतंत्र जनता की राय से चलता है और ये राय केवल पांच साल में एक बार नहीं ली जानी चाहिए। अगर इतने व्यापक शांतिपूर्ण विरोध के बावजूद, सरकार जल्दबाज़ी में संसद में बिना वोट के पास करवाए गए कानून को भी वापिस नहीं लेती, तो इस का स्पष्ट सन्देश यह है कि देश में तानाशाही ताकतों का वर्चस्व है। इस लिए दाव पर न केवल खेती किसानी है, न केवल अर्थव्यवस्था और उपभोक्ता हैं अपितु अब तो दाव पर लोकतंत्र है.
जहाँ तक उच्चतम न्यायलय के हालिया आदेश का सवाल है भले ही उपरी तौर पर अदालत ने तीनों कृषि कानूनों के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी है परन्तु अपने 12 जनवरी के आदेश के अगले ही पैरा (14 (ii)) में अदालत ने यह स्पष्ट किया है कि इस का प्रभाव यह होगा कि अगले आदेश तक न्यूनतम समर्थन मूल्य की वर्तमान व्यवस्था जारी रहेगी एवं नए कानूनों के तहत किसान से ज़मीन छिनने की कोई करवाई नहीं की जा सकेगी. आम तौर पर अगर अदालत अपने निर्णय को सीमित न कर के अतिरिक्त स्पष्टीकरण हेतु कुछ जोड़ती है तो उस के पूर्वार्ध में ‘अन्य बातों के अलावा’ होता है. इस मामले में अदालत ने ऐसा कुछ नहीं किया. इस का अर्थ है कि अदालत के इस आदेश में ऐसा कुछ नहीं है जो किसानों ने माँगा हो या जो सरकार ने देने से मना किया हो, और अब अदालत ने दे दिया हो. अदालत के नवीनतम आदेश के बिना भी अभी भी जैसी आधी अधूरी न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था है, वह चल ही रही है, और न फिलहाल किसी अदालत में नए कृषि कानूनों के चलते किसान की ज़मीन छिनने का कोई मुकद्दमा चल रहा है. इस लिए अदालत के निर्णय से नया कुछ नहीं हुआ सिवाय इस बात के कि अब अगर किसान चाहें तो कोरोना और सर्दी के अगले दो महीने (इतना समय अदालत ने कमेटी को दिया है) सरकार से वार्ता न कर के अदालत द्वारा गठित कमेटी से बात करें.
वैसे भी अदालत की भूमिका, पंच की भूमिका, केवल क़ानूनी विवाद में ही हो सकती है न कि नीतिगत प्रश्नों पर. और कृषि कानूनों का मुद्दा मूलत: नीतिगत प्रश्न है न कि क़ानून का. यद्यपि नए कृषि कानूनों की आलोचना में एक सवाल राज्यों के लिए चिन्हित एक मसले पर, कृषि पर, केंद्र द्वारा क़ानून बनाने की वैधानिकता का भी उठाया गया है, पर असली मुद्दा इन की अंतर्वस्तु, इन के सार का है. खेती करने का कौन सा तरीका (किसानों द्वारा या कम्पनियों द्वारा) और कृषि उत्पाद की बिक्री का कौन सा तरीका (सरकार/समाज की निगरानी में या पूर्णत बाज़ार यानी विशालकाय राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों के भरोसे) भारत जैसे देश के लिए उपयुक्त है यह नीति का, प्राथमिकता का प्रश्न है न कि क़ानून का.
अब एक ही रास्ता बचता है कि देश भर के सब किसान, पशुपालक, मछुआरे, उपभोक्ता और नागरिक, नैतिक या सांकेतिक समर्थन से आगे बढ़ कर सड़क पर उतर कर स्पष्ट रूप से सरकार को बता दें कि वो नए कृषि कानूनों और उस की तानाशाही के विरोध में हैं. तभी देश में जनतंत्र बचेगा. बांटने की कोशिशें, भ्रामक प्रचार, झूठे वायदे इत्यादि सब यह इंगित करते हैं कि पूरी जनता का विरोध सहने की क्षमता किसी हिटलर में नहीं होती. वो बाँट कर ही जनता का सामना कर पाते हैं. अगर पूरी जनता के रोष को सहने की ताब होती तो सरकार इन क़ानूनों को किसानों के ‘शक्तिकरण और संरक्षण’ का नाम न दे कर सीधे सीधे कम्पनियों को अधिकार देने का कानून कहती. बार बार जनता की भलाई का ज़िक्र करने से यह स्पष्ट है कि असली ताकत जनता के पास ही है, बशर्ते वह सचेत और सक्रिय हो. न निराश होने की ज़रूरत है और न घर बैठने की. शांति ज़रूर बनाए रखनी है. न आत्म हत्या करनी है न हिंसा, न किसी संम्पति को नष्ट करना है न किसी व्यक्ति को नुकसान पहुँचाना है. सरकारें हिंसक आन्दोलन से इतना नहीं घबराती जितना अहिंसक पर व्यापक आन्दोलन से.
न केवल नए कृषि कानून परन्तु सरकार का तानाशाही रवैया, केवल किसानों के लिए हानी कारक न हो कर पूरे देश के लिए चिंता का विषय है. हालाँकि सरकार की हठधर्मिता और तानाशाही रवैये के लिए किसी अतिरिक्त सबूत की ज़रूरत नहीं है फिर भी अदालत द्वारा गठित कमेटी की संरचना ही इस की पुष्टि करती है. अगर सरकार चाहती तो अदालती करवाई के अवसर के माध्यम से वर्तमान गतिरोध को समाप्त करने की कोशिश कर सकती थी. अगर वह ऐसा चाहती तो अदालत के पहले के सुझाव को मान कर कम से कम एक साल के लिए नए कृषि कानूनों को पूरी तरह से निष्प्रभावी करने की घोषणा कर के अपनी नाक भी बचा सकती थी और जनता की अदालत के कुछ हिस्सों में शाबाशी भी लूट सकती थी. फिलहाल सरकार न केवल किसानों की अदालत में बल्कि जनता की अदालत में भी हार चुकी है. जब तक आन्दोलनकारी किसान संगठन अपने आन्दोलन को शांति पूर्वक बनाए रखेंगे, तब तक जनता की अदालत उन के साथ बनी रहेगी. शायद अब समय है कि देश और जनता के अन्य प्रभुद्ध तबके भी इसके समर्थन में उतरें।
इस लिए किसानों ने अदालत का रुख न कर के सरकार का रुख किया. बड़े पैमाने पर न केवल किसानों द्वारा बल्कि अर्थशास्त्रियों समेत व्यापक बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा इन कानूनों की कड़ी आलोचना के बावजूद सरकार की हठधर्मिता के चलते यह अहसास व्यापक हुआ था कि सरकार के लिए अब यह नाक का सवाल हो गया था. सरकार हर तरह से इन कानूनों में बदलाव करने तो तैयार थी पर कानूनों को रद्द करने को तैयार नहीं थी. इस परिस्थिति में अदालत से गतिरोध तोड़ने की एक आस बनी थी. हालाँकि पर अदालत की इस टिप्पणी से कि इन कानूनों को एक साल के लिए लंबित कर दिया जाए, इस गतिरोध को तोड़ने की एक आस बनी थी. यह एक ऐसा रास्ता हो सकता था जो तात्कालिक रूप से किसानों की चिंता का समाधान कर सकता था क्योंकि फिलहाल कम से कम एक साल के लिए ये कानून निष्प्रभावी हो जाते और सरकार की नाक भी बची रहती क्योंकि कानून तत्काल रद्द नहीं होते.
परन्तु दुर्भाग्य से किसानों को यह राहत भी नहीं मिली.
राजेन्द्र चौधरी एम डी यूनिवर्सिटी, रोहतक के अर्थशास्त्र विभाग के भूतपूर्व प्रोफ़ेसर हैं और कुदरती खेती अभियान के सलाहकार हैं.
आने वाले संकट से आगाह करने के लिए बहुत आभार ।
My blessings to you.
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