Guest post by RAJINDER CHAUDHARY
दिल्ली पहुँचने के बाद और 26 जनवरी से पहले, ऊपरी तौर पर सरकार ने किसान आन्दोलन की राह में कोई रोड़े नहीं अटकाए और किसान आन्दोलन को दबाने की रणनीति दबी-ढकी थी। परन्तु अब सरकार खुल कर किसान आन्दोलन को दबाने का प्रयास कर रही है। न केवल आन्दोलनकारियों का बिजली पानी बंद किया जा रहा है और उन पर पथराव प्रायोजित किया जा रहा है बल्कि आन्दोलन स्थल तक पहुंचने के रास्ते भी बंद किये जा रहे हैं। इन्टरनेट जो आज झूठी ख़बरों के साथ साथ जानकारी का भी मुख्य स्रोत बन चुका है, बल्कि आज जीवन की बुनियादी ज़रूरत बन चुका है उस पर भी आन्दोलन स्थलों के आसपास के इलाकों में रोक लगा दी गई है। यहाँ तक की आन्दोलनकारियों द्वारा कोई रूकावट न डाले जाने के बावजूद, रेलगाड़ियों के मार्ग परिवर्तन किये जा रहे हैं या रेल सेवा बंद की जा रही है जिस से न केवल आन्दोलनकारी किसानों या उन के समर्थकों को परेशानी हो रही है अपितु आमजन भी परेशान हो रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार किसान आन्दोलन से बिलकुल बेपरवाह है।
नए कृषि कानून सरकार की अर्थव्यवस्था के पूर्ण बाजारीकरण की नीतियों का अगला और अत्यंत महत्वपूर्ण चरण भर हैं। स्वयं सरकार ने कई बार ऐसा कहा है। सरकार इस नीति से रत्ती भर भी पीछे नहीं हटी है यह नए बजट से भी साबित होता है। नए बजट में भी वह अपनी बाज़ार/कम्पनी परस्त राह पर चलने से बाज नहीं आई। कोरोना काल के प्रभाव के चलते सरकारी राजस्व में कमी हुई है पर कोरोना के चलते खर्चे बढ़ने स्वाभाविक हैं पर इस के बावजूद इस बजट में देश के अरब-खरबपतियों पर कोई छोटा-मोटा नया कर या सरचार्ज तक नहीं लगाया गया। इस के चलते अगले साल मोदी सरकार का ४३% से ज्यादा खर्चा तो क़र्ज़ ले कर (या सम्पति बेच कर या नोट छाप कर) किया जाएगा। इस क़र्ज़ पर ब्याज का भुगतान आम जनता को ही करना होगा। सार्वजानिक संपत्तियों को बेच कर कुल खर्च का ५% से अधिक जुटाने की योजना है। एलआईसी जैसी कम्पनी जिस में आम जनता की गाढ़ी कमाई का वो पैसा लगता है जो बुरे वक्त के लिए बचा कर रखा पैसा होता है, को भी सरकार ने बाज़ार के हवाले करने की घोषणा की है। इस सब के बाबजूद सरकार के अपने आंकड़े दिखाते हैं कि अगले वित्त वर्ष में खर्चा वर्तमान वित्त वर्ष के मुकाबले १% से भी कम बढ़ा है और अगर सरकार के क़र्ज़ पर दिए जाने वाले अतिरिक्त को घटा दें, तो अगले साल का केन्द्रीय सरकार का खर्च वर्तमान साल से भी कम हो जाएगा। महंगाई का प्रभाव इस के अलावा है। यानी सरकार ने कोरोना काल और अर्थव्यवस्था की मंदी के दौर में नागरिकों को अतिरिक्त सेवा प्रदान करने या अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए कुछ नहीं किया जब कि इस समय समाज के बहुत से तबकों को सहायता की ज़रूरत है। खैर बजट तो निश्चित तौर पर पास हो जाएगा क्योंकि बजट तो केवल लोकसभा को पारित करना होता है।
इस लिए आज सवाल केवल कृषि कानूनों का नहीं है। आज देश के सामने सवाल यह है कि अडानी-अम्बानी की इस बेलगाम सरकार पर रोक कैसे लगे? अगर अब भी नहीं लगी तो कब लगेगी? ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार ने पहली बार जन विरोधी फैसले लिए हैं। इस सरकार के जन विरोधी फैसलों और उन के विरोध की सूची लम्बी है। पर उन जन विरोधी फैसलों से या तो नुकसान किसी छोटे तबके को था या अप्रत्यक्ष था। पर नए कृषि कानून तो देश की बहुसंख्यक आबादी को प्रभावित करते हैं एवं इन का प्रभाव अप्रत्यक्ष या सैद्धांतिक-संविधानिक मूल्यों तक सीमित न हो कर प्रत्यक्ष और ठोस है। इस लिए अगर अडानी-अम्बानी की इस बेलगाम सरकार पर अब रोक नहीं लगी तो फिर इस पर लगाम लगना और भी मुश्किल हो जाएगा। किसानों का ये आन्दोलन असफल हो गया, तो पंजाब में ही नहीं पूरे देश में लम्बे समय तक कोई भी आन्दोलन खड़ा करना मुश्किल हो जाएगा।
इस बेलगाम सरकार पर रोक कैसे लगेगी? पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान पहले से ही लगभग अपनी पूरी शक्ति लगा चुके हैं। अगर वो कुछ और जोर लगाएं भी, तो भी शायद ही सरकार पर उस का कुछ असर हो। मोदी सरकार ने शायद यह स्वीकार कर लिया है कि इन राज्यों के किसान अगर उसे चुनावों में हरा भी देते हैं तो भी इसे पीछे नहीं हटना। इस हठधर्मिता का ठोस कारण है। सरकार जानती है कि एक बार जन दबाव में पीछे हटने से जनता द्वारा बार बार उस की तानाशाही के खिलाफ दबाव बनाने की संभावना है। इस लिए सरकार ने इतना अड़ियल रवैया अपनाया है। क्योंकि गणतंत्र में अंतत: चुनावी गणित ही सब से अधिक महत्वपूर्ण होता है, इसलिए उत्तर भारत के इन राज्यों में आन्दोलन आगे बढ़ने से भी सरकार पर कोई अतिरिक्त दबाव नहीं पड़ने वाला। सरकार पर दबाव बनेगा देश के बाकी राज्यों खासतौर पर भाजपा शासित राज्यों में जनदबाव बढ़ने से।
इस का यह अर्थ कदापि नहीं है कि पंजाब-हरियाणा-पश्चिमी उत्तरप्रदेश के बाहर, अन्य राज्यों में नए कृषि कानूनों का विरोध नहीं हो रहा है। इन कृषि कानूनों का विरोध लगभग पूरे देश में हुआ है और लगभग सभी किसान संगठनों ने किया है। परन्तु देश के अन्य राज्यों में किसानों के विरोध ने अभी दिल्ली सरीखे जनांदोलन का स्वरूप नहीं लिया। इस लिए सरकार इसे राजनैतिक विरोधियों द्वारा प्रायोजित मान कर नज़रंदाज़ कर सकती है। किसी भी सरकार को परम्परागत विरोधियों से तो विरोध की अपेक्षा होती ही है। अंग्रेजी आलेखों और बुद्धिजीवियों की इस सरकार को कभी कोई परवाह रही ही नहीं है। सरकार के कान तभी खड़े हो सकते हैं जब उस की नीतियों के विरोध का दायरा फैलता है, जब आमजन उस में शामिल होते हैं। इस लिए जब तक दिल्ली सरीखा विरोध, एक दिन या एक गतिविधि का विरोध नहीं बल्कि लगातार विरोध देश के बाकी हिस्सों में नहीं खड़ा होता, जब तक एक पार्टी या एक संगठन द्वारा संचालित नहीं अपितु व्यापक जनता का आन्दोलन इन कानूनों के खिलाफ उठ खड़ा नहीं होता तब तक मोदी सरकार का झुकना मुश्किल प्रतीत होता है।
सवाल उठता है कि पंजाब सरीखा किसान आन्दोलन शेष देश में अब तक क्यों नहीं खड़ा हुआ। इस का कोई एक कारण चिन्हित नहीं किया जा सकता। कई इलाकों में तो कमज़ोर किसान संगठन ही मुखर विरोध न होने का पर्याप्त कारण हो सकता है। परन्तु इस का एक बड़ा कारण यह है कि, कम से कम वर्तमान आन्दोलन की शुरुआत में, विरोध का मुख्य बिंदु एमएसपी रहा है। केवल अंग्रेजी में उपलब्ध होने के कारण आम जन तो इन कानूनों को मीडिया में उठाये मुद्दों के माध्यम से ही समझ सकता है। इस लिए आम किसानों ने इन कानूनों के दुष्प्रभावों को केवल एमएसपी पर खतरे तक सीमित मान लिया। इस लिए जिन किसानों को अब तक भी एमएसपी का कोई लाभ नहीं मिलता रहा है, उन को लगा कि इन कानूनों से उन्हें कोई नुकसान नहीं होगा।
जहाँ तक आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव का प्रभाव है यद्यपि यह सब पर पड़ेगा, पर यह तात्कालिक और भयावह नहीं है। तीसरे करार/अनुबंध/कांट्रेक्ट खेती कानून का मुख्य खतरा भी इस रूप में समझा गया है कि करार होने के बाद कम्पनी करार से मुकर सकती है। क्योंकि खेती करार स्वैच्छिक है इस लिए यह खतरा भी बड़ा प्रतीत नहीं होता; क्योंकि अगर किसान कोई करार करता ही नहीं तो कम्पनी के करार से मुकरने का उसे क्या डर। करार खेती कानून को इस नजरिये से देखने से आम किसान, विशेष तौर से छोटे किसान, आदिवासी किसान या भूमिहीन किसान को कोई विशेष खतरा प्रतीत नहीं होता। इस लिए प्रचारित रूप में नए कृषि कानूनों का सब से बड़ा खतरा एमएसपी व्यवस्था पर दिखा एवं इस लिए पंजाब इत्यादि में जहाँ एमएसपी सब से अधिक प्रभावी है, वहीँ इन का विरोध सब से मुखर रहा है।
लेकिन इन कानूनों को अंग्रेजी में पढ़ सकने वाला कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि खतरा केवल एमएसपी या न्यूनतम समर्थन मूल्य पर नहीं है और न ही केवल करार करके करार से मुकरने का है। करार खेती कानून को आम तौर पर कृषि उत्पाद के खरीद के अग्रिम सौदे से सम्बंधित कानून के रूप में लिया जाता है। पहले से जारी करार खेती में यही स्वरूप महत्वपूर्ण रहा है। उदहारण के लिए पेप्सी कम्पनी द्वारा किसानों से विशेष किस्म के आलू की खरीद का अग्रिम सौदा। हर सरकारी प्रचार सामग्री में कृषि करार कानून के पक्ष में ऐसा ही उदहारण दिया जाता है। वास्तविकता यह है कि करार खेती कानून के पूरे नाम में ही कृषि सेवायें भी शामिल हैं और इस की धारा 2 (डी), धारा 2 (जी) (ii), धारा 8 (ख) और सरकार द्वारा सदन में रखे गए बिल के पृष्ठ 11 से साफ़ है कि सौदा केवल ख़रीद का नहीं होगा बल्कि अब कम्पनियाँ ख़ुद खेती कर सकेंगी। इस कानून की धारा 2 जी में कृषि करार को परिभाषित किया गया है। इस के साथ दी गई व्याख्या के अनुसार इन करारों में “व्यापार एवं वाणिज्य” करार हो सकता है “जिस में उत्पादन प्रक्रिया के दौरान उत्पाद की मल्कियत/ स्वामित्व किसान के पास रहती है” और कम्पनी को “उत्पाद देने पर तयशुदा समझौते के अनुसार उसे भुगतान किया जाता है”। आम तौर पर पहले से प्रचलित करार खेती में केवल ऐसा ही करार होता है परन्तु मोदी सरकार द्वारा पारित करार खेती कानून के अनुसार एक दूसरी तरह का करार भी हो सकता है। इस कानून की धारा 2 (जी) (ii) के अनुसार “कृषि करार” “उत्पादन करार” भी हो सकता है जिस में कम्पनी “पूरी तरह से या आंशिक रूप से कृषि सेवायें प्रदान करने और उत्पादन का जोखिम उठाने का परन्तु किसान को उस द्वारा दी गई सेवाओं का भुगतान करने का आश्वासन देती है”। इस धारा से स्पष्ट हो जाता है कि उत्पाद तो कम्पनी का होगा और कम्पनी किसान को केवल किसान द्वारा दी गई सेवाओं का भुगतान करेगी। अब किसान कम्पनी को किस तरह की सेवा दे सकता है? आज खाद-बीज तो किसान खुद कम्पनियों से खरीदता है। स्पष्टतय: किसान केवल भूमि और श्रम सेवायें दे सकता है। यानी नए करार खेती कानून के अनुसार अब कम्पनियां किसान से ज़मीन ले कर (धारा 3 (3) के अनुसार अधिकतम ५ साल तक एवं विशेष परिस्थितियों में परस्पर सहमति से तय अवधि तक) खुद खेती कर सकेंगी।
यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि खेती कानून की धारा 8 ए के अनुसार ज़मीन पट्टे पर लेना इस कानून के अंतर्गत नहीं आता। परन्तु अगली ही धारा 8 बी के अनुसार “करार ख़त्म होने पर कम्पनी को ज़मीन पर किये गए निर्माण या बदलाव को अपने खर्चे पर निरस्त कर के ज़मीन को अपनी प्रारंभिक स्थिति में लौटाना होगा”। क्या अब भी कोई शक रह जाता है कि करार के दौरान ज़मीन किसान के नहीं कम्पनी के कब्ज़े में होगी और कम्पनी छोटे छोटे खेतों को मिला कर 50-100 किल्ले के खेत बना सकेंगी, कि ज़मीन का मालिकाना हक़ भले ही किसान का रहेगा पर अब खेती वो नहीं करेगा? अगर किसी को इस में कोई शक हो तो उसे संसद में इस कानून बाबत पेश किये गए बिल के पृष्ठ 11 को पढ़ना चाहिए। बिल के इस हिस्से में मंत्री नए कानून के उद्देश्यों एवं कारणों पर प्रकाश डालते हैं। इस का पहला वाक्य ही ‘भारतीय कृषि के छोटी छोटी जोतों में बिखराव’ का ज़िक्र करता है। अब ये छोटे छोटे खेत किसी सुई-टीके द्वारा तो बड़े हो नहीं सकते। छोटे छोटे खेतों को बड़े करने का तो एक ही तरीका है कि इन के डोलों को तोड़ कर, छोटे छोटे खेत मिला कर बड़े किये जाएँ।
स्पष्टतय: नए कृषि कानूनों का सब से बड़ा खतरा कम्पनियों द्वारा सीधे सीधे खेती करने का है। बीज-खाद इत्यादि के माध्यम से अब भी कम्पनियों का देश की कृषि पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण है पर अब कम्पनियों द्वारा खेती करने से यह नियंत्रण परोक्ष न रह कर प्रत्यक्ष हो जाएगा। ज़मीन भले ही किसान की बनी रहेगी पर अब खेती किसान नहीं करेगा। और ये ख़तरा केवल पंजाब-हरियाणा-पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के लिए नहीं है अपितु पूरे देश के छोटे-बड़े सब किसानों के लिए है। उन भूमिहीन या थोड़ी से भूमि के मालिक किसानों के लिए भी है जो पास पड़ोस के नौकरी पेशा या शहर में निवास करने वाले भूमी मालिकों की ज़मीन पर खेती कर के गुज़ारा कर रहे हैं। न केवल भूमिहीन बल्कि अधिकांश छोटे किसान खेती छोड़ने पर विवश हो जायेंगे एवं नए करार खेती कानून का असर यह होगा कि कृषि-भूमि हदबंदी कानून का रहा सहा प्रभाव भी ख़त्म हो जाएगा। भारत के खेत भी अमरीका जैसे विशाल हो जायेंगे। जब कम्पनियाँ खेती करेंगी तो मशीनों का प्रयोग बढ़ जाएगा और श्रम का प्रयोग कम हो जाएगा। नतीजा, खेती में रोज़गार कम होगा। कुछ किसान मज़दूर बनेंगे पर ज़्यादातर तो बेरोज़गार हो जायेंगे।
निश्चित तौर पर नए कृषि कानूनों से खतरा केवल किसानों को नहीं है अपितु उपभोक्ताओं और पूरी अर्थव्यवस्था को है। नए कृषि कानूनों के पूरी अर्थव्यवस्था एवं उपभोक्ताओं पर पड़ने वाले प्रभावों की चर्चा काफिला के इस लेख में है। परन्तु निश्चित तौर पर सब से ज्यादा और तात्कालिक प्रभाव किसानों पर पड़ेगा और न केवल चंद राज्यों के किसानों पर अपितु देश के हर किसान पर पड़ेगा। इस लिए किसानों को लामबंद करना ज़्यादा सहज है। एमएसपी के नजरिये से देखें तो सब से बड़ा नुकसान पंजाब के किसानों का होना है इस लिए वो सब से पहले जोर-शोर से उठ खड़े हुए हैं। लेकिन अगर करार खेती कानून के नजरिये से देखें तो उतना ही बड़ा खतरा पूरे देश के किसानों के लिए है। पूरे देश के किसानों की रोजी-रोटी दाव पर है। अगर देश भर के किसानों को यह समझ आ जाए, अगर कोई उन्हें यह समझाए तो वहां भी जन आन्दोलन खड़ा होना मुश्किल नहीं है और देश भर में ऐसा हो जाए तो फिर मोदी सरकार का झुकना मुश्किल नहीं है। पर यह काम पंजाब इत्यादि के किसान या नागरिक संगठन नहीं कर सकते। यह काम तो हर राज्य के अपने किसान एवं जन संगठनों को करना होगा। क्योंकि मोदी सरकार का तानाशाही रवैया केवल कृषि कानूनों तक सीमित नहीं है, इस लिए केवल किसान संगठनों को ही नहीं, सभी राजनैतिक, गैर-राजनैतिक संगठनों को ऐसा तुरंत करना चाहिए।
मोदी सरकार वर्तमान किसान आन्दोलन को केवल चंद राज्य के किसानों का आन्दोलन मान कर चल रही है। इस लिए यह उसे नज़रंदाज़ कर रही है। जैसे ही पूरे देश का किसान भी, भले ही अपने अपने राज्य में, उस की राजधानी में, उतनी ही शिद्दत से उठ खडा होगा, तो दिल्ली दूर नहीं होगी। इस काम को केवल पंजाब-हरियाणा-उत्तर प्रदेश के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। देश की आधी आबादी पर दुष्प्रभाव डालने वाले कानूनों को निरस्त करने का इतना बड़ा आन्दोलन भी अगर असफल हो जाता है तो देश में निराशा और तानाशाही पूरी तरह से स्थापित हो जायेगी।
राजेन्द्र चौधरी एम डी यूनिवर्सिटी, रोहतक के अर्थशास्त्र विभाग के भूतपूर्व प्रोफ़ेसर हैं और कुदरती खेती अभियान के सलाहकार हैं.
Ye imandari se kiye gaye pryas jarur safal honge . You are a saviour.
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The writer has deep knowledge of the issue and has put forward each and every point in a very simple way. He is absolutely right that these three New dictatorial and anti people laws, the so called Agrarian Laws are going to hit majority of Indian population. So we all should join hands in opposing them and compelling our Government to take back these laws completely.
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