मुक्तिबोध : हृदय के पंख टूटने पर

यह मुक्तिबोध की जन्मशती नहीं है. कोई ऐसा अवसर जिसके बहाने कवि या रचनाकार पर वार्ता फिर से शुरू करने का आयोजन किया जाए. एक तरह से यह मुक्तिबोध को असमय, बिना किसी प्रसंग के पढ़ने का निमंत्रण है. हर दूसरे दिन हम मुक्तिबोध के साथ हाजिर होंगे.

मुक्तिबोध शृंखला;1

प्रिय नेमि बाबू,

आपका पत्र नहीं. समय का भाव नित्य से अधिक ही होगा. पर याद आपकी आती रहती है. आजकल धूप अच्छी खिलती है और मन तैर तैर उठता है, और आपकी याद भी इसी सुनहले रास्ते से उतर आया करती है.”

देखा अक्टूबर का ख़त है. 26 अक्टूबर,1945 का. शारदीया धूप ही रही होगी? सोचता हूँ, मुक्तिबोध को “अँधेरे में” लिखने में अभी वक्त है. कोई 13 साल बाद वे इस कविता को लिखना शुरू करेंगे. और फिर उनकी याद से धीरे-धीरे यह धूप, यह सुनहली धूप पोंछ दी जाएगी. मुक्तिबोध अँधेरे के कवि रह जाएँगे. भीषण, भयंकर के भावों के.

उस युवा कवि का, लेखक का अपने मित्र को उसका पत्र न मिलने पर दिया गया उलाहना आगे पढ़ता हूँ. धूप ने उसके मन को रंग दिया है.

“गो मैं यह सोचता हूँ कि यह सब गलत है. दिन के बँधे हुए कार्य को अधिक बाँधकर करने के पक्ष में रहते हुए भी कामचोरी से दिली मुहब्बत टूट नहीं पाती. मैं मानता हूँ कि कर्तव्य ही सबकुछ है. … क्या ज़रूरी है कि कर्तव्य किया ही जाय और उस समय आनेवाली आपकी याद को बाहर खड़ा रखकर मन के दरवाज़े को बंद कर दिया जाय.”

यह कर्तव्य है रोज़मर्रा की ज़िंदगी को पटरी से लगाए रखने का कर्तव्य. जो आदमी को धीरे धीरे घिस डालता है और उसे औसतपन की सतह से बाँध देता है. इससे कैसे छुटकारा पाएँ?

“इसी कर्तव्य ने लोगों को पंगु कर दिया है, उनके हृदय के पंख तोड़कर उसे अधिक सामान्य बना दिया है.”

हृदय के पंख का टूट जाना, उन्हें तोड़ दिया जाना ही तो आज के इंसान की सबसे बड़ी ट्रेजेडी है. या कहें, उसके साथ किया जानेवाला सबसे बड़ा अन्याय. ‘आज के’, मैंने लिखा. मैं जो धूप और याद से उष्ण इन शब्दों के लिखे जाने से कोई 76 साल दूर हूँ. फिर यह ‘आज’ जो मैंने लिखा किसका आज है?

“सरदी की पारदर्शिनी, हल्की-हल्की चोटें करनेवाली यह धूप और उसका उष्ण स्पर्श मानों मुझे जगा देता है. मन दैनिक नींद से जाग उठता है. वृक्षों के पत्र-संभार पर फलकर उनके गाढ़े हरियाले अंतराल में छाया-प्रकाश उत्पन्न करनेवाली या धूप मन में सपने जगा देती है.”

सपने कैसे हैं?

“कोई विलास स्वप्न नहीं वरन् विजय स्वप्न. जिन्हें देख लें पुराने मकान की जीर्ण मुंडेर पर बैठकर दूसरे के आँगन में ताकनेवाले लोग–कर्तव्य के मोहल्ले के पुराने बाशिंदे.”

‘कर्तव्य के मोहल्ले से पुराने बाशिंदे’, जो दूसरों की जिंदगियों में ताक झाँक करते हैं. कौन कितना सफल हुआ, इसकी फिक्र में आधे हुए जाते हैं.

इस कर्तव्य के मोहल्ले में रहते हुए कैसे उसकी बास भरी ज़िंदगी से आज़ाद हुआ जाए?

“सचमुच अब सारे कर्तव्य से आज़ादी चाहता हूँ. चाहता हूँ मात्र कार्य, अपने अनुकूल. यह नहीं कि petit-bourgeous कर्तव्य चलते ही चले जाएँ और मैं उसमें फँसता ही चला जाऊँ.”

इस ख़त के 4 रोज़ बाद ही फिर नेमिजी को ख़त लिखा जाता है:

“सहसा आपकी याद आ रही है, मीठी बयार के औचक जगानेवाले झोंके-सी.जैसे जाग उठा हूँ अपनी समस्त चेतना लेकर. समस्त चेतना अपने अन्तर्विश्व की. मन के वे ज्ञान के और प्रेम के झिलमिलाते स्वप्न, ह्रदय की अनुभूतियों के विकास के स्रोत क्षण-भर के लिए जग उठे हैं.”

पिछले पत्र में मित्र की याद सुनहली धूप की तरह मन को आलोकित कर देती है. इस ख़त में वह मीठी बयार एक झोंके-सी है. अपने अन्तर्विश्व की सारी चेतना के साथ जागना होता है. ज्ञान के और प्रेम के स्वप्न भी जाग उठते हैं.

‘संवेदनात्मक ज्ञान’ और ‘ज्ञानात्मक संवेदन’ का आविष्कार अभी कोई एक दशक दूर है. ज्ञान और प्रेम साथ साथ ही आते हैं और वे हैं हृदय की अनुभूति के विकास के स्रोत.

डर इसका है कि ये जो स्वप्न जगे हैं उन्हें फिर ‘कर्तव्य’ का दायित्व बोध सुला देगा:

“अभी क्षण भर के बाद ही वे सो जाएँगे और धुंधली मिट्टी का मटमैला स्पर्श उन्हें सुला देगा…”

ज्ञान और प्रेम के इन स्वप्नों को जाग्रत रखना ही तो वह ‘कार्य’ है जिसे मुक्तिबोध ‘कर्तव्य’ से अलग करते हैं. कर्तव्य और कार्य का यह विभाजन दिलचस्प है. अगर मैं अपने कार्य को पहचान सकूँ और उसका अवसर भी पा सकूँ तभी तो मैं स्वाधीन मनुष्य हूँ. वही तो मेरा स्वराज होगा.

दिक्कत यह है और कवि अपनी बात दुहराता है,

“दैनिक जीवन के पूर्ण रूप से आबद्ध कार्यक्रम में आदर्शवाद की बू तक नहीं रहती. कहीं मन का विस्तार नहीं हो पाता.”

यह दैनिक जीवन अपना आदर्श निर्धारित करता है और वह मनुष्य की समस्त चेतना को सुला देता है:

“…मैं सोचता हूँ कि मन के सारे अधूरेपन, व्यक्तित्व के सारे बौनेपन की जड़ यही है…”

अध्ययन और लेखन की चिंतनशील मादकता और राजीति का उत्साह, सबकी हत्या हो जाती है. मन इस परिस्थिति से विद्रोह कर उठता है,

“मन में एक द्वंद्व होने लगता है—पारिवारिक loyalty और आतंरिक विकास-बुद्धि में. इन दोनों में मानों सामंजस्य होनेवाला ही नहीं. और मैं अपने से, ज़िंदगी से और इस विश्व से नाराज़ हो उठता हूँ.”

लेकिन मित्र की याद की मीठी बयार ने अपनी जगह याद दिला दी है, वह ठिकाना जो होना था. या मुक्तिबोध के मामले में ठिकाने से बेहतर रास्ता कहना होगा. वह सफ़र को किया जाना है. एक नातमाम सफ़र:

“..क्षण भर के लिए ही सही मैं अपने से चेतन हो उठा. मेरी ज्ञान तृषा, सौंदर्य-भक्ति तथा मुक्त हृदय दान तथा स्वानुकूल कर्मण्य-शक्ति का मानो मुझे, क्षण-भर के लिए ही सही, बोध हो गया….”

डर इस आग के राख हो जाने का है.

“जिस ज़िंदगी को जीने का मुझे आदेश मिला है, वह कुछ दूसरी ही थी. यह नहीं. परन्तु, फिर भी, यही चाहता हूँ कि मैं इस दलदल को पार कर जाऊँ.”

“ सचमुच मुझे ज़िन्दगी की तब्दीली की बहुत बड़ी ज़रूरत है.”

4 रोज़ पहले ज़िंदगी और अपने रिश्ते के बारे में मुक्तिबोध लिख चुके हैं. रिश्ता ही है और जैसा होना चाहिए:

 “अब मैं ज़िन्दगी के प्रति उदास नहीं हूँ. पहले उसकी शिकायत थी. अब तो उससे तकाज़ा है, माँग है.”

जो मुझे होना है, और वह क्या सिर्फ मुक्तिबोध हैं, उसमें ज्ञान-तृषा, सौंदर्य-भक्ति, मुक्त हृदय-दान और स्वानुकूल कर्मण्य शक्ति को साथ-साथ ही होना है.

अक्सर मुक्तिबोध के समकालीनों ने, यहाँ तक कि उनके मित्रों ने उनकी वाणी की अति मुखरता पर संकोच व्यक्त किया है. समझ यह है कि मुक्तिबोध का भावावेग इतना प्रबल है कि उसमें शब्द लुढ़कते-पुढ़कते गिरते रहते है. लेकिन इस निजी पत्र के इस वाक्य में भी चार पदों के साथ होने पर भी उनका क्रम देखिए और जो सावधानी इन पदों की रचना में है उसपर भी. ज्ञान की तृषा है, सौंदर्य की भक्ति, हृदय का दान मुक्त और कर्मण्य शक्ति स्वानुकूल. इन चार में एक भी कम होने पर इंसान के पूरा होने पर शक है.

ज्ञान की तृषा और सौंदर्य की संवेदना की तीव्रता में क्या संबंध है? क्या खुद को पूरा दिए बिना इनमें से कुछ भी हासिल किया जा सकता है?

मुक्तिबोध को अपने खतों का जवाब नहीं मिलता. साल गुजर जाता है और एक और नया साल उग आता है.

“The new year has begun, with all its bloody struggles and hopes. I wish you a happy new year with all its spring and blossoms. The shadows of the autumn are passing away…” 

मुक्तिबोध की कोई बात जैसे प्रकृति के बिना पूरी नहीं हो पाती. ‘पक्षी और दीमक’ नामक कहानी की शुरुआत:

“बाहर चिलचिलाती हुई दोपहर है लेकिन इस कमरे में ठण्डा मद्धिम उजाला है. यह उजाला इस बंद खिड़की की दरारों से आता है. यह एक चौड़ी मुंडेरवाली बड़ी खिड़की है, जिसके बाहर की तरफ दीवार से लगकर, काँटेदार बेंत की हरी-घनी झाड़ियाँ हैं. इनके ऊपर एक जंगली बेल चढ़कर फैल गई है; और उसने आसमानी रंग के गिलास-जैसे अपने फूल प्रदर्शित कर रखे हैं. दूर से देखनेवालों को लगेगा कि वे उस बेल के फूल नहीं, वरन् बेंत की झाड़ियों के अपने फूल हैं.”

सो, अपने मित्र को नए साल में बहारों की उम्मीद दिलाते हुए ख़त लिखा जाए तो क्या आश्चर्य. नया साल आ पहुँचा है. न रक्ताक्त संघर्ष कम होंगे और न उम्मीद मद्धम होगी!

संघर्षों के लिए और उम्मीद के लिए भी चाहिए जो वह है परस्पर सहानुभूति. या परस्परता का बोध:

“In this world of today what we most need is mutual sympathy. That I got more from you. And I could not do the same to you, perhaps. Yes, that is true. My soul’s capacity is very low. And I have been taking more than giving. This is one persistent thought, continuing as a melancholy strain in my life.”

आत्मा की शक्ति की न्यूनता दान की है. पहले के ख़त में मुक्त हृदयदान की आकांक्षा व्यक्त की गई है. लेकिन वह अपने आप आनेवाला गुण नहीं है. आत्मा की शक्ति, क्षमता बढ़ानी पड़ती है उसके लिए. जो दो मित्रों के बीच होता है वही देश और खुद अपने बीच. “अँधेरे में” के पागल की भर्त्सना याद आती है,

 “बहुत बहुत ज़्यादा लिया

 दिया बहुत बहुत कम;

 मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम.”

यह देश लेकिन अमूर्त विचार नहीं, वह परस्परता का प्रदेश है.

अपने मित्र के जीवन से अनभिज्ञता,  उसके जीवन में भागीदारी की असमर्थता का बोध ही वास्तविक प्रश्न है:

“… a sense of mutual cooperation, the sense of proximity and a deep concrete affinity… . ..it has been ‘The Question’ before me.”

व्याकुलता अन्यों के जीवन में शामिल न हो पाने, उनकी भावनाओं को आत्मसात न कर पाने से उत्पन्न हुई है:

“..I have been in a dark unknowable way cut off from the people. ‘Uprooted’, that is the word. … I have been incapacitated to ‘realize’ to fully feel the lives of others, the concrete emotions of their life, as if I am unable to feel them, as if I cannot partake, emotionally, in their life. And all the same I want to kill this sort of incapacity.”

मुक्तिबोध नेमिजी को लिखते हैं कि वह शायद उनकी इस subjectivity से खीझ रहे हों, लेकिन फिर उसे बर्दाश्त करने का अनुरोध करते हैं.

इस subjectivity का निर्माण, या रचना मुक्तिबोध के जीवन के अंत तक सबसे बड़ी चुनौती रही: “The Question.’’

मित्र से संवाद की संभावना के कारण,

“… क्षण भर के लिए ही सही, मैं जाग्रत हो उठा हूँ तो सहसा यह वाक्य निकल आता है—Lo, there is born a man with a disturbed soul–disturbed with the highest desires of age and the greatest weaknesses of his times.”

मुक्तिबोध खुद वही आत्मा हैं, वही स्व! पुकारती हुई पुकार,

“हाँ, मैं अपने को यही समझता हूँ. इस विशाल व्यक्तिवाद की विशालतम tragedy को शब्द-बद्ध कर सकूँ तो मेरा जीवन-कार्य समाप्त हो जाएगा.क्योंकि न सिर्फ मैं अपनी राह को खोजता हूँ, बल्कि वह भी मुझे खोजती है, और इसी में सारी उलझन की बदमाशी है.”

यह विशाल व्यक्तिवाद वह तो नहीं ही है जिसके लिए मुक्तिबोध के समय भर्त्सना का सामना करना पड़ा है. इस व्यक्ति का जन्म हो सके, जैसा वह होना चाहते हैं, यह व्यक्ति के प्रति समाज के कर्तव्य या दायित्व के बोध पर निर्भर है. “आधुनिक समाज का धर्म” नामक एक अत्यंत लघु टिप्पणी में वे लिखते हैं,

“मैं व्यक्तिवादी (egoist) नहीं हूँ….मुझे उससे अत्यंत घृणा है. मेरा अंतर तो विस्तार चाहता है—वह इतना बड़ा होना चाहता है कि सम्पूर्ण विश्व उसमें समा जाए. परन्तु शायद इस जीवन में यह संभव नहीं—मुझे कई बार मरना होगा, तब समझ में आएगा कि जीवन क्या है.”

दुनिया की शिकायत करने के लोभ पर नियंत्रण करने के बाद भी वे यह कहने से खुद को नहीं रोक पाते कि

“आजकल का समाज व्यक्ति की गुणमत्ता (genius) को कुचल देता है, केवल मूर्ख और पेटू majority के लिए. लोगों के मनों को निर्जीव और जड़वत समझ लिया गया है. उसको चाहे जिस काम में लाया जा सकता है. बुद्धिमान और गुणवान व्यक्ति पैदा करना आज के समाज का इष्ट नहीं, वह मशीनमैन चाहता है.”

इसका अर्थ यह नहीं कि सिर्फ गुणवान और बुद्धिमान को ही जीवित रहने का अधिकार होगा,

“समाज का धर्म बुद्धिमान और गुणवान मनुष्यों को पैदा करना होना चाहिए. हाँ, जो नहीं हैं, उनका नाश इष्ट न होकर उनको आधिकाधिक सुयोग्य बनाना, उनकी शक्ति, मेधा और प्रतिभा को विकसित करना उसका ध्येय होना चाहिए. ऐसे गुणसम्पन्न व्यक्तियों से समाज बलिष्ठ हो सकता है.”

जो समाज व्यक्ति को उसकी संभावना के न्यूनतम स्तर पर ही जड़ कर देना चाहता है, वह पतनशील समाज है. वह बुद्धि से, गुण से, मेधा से घृणा करने लगता है. कई बार इन्हें अभिजन के गुण कहकर जनविरोधी भी ठहराया जता है.

“मैं degenerated समाज को, बुद्धि और गुणवाले व्यक्ति को कुचलते हुए नहीं देख सकता.”

लेकिन बुद्धिमान व्यक्ति है कौन? कौन है जीनियस? वे लोग “जो अपने लघु सांसारिक अहं को पारकर विस्तृत जीवन के भागी होते हैं…” वे ही मुक्तिबोध के मुताबिक़ आध्यात्मिकता के कूल पहुँच जाते हैं:

“विस्तार और गहराई… मैं सच कहता हूँ कि दिन-दिन मैं अपने व्यक्तित्व में विस्तार लाना चाहता हूँ…हमें अपना अनुराग दुखी संसार पर बिखेर देना चाहिए.”

कोई 82 साल पहले के तरुण मुक्तिबोध की यह आकांक्षा कितनी भीषण है! उसकी कीमत क्या है? सोचते हुए मैं अनमना हो आता हूँ. ध्यान हो आता है, अभी कल ही तो नताशा नरवाल और देवांगना कालिता ने इसी रास्ते पर चलते हुए मुक्तिबोध के प्यारे भारत की जेल में 1 साल पूरा किया है. सुधा भारद्वाज ने 1000 दिन. शरजील इमाम को और खालिद सैफी को क्या मालूम कि वे उस राह के राही हैं जो मुक्तिबोध ने अपने लिए खोजना चाही थी और जो उनके मुताबिक़ उन्हें खोज रही थी? उसी राह ने तो इन सबको खोज लिया है. एक degenerated समाज है जो इन गुणवानों को कुचल रहा है.

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