हार्दिक अंधकार की आँखें

मुक्तिबोध शृंखला : 3

“न नेमि बाबू, इस प्रकार तो काम नहीं चलने का. आखिर frustration है तो रहे, वह इतनी बुरी चीज़ नहीं जितना उसका gloom. …पर ज़रा सोचिए तो सही. कि ज़िंदा रहने का हक तो हमें है ही.”

मुक्तिबोध नेमिचंद्र जैन को हौसला दिला रहे हैं. उन दोनों के बीच पत्राचार में ऐसे मौके कम दीखते हैं. नेमिजी को वे गुरु मानते हैं. उन्होंने उन्हें मार्क्सवाद में दीक्षित किया है. मुक्तिबोध के पत्रों से नेमिचंद्र जैन की तस्वीर एक गंभीर ज्येष्ठ की उभरती है जो मुक्तिबोध के भीतर के उबलते लावा को पी रहा हो. यहाँ वे उन्हें हिम्मत दिला रहे हैं. इस पत्र का संदर्भ देने की आवश्यकता मुक्तिबोध रचनावली के संपादक नेमिचंद्र जैन ने महसूस नहीं की. क्या यह तार सप्तक के प्रकाशन के बाद उनपर हुए आक्रमण के कारण है? मुक्तिबोध के किसी निकटस्थ ने अपने संस्मरण में, यहाँ तक कि नेमिजी ने भी यह नहीं बताया.

हमारा मकसद इस पत्र के संदर्भ के संधान का नहीं है. अपने ज़िंदा रहने के हक पर जोर देते हुए मुक्तिबोध आगे अपने मित्र को समझाते हुए लिखते हैं,

“…लोग हमारी वैलिडिटी नहीं मानते तो न मानें. अभी हमने किया ही क्या है? हम अभी पुस्तक के भाव हैं — अलिखित पुस्तक हैं. अभी से उसपर आलोचना कैसी?”

पुस्तक की तो आलोचना की जा सकती है लेकिन अलिखित पुस्तक की. और ऐसी आलोचना से होता क्या है? या अगर वैसी आलोचना को स्वीकार कर लिया जाए तो क्या होगा?

“अभी से हम निश्चयात्मक आलोचनाएँ भोगने लगें, या लोग करने लगें तो हमारे magnum opus की भ्रूण हत्या हो जाएगी.”

मुक्तिबोध का यह कोई 75 साल पहले का लिखा और जाने कब पहली बार का पढ़ा मन में घूमता रहा है. कल जब उमर खालिद का तिहाड़ जेल से लिखा पत्र या लेख पढ़ा तो फिर यह उभर आया. लेखक और कवि जैसी आलोचना का सामना करते हैं, उससे कहीं-कहीं ज़्यादा और सख्त आलोचना, और वह भी राज्य की आलोचना को, उमर खालिद और देवांगना कालिता और मीरान हैदर झेल रहे हैं. मुक्तिबोध ने नौजवानों को जो रास्ता सुझाया था, अभी उसपर पाँव ही रखा था उन्होंने.

“बात यों है कि अभी हमने अपनी निजी ज़िंदगी को बनाना शुरू नहीं किया है. …हमारे thoughts विचार नहीं वरन् मानसिक प्रतिक्रियाएँ हैं. और हम एक अर्थ में ज़रूर बह जाते हैं बाहरी परिस्थिति के प्रवाह में और हमारा काम यों ही अधूरा रह जाता है. … और इसके कारण प्रतिक्रियास्वरूप उत्पन्न होती है घोर ग्लानिपूर्ण अंतर्मुखता जिसे आप frustration कहते हैं.”

इस ‘ग्लानिपूर्ण अंतर्मुखता’ में फँसे रहना ठीक नहीं, लेकिन इसे लेकर शर्मिंदा होने की भी ज़रूरत नहीं:

“आखिर frustration वही व्यक्ति महसूस करता है जिसका कोई निश्चित जीवन कार्य (mission) है, और उसके आरम्भ करने में आतंरिक और बाह्य अनेक बाधाएँ हों.”

आगे वे लिखते हैं,

“गलती हमने यह की है कि पूरे बनने के पहले ही प्रकाश में आ गए हैं. यानी हमारी शक्ति से लोग अपरिचित हैं और गुण-दोष से परिचित. अब उन्हें हमारी शक्ति का परिचय भी हो जाना चाहिए. अपनी अन्तःशक्ति का यों अपमान न कीजिए, नेमि बाबू.”

असल मसला है अपने “निजी” कार्य को खोज पाने का जो कर्तव्य से अलग है:

“हमारी गलती यही है — महान अपराध भी यही है कि हम अपने निजी कार्य को स्थगित कर देते हैं, postpone कर देते हैं.”

लेकिन वह किया जाना कतई मुमकिन है:

“क्या यह सही नहीं है कि शक्ति की एकाग्रता और वैज्ञानिक ईमानदारी हमसे सबकुछ करा सकती है?”

मुक्तिबोध जिस ‘वैज्ञानिक ईमानदारी’ की माँग कर रहे हैं, वह भी उनकी ईजाद ही है. ईमानदारी का जिक्र मुक्तिबोध में बारंबार आता है. लेकिन वह यों नहीं मिल जाती. उसका वैज्ञानिक होना आवश्यक है. विज्ञान जिस पद्धति के सहारे इस विश्व, ब्रह्माण्ड यहाँ तक कि मनुष्य को भी समझता है, उसको अपनाए बिना ईमानदारी की बात करना व्यर्थ है. आगे “साहित्यिक की डायरी” के निबंधों में यह ईमानदारी फिर आती है, व्यक्तिगत ईमानदारी और काव्यगत ईमानदारी की शक्ल में.

ईमानदार कौन हो सकता है? जो जानता हो. जानना चाहता हो. वास्तविकता और अपने आग्रह में अंतर कर सके. यानी एक वैज्ञानिक रवैया जिसका अपनी ज़िंदगी के हरेक नुक्ते के लिए हो. जो अपनी परीक्षा करने, खुद से सवाल करने और खुद को दुरुस्त करने को तत्पर हो. ईमानदारी सिर्फ चाहने भर से नहीं आती. वह सतही तौर पर “नैतिकतावादी” मसला नहीं है.

इस पत्र के लिख लिए जाने के बाद मुक्तिबोध दुबारा उस ख़त को पढ़ते हैं जिसके उत्तर में यह लिखा जा रहा है. और वे नेमिजी के पत्र के एक शब्द पर अटक जाते हैं: जीनियस. नेमिजी ने शायद लिखा है, “हैं नहीं और समझते हैं जीनियस.” मुक्तिबोध अपने इस गुरु-मित्र से यहाँ सहमत नहीं हैं,

“वास्तविकता यह है कि हम genious हैं यानी वह शक्ति बीज रूप में है परन्तु हम उससे इनकार करते हैं. अपने प्रति दिन के चलने वाले जीवन में. यानी उसका assertion नहीं करते…”

Assertion के मायने हैं उस शक्ति के विकास के लिए दृढ़, जीवट भरा प्रयास. और फिर वह शक्ति हाथ से छूट जाती है. क्या हम उससे भागते हैं क्योंकि वह हमारे कलेजे का खून माँगती है. बाद के एक लेख में मुक्तिबोध इसे एक खोए हीरे की तरह देखते हैं, हीरा जो भागते-भागते असावधानी में गिरा दिया गया,

“एक बात बताऊँ. भागने के सपने मुझे अब-अब तक आते हैं… याद है बचपन का एक और स्वप्न, जो अधेड़पन तक साथ चलता रहा. …भागते–भागते मुझे कोई चीज़—कोई चमकीला पत्थर, कोई हीरा, कोई, अशर्फी–रास्ते में मिल गई. सपना टूटा नहीं, आगे बढ़ता रहा. हाथ में वह अमूल्य वस्तु है. और मैं …भाग रहा हूँ. मैं कतई भूल जाता हूँ कि मेरे हाथ में एक अमूल्य वस्तु है…”

सपना मुक्तिबोध की प्रविधि या युक्ति भी है. लेकिन थोड़ा ठहर कर सोचें तो क्या खुद अपना जीवन एक सपना नहीं लगता? नेहरू ने एक दूसरे प्रसंग में वास्तविक जीवन को सपना कहा था. बरसों जेल में रहने के बाद जब वे  बाहर आए तो लिखा कि मुझे यह बाहरी दुनिया एक सपने की तरह लगती है.

बहरहाल, मुक्तिबोध के

“सपने में एक प्रदीर्घ काल के बाद यह ख्याल आता है कि मेरे पास भी तो वह चीज़ है, लेकिन अपनी भुल्लकड़ लापरवाही में मैंने कहीं गिरा दी. अब, मैं बुरी तरह बेचैन हूँ. अपनी बेवकूफी तथा भयानक लापरवाही के प्रति आत्मग्लानि, खुद को कचोटकर खा जानेवाला एक राक्षसी दर्द… .”

अपने हीरे की रक्षा के लिए आवश्यक सजगता का अभाव ही आगे चलकर हमारे भीतर एक दीन भाव भर देता है. चुनौती “स्व” के उद्घाटन की है. वह ‘घर की तुलसी’ है:

“मैं निज से कहने लगा रहस्यात्मक न बन

न बन प्रतीकात्मक, उपमात्मक जहाँ विमन

अनबन अपने से बाहर से.

रे यह स्वदेश की खोज वस्तुतः अंतर के

आकर्षण की ही संगति सामंजस्याकुल

यह आत्म धर्म यह आत्म कार्य

तू इसकी अपनी आज्ञाएँ कर शिरोधार्य.”

स्व, स्वदेश, आत्म धर्म, आत्म कार्य: सब एक ही हैं.

जैसे वे नेमिजी को अपने जीनियस को पहचानकर आत्मविश्वास हासिल करने की सलाह देते हैं, वहीं इसीलिए दूसरों के ‘स्व’ को सहानुभूतिपूर्वक पहचानने के यत्न पर भी उनका बल है. युवाओं को पहले ही मश्विरा दे चुके हैं कि दूसरों की आलोचना में अधिक से अधिक उदारता बरतने का अभ्यास किया जाना है.

नेमिजी से संवाद के कोई दो दशक बाद, और अब मुक्तिबोध खासे प्रौढ़ हो चुके हैं, श्रीकांत वर्मा को उनकी एक कविता पढ़कर वे पत्र लिखते हैं:

“… ‘लहर’ के विश्व काव्यवाले अंक में आपकी कविता पढ़ी. तब से आपके बारे में सोचता ही रहा. … शायद ही ऐसी दर्दवाली कविता मैंने हिंदी में पढ़ी हो. अगर सिर्फ दर्द ही दर्द होता तो शायद सोचने को मजबूर न होना पड़ता. उसमें एक भयानक निराशा का स्वर था.”

जिस कविता का जिक्र मुक्तिबोध कर रहे थे वह संभवतः थी ‘बुखार में कविता’.

“मेरे जीवन में एक ऐसा वक्त आ गया है

जब खोने को

कुछ भी नहीं है मेरे पास…

……

मंच पर खड़े होकर

कुछ बेवकूफ चीख रहे हैं

कवि से आशा करता है

सारा देश.

मूर्खो ! देश को खोकर ही

मैंने प्राप्त की थी

यह कविता

जो किसी की भी हो सकती है

जिसके जीवन में

वह वक्त आ गया हो 

जब कुछ नहीं हो उसके पास

खोने को.”

मुक्तिबोध ने लिखा,

“यह बात ज़रूरत से ज़्यादा चुभी कि मूर्ख सोचते हैं कि हमारा कोई देश है, हमारा तो कोई देश नहीं.”

मुक्तिबोध जाहिर है गलत कारण से दुखी हो रहे हैं. वह लेकिन यहाँ महत्त्वपूर्ण नहीं. वे उस विशेष मनःस्थिति को समझने का प्रयास कर रहे हैं जिसमें उनके इस प्रिय कवि ने ये पंक्तियाँ लिखी होंगी:

“छत्तीसगढ़ का यह मेरा प्यारा कवि क्या का क्या हो गया…”

अपने प्रदेश के इस कवि को, जिसने खुद मुक्तिबोध को मनुष्यता में यकीन नहीं खोने दिया, दिल्ली में विपद ग्रस्त देखकर वे व्याकुल हो उठे. सहमत वे उनसे नहीं हो सके इसीलिए उन्होंने लिखा,

“तीव्रतम मनुष्य-निर्मित निराशात्मक परिस्थितियों में रहनेवाले मुझ जैसे के हार्दिक अंधकार की जो आँखें हैं, वे उस कविता के दर्द को पहचानती हैं, लेकिन नहीं चाहतीं कि ऐसी हालत आप में रहें.”

उसके बाद एक दूसरी कविता को पढ़कर वे उनमें बढ़ते हुए सिनिसिज़्म को नोट करते हैं.

श्रीकांत वर्मा ने जवाब दिया,

“ ‘देश को खोकर ही मैंने प्राप्त की है यह कविता’, वाली पंक्ति असल में एक प्रतिक्रिया मात्र है. उस अंध देशभक्ति की जिसके कवच में छटपटाकर हमारी हिन्दी कविता मर रही है.”

पत्राचार की पृष्ठभूमि में 1962 का भारत चीन युद्ध है, यह याद कर लेना मुनासिब होगा. आगे श्रीकांत वर्मा सिनिसिज़्मवाली बात कबूल करते हैं,

“ ..मैं खुद भी यह महसूस करता हूँ कि इसकी झलक मेरे विचारों और लेखों में भी है और कविता में यह जो भी ख़ूबसूरती पैदा करे इतिहास के प्रति एक संगत और स्वस्थ तटस्थ दृष्टिकोण में सहायक नहीं हो सकता.”

मुक्तिबोध जो चाहते हैं, श्रीकांत वर्मा उनसे वही वादा करते हैं,

“…कोशिश करूँगा कि …अपने को केंद्र बनाकर विचार न करूँ.”

स्व का मूल्य पहचानना एक बात है और आत्मग्रस्त हो जाना एकदम अलग बात. वैसे ही जैसे आत्मालोचन आवश्यक है लेकिन आत्मभर्त्सना या आत्मप्रताड़ना आत्मरति का ही दूसरा रूप है. वह सक्रियता से विमुख ही करती है. जो बीस साल पहले का तरुण दूसरे नवयुवक को कह रहा है, वही बात अब वह प्रौढ़ हो चुका तरुण नवयुवक श्रीकांत वर्मा को कह रहा है. श्रीकांत वर्मा के इस आश्वासन के बाद वे उन्हें लिखते हैं,

“ ….Cynicism से मैं नहीं घबराता हूँ. किन्तु एक स्थल होता है जहाँ मनुष्य सब Cynicism एक तरफ रख देता है. संक्षेप में, सारा प्रश्न परिप्रेक्ष्य का है… .”

मुक्तिबोध मानते हैं कि

“असलियत यह है कि मनुष्य cynical हो रहा है, विचारों में, भावों में. और सबसे दिलचस्प बात यह है कि वे अच्छे लोग हैं, मदद के लिए दौड़ पड़ते हैं, प्रेम प्रदान करते हैं, प्रेम सामर्थ्य बहुत अधिक है, एक अन्तःसन्निहित मानव सुलभ कोमल भावना रखते हैं… . किन्तु भाव-विचारों के क्षेत्र में आकर वे Cynical हो जाते हैं.”

यह Cynicism

“वस्तुस्थिति के प्रति एक अतिरेकपूर्ण प्रतिक्रिया है, वैचारिक आवरण में. यदि वह व्यापक जीवन निरीक्षण और समृद्ध चिंतन के फलस्वरूप होती तो और ही चीज़ होती.”

जीवन ने काफी थपेड़े लगाए हैं मुक्तिबोध को. उसके चलते ही उन्हें “हार्दिक अंधकार की आँखें” मिल सकी हैं. लेकिन इस ज़िंदगी से उन्हें बेपनाह मुहब्बत है. उसे एक ही घूँट में पी जाने की चाह! उसमें किसी सिनिसिज़्म को कहाँ जगह? ज़िंदगी को वे नंगी आँखों देख रहे हैं. श्रीकांत वर्मा के इस चर्चा के दो दशक पहले ही नेमिजी को वे लिख चुके हैं,

“..नैराश्य के गीत लिखना मैंने बंद-सा कर दिया है. और जो भी चमकीले गीत इधर मैंने लिखे हैं उनमें मात्र क्षोभ और उत्ताप की अग्नि लताएँ है. इन नए गीतों से भी मैं नाराज़ हूँ, और आधुनितावाद के गीतों में भरी हुई सर्दी की ठिठुरन से तो मैं अब ऊब उठा हूँ.”

सिनिसिज्म से लड़ने का अर्थ नकली आशावाद नहीं है. नैराश्य में भारी आकर्षण है और क्षोभ और उत्ताप में विरेचन तो है लेकिन समाधान नहीं और अकेलेपन के अहंकार में मानव जीवन का ताप नहीं. इन सबसे जूझते हुए ही जीवन की लौ ऊँची रखी जा सकती है.

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