ज्ञान के दाँत और ज़िंदगी की नाशपाती

मुक्तिबोध शृंखला : 5

“मुझे समझ में नहीं आता कि कभी-कभी खयालों को, विचारों को भावनाओं को क्या हो जाता है! वे मेरे आदेश के अनुसार मन में प्रकट और वाणी में मुखर नहीं हो पाते.”

यह क्या सिर्फ मुक्तिबोध का ही संकट है? हम सबके साथ यह होता है कि प्रायः वह जो इतना स्पष्ट लगता है जब तक अव्यक्त है, मौक़ा आते ही सिफ़र में तब्दील हो जाता है. कारण क्या अतिरिक्त आत्म सजगता है? क्या अतिशय आत्म-समीक्षा है? ऐसी लगातार चलनेवाली समीक्षा जो मन में उठनेवाले हर खयाल, हर भावना की चीरफाड़ करती रहती हो और उसे मुखरता के योग्य ही न पाती हो?

मुक्तिबोध इस आरोप को स्वीकार नहीं करते. वे इस असमंजस या अनिर्णय के लिए मन को जिम्मेदार मानते हैं जो अपने भीतर डूबा नहीं रहता, बल्कि एक नेपथ्य-संगीत का आयोजन करता चलता है. मन के नेपथ्य की यह कल्पना बहुत दिलचस्प है. नेपथ्य में चलनेवाला व्यापार मन के मंच पर चल रहे कार्य व्यापार में हस्तक्षेप करता है या उसे पूर्ण करता है? नेपथ्य में एक अलगाव है. वह जो आपसे अलग है लेकिन जुड़ा हुआ भी. इस नेपथ्य के प्रति संवेदनशील रहना आवश्यक है. वरना जो व्यक्त होगा, वह किसी के अभाव में पूर्ण या न्यायसंगत न होगा:

“…लोग न्याय भावना से प्रेरित होकर भी बहुत अन्याय कर जाते हैं, इसलिए कि वे ज़िंदगी के बहुतेरे तथ्य नहीं जानते. उनके विशाल ज्ञान में विशालतर अज्ञान के सम्मिश्रण से, उनकी न्याय प्रेरित बुद्धि अहंकार-युक्त होकर भयानक अन्याय कर जाती है.”

सवाल सिर्फ न्याय भावना का नहीं. जिस जीवन-प्रसंग में वह सक्रिय है, क्या उससे संबंधित तथ्यों से वह परिचित है? इस उद्धरण में मुक्तिबोध सावधान करते हैं “न्याय प्रेरित” किंतु “अहंकार युक्त” बुद्धि से. अक्सर कहा जाता है कि अगर आप ईमानदार हैं तो इस बाधा पर विजय प्राप्त कर सकते हैं. लेकिन यह ईमानदारी क्या है और क्या यह स्वतःस्फूर्त है, क्या यह स्वभाव का मामला है या यह भी प्रयत्नसाध्य है? क्या कोई व्यक्ति या तो ईमानदार होता है या वह ईमानदार नहीं होता? या ईमानदारी की भी एक मश्क है? उसके भी कुछ नियम हैं?

“कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी” शीर्षक निबंधों में यशराज और डायरी लेखक, जो मुक्तिबोध ही हों ज़रूरी नहीं. जैसे यशराज एक पात्र है वैसे ही “मैं” भी. लेकिन अभी वह विचारणीय नहीं है. निष्ठा, आत्मविश्वास काफी नहीं कि वह आपकी भावना की अभिव्यक्ति की पूरी तरह ईमानदार बना सके. ईमानदारी के लिए भावना का ज्ञानात्मक आधार शुद्ध और दृढ़ होना चाहिए. ज्ञान स्थिर नहीं है. उसका दायरा बढ़ता रहता है. बात सिर्फ इस प्रसार की नहीं,

“ज्ञान को अधिकाधिक मार्मिक,यथार्थमूलक…” करने के संघर्ष की है. मुक्तिबोध ज्ञान की चर्चा बिना मार्मिकता के शायद ही करते हों. इसका अर्थ क्या है? और अगर ईमानदारी बिना इस हमेशा की जानेवाली कोशिश के मुमकिन नहीं तो क्या अनायास ईमानदार नहीं हुआ जा सकता?

यशराज और ‘मैं’ के बीच बहस कविता या साहित्य के सन्दर्भ में हो रही है. अगर भावना बिना इस चिरंतन प्रयास  के नहीं हो सकती तो फिर शैले (शेली) जैसे रोमांटिक कवियों को क्या कहेंगे जिनकी रचना में ‘सायासता’ नहीं मानी जाती? क्या उसका ज्ञानात्मक आधार पहले के मुकाबले अधिक विस्तृत न था? रोमांटिक दृष्टि का अर्थ कमजोर ज्ञानात्मक आधार नहीं है.

ज्ञान का अर्थ क्या है? वह मात्र वैज्ञानिक उपलब्धियों का बोध या उनसे परिचय नहीं है, बल्कि “समाज की उत्थानशील और पतनशील शक्तियों का बोध” भी है. इस बोध के कारण ही आप यह तय कर पाते हैं कि आपकी सहानुभूति किस ओर होगी. उत्थानशील और पतनशील वर्ग या समुदाय मार्क्सवादी या कम्युनिस्ट विचार प्रणाली की शब्दावली का अंग है. इसे एक दूसरे सन्दर्भ में कह सकते हैं कि यदि आपको बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदाय में चुनाव करना हो, तो आपकी ईमानदारी संतुलन से नहीं, बल्कि अल्पसंख्यक समुदाय के साथ खड़े होने से ही साबित होगी. मुक्तिबोध जो चुनाव दे रहे हैं, उसमें वह ख़तरा है जो सोवियत संघ, चीन और कम्पूचिया जैसे देशों में देखा गया. उससे बेहतर कसौटीशायद यशराज को उनका “मैं” गाँधी का ताबीज दे सकता था. आपकी ईमानदारी इससे तय होगी कि आप कतार में सबसे आखीर में खड़े इंसान के साथ हैं या नहीं. वह जो सबसे शक्तिहीन है या साधनहीन है. आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी. जैसे आप पूँजीपति और मजदूर के साथ समान रूप से सहानुभूतिशील नहीं हो सकते वैसे ही एक जाति विभाजित समाज में “उच्च वर्ण” और दलित के साथ समान सहानुभूति रखने की बात में बेईमानी है. लेकिन कोई ईमानदारी से बेईमान हो जा सकता है क्योंकि उसें अपने ज्ञानाधार का विस्तार नहीं किया है, समाज क्रम को समझने की मेहनत नहीं की है.

इस तरह की दिमागी काहिली के कारण ही इस्राइल और फिलीस्तीन के मसले पर संतुलन बनाने की कोशिश की जाती है. फिर व्यक्तिगत ईमानदारी हासिल कैसे होगी? यशराज कहता है,

“ज्ञानात्मक आधार को विस्तृत से विस्तृत करने, उसे अत्यंत व्यापक बनाने, उसके आधार पर जीवन स्वप्न विकसित करने, जीवन स्वप्न के अनुसार मानसिक प्रतिक्रियाओं को दिशा देने, अर्थात अपने ही अंतःकरण का संपादन करने में ही व्यक्तिगत ईमानदारी परिलक्षित होगी.”

एक से दूसरे का सिरा जुड़ा हुआ है, ज्ञान और जीवन स्वप्न और फिर उसके अनुसार मानसिक प्रतिक्रिया. यह खुद अपनी ही बार-बार परीक्षा करना, अपनी ही काट छाँट करते रहना है. क्या इसके बिना वह गाँधी जो दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों को स्थानीय अश्वेत जन से बेहतर व्यवहार के योग्य मानते थे आगे सबके लिए समान अधिकार तक पहुँच सकते, या वर्ण व्यवस्था में विश्वास करनेवाले गाँधी क्या महाड़ सत्याग्रह का समर्थन कर पाते या आंबेडकर की “जाति का उच्छेद” पुस्तक को प्रसारित कर पाते? क्या यह निरंतर आत्म शोधन, जिसे यशराज संपादन कहता है, वह करते रहने का ही नतीजा नहीं है?

ज्ञान एक अनुभव भी है. उसे आपकी संवेदना को परिष्कृत करना चाहिए. किसी और के ज्ञानानुभव को महत्त्व देना भी उतना ही आवश्यक है. असल बात है, “विशाल जागरूकता”. आप ज्ञानोत्सुक हैं, तो निश्चय ही “व्यक्ति की  आत्मगरिमा तथा व्यक्ति के भीतर की उत्थानशील स्निग्ध आध्यात्मिक संभावनाओं” के प्रति संवेदनशील होंगे. व्यक्ति की आत्मगरिमा की किसी के आगे भी बलि नहीं दी जा सकती. दूसरे, व्यक्ति के भीतर की आध्यात्मिक संभावना के विस्तार का संबंध ही ज्ञान से ही है. इसे धार्मिकता तक संकुचित नहीं कर देना चाहिए. यह अपना अतिक्रमण करके अन्य से जुड़ने की आकांक्षा है. अस्मिता की सजगता अवश्य लेकिन उस अस्मिता में कितने प्रकार के रिश्तों का समावेश है, इससे उसकी समृद्धि निर्धारित होती है. एक अमरीकी यहूदी जो गाजा पट्टी पर एक इस्राईली बुलडोज़र से फिलीस्तीनी घर को बचाने सामने आ खड़ी हो, उसकी अस्मिता निश्चय ही उस यहूदी से विस्तृत और समृद्ध है जो औशवित्ज़ की नाइंसाफी को याद भर करता है, लेकिन गाजा पर बमबारी के खिलाफ जो नहीं खड़ा हो पाता. सी ऍफ़ एंड्रूज़ की अस्मिता उनके समकालीन किसी भी अँगरेज़ से निश्चित रूप से अधिक विस्तृत और समृद्ध थी. और मीरा बेन की भी या ऐनी मेरी पीटरसन की भी.

मुक्तिबोध ज्ञान और स्वप्न को अलग अलग नहीं देख पाते. ज्ञान क्या करता है या उसे क्या करना चाहिए? “मैं’ का मित्र कहता है,

“होना यह चाहिए कि ज्ञान आँखों में सुनहला अंजन लगा दे, दृश्य की निःसीम और अत्यंत मनोहर कर दे, पैरों में चलने के नए आवेग भर दे, नया रोमांस विस्तृत कर उठे. अगर ज्ञान जीवन को रोमांस का रूप न दे तो क्या वह ज्ञान और क्या वे ज्ञानी लोग!”

ज्ञान और जीवनानंद परस्पर संबद्ध होने ही चाहिए,

“ज्ञानरूपी दांत ज़िंदगी रूपी नाशपाती में गड़ना चाहिए, जिससे कि सम्पूर्ण आत्मा जीवन का रसास्वाद कर सके.”

यह ज्ञानतत्परता लेकिन आदमी को अकेला भी बनाती है. और असुरक्षित भी. क्योंकि वह यह कह सकता है कि मेरी बात अभी अडिग होते हुए भी ध्रुव सत्य नहीं है. वह जो खुद को बदलने के लिए तैयार मिलता है और इस वजह से कई बार उसके आसपास के लोग उसे संदिग्ध मानने लगते हैं,

“संशयात्मा का हमारे यहाँ बड़ा धिक्कार किया गया है.”

वह किसी जमात का विश्वसनीय सदस्य नहीं हो सकता. संदेह से ही देखा जाएगा और इसलिए उसका विनाश निश्चित है. फिर वह क्या करे? क्या वह भी सिर्फ इस अकेलेपन में सिर्फ खुद को ही प्रमाण माने?

स्व रहस्य है, प्रत्येक व्यक्ति एक रहस्य है, यह मानने का एक निष्कर्ष हो सकता है जानने को ही व्यर्थ मान लेना. दूसरे को जानें कैसे? क्या जासूस की तरह या मित्र की तरह? यह मानकर कि उसका एक हिस्सा अजाना रहेगा ही? उसी लगातार खुद की परीक्षा का रवैया. लेकिन यह सावधानी भी कि आत्मोन्मुखता आत्मग्रस्तता में न शेष हो जाए. “कामायनी” पर विचार करते हुए मुक्तिबोध उस आत्मग्रस्त अभिलाषा से सावधान करते हैं जो “दूसरों का ख़याल नहीं करती, दो दूसरों के हितों की चिंता नहीं करती, जो दूसरों की भावनाओं  की चिंता नहीं करती!” वैसे  व्यक्ति का रूप क्या है? वे प्रसाद को उद्धृत करते हैं,

  “लू-सा झुलसाता दौड़ रहा

        कब मुझसे कोई खिला फूल!”

या

 “किस पर उदारता से रीझा?”

इस उदारता के बिना, फूल खिला पानेवाली स्निग्धता के बिना इस स्पर्द्धी व्यक्ति-चेतना से क्या लाभ?

आत्मग्रस्तता और आत्मभर्त्सना में दूरी बहुत कम है. आत्मभर्त्सना में एक सुख है लेकिन वह आखिरकार निष्क्रियता की तरफ ले जाता है.

ज्ञान उत्साह भरता है तो उदासी भी.

“ऐसी उदासी जो ज़िंदगी के टुकड़े-टुकड़े करके बता देती है कि तुम्हारे शरीर में इतने सेर कार्बन, इतने सेर हाइड्रोजन, इतने छँटाक सोना, इतने छँटाक चूना और इतने छँटाक फास्फोरस है. ज्ञान की यह घनघोर उदासी बड़ी भयानक होती है.”

शरीर का यह रूपक आसानी से समझ में आनेवाला है. अगर हमारा शरीर पारदर्शी होता तो फिर क्या बात थी! लेकिन ऐसा है नहीं. इसलिए हम अनुमान का सहारा लेते हैं. अनुमान को प्रमाण से काटते हैं या स्वीकार कर लेते

हैं. प्रमाण प्राप्त करने की यह प्रक्रिया लंबी है और उसमें मेहनत बहुत है,

“उन्हें खोजने के लिए कड़ी तपस्या करनी पड़ती है. कई ज़िंदगियाँ खप जाती हैं. इसीलिए, नए सत्य पाने तक की मंजिल में भय, आशंका, चिंता, खोज, गणित, पुनः आशंका, पुनः चिंता, पुनःखोज, पुनः गणित करना पड़ता है. …प्रक्रिया की यह बेचैनी बड़ी भयानक है.”

इस प्रक्रिया से छुटकारा नहीं अगर, जैसा एक और जगह मुक्तिबोध कह चुके हैं, हमें खुद अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करना हो. इस क्रम में जो कुछ भी हासिल होता है उसे सँजोना भी सबके बस की बात नहीं है. अपनी एक अपूर्ण रचना में मुक्तिबोध एक सपने का जिक्र करते हैं जो बचपन से अधेड़ावस्था तक चलता रहा:

“…भागते-भागते मुझे कोई चीज़ –कोई चमकीला पत्थर, कोई हीरा, या कोई अशर्फी – रास्ते में मिल गई….हाथ में वह अत्यंत अमूल्य वस्तु है. …मैं भाग रहा हूँ. ..कतई भूल जाता हूँ कि मेरे हाथ में वह महान अमूल्य वस्तु है,यद्यपि वह मेरे हाथ में है. सपने में एक प्रदीर्घ काल के बाद… अजब मैं अपनी मुट्ठी खोलता हूँ तो पाता हूँ कि …वह चीज़ अपनी भयंकर लापरवाही में मैंने कहीं गिरा दी. अब मैं बुरी तरह बेचैन हूँ, …आत्मग्लानि, खुद को कचोट कर खा जानेवाला एक राक्षसी दर्द, अपने-आपके प्रति भयंकर सियाह निराशा…मन में भर जाती है.”

यह लापरवाही नैतिक भी है, बौद्धिक भी. वह हीरा एक विचार है, एक सत्य. जैसे समाज के जीवन के लिए स्वातंत्र्य का विचार,व्यक्ति की गरिमा का विचार, धर्मनिरपेक्षता का विचार… ऊपर के उद्धरण से गलतफहमी हो सकती है कि ये अनायास ही मिले गए हीरे हैं, लेकिन उसके ठीक पहले मुक्तिबोध इस “हीरे” के संधान की यंत्रणादायक प्रक्रिया का वर्णन कर चुके हैं. इतनी यातना के बाद भी मिले हुए सत्य खो दिए जाते हैं:

“…उनकी रक्षा के लिए आवश्यक सजगता के अभाव में उन्हें खो देते हैं.”

जो मिल गया लगता है, उसमें पिछले सत्यान्वेषियों का खून पसीना है. उसे खो देना उनकी अवज्ञा है. जैसे प्राप्य की रक्षा एक गंभीर दायित्व है जो सतत जागृति चाहता है वैसे ही उसे ज्ञानोत्सुक को स्थानांतरित करना भी एक दायित्व है. योग्य शिष्य की तलाश और ज्ञान को उसे सुपुर्द करने का काम. “ब्रह्मराक्षस का शिष्य” कहानी में गुरु कहता है कि शिष्य जब ज्ञान प्राप्त करता है तो वह गुरु की आत्मा को मुक्त करता है. लेकिन गुरु जो ज्ञान का उत्तरदायित्व पूरा कर मुक्त होता है, अब वही दायित्व शिष्य पर आ जाता है.

ज्ञान का यह क्रम टूटता नहीं. लेकिन इसमें जब-जब लापरवाही होती है तब-तब मानव-सभ्यता के इतिहास में भयंकर दुर्घटनाएँ होती हैं.        

One thought on “ज्ञान के दाँत और ज़िंदगी की नाशपाती”

  1. बहुत अच्छा आलेख–हमेशा की तरह गंभीर, किंतु सर्जनात्मक!

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