मुक्तिबोध शृंखला:7
मुक्तिबोध को जो स्नेह और आदर अपनी 47 साल की मुख़्तसर-सी ज़िंदगी में मिला, उससे किसी भी लेखक को ईर्ष्या हो सकती है. वार्धक्य, आयु आदि को लेकर मुक्तिबोध के समय की समझ के मुताबिक़ वे बुजुर्ग हो चुके थे. आज 2021 में यह सोचकर आश्चर्य ही हो सकता है कि अपने चौथे दशक में ही उस वक्त के लेखक भी किस तरह खुद को प्रौढ़ मानने लगते थे. लंदन से लौटे नौजवान सज्जाद ज़हीर और मुल्कराज आनंद से प्रेमचंद की बातचीत याद आती है. वे ठहरे नौजवान और प्रेमचंद बूढ़े, उनके साथ दौड़ने पर कहीं उनके घुटने न फूट जाएँ! यह वयस-बोध उस वक्त की खासियत है. “मैं अकेला, देखता हूँ आ रही मेरे दिवस की सांध्य वेला.” निराला की उम्र इस कविता के समय आखिर कितनी थी?
उम्र के इस अहसास को समझना आज ज़रा मुश्किल है क्योंकि युवापन काफी लंबे समय तक हम सब पर हावी रहता है. एक बड़ा तबका खुद को प्रौढ़ मानने से इंकार करता रहता है. यह भी कह सकते हैं पिछली जिसे हो जाना चाहिए, वह पीढ़ी आसानी से जगह छोड़ने को तैयार नहीं होती. लेकिन मुक्तिबोध जल्दी ही आदरणीय के रूप में प्रतिष्ठित हो गए थे. तरुणों में उन्हें लेकर जो आदर था, वह उनके समवयसी लेखकों में भी था.
नरेश मेहता का 1957 का पत्र है. मुक्तिबोध की मृत्यु उनसे 7 वर्ष दूर है. नरेश मेहता नागपुर के उनके साथ गुजारे गए दिन याद करते हैं और उन्हें भी:
“पता नहीं कि आपमें वह कहाँ और कौन-सा आदर्श उत्स है जिसे धार कर आप गजानन नहीं गंगाधर हो जाते हैं और कदाचित् इसीलिए पहाड़ों में हिमालय, देवों में शंकर और समकालीन लेखकों में गजानन के प्रति ही मेरा मस्तक नत हो जाता है…”
दूसरा पत्र 1960 का है,
“सच मानें आपके स्मरण से ही जाने क्या होने लगता है—अनंत, अनंत घंटियाँ दिशाओं में बज उठती हैं. संध्या भिक्षुणियों की शोभायात्रा सी रँग उठती है. इतना बड़ा विश्वास आपके नाम के साथ होता कि जैसे ज्वार घिरे को सुदूर भूमि का आश्वासन.”
और उनके पक्षाघात की खबर सुनकर उनकी मृत्यु से 2 महीना पहले का ख़त:
“मैंने आपको सदाशिव ही माना है. निराला, नवीन, मुक्तिबोध जिस निकष पर परखे जाते हैं हम जैसे साधारण एक क्षण को भी खरे नहीं ठहर सकते.”
नरेश मेहता का यह भाव नया नहीं है. 1958 के पत्र में वे लिखते हैं,
“…आप उस वासुदेव की भाँति हैं जो अपने जीवन के लिए जल, वायु आदि प्रकृति से ग्रहण नहीं करते किंतु व्यक्ति के गंगा-भाव को अपने लिए अर्घ्य बनाते हैं.”
सदाशिव, वासुदेव, गंगाभाव, नरेश मेहता की इस धार्मिक पदावली में बोध पवित्रता का है. मुक्तिबोध के व्यक्तित्व में कुछ है जो सांसारिकता से ऊपर उन्हें प्रतिष्ठित कर देता है.
“प्रकृति नहीं व्यक्ति के गंगा भाव” से यह भ्रम न होना चाहिए कि मुक्तिबोध के लेखन की प्रेरणा में प्रकृति और व्यक्ति में व्यक्ति पहले है. इसपर हम आगे बात करेंगे. अभी तो हम मुक्तिबोध के प्रति उनके समकालीनों के अकुंठ आदरपूर्ण स्नेह की चर्चा कर रहे हैं और उससे मुक्तिबोध के स्वभाव की, वह जाहिर है उनका रचनाकार का स्वभाव भी होगा, एक छवि उभरती है.
नरेश मेहता 1963 के पत्र में उनकी पत्नी के साथ उनकी स्मृति का चित्र यों खींचते हैं,
“…आपकी आँखों में किस ज्वालामुखी संध्या का वीरानापन डोल रहा है.”
दूसरी पीढ़ी के श्रीकांत वर्मा को उनके पत्र में उनकी आवाज़ सुनाई देती है,
“आपका पत्र आता है तो बहुत करीब से आपकी आवाज़ सुनाई पड़ती है. रेगिस्तान में चलते हुए आदमी को जैसे अचानक हरित भूमि दिखलाई पड़ जाए, वैसा ही अनुभव होता है.”
नरेश मेहता हों या श्रीकांत वर्मा, मुक्तिबोध उनके लिए कोमल और उदात्त, दोनों के संगम हैं. मुक्तिबोध के निकट जाकर भी उस उदात्त का एक अंश बन जाने का अनुभव इन सबके बाद की पीढ़ी के किशोर अशोक वाजपेयी के इस पत्र में इस प्रकार व्यक्त हुआ है,
“…आपका पत्र …पढ़ डाला तो मुझे लगा कि मैं स्वयं को कुछ विचित्र प्रकार से महिमामंडित पा रहा हूँ.”
एक दूसरे पत्र में वे विह्वल होकर लिखते हैं,
“…आप एक स्रोतस्विनी हैं, जिसके न जाने कितने कितने “जीवित जल” हैं…”
मुक्तिबोध के चाहनेवाले उन्हें प्रायः मैदानी फैलाव, पठारी विस्तार, शिखरों की ऊँचाई, गंगारूपी पवित्रता और स्निग्धता और भीषण प्रकाश के रूप में याद कर पाते हैं.
शमशेर बहादुर सिंह को मुक्तिबोध “इसीलिए इतना ज्यादा अपील” करते हैं कि वे उनसे इतने भिन्न हैं. मुक्तिबोध के पहले संग्रह “चाँद का मुँह टेढ़ा है” की भूमिका में वे अपने मित्र का चित्र खींचते हैं,
“ऐब्सट्रैक्ट नहीं ठोस. बहती हवाओं-सा लिरिकल, अर्थहीन-सा कोमल, न कुछ नहीं बल्कि प्रत्येक पंक्ति में चित्र के उभार को और भी घूरती और भी ताड़ती आँख से प्रत्यक्ष करता हुआ.”
लिरिकल-तत्त्व के प्रति जो पूर्वग्रह है उसे सिर्फ नोट कर लें लेकिन घूरती और ताड़ती निगाह पर ध्यान दें.
मुक्तिबोध “अपने तर्क और भावना के कुदाल से अनुभव की कड़ी धरती को लगातार गहरे खोदते” जाते हैं. ज्ञान और संवेदना जैसे मुक्तिबोध के लिए कभी अलग न होनेवाले साथी हैं, वैसे ही यहाँ हैं तर्क और भावना. जैसे अमृत राय प्रेमचंद को कछोटा मारकर जमीन तोड़ते जाते किसान की ही याद कर पाते हैं वैसे ही शमशेर को मुक्तिबोध एक मजदूर की तरह दिखलाई पड़ते हैं. अनुभव की कड़ी धरती को कोड़ते कोड़ते
“थककर बैठ जाता – अपने दायित्व को भूल जाता नहीं; कभी नहीं; बल्कि उसके सिलसिलों को कसकर बाँधता. थकने पर केवल चाय का एक प्याला चढ़ा और एक बीड़ी सुलगाकर फिर कर्म में जुट जानेवाला और अपने को भूल जाने वाला.”
दायित्व न पूरा होनेपर ब्रह्मराक्षस होने का अभिशाप है. प्रश्न सिर्फ प्राप्त या गृहीत ज्ञान के अगली पीढ़ी को सौंपने का नहीं, जानने और महसूस करने की पद्धतियों के बोध से उन्हें युक्त करने का है. यह पद्धति ही सबसे महत्त्वपूर्ण है. अलग-अलग विचारों का वहाँ निषेध नहीं. वह जैसे खुद “आज़ाद, जैसे कभी न चुकती सैलानी” हवाओं-सा है, किसी से बँधा नहीं, वैसी ही आज़ादी सबको मिले, इसका हामी है. शमशेर जब यह भूमिका लिख रहे हैं, मुक्तिबोध बेहोश हैं. फिर भी इस अचेतावस्था में भी वह आज़ादी को नहीं भूलता,
““तुम उनका क्यों दमन कर रहे हो!” वह बेहोशी में भी बड़बड़ाकर पूछता है…. “अपने अपने आईडियाज़ हैं!” वह उदार होकर विरोधी विचारों को, अपनी बेहोशी की बड़बड़ाहट में भी एक लम्बी छूट देता है.”
हरिशंकर परसाई मुक्तिबोध के एक और मित्र थे. उन्होंने लिखा, “मुक्तिबोध कट्टर मार्क्सवादी नहीं थे. कट्टरता से तो उनका झगड़ा ही था.” लेकिन वर्ग-दृष्टि उनकी तीक्ष्ण थी और कई बार उससे लोगों के बारे में निर्णय लेने में अतिरेक हो सकता था. मसलन किसी अपने ही तबके के व्यक्ति के घर सोफासेट या डाईनिंग टेबल उसके प्रति संदेह के लिए पर्याप्त हो सकता था.
परसाई के मुताबिक़ मुक्तिबोध “एकदम गले लगानेवाले, उद्वेलित व्यक्तित्ववाले व्यक्ति नहीं थे.” सावधान, चौकन्ने, जाँच परख कर किसी को करीब आने देने वाले व्यक्ति. लेकिन उनमें “मैत्री-भाव बहुत था. …कविता, निबंध, डायरी, सबमें यह मित्र प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से रहता है.”
यह भी कह सकते हैं कि मुक्तिबोध की रचनात्मक यात्रा मित्र की तलाश के लिए थी और मैत्री भाव के पाथेय के साथ ही तय की गई. मित्र यानी एक मनुष्य, जिससे मिलने में कोई आशंका न हो, जिससे आप निःशस्त्र व्यक्ति की तरह भेंट कर सकें.
श्रीकांत वर्मा एक पत्र में मुक्तिबोध को लिखते हैं,
“आस्था का केंद्र, जैसा कि मैं देख रहा हूँ अब राजनीति से हटकर नंगे, निःशस्त्र मनुष्य की ओर होता जा रहा है. यह कहा जा सकता है कि यह साहित्य को अ-राजनीतिक बनाने की कोशिश है. मगर मैं सोचता हूँ कि तब भी यह अच्छा ही है. मनुष्य से सीधे-सीधे बात करने की, इतिहास में, मध्य युग के बाद यह पहली कोशिश है.”
श्रीकांत यहाँ राजनीति को पार्टी और उससे प्रतिबद्धता तक सीमित मानकर बात कर रहे हैं. वरना पहले वे मुक्तिबोध को एक दूसरे पत्र में लिख चुके हैं कि राजनीति से मनुष्य को काटने से उसका एलिएनेशन होता है. इस पत्र में भी वे आगे मानते हैं कि साहित्य से राजनीतिक अनुभवों के बहिष्कार की बात करना मूर्खता है, लेकिन किसी पार्टी की माँग या राजनीतिक ज़रूरतें किसी साहित्य के मूल्यांकन का आधार नहीं होनी चाहिए.
यह मुक्तिबोध को भी पता है कि निर्विकार मनुष्य मिलना प्रायः असंभव है. मानवीय सहानुभूति बिना शर्त नहीं मिला करती, यह जानी हुई बात है. हरिशंकर परसाई अपने संस्मरण में एक मुकदमे का जिक्र करते हैं. मुक्तिबोध मैजिस्ट्रेट की जाति जानना चाहते हैं. यह मालूम होने पर कि वह सवर्ण नहीं, वे परसाई को कहते हैं कि मुक़दमे का फैसला परसाई के हक में होगा. उसकी वर्ग सहानुभूति लेखक के साथ होगी, प्रकाशक के साथ नहीं, उनका ख्याल है. इसे जानते हुए भी एक निर्दोष मानवीयता की तलाश मुक्तिबोध करते दिखलाई पड़ते हैं. वह नहीं मिलती, यही तो ट्रेजेडी है.
वीरेंद्रकुमार जैन के साथ पत्राचार में मुक्तिबोध जब मार्क्सवादी दृष्टिकोण से उनकी भर्त्सना करते है तो उन्हें जवाब मिलता है जिस तरफ धीरे-धीरे बढ़ते वे दीखते हैं,
“वैसे हमारे विचारों में व्यक्तिकरण में विरोध की सृष्टि अनिवार्यतः हो जाती है… . मेरी दृष्टि में मानवता और आत्मैक्य से ऊपर, सोचने का या ‘वैचारिक साधना’ का स्थान नहीं है. विचार के मतस्वातंत्र्य के कारण तुम मुझसे टूटने को भी उद्यत हो-पर मैं वैसा नहीं कर सकूँगा.”
दोनों मित्र इस समय 25 वर्ष से भी कम उम्र के हैं. मुक्तिबोध मार्क्सवाद में दीक्षित हो रहे हैं और वीरेंद्र जैन को उस ज़मीन से फटकार रहे हैं. वीरेंद्र उन्हें कह रहे हैं कि उनका यह कहना कि वे तो विकासमान हैं लेकिन वीरेंद्र अध्ययनहीन मूर्ख हैं अपने आप में एक दंभ है. शमशेर को मुक्तिबोध की जो उदार बड़बड़ाहट सुनाई दी, सबके अपने आइडियाज़ को जगह देने की बात, वहाँ तक मुक्तिबोध को अभी सफ़र करना है!
वीरेंद्र कुमार जैन जो शिकायत तरुण मार्क्सवादी मुक्तिबोध से कर रहे थे, उसका अर्थ मुक्तिबोध पर नहीं खुला, ऐसा नहीं. व्यक्ति, उसके सोचने के तरीके को मूल्य देना ही मानवीयता का आरम्भ है. प्रत्येक व्यक्ति एक शैली भी है या उसमें अपनी शैली विकसित करने की संभावना है. उसे किसी एक विचार प्रणाली में बाँधकर उसके व्यक्तित्व की हत्या सबसे बड़ा पाप है. ‘साहित्यिक की डायरी’ के निबंध ‘तीसरा क्षण’ में वे मनुष्य की थाह ले पाने की अक्षमता को यों बताते हैं,
“मुझे लगता कि भूमि के गर्भ में कोई प्राचीन सरोवर है. उसके किनारे पर डरावने घाट, आतंककारी देव-मूर्तियाँ और रहस्यपूर्ण गर्भकक्षोंवाले पुराने मंदिर हैं. इतिहास ने इन सबको दबा दिया. मिट्टी की तह-पर-तह, परतों-पर परतें, चट्टानों पर चट्टानें छा गईं. सारा दृश्य भूमि में गड़ गया, अदृश्य हो गया.”
फिर उसी अदृश्य कर दिए गए सरोवर की भूमि पर बँगले बन गए और उनमें से किसी में ‘मैं’ का मित्र केशव रहने लगा. केशव कौन हो सकता है, क्या है वह?
“…जिसने शायद पिछले जन्म में, या उसके भी पूर्व के जन्म में, उसी भूमि-गर्भस्थ सरोवर का जल पिया होगा.”
क्या यह किसी मार्क्सवादी की भाषा हो सकती है? कवि की तो है! यह समझकर कि उसका मित्र जो दीखता है, सिर्फ उतना नहीं, उसकी जड़ें बहुत गहरे किसी सुदूर अतीत में धँसी हैं, और यह हम सबके बारे में कहा जा सकता है, मुक्तिबोध(?)लिखते हैं:
“मनुष्य का व्यक्तित्व एक गहरा रहस्य है…”
इस गहरे रहस्य का भेदन, मनुष्य की हर गिरह को अच्छी तरह खोल लेने का दंभ विचारधाराओं में है. लेकिन समस्या दूसरी है. मनुष्य का रहस्य भेदन करना नहीं, उसे पूर्णतः अनावृत्त करना नहीं, बल्कि एक मानवीय साहचर्य के जरिए उसे मुक्त कर पाना;
“न केवल अपनी, वरन् अन्यों की भीतरी रोक को दूर कर उनके दिल के खुलने की हालत पैदा कर देना एक बड़ी चीज़ है.”
“अकेलापन और पार्थक्य” में मुक्तिबोध(?) की शिकायत है,
“मुझे कहने दीजिए कि आजकल आदमी में दिलचस्पी कम होती जा रही है. सामान्यीकरणों के अरूप समुदाय बढ़ रहे हैं.”
मनुष्य लेकिन रूप है. इस रूप को न देख पाना किसी समाज की भारी कमी है:
“…आदमी में और उसकी ज़िन्दगी में दिलचस्पी कम होना अच्छी बात नहीं है. वह दुहरा दंड है. ‘स्व’ को और ‘पर’ को भी.”
जिस समाज को सामान्यीकरण की आदत पड़ जाती है वहाँ हत्या की संस्कृति जड़ जमाती है. मुक्तिबोध को पढ़ते पढ़ते बीसवीं सदी की जर्मनी में चला जाता हूँ और उन्होंने जिस स्टालिन के बीमार होने पर कविता लिखी थी, जिसे मुक्तिबोध के गुजर जाने के कोई दो दशक बाद तक हम भी पूजते थे, उस स्टालिन के मास्को के तलघर में यातना झेल रहे विक्टर सर्ज की पुकार सुनता हूँ, और उन तीन गोलियों को अपने सीने पर रोकते हुए धराशायी गाँधी को याद करता हूँ और अचानक फोन की स्क्रीन चमक उठती है. नदीम की खबर: मैं जब मुक्तिबोध की आदमी में दिलचस्पी की अरज दर्ज कर रहा था, एक खबर मथुरा से हम तक पहुँचना चाह रही थी: आज सुबह तीन बजे मवेशी लेकर बेचने जा रहे व्यवसायियों पर हमले में एक व्यक्ति मारा गया.
व्यक्ति, नाम, रूप? कौन मारा गया? व्यक्ति या उसका अरूप सामान्यीकरण?
“