मुक्तिबोध शृंखला : 8
कवि अपने जीवन में एक ही कविता बार-बार लिखता रहता है, जैसे कथाकार एक ही कहानी कहता है. मुक्तिबोध की खोज क्या है जो उनकी हर कविता, कहानी, निबंध, आलोचनात्मक निबंध में अनवरत चलती रहती है? क्या वह सम्पूर्णता की तलाश है? क्या वह एक विशाल जीवन (जिसे वे एक जगह immense लिविंग कहते हैं) की खोज है, उसे जीने के उसूल और तरीके का पता करने की तड़प है? विशाल जीवन या भरपूर ज़िंदगी! वह क्या है?
भरपूर ज़िंदगी या परिपूर्ण जीवन वह है जो मानवीय अनुभवों की विविधताओं से बुना गया हो? जो इकहरा न हो, जो कह सके कि हाँ! मैंने दुनिया देखी है. देखी ही नहीं, उसे अपनी हड्डियों और खून में महसूस भी किया है. ज़िंदगी को देखना, भोगना एक चीज़ है और उसके साथ मायने के रिश्ते बनाना अलग चीज़. ऐसा रिश्ता जिसमें वह ज़िंदगी भी आपसे मायने हासिल करती है.
“मानव जीवन-स्रोत की मनोवैज्ञानिक तह में” मुक्तिबोध इस विशालता के रास्ते में रुकावट मानते हैं उस अंतर को जो जीवन और जगत के बीच है. क्या इसका मतलब यह है कि जगत को मेरा जीवन हो जाना चाहिए या मेरी ज़िंदगी का फैलाव इतना हो कि उसमें दुनिया के होने का गुमान हो? फिर जगत है क्या?
“क्या यह जगत केवल बाज़ार की सडकों पर घूमनेवाले, खरीदने के लिए आतुर जन-समुदाय, या सरकारी दफ्तरों में बैठनेवाले कृत्रिम महान् मनुष्यों तक ही सीमित है? इनसे बाहर, इनसे परे क्या जगत का फैलाव नहीं है?”
यह जगत जो सामने है, वह मनुष्य का विरोधी जान पड़ता है. या तो यह मनुष्य तो अनुशासित कर ले या मनुष्य इससे लड़कर इसपर कब्जा कर ले. एक विरोध भाव (मनुष्य के) जीवन और इस जगत में है. मनुष्य को लगातार सचेत रहना है वरना उसपर कब्जा कर लिया जाएगा. पूरा जीवन एक तरह की पैंतरेबाजी में गुजर जाता है. स्पर्धा विश्व को अपना बना लेने की है. इसका मतलब अपनाव से नहीं है. मार्क्स के मुताबिक़ कोई भी चीज़ अपनी नहीं जबतक कि मेरे पास उसकी मिल्कियत न हो. तो एक फाँक है जीवन और जगत के बीच जो खाई में बदल जा सकती है.
मुक्तिबोध इस कारोबारी जगत से अलग, उसके पार जाकर असली जगत की खोज करना चाहते हैं. अगला वाक्य दुरूह है, कुछ ठहरकर उसे पढ़ें तो उसकी गिरह खुलती है:
“जब जीवन की वेदना और उसकी शक्तिमान् विश्वस्त प्रसन्नता अगाध हो जाती है, तभी वह सम्पूर्णता का क्षण आता है जिसके सामने जगत एक विरोधी भीत के समान पड़ा न रहकर धूल के कण के समान नम्र हो जाता है.”
मुक्तिबोध का सम्पूर्ण साहित्य विरोधी युग्मों से अटा पड़ा है. ऐसा ही एक विरोधी युग्म है: जीवन की वेदना और उसकी शक्तिमान विश्वस्त प्रसन्नता. अगर इस युग्म का अर्थ समझना हो तो गाँधी की छवि को सामने रख लें. जीवन की वेदना की अगाधता और विश्वस्त प्रसन्नता की भरपूर ताकत का मेल. फिर जगत एक ऐसी दीवार नहीं लगता जिसे तोड़ना हो, जो रास्ते में बाधा बनकर खड़ा है बल्कि हालत तो यह है कि बस! आप झुककर उसे उठा लें!
इस जगत को हृदयंगम करना, बिना उससे शत्रु भाव के आसान नहीं. उससे शंका इसलिए होती रहती है कि कहीं वह मुझे खुद में इस कदर मिला न ले कि मेरा कोई वजूद ही न रह जाए:
“व्यक्ति अपने आपमें पूर्ण है, अलग है. और यह अलगाव, यह पूर्णता ही उसे दूसरों से अलग रखती है, जुदा रखती है, कि कहीं वह अपने व्यक्तित्व को विसर्जित न कर दे, उसको हार न बैठे.”
अपने लेखन में कई जगहों पर और अलग अलग तरीके से मुक्तिबोध व्यक्तित्व के अधिकार की बात करते हैं. आम तौर पर हम किसी बृहत्तर सत्ता में अपनी सत्ता को विलीन कर आध्यात्मिक सुख प्राप्त करने का बात करते हैं. लेकिन मुक्तिबोध को मालूम है कि अपने व्यक्तित्व की विलक्षणता की चेतना आज के मनुष्य को परिभाषित करती है. अपने व्यक्तित्व की सरहद को पहचानना और किसी को उसका अतिक्रमण करने से रोकना. इसलिए एक तनाव मनुष्य के जीवन में हमेशा बना रहता है. वह अपने व्यक्तित्व को किसी भी अन्य में विसर्जित करने की किसी भी कोशिश का प्रतिरोध करने से पैदा हुआ तनाव है. मैं अपने व्यक्तित्व को खुर्द-बुर्द नहीं कर सकता लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं अपने आप में ही गर्क रहना चाहता हूँ. मैं रिश्ता बनाना चाहता हूँ, ऐसा रिश्ता जो मुझे आज़ाद करे.
शक्तिमान प्रसन्नता एक दूसरी तरह भी उपलब्ध होती है. जब मैं खुद को पूरी तरह अभिव्यक्त कर सकता हूँ. जब उस अभिव्यक्ति पर मैं किसी की बंदिश न देखूँ. बुझे मन वे हैं जो मुँदे हुए दिल हैं:
“…कई सुन्दरतम अनुभूतियाँ विविध नर-नारियों के मन में गुप्त रह जाती हैं. उनका कोई प्रकाश विश्वात्मक तौर पर हो ही नहीं पाता. यह वैयक्तिक आग व्यक्ति के साथ ही समाप्त हो जाती है.”
मेरी अनुभूति का प्रकाश विश्वात्मक हो, तभी तो वह अभिव्यक्ति है और तभी मेरे होने के मायने हैं. लेकिन सच यही है
“इस विशाल जड़ीभूत पूँजीभूत संसार में गति का एक कम्पन, रेगिस्तान से निकलनेवाले छोटे चश्मे की भाँति,…अपने लघु अस्तित्व की दीवारों में घिरा होने के कारण आपने आपमें ही जीकर खत्म हो जाता है.”
यह कुछ वैसा है, और इस चित्र को याद रखिए मुक्तिबोध के मन की बनावट को समझने के ऐतबार से,
“जिस तरह मध्य एशिया से तारीम नदी एक विशाल निर्जल कन्दरा से निकलकर तिब्बत के शुष्क प्रदेशों में अपने शोचनीय अस्तित्व को वहन करती हुई एक नमकीन, कडुल, रेगिस्तानी झील में ही डूबकर ख़तम हो जाती है.”
यह रूपक उस कटुता, शुष्कता को तीखेपन से व्यक्त करता है जो वैसे जीवन की व्यर्थता के बोध की है जो विश्व पर व्यक्त नहीं हो पाया.
अनुभूति ऐसा नहीं कि मात्र लेखक, कलाकार को होती हो:
“अनुभूति क्षमता मानव-जीवन की विशेषता है….व्यक्तित्व का विकास भले ही अंतर्बाह्य संघर्ष से हो, परंतु, फिर भी ये अतृप्त अनुभूतियाँ, यह जीवन की स्वाभाविक रीति से बहने की प्यास, जीती ही रहती है, जागती ही रहती है.”
त्रासदी इन अनुभूतियों के अतृप्त ही रह जाने की है. जीवन के स्वाभाविक रीति से बहने की प्यास बुझने का कोई उपाय नहीं दीखता. जबकि जीवन चाहता है खुलना, प्रकट होना:
“जीवन विकसित, तन्मय और प्रतिफलित होना चाहता है, वस्तु जगत पर अपना एकाधिकार जमाना चाहता है…. वह अपना अबाध प्रसार चाहता है.”
जीवन का अबाध प्रसार ही स्वराज है. स्व का अधिकार. लेकिन यह हो नहीं पाता. सोते किसी रेगिस्तानी झील में डूबकर खत्म हो जाते हैं और कोंपल मुरझा जाती है. जीवन की छाया जैसे जगत में चक्कर लगाती है, जीवन नहीं मिलता. व्यक्तित्व बन नहीं पाते. या तो उनकी इमारत की तामीर नहीं हो पाती, वे अधबने रह जाते हैं या टूट-फूट जाते हैं. एक तरह से इस संसार में हर तरफ व्यक्तित्व के खंडहर हैं.
इस ट्रेजेडी के बीच अपने व्यक्तित्व की बिना अपराध बोध के करना, उसे अपना ही हासिल मानना कितना ठीक है? इसका ख़तरा है कि यह अपराधबोध सृजन को ही कुंठित कर दे. जब जीवन का शमन ही नियम बन जाए तो जीवन की प्रवहमान दुर्दम आकांक्षा के स्वप्न को जीवित रखना सबसे बड़ा कर्तव्य बन जाता है. यह ख्याल कि व्यक्तित्व अपना हो सकता है, वह सिर्फ एक छोटे तबके का विशेषाधिकार नहीं. हम जीवन के उच्छिष्ट मात्र नहीं हैं. यह मात्र कला का नहीं, जैसा कार्ल मार्क्स ने कहा, अर्थशास्त्र का, दर्शन का और राजनीति का प्रश्न भी है.
प्रश्न जैसा इस लेख के अंत में मुक्तिबोध लिखते हैं, अपने ही सृजन का है. “प्रगतिवाद: एक दृष्टि” में वे इसके साथ सुसंगति और समस्वरता को काम्य मानते हैं. यह संगति जो कला के लिए आवश्यक है तबतक नहीं हासिल की जा सकती जबतक सामाजिक न्याय न हो. अगर निम्न वर्ग, दलितों के शोषण के बल पर जो व्यक्तित्व बनते हैं या जो मूल्य बनते हैं, उनका स्तर कभी बहुत ऊँचा नहीं हो सकता. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा था कि संस्कृति के जिस भव्य प्रासाद में रहने का अहंकार हमारा है, उसकी नींव इस दलितजन के रक्त में डूबी हुई है.
“साहित्य में सामूहिक भावना” नामक निबंध में वे इस बात को इस तरह कहते हैं,
“पूरी लय-तालता प्राप्त करने के लिए यही आवश्यक नहीं कि हम केवल आतंरिक समन्वयात्मक सुसंगति प्राप्त करें. यह कर लेने के बाद भी हमारा व्यक्ति-जीवन खंडित रह सकता है.”
समाज के साथ लय तालता प्राप्त करना जो रह गया है!
आरम्भ में हमने कहा था कि मुक्तिबोध की महत्त्वाकांक्षा विशाल, उदात्त जीवन जीने की है. यह विशालता या उदात्तता जनतांत्रिक ही हो सकती है. व्यक्ति में प्रसन्न शक्तिमानता कैसे आती है? मुक्तिबोध “समन्वय के लिए संघर्ष चाहिए” नामक निबंध में ‘गतिमान सामंजस्य’ की कल्पना करते हैं. चुनौती कलाकार के चयन की है. वह आवयविक रूप से किस वर्ग या समुदाय से संबद्ध महसूस करता है? उसे उस वर्ग की गतिमानता के तर्क से अपने व्यक्तिमत्ता के तर्क को मिलाना है. यही सामंजस्य की खोज है. लेकिन यह बिंदु कभी भी आख़िरी तौर पर तो नहीं मिलता. सामंजस्य, या समन्वय का अर्थ संघर्ष की समाप्ति नहीं है. क्योंकि जो बृहत्तर सत्ता है, वह वर्ग हो या समाज, वह अपने तर्क से सक्रिय रहती है और व्यक्ति की सत्ता अपने तर्क से. क्या व्यक्ति को खुद को उस सत्ता में विलीन कर दे?
मुक्तिबोध का उत्तर स्पष्ट है: नहीं. इसीलिए पोलिश युवती आग्नेश्का से मुलाकात के बाद पोलिश साहित्य पाकर उन्हें आश्चर्यजनक प्रसन्नता हुई थी. उस साहित्य का खुलापन सोवियत साहित्य के ‘रेजिमेंटेशन’ से कितना अलग था. इसका मतलब समाज में व्यक्ति स्वर जीवित रह सकता है! मुक्तिबोध की परिभाषा है,
“कला मानव-समाज की वाणी में झंकृत व्यक्तिगत कंपन है.”
व्यक्ति का निषेध या उसको दोयम दर्जा किसी भी तरह मुक्तिबोध को कबूल नहीं. व्यक्ति और समाज के रिश्ते को यों समझिए,
“आकाश के कोने-कोने छू लेने की चाह से पक्षी के छोटे से हृदय में एक नया आकाश बन जाता है. यह नया आकाश उसका वैयक्तिक आकाश है, पक्षी का आकाश है.”
आकाश के कोने कोने को छू लेना नहीं, बल्कि छू लेने की चाह! मुक्तिबोध आकाश कह रहे हैं. उसे स्व या आत्म का संदर्भ भी कहा जा सकता है. उसकी संबद्धता या अधिक परिचित शब्द प्रतिबद्धता, उसके लिए करणीय का चुनाव, वह किसके लिए लड़ सकता है, क्या उसके लिए नाकाबिले बर्दाश्त या जिसे वह कतई नामंजूर करता है. यह सब मिलकर उस संदर्भ का निर्माण करते हैं जिसमें वह स्व अपना अर्थ ग्रहण करता है.
यह ठीक है कि व्यक्ति के मुकाबले समाज बड़ा है और खुद मुक्तिबोध भी व्यक्ति धारा का लक्ष्य मानवता-सिंधु ही बताते हैं लेकिन इस विचार के साथ जो दुर्घटना 20वीं सदी में हुई उससे धीरे-धीरे ही मुक्तिबोध परिचित हुए. इसलिए पहले वे जितने निर्भ्रान्त तरीके से यह कहते थे कि मार्क्सवाद वह गतिमान सामंजस्य है, जो उनका आदर्श है, आगे चलकर उसे लेकर उनका संदेह कहीं कहीं व्यक्त होता हुआ दीखता है. खुद मुक्तिबोध के व्यक्तिमत्ता पर बल देने के कारण उनके देश में ही उन्हें जिस आलोचना का सामना करना पड़ा, उससे भी उनकी यह धारणा पुष्ट हुई कि समाज या मानवता को संदर्भ माना जा सकता है लेकिन उन्हें अपनी चेतना की बागडोर नहीं दी जा सकती.
मैं समाज को खोजता हूँ तो समाज को भी मुझे खोजना चाहिए. उसकी मुझमें बहैसियत व्यक्ति दिलचस्पी होनी चाहिए. उन्होंने लिखा भी है कि मैं राह को खोजता हूँ तो राह भी मुझे खोजती है. ‘साहित्य में सामूहिक भावना’ में इसे वे इस तरह कहते हैं,
“व्यक्ति अपनी ही खोज में समाज को ढूँढता है, समाज के विकास की परीक्षा करता है और इस प्रकार उसकी परीक्षा करते हुए अपनी परीक्षा करता है.”
समाज की परीक्षा का अधिकार व्यक्ति का है. इस परीक्षा के जरिए ही वह समाज को आयत्त करता है. लेकिन उसे इस परीक्षा की भारी कीमत भी चुकानी पड़ सकती है. क्योंकि वह उसका मूल्यांकन कुछ मूल्यों के आधार पर करता है. और कतई संभव है कि समाज उसकी कसौटी पर खरा न उतरे. तब उसकी परिणति भयानक होती है. वह गैलीलियो हो या कोपरनिकस, ईसा या गाँधी, मुक्तिबोध समाज की परीक्षा की कीमत से परिचित हैं. आश्चर्य नहीं कि ‘अँधेरे में’ कविता में गाँधी ही समाज के भीतर की क्षुद्रता से सावधान करते हैं.
क्षुद्रता में आराम है. बुद्धि और संवेदना को सक्रिय नहीं होना पड़ता. लेकिन जो एक विशाल जीवन की कल्पना करती है, उसे यह आराम कहाँ! “पक्षी और दीमक” कहानी का आख़िरी अंश है,
“…प्रकाश के उद्गम के सामने रहना, उसका सामना करते रहना, उसकी चिलचिलाती दोपहर में रास्ता नापते रहना और धूल फाँकते रहना कितना त्रासदायक है.”
लेकिन कुछेक ज़िंदगियाँ ऐसी होती हैं जिन्हें इस चिलचिलाती धूप में रास्ता नापने में ही आनंद आता है. ऐसे कामों की शर्म क्यों:
“…क्योंकि जहाँ मेरा ह्रदय है, वहीं मेरा भाग्य है!”
प्रेमचन्द के ऊपर सर के आलेखों की श्रृंखला और सेतु प्रकाशन से पुस्तक आने के बाद –
मुक्तिबोध के ऊपर सर के तसल्ली से लिखे गये आलेखों की यह बेहद उम्दा श्रृंखला – मुकम्मल पुस्तक की माँग करती है।
–रविरंजन
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