मुक्तिबोध शृंखला : 9
पढ़ रहा था मुक्तिबोध को और भटक गया अज्ञेय की ओर. दोष मेरा जितना नहीं उतना नामवर सिंह का है. “साहित्यिक की डायरी” की समीक्षा करते हुए अज्ञेय से उनकी तुलना करते हुए नामवरजी ने उनमें देखी है ‘अमानुषिकता की हद को छूनेवाली कलात्मक निःसंगता.’ वे ‘साहित्यिक की डायरी’ के आस पास ही प्रकाशित होनेवाली अज्ञेय की कृति ‘आत्मनेपद’ को पढ़ते हुए दो कवि व्यक्तित्वों को अगल बगल रखने को कहते हैं. एक है, यानी मुक्तिबोध: ‘सामाजिक स्तर पर एक नितांत सामान्य निम्न मध्य वर्गीय पारिवारिक प्राणी’. उसके लिए ‘कविता अलग से किसी साधना की चीज़ नहीं, बल्कि जीने की ही जटिल प्रक्रिया का ही एक सहज अंग है.’ दूसरी तरफ ‘आत्मनेपद’ से उभरता है एक शब्दसाधक ‘एस्थीट’ अथवा सौंदर्यजीवी का रूप. वह एक ‘दायरे में जीवन से पूरी तरह संसक्त होते हुए भी अपने रचना जगत में सर्वथा निःसंग है.’
नामवरजी भी कोई कम बड़े शब्द साधक नहीं. साहित्य अगर शब्द साधना नहीं तो कुछ भी नहीं. बेगुसराय के उनके एक व्याख्यान का जिक्र नंदकिशोर नवल प्रायः किया करते थे जिसमें ‘क्रांतिकारी’ साहित्यकारों को झिड़की देते हुए उन्होंने कहा था, ‘जो दो वाक्य सुंदर नहीं बना सकते वे समाज क्या ख़ाक सुंदर बनाएँगे!’ लेखक या साहित्यकार होता ही शब्दसाधक है. यही तो उसका कार्य है, अगर हम कर्तव्य नहीं कहना चाहते मुक्तिबोध के कारण. मुक्तिबोध कर्तव्य के मोहल्ले के वासी नहीं बने रहना चाहते, वे कार्य के विस्तृत मैदान में विचरण करना चाहते हैं. मुक्तिबोध के सम्पूर्ण जीवन का कार्य व्यापार अगर शब्दों की साधना नहीं, सौंदर्य का संधान नहीं तो और क्या है! नामवरजी की समीक्षा में मात्र यह एक वाक्य है जिसमें मुक्तिबोध का महत्त्व स्थापन करने के लिए वे अज्ञेय पर आक्रमण आवश्यक मानते हैं.
कलात्मक निःसंगता को नामवरजी ने परिभाषित नहीं किया है. यह तो और भी नहीं कि वह अज्ञेय में अमानुषिकता की हद तक कैसे बढ़ी हुई है! शायद इसे क्षमा किया जा सकता है क्योंकि लिखते वक्त नामवर सिंह भी युवा हैं और तेवर या शैली संवादात्मक नहीं विवादात्मक है. कम से कम अज्ञेय के संदर्भ में. जबकि वे मुक्तिबोध की ‘साहित्यिक की डायरी’ पर फिदा हैं तो उसकी संवादधर्मिता के कारण. यह भी क्या आश्चर्य की बात है कि मुक्तिबोध ने डायरी में जहाँ बहस भी की है और ज़्यादातर बहस ही है, वह वीरकर के साथ हो या यशराज के या खुद ‘मैं’ की बहस अपने ही साथ हो, वहाँ भी निगाह प्रायः अंदर की ओर मुड़ी हुई है.
जिस निःसंगता के कारण अज्ञेय को हीन माना जा रहा है, वह मानवीय जगत के प्रति है क्योंकि उसके पहले नामवरजी ने विशेषण लगाया है ‘अमानुषिक’. ‘आत्मनेपद’ की भूमिका के अंत में अज्ञेय लिखते हैं,
“यहाँ तक अकेले नहीं पहुँचा हूँ. जीवन में बहुत अकेला रहा हूँ पर जब कहीं पहुँचा हूँ तो पाया है अकेला नहीं हूँ, दूसरे भी साथ आये हैं-पहुँचाने आए हैं. …जिनके सहारे और जिनके साथ यहाँ तक आया हूँ वे पथ संकेत देने के कारण गुरुजन तो हैं ही, पर उस अतिरिक्त कृपा के बारे में क्या कहूँ जिसने मुझे यह दिया है कि वे मेरे प्रणम्य ही नहीं, मेरे प्रिय भी हों? एक शब्दातीत विस्मय एक साथ उसे स्वीकार ही किया जा सकता है…”
इस मानवीय संग भाव को कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करनेवाले में अमानुषिकता देखने के लिए खासी निर्मम निःसंगता चाहिए! वह नवयुवक नामवर सिंह में है. आगे चलकर और लगभग जीवन के दूसरे छोर पर उन्होंने खुद को थोड़ा दुरुस्त किया जब उन्होंने अज्ञेय का एक काव्य संचयन तैयार किया.
अज्ञेय की इन पंक्तियों को पढ़ते हुए दिल्ली जा बसे श्रीकांत वर्मा को उनके सिनिसिज़्म से सावधान करते हुए मुक्तिबोध ने जो पत्र लिखा था, वह याद हो आता है,
“ …उस छत्तीसगढ़ में, जहाँ मुझे मेरे प्यारे छोटे-छोटे लोग मिले, जिन्होंने मुझे सम्मान और सत्कार प्रदान करके, संकटों से बचाया. मैं उन्हीं के कारण ….मनुष्यता में विश्वास खो नहीं पाता…”.
अज्ञेय उस मनुष्यता को स्वीकार करते हैं जिसमें मुक्तिबोध को अटूट विश्वास है.
नामवर सिंह नोट करते हैं कि मुक्तिबोध वैसे लेखक हैं
“हर परिचित-अपरिचित को सहचर की तरह स्वीकार करते हुए हमेशा उन्मुक्त विचार-विनिमय के लिए प्रस्तुत रहता है…जबकि कुछ ऐसे लेखक हैं जो निरी आत्माभिव्यक्ति के लिए बेचैन रहते हैं..”
अज्ञेय कहते हैं,
“अन्य मानवों की भाँति अहं मुझमें भी मुखर है, और आत्माभिव्यक्ति का महत्त्व मेरे लिए भी किसी से कम नहीं है; पर क्या आत्माभिव्यक्ति अपने-आप में सम्पूर्ण है? अपनी अभिव्यक्ति – किन्तु किसपर अभिव्यक्ति?”
सामाजिकता की खोज अज्ञेय की भी है जैसे मुक्तिबोध की है.
मुक्तिबोध व्यक्ति धारा को मानवता के सिंधु में लीन करना चाहते हैं. लेकिन बृहत्तर सत्ता की आकांक्षा का अर्थ स्व या आत्म का लोप नहीं है. अज्ञेय कहते हैं कि वे उस प्रकार के कवि हैं जो
“कविता को अहं के विलयन का साधन मानते हैं.”
और भी कि
“मैं युग की सीमा को इस हद तक स्वीकार करता हूँ, और उसमें बद्ध होने को विवश हूँ.”
लेकिन मुक्तिबोध इसे समाज की जिम्मेदारी भी मानते हैं कि वह व्यक्ति को खोजे. व्यक्ति की सत्ता से, उसकी विलक्षणता से इंकार करनेवाले समाज से मुक्तिबोध का चिर द्वंद्व का रिश्ता है. वे रूप के अधिकार पर बल देते हैं. पूँजीवाद की टकसाल में सामान्यता के सिक्के ढलते हैं. वह व्यक्ति की प्रतिभा या जीनियस को मार डालता है. लेकिन जिसने विकल्प होने का दावा पेश किया उसने सबसे पहले व्यक्ति से उसके चेहरे की बलि माँगी. रंग निर्देशक मेयरहोल्ड का हश्र क्या हुआ रूप की विलक्षणता और केंद्रीयता पर जोर देने के कारण, यह हम याद नहीं करना चाहते. शायद यह मुक्तिबोध को मालूम न था, अज्ञेय को भी नहीं. टैगोर को और नेहरू को इसका आभास था और वे व्यक्ति-भाव के बदले सामाजिकता की यह सुरक्षा लेने को तैयार न थे. गाँधी को भी सामाजिकता के खतरे का अंदाज था. उनके स्वराज में समाज को व्यक्ति की कसौटी पर खरा उतरने की चुनौती है. हाँ! वह व्यक्ति प्रामाणिक तो हो!
सामाजिकता का प्रलोभन बड़ा है. फिर भी यकीन कुछ है व्यक्ति भाव में कि उसकी रक्षा के लिए मनुष्य जान की बाजी लगा देता है. “तेहरान में लोलिता को पढ़ना” इसी व्यक्ति-भाव का सामाजिकता से संघर्ष का दस्तावेज है. उपन्यास इस व्यक्तिमत्ता का प्रतीक बन जाता है.
अज्ञेय और मुक्तिबोध भिन्न काव्य व्यक्तित्व हैं. लेकिन दोनों ही इस प्रश्न से जूझते रहते हैं कि कवि-व्यक्तित्व का निर्माण आखिर कैसे होता है. आखिर सृजन या रचना का अर्थ क्या है? अज्ञेय जानते हैं कि जो सामाजिक जीवन जीने के लिए हम बाध्य हैं, वह भाषा के सरलीकरण पर टिका हुआ है,
“कवि आधुनिक जीवन की एक बहुत बड़ी समस्या का सामना कर रहा है—भाषा की क्रमशः संकुचित होती हुई सार्थकता की केंचुल फाड़कर उसमें नया, अधिक व्यापक, अधिक सारगर्भित अर्थ भरना चाहता है…”
‘व्यक्ति सत्य’ ‘व्यापक सत्य’ कैसे बने? क्या एक एकतरफा जिम्मेदारी है?
मेरा मन विवाद करने का नहीं. आक्रमण का नहीं. अपने समकालीन और अग्रज नामवरजी से भी नहीं. क्योंकि वे भी अपने समय के समाज से सीमित थे. क्या खुद मुक्तिबोध नहीं थे? जब वे अपने समकालीनों पर आरोप लगाते हैं कि वे उस वास्तव को नहीं लिखते जिसे वे भोग रहे हैं और यह कि अनुभूत सत्य का वे अनादर करते हैं तो क्या वे उनके साथ अन्याय नहीं कर रहे थे?
मुक्यिबोध ‘अनुभूत वास्तव’ के अनादर से क्षुब्ध हैं, अज्ञेय के लिए पहली समस्या यह है कि
“जो व्यक्ति का अनुभूत है, उसे समष्टि तक कैसे उसकी सम्पूर्णता में पहुँचाया जाए..”
समाज व्यक्ति की नोकें झाड़ देना चाहता है, उसके कद को अपनी खाट से नापकर अतिरिक्त को तराश देना चाहता है.
उस अनुभूत का स्तर क्या है, वह कितना बड़ा या छोटा है, घटिया या बढ़िया है, सामाजिक या असामाजिक है, ऊर्ध्व या अधः, अंतर् या बहिर्मुखी है, यह तय करना अज्ञेय के मुताबिक़ आगे की समस्या है. मुक्तिबोध की मानें तो यह इससे निर्धारित होगा कि व्यक्ति या रचनाकार बोल किस सतह से रहा है!
व्यक्ति की सतह या व्यक्ति का गुण! मुक्तिबोध के प्रिय राजनेता नेहरू किसी देश या समाज को मापने का तरीका यह बताते हैं कि यह देखा जाए कि उसके व्यक्तियों की “क्वालिटी” क्या है! वह समाज औसतपन के तर्क को अस्वीकार करता है या नहीं? नेहरू अपने ज़माने के बारे में बार बार यह लिखते और कहते हैं कि गाँधी ने उन सबको एक ऊँचे धरातल पर ला खड़ा किया था. वे थे साधारण लेकिन महानता के स्पर्श ने उन्हें भी कुछ ऊँचा उठा दिया. इस स्तर पर बहुत लम्बे समय तक बने रहने के लिए औसतपन के गुरुत्वाकर्षण से लड़ते रहना पड़ता है. यह निश्चय ही दुष्कर है.
मुक्तिबोध इसे पेटीबूर्जुआ संस्कार से युद्ध की तरह देखते हैं. शमशेर बहादुर सिंह को अंग्रेज़ी में लिखे पत्र में वे लिखते हैं,
“ आसमान में तारे हैं जो कितनी दूर हैं फिर भी कितने दोस्ताना! उनकी टिमटिमाती रौशनी इतनी पवित्र है….
बिना विभ्रमित दिमाग के कोई तारों से बात नहीं कर सकता. और मैं खुद को विभ्रमित कहलाया जाना बर्दाश्त नहीं कर सकता. और फिर भी हम तारों की जगह जान सकते हैं, उनको माप भी सकते हैं. …हम उनसे बातें भी कर सकते हैं.
लेकिन वर्ष 1950 के एक पेटी बूर्जुआ के पास आखिर साधन ही क्या हैं इतने विलक्षण परिणाम को उपलब्ध कर पाने के! तारों पर पहुँचना! या खुदा! कितना मुश्किल!”
अपने पेटी बूर्जुआ रोज़मर्रापन से संघर्ष का रचनाकार के लिए जरिया भाषा है, संघर्ष ज़िंदगी के, भाषा के कामचलाऊपन या औसतपन से है. यह क्या कम दिलचस्प है कि अज्ञेय और मुक्तिबोध, दोनों को ही तत्कालीन भाषा की आदत ने दुरूह माना था?
अशोक वाजपेयी अज्ञेय को विवेक का प्रवक्ता मानते हैं और मुक्तिबोध को अतिरेक का. मुक्तिबोध की भाषा उनके विचारोद्वेलन या भावों की उद्विग्नता को नहीं सँभाल पाती, यह अज्ञेय की शिकायत थी. इससे वह क्षत-विक्षत होती है. कुँवरनारायण भी सहानुभूति और आदरपूर्वक भी मुक्तिबोध पर विचार करने के बावजूद उनकी भाषा को लेकर असहज हैं. अज्ञेय की समझ यह है कि मूलतः मराठीभाषी होने के कारण संभवतः उनकी हिंदी में यह अशक्यता आ गई है कि वह उनके भावों का वहन कर पाने में असमर्थ दीख रही है. हालाँकि अज्ञेय इतने सावधान हैं कि वे अपनी राय जाहिर करते हुए मुक्तिबोध को यह भी कहते हैं कि वे उसे ज़रूरत से ज़्यादा महत्त्व न दें. मूल स्वभाव को पहचान कर ही भाषा का निर्णय करें, यह अज्ञेय की समझ मालूम पड़ती है.
दिलचस्प यह है मुक्तिबोध की भाषा से शिकायत उसकी सम्प्रेषणीयता को लेकर ही रही है. इसकी शर्त क्या होगी? क्या कवि या रचनाकार साहित्य के प्रचलित भाषा-स्वभाव को चुनौती नहीं दे सकता? मुक्तिबोध साहित्य का उद्देश्य यह मानते हैं और उनकी यह बात कला मात्र पर लागू होती है कि वह पाठकों को परिष्कृत करे. बोध, भाव, संवेदना को विस्तृत करना और उसे परिष्कृत करना, यह उद्देश्य सच्चे कलाकार के सामने हमेशा बना रहता है. क्या वह अपने जमाने से अनुकूलित हो जाने दे खुद को या जमाने को धक्का दे और उसके भाव-भाषा आलस्य से उसे मुक्त करे?
मराठी से उनका हिंदी में आना क्यों उनकी भाषा को अलग ऊर्जा न दे रहा होगा? वैसे देखें तो हिंदी के सभी लेखक किसी न किसी और भाषा के देश से हिंदी की तरफ आए हैं. निराला मूलतः उत्तर प्रदेश के होने के बावजूद बांग्ला से, प्रेमचंद उर्दू से, नागार्जुन मैथिली से… यह सूची लंबी है.
1945 में, याद रखिए, तार सप्तक प्रकाशित हो चुका है, नेमिचंद्र जैन को एक पत्र में मुक्तिबोध भाषा के अपने संघर्ष के विषय में लिखते हैं. मुक्तिबोध इसे साहित्यिक श्रम की संज्ञा देते हैं. प्रेमचंद जब खुद को मजदूर कहते हैं तो शायद इसी अर्थ में. साहित्यिक श्रम का मोल आज भी कहाँ है?
“…साहित्यिक श्रम जितना अधिक आवश्यक है उतना ही अभाव है समय का. दुनिया के सारे कार्यों से निवृत्त हो, थकी हुई पीठ और बोझल मस्तिष्क ले, टिमटिमाते कंदील के धुँधले प्रकाश में कलम चलने तो लगती है पर खुद को कोसती हुई.”
कुछ भी हो इससे भागा तो नहीं जा सकता,
“..अब साहित्यिक श्रम तो मुझे करने ही पड़ेंगे. हिंदी सुधारने की कोशिश शुरू हो गई है. छोटी सी phrase, कोई चुस्त जुबान-बंदी झट नोट कर लिया करता हूँ, बिलकुल शॉ के लेडी ऑफ दि डार्क के शेक्सपीयरकी भाँति.”
इस संघर्ष का ब्योरा आगे देते हैं,
“इसके पहले, मैं हिंदी के साहित्यिक प्रयासों के सिवाय, कभी लिखा ही नहीं करता था. मेरे अत्यंत आत्मीय विचार मराठी या अंग्रेज़ी में निकलते थे; जिसका तर्जुमा, यदि अवसर हो, तो हिंदी में हो जाता था…”
साहित्यिक या काव्य भाषा के बारे में लेकिन मुक्तिबोध की आकांक्षा क्या है?
“मेरा खयाल है कि मेरी भाषा सुंदर न भी हो तो सशक्त होकर रहेगी, क्योंकि उसके पीछे अंदर का जोर रहेगा… मुझे साज-सँवारवाली प्रतिष्ठित बोली पसंद नहीं. …”
अपने मित्र से वे प्रश्न करते हैं. उसकी निष्कवचता और व्याकुलता को नोट कीजिए,
“क्या मैं अपनी हिंदी सुधार सकता हूँ? उसे सक्षम, सप्राण और अर्थदीप्त कर सकता हूँ?”