मुक्तिबोध:11
मुक्तिबोध की भाषा : स्निग्धता और शक्ति का मेल
मुक्तिबोध ने नेमिचंद्र जैन को लिखे पत्र में एक ध्वस्त किले के मलबे के बीच उगती वन्य वनस्पतियों के रूप में अपनी कल्पना की थी. ‘हरे वृक्ष’ शीर्षक कविता इस पत्र के आस-पास लिखी गई मालूम पड़ती है :
ये हरे वृक्ष
सहचर मित्रों-से हैं बाँहें पसार
(ये आलिंगन-उत्सुक बाँहें फैली हज़ार)
अपने मर्मर अंगार-राग
से मधु-आवाहन के स्फुल्लिंग
बिखरा देते हैं बार-बार..
डँस जाती है हृत्तल इनकी यह हरी आग.
यह स्नेहामंत्रण है. अपने को मिटा देने का, किसी विराट् में विलीन कर देने का आवाहन नहीं है. खुद को नया करने करने के लिए आवश्यक है मित्रता, कोई ऐसा जिसमें आपको सुनने की धैर्योत्सुकता हो. जो आपको आत्म-समीक्षा की राह पर ले जाए, लेकिन वह होगा ‘परसुएशन’, न कि भर्त्सना. इसीलिए तो पेड़ से स्फुल्लिंग बिखर रहे हैं. यह आग दिल के भीतर तक पहुँच जाती है. इसमें जलन है लेकिन प्रकाश भी है. ध्यान दिया जाना चाहिए कि आग हरी है.
यह हरी आग जो “प्राकृत औदार्य-स्निग्ध /पत्तों-पत्तों से” फूट रही है, प्राण की “स्नेह-मुग्ध चेतना” को जाग्रत कर देती है. और उसके कारण
“इस हरी दीप्ति में भभक उठा मेरे उर का व्यापक अभाव”
अभाव छोटा नहीं है, वह व्यापक जीवन-जगत से अपने अलगाव के कारण पैदा हुआ है. यह जो अभाव या “मन के अन्दर गहरी दरार” है, उसमें चेतना की स्नेह-मुग्धता के कारण
“उग आते कुसुम, पत्र, नव-नवल लता, तरु का प्रसार..”
धीरे-धीरे देह ही वृक्ष में परिणत हो जाती है:
“चरणों से शिख तक देह वृक्ष
हो गई कि ये अंतर्गामी तरु-मूल वन्य
मेरी जंघाओं से बढ़कर मेरे उर में डालें पसार,
निज आलिंगन-उत्सुक बांहें फैला हज़ार
बन जाते आदिम स्नेह-हरित वेदना-भार.”
वेदना का यह भार सुखकर है. हरा इस कविता का रंग है. क्षितिज के कोने में जो बादल हैं वे हरिताभ हो उठे हैं और फिर आगे आर्द्र अंतर-धरा के गर्भ से “हरी ज्वाला-सा” अंकुर उठता है. स्निग्धता और शक्ति का विलक्षण मेल मुक्तिबोध की भाषा में है :
मेरे अंतर के गहन कूल
पर दृढ़ अनुभव-सा बना एक,
मैं अनुभव करता तरु का श्यामल तना एक.”
जो अंकुर फूटा है वह सत्य के “अप्रमेय नव-वृक्ष-बाल” सा बढ़ रहा है. अप्रमेय शब्द के प्रयोग को लक्ष्य किया जाना चाहिए. यह जो सत्य का अंकुर फूटा है, जिसके वृक्षत्व में संदेह नहीं है, लेकिन जिसकी बढ़त को मापा नहीं जा सकता. अप्रमेय का एक अर्थ अज्ञेय भी है. सत्य को पूरी तरह जान लेने और उसकी दिशा की भविष्यवाणी करने का दावा मार्क्सवाद की ‘वैज्ञानिकता’ ने किया था. यहाँ उसका आश्वासन नहीं है. वह शायद बहुत महत्त्वपूर्ण भी नहीं. असल बात है उसका धरती से जुड़ा रहना,
“अपनी धरती से
जुड़ा हुआ जंघा-मूलों में दुर्विजेय.”
चूँकि वह धरती से जुड़ा हुआ है इसलिए दुर्विजेय भी है.
स्नेह और शक्ति का संयोग या स्नेह के कारण ही शक्ति:
“सुरभित मादक रस-रक्त खींचता सर्व काल.”
फिर इस विकसमान वृक्ष का चित्र देखिए:
“रस-गर्वपूर्ण
विश्वास-पुष्ट
दृढ़ भुजस्कन्ध
उन्मुक्त पत्र, डालें प्रलम्ब
फैली अबन्ध.”
जैसे एक पेड़ सिर्फ एक डाल नहीं है, वैसे ही मुक्तिबोध का यह वृक्ष जो कि वास्तविक वृक्ष नहीं, एक रूपक मात्र है, अनेक विशेषणों से ही परिभाषित हो पाता है. यह रस-गर्वपूर्ण, और उसी वजह से विश्वास-पुष्ट है, इसकी भुजाएँ और कन्धे मजबूत हैं और इसमें पर्याप्त फैलाव है, इसके पत्ते उन्मुक्त हैं, डालें बिना किसी रुकावट के फैल रही हैं.
व्यक्तित्व के विकास के इस रूपक में ताकत है. पहले नेमिचंद्र जैन को लिखे पत्र में व्यक्तित्व के किले के ध्वंस के बीच ही नई वनस्पतियों और वृक्षों के फलने –फैलने के मनोरम दृश्य का वर्णन हम देख चुके हैं. एक मजबूत पेड़ के जड़ जमाने का दृश्य उसकी लम्बी, पत्तों से लदी बेतरतीब डालों के बिना पूरा नहीं होता,
“इस हृदय-वृक्ष में छायी हैं
घन पत्राच्छादित उत्सुक शाखाएँ हज़ार.”
असल चीज़ वह शक्ति भी नहीं है. यह वृक्ष हृदय के भीतर से उगा है और वह स्नेहोत्सुक है,
“…आलिंगन-अनुभव अपार
उस नग्न वृक्ष की हरित-शीत जंघाओं का
शाखाओं का, मर्मर रव का
मानो उत्सुक हो उठा विश्व से स्नेह
आज फिर मेरे अंतर.”
यह स्नेही हृदय है क्योंकि इसके पास अपार आलिंगन-अनुभव है.
इस छोटी-सी कविता को लगभग पूरा पढ़ने का कारण एक ही है. और वह है मुक्तिबोध की भाषा-योजना को समझना. इसमें विशेषणों का प्राचुर्य ध्यातव्य है: हरे वृक्ष, सहचर मित्र, सहस्र डालें, आलिंगन-उत्सुक बाँहें, मधु-आवाहन, अंगार-राग मर्मर, हरी आग, औदार्य-स्निग्ध पत्ते, स्नेह-मुग्ध चेतना, हरी दीप्ति, व्यापक अभाव, गहरी दरार, नव-नवल लता, नया भार, गहन क्षितिज, नील शांत कोना, गहरे हरे मेघ, गहरी तृषा, अंतर्गामी वन्य तरु-मूल, स्नेह-हरित वेदना-भार, दृढ़ अनुभव, श्यामल तना, गभीर गर्भांतराल, हरी ज्वाला, अप्रमेय नव-वृक्ष, मादक रस-रक्त, घन पत्राच्छादित, उत्सुक शाखाएँ.
इस छोटी से कविता में हरे रंग की उपस्थिति पर भी ध्यान जाना चाहिए. अक्सर मुक्तिबोध को विषाद और क्षोभ के नीले और श्याम रंगों से जोड़कर देखा जाता रहा है. यहाँ हरे के साथ नीला भी जीवन के नएपन और उसके विस्तार को प्रतीकित करता है.
विशेषणों के इस बाहुल्य से, जिसकी चर्चा अभी की गई है, भाषा में अतिशयता और शब्द बाहुल्य को लेकर मुक्तिबोध में किसी भी प्रकार के संकोच के अभाव का पता चलता है. हेमिंग्वे ने कभी यह इच्छा ज़रूर जाहिर की थी कि बिना विशेषण के उपयोग के एक उपन्यास लिख सकें. लेकिन मुक्तिबोध भाषा के भरेपूरेपन की ऊर्जा का पूरा उपयोग करना चाहते थे. भाषा की मांसलता और उसकी ऐन्द्रिकता की उपेक्षा मुक्तिबोध की राजनीति के विरुद्ध पड़ती.
यह भी कहा जा सकता है कि किसी भी कवि के दर्शन या उसकी राजनीति को भाषा के प्रति उसके व्यवहार से ही समझा जा सकता है. नेमिचन्द्र जैन को एक बार उन्होंने लिखा कि वे अपनी कविता में शक्ति का प्रवाह चाहते हैं, इस वजह से भाषा में किसी भी तरह की तराश या सिंगार के पक्ष में नहीं हैं. नामवर सिंह ने भी उनकी भाषा की प्राणशक्ति की ओर ध्यान दिलाया है और उसे सृजनशीलता की अनिवार्य शर्त बताया है. उनके अनुसार
“मुक्तिबोध की प्राणवान काव्यभाषा उनके प्राणवान कथ्य की प्रति-ध्वनि है.”
मुक्तिबोध के पाठकों के लिए इस ‘प्राणवान’ को समझना आवश्यक है.
प्राणवान के साथ ही उस चीख या शोर को भी याद रखना आवश्यक है जो मुक्तिबोध की कविताओं का स्वभाव माना जाता है. ‘चकमक की चिनगारियाँ’ की ये पंक्तियाँ देखिए:
अधूरी और सतही जिन्दगी के गर्म रास्तों पर,
अचानक सनसनी भौंचक
कि पैरों के तलों को काट-खाती कौन-सी यह आग?
…………..
अनगिन अग्निमय तन-मन व आत्माएँ,
व उनकी प्रश्न-मुद्राएँ,
ह्रदय की द्युति-प्रभाएँ,
जन-समस्याएँ कुचलता चल चल निकलता हूँ.
इसी से, पैर तलुओं में
नुकीला एक कीला तेज़
गहरा गड़ गया औ’ धँस गया इतना
कि ऊपर प्राण-भीतर तक घुसा आया,
……..
व्रणाहत पैर को लेकर
भयानक नाचता हूँ, शून्य
मन के तीन-छत पर गर.
हर पल चीखता हूँ, शोर करता हूँ
कि वैसी चीखती कविता बनाने में लजाता हूँ
प्रश्न फिर भी यह रहता है कि क्या भाषा के ऐसे प्रयोग से भावों की निश्चित और सटीक अभिव्यक्ति में कोई बाधा तो नहीं पड़ती? दूसरे, क्या यह भाषिक प्रयोग उनके भीतर किसी कलात्मक शक्ति के अभाव की पूर्ति का प्रयास तो नहीं? 1958 में नामवर सिंह ने ही ‘आत्म-संघर्ष के कवि: गजानन माधव मुक्तिबोध’ शीर्षक निबंध में यह शंका जाहिर की थी:
“मुझे ऐसा लगता है कि मुक्तिबोध जितना बड़ा विषय लेते हैं उसके लिए उनके पास गहरी चिंतनशक्ति तो है परंतु उतनी ही समर्थ कलात्मक शक्ति नहीं है.”
नामवर सिंह जिस कलात्मक शक्ति की बात यहाँ कर रहे हैं, जाहिर है वह कुछ दूसरी तरह की कविताओं में उन्हें दीख पड़ती होगी. उन्होंने उस कलात्मकता को परिभाषित नहीं किया, जिसका अभाव वे मुक्तिबोध में पाते हैं. यह कसौटी किस तरह की कविताओं के आधार पर बनाई गई होगी, यह विचारणीय होना चाहिए.
नेमिचन्द्र जैन के नाम पत्र से ही जाहिर है कि मुक्तिबोध को इस आरोप का अहसास था, तभी तो वे यह कहते हैं कि वे इसकी परवाह नहीं करते कि उनकी भाषा कलात्मक है या नहीं.
अपने एक लेख “मुक्तिबोध की कविता की बनावट में” कुँवर नारायण कलात्मकता के इस प्रश्न पर एक अलग ढंग से विचार करते हैं,
“अक्सर ऐसा लगता है कि मुक्तिबोध की कविताएँ एक ‘अवलांश’ की तरह लुढ़कती-पुढ़कती, शब्द बटोरती आगे बढ़ती है – किसी ऊबड़-खाबड़ सतह पर सरपट जिसमें एक प्राकृतिक दृश्य की छटा है, पर कसाव और संगठन के लिए धैर्य नहीं. इसलिए शायद बहुधा यह लगता है कि उनकी भाषा में एक भाषायी पैटर्न तो है पर वह संरचना नहीं जिसके पीछे एक ख़ास तरह का सतर्क नियोजन, निदेशन और संयोजन होता है. वे असंगठित लगती हैं; लगती ही नहीं शायद होती भी हैं मानो उन्हें जानबूझकर इस तरह रचा गया हो कि वे एक उखड़े हुए, बड़बड़ाते यथार्थ के पागलपन का अहसास करा सकें-अपने कथ्य द्वारा ही नहीं, अपने फॉर्म द्वारा भी.”
कुँवर नारायण इसे सुघड़ता की संस्कृति के खिलाफ एक विद्रोह की तरह देखते हैं, जिस सुगढ़ता के पीछे ऐसी संस्कृति और इतिहास की यादें हैं जिसके पास बारीक कारीगरी, पच्चीकारी के लिए धैर्य और आराम का लंबा सामंती समय था. वे मुक्तिबोध की कविताओं में एक ख़ास तरह की झपट भरी जल्दी देखते हैं
“कहीं, कुछ ऐसे आवश्यक को नष्ट हो जाने से बचाने की जल्दी में जिसके साथ आदमीयत के जीवन और मरण का प्रश्न झूल रहा हो?”
यह व्याख्या मुक्तिबोध के प्रति सहानुभूतिशील तो है पर वह खुद कुँवर नारायण के उस ख्याल के मेल में नहीं जिसके मुताबिक़ मुक्तिबोध की कविता को पढ़ने के लिए ‘भारी धैर्य और लंबा समय चाहिए’. यह लंबा समय सामंती न होकर जनतांत्रिक या सर्वहारा का लंबा समय कैसे हो?
क्यों यह समय सबको उपलब्ध नहीं?
मुक्तिबोध की काव्यभाषा में जो अतिरिक्तता है और अनिवार्यता के सिद्धांत का प्रतिकार है वह एक प्रकार से मनुष्यता या मानवीयता के प्रति उनके दृष्टिकोण की ही अभिव्यक्ति है. वह भाषा के भीतर की सारी संभावना को साकार कर लेने की आकांक्षा भी है.
एक उत्पादन व्यवस्था है जो समाज के बहुलांश को मात्र अनिवार्य जीवन जीने की स्थितियाँ उपलब्ध कराती है. अतिरिक्तपन चंदेक की सुविधा है. लेकिन मनुष्य कुछ नहीं अगर यह अतिरिक्तपन उससे छीन लिया जाए. वह मात्र अनिवार्य जीवन नहीं जीता, सिर्फ उतना ही करके संतुष्ट नहीं रह जाता जितना आवश्यक है. कहा जा सकता है अतिरिक्तता ही मनुष्यता का पारिभाषिक गुण है. यह उसकी अस्तित्वगत विवशता है. इस कारण ही वह कला या काव्य का सृजन करता है.
संयमित जीवन और संयमित भाषा में क्या कोई रिश्ता है? ऐसी भाषा जो ऐन्द्रिक अनुभव के संपूर्ण विस्तार और उसकी गहराई को उसके पूरेपन में व्यक्त करने से झिझकती हो, क्या हमारी संकुचित जीवन-स्थिति का ही परिणाम तो नहीं? क्या हम अपने-आप को पूरी ईमानदारी के साथ, खुल कर अभिव्यक्त कर पाते हैं, बिना इस भय के कि हमें कहीं गलत तो नहीं समझ लिया जाएगा? क्या हमारी भाषा मानवीय दूरियों की भाषा बन पाती है? मानवीय दूरी से तात्पर्य ऐसी दूरी से है जिसे संवाद के माध्यम से पाटा जा सकता है. अभी हम ऐसे परिवेश में रह रहे हैं, जिसमें हर कोई एक दूसरे से कवच ओढ़कर या नकाब पहन कर मिलता है. ऐसी हालत में संवाद या सच्चा संवाद संभव नहीं हो पाता.
अपने व्यक्तित्व का उतना ही हिस्सा उद्घाटित करना जितना करना सुरक्षित हो, आज के जीवन की बाध्यता है. मैं आपको ताड़ता रहता हूँ, हमेशा जो आपने कहा, उसके पीछे के आशय की खोज में लगा रहता हूँ क्योंकि मुझे यह मालूम है कि आपने अपने वास्तविक आशय को छिपा लिया है. अपने सारे राज दे देना बेवकूफी के अलावा कुछ नहीं. खुद को निष्कवच करके किसी को सौंप देना हिमाकत होगी. इस तरह पूरा समाज ‘डिप्लोमैटिक ऑंनक्लेव्स’ का समूह भर रह जाता है.
संवाद शब्द में एक प्रकार की औपचारिकता है, इसलिए मुक्तिबोध की कविता उसकी जगह बातचीत का प्रस्ताव करती है. यह बातचीत कई बार आतंरिक आलाप भी बन जाती है. या मुखर चिंतन. बातचीत में एक खुलापन है लेकिन एक खतरा भी है. जब मैं अपने आपको आपके समक्ष अनावृत करता हूँ तो आपके भीतर भय भी पैदा करता हूँ. क्या मुझे भी खुद को आपके लिए खोलना देना होगा? क्या बिना इस अपेक्षा के आप मुझसे बात करने को प्रस्तुत हैं?
नेमिचंद्र जैन से पत्राचार कवि मुक्तिबोध के स्वभाव को समझने के लिहाज से उपयोगी है. इस पत्राचार में मुक्तिबोध एक कमज़ोर इंसान के रूप में उभरते हैं. उनका रोज़मर्रापन अपनी साधारणता में प्रकट हो जाता है. उनके पत्रों से ही जाहिर होता है कि जिन्हें वे संबोधित हैं वह उतना प्रगल्भ नहीं है. अनेक पत्र अनुत्तरित भी हैं. फिर भी पत्रों का सिलसिला खत्म नहीं होता. कई बार ऐसा लगता है कि आपका सामना ऐसे व्यक्ति से है जो भावना-ही-भावना है, सरापा संवेदना है. ऐसा भी नहीं कि उसे इसका अहसास नहीं. वह अगर तीव्रता से अनुभव करता है तो अपने हर अनुभव की व्याख्या करने की क्षमता भी है उसके पास. फिर भी जैसे वह किसी और तरीके से सोच भी नहीं पाता. संवेदना के रास्ते ही सोच पाना मुक्तिबोध की विवशता है. और इसमें कवि का संपूर्ण शरीर, उसका स्नायुतंत्र सन्नद्ध रहता है.
अपने मित्र को खींच कर अपने मन के तहखाने में ले जाने में उसे कोई संकोच नहीं. अपने आपको निरावृत्त करते हुए उसे कोई भय नहीं. इस शिकायत के बाद भी कि उसका मित्र प्राय: खामोश रहता है, वह बात करना बन्द नहीं कर देता. पत्रों में मुक्तिबोध हीनतर आर्थिक स्थिति में भी नज़र आते हैं. लेकिन इससे उनके स्वर में किसी प्रकार का संकोच नहीं झलकता.
मुक्तिबोध के पत्रों को उनकी कविताओं, कहानियों और निबंधों के साथ मिलाकर पढें, तीनों में ही लिखना एक अविभाज्य क्रिया है. मुक्तिबोध ने तीन अलग रजिस्टर जैसे बनाए ही नहीं है इन भिन्न विधाओं के लिए. कब वे काव्यात्मक हैं, कब गद्यात्मक, कहना कठिन है. उनके लेखन में कौन-सा अंश ज्ञानप्रधान है, कौन सा अंश विचारप्रधान है और कौन-सा भावनाप्रधान, बताना मुश्किल है.
बेहद सटीक टिप्पणी :- “खुद को निष्कवच करके किसी को सौंप देना हिमाकत होगी. इस तरह पूरा समाज ‘डिप्लोमैटिक ऑंनक्लेव्स’ का समूह भर रह जाता है.”
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