Guest Post: Manoj Kumar Jha
प्रिय फिलिस्तीनवासियो,
हम चाहते हैं कि आप इस पत्र को करोड़ों हिन्दुस्तानियों के दुःख और पछतावे की अभिव्यक्ति की तरह पढ़ें जो हमें सयुंक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति में प्रस्तुत किए गए फिलिस्तीन के प्रस्ताव में अनुपस्थित होने का है। हम न केवल गाजा पट्टी में हुई व्यापक हिंसा से संबंधित महत्वपूर्ण प्रस्ताव से अलग रहे,बल्कि हमारे राजनैतिक प्रतिनिधियों ने भारत-फिलिस्तीन के सम्बन्धों की उस समृद्ध विरासत से मुँह मोड़ लिया जो इतिहास के अनेक उतार चढ़ाव भरे दौरों में भी अक्षुण्ण रही है।
भारत ने हाल ही में महात्मा गांधी का 150 वाँ जन्मदिवस मनाया है।भारत का वर्तमान शासक दल गांधी के आदर्शों और शिक्षाओं पर बनावटी प्रेम प्रदर्शित करता रहा है।जब फिलिस्तीन की बात हो तो गांधी जी के इन शब्दों को हमें याद करना चाहिए, “फिलिस्तीन का अरबों से वैसा ही संबंध है जैसा इंग्लैंड का अंग्रेजों से और फ्रांस का फ्रांसीसी लोगों से है, यहूदी आबादी को अरबों पर थोपना न केवल गलत है बल्कि अमानवीय भी है।फिलिस्तीन में आज जो हो रहा है उसे नैतिक रूप से भी सही नहीं ठहराया जा सकता।स्वाभिमानी अरबों को इसलिए दुर्बल करना ताकि फिलिस्तीन में यहूदियों के लिए एक राष्ट्र का निर्माण किया जा सके, वास्तव में मानवता के विरु्ध एक अपराध है।”(हरिजन, नवंबर 26,1938)।
गांधी जी का यह कथन विश्व के तमाम चिंतकों, कार्यकर्ताओं और नागरिकों की आवाज को ध्वनित करता है। लेकिन भारत की वर्तमान सरकार इस आवाज के विरोध में है।अनेक हिंदुस्तानी आज भी आजादी के बाद के उन दशकों को याद करते हैं जब भारत और फिलिस्तीन के सम्बन्धों का आधार मैत्री और करुणा थी। मानवता के हित के लिए इस विरासत को त्यागने के बजाय मजबूत करना हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है। मुझे प्रसन्नता होती है जब मैं भारत के विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राओं को मजबूती से फिलिस्तीनियों के हक के लिए खड़ा देखता हूँ।जब भारत और फिलिस्तीन के लेखक और कलाकार एक साथ मिलकर अपने कार्यों की चर्चा करते हैं तो अनेक उम्मीदें जन्म लेती हैं जिनमें हम अपने लिए एक न्यायपूर्ण, सुंदर और सुखद भविष्य की कल्पना कर सकें।हमें परस्पर मेल जोल और विचारों के आदान प्रदान का यह सिलसिला बनाए रखना होगा।हमें अपनी साझा विरासत को याद रखना होगा और उस पर बात करनी होगी।
भारतीय उस परिघटना में साझीदार नहीं हो सकते जिसे इतिहासकार इलान पापे (Ilan Pappe) ने ‘इतिहास का विराष्ट्रीकरण’ (de-nationalisation)कहा है। मुझे उस मानसिक हताशा का भी ज्ञान है जो इस परिस्थिति ने आपके लिए पैदा की है। “वसुधैव कुटुंबकम्” में यकीन रखने वाला राष्ट्र होने के कारण यह और महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि भारत हर अनैतिकता और अन्याय का विरोध करे।लेकिन राजनयिक सम्बन्धों के नाम पर ऐसे विचारों को प्रचारित किया जा रहा है जिनके कारण हम दुविधापूर्ण रुख अख्तियार कर रहें हैं. ऐसी स्थिति में हम सच्चाई को स्वीकार भी नहीं करते,निरीह लोगों के पक्ष में खड़ा होना तो दूर की बात है।आजादी के 74वर्ष बाद ‘नस्लभेद’ और ‘सामूहिक जनसंहार’ को अंजाम देने वाले लोगों के साथ खड़े होकर हम मानवता के विरुद्ध हो रहे अपराध के मूकदर्शक बने हुए हैं।
अपनी जमीन और स्मृति पर अन्यायपूर्ण और हिंसक कब्जे के विरोध में आपके साहसिक संघर्ष को गलत ढंग से पेश करने,अनदेखा करने तथा बदनाम करने के नियोजित प्रयास हुए हैं ।अतः फिलिस्तीन के प्रस्ताव के समय भारत की यू.एन. में अनुपस्थिति भारत की वर्तमान सरकार के अनेक चालाकी भरे फैसलों का ही अगला कदम है – वह यह कि हमारी स्मृति से यह बात मिटा देना कि जब भी पक्ष लेने की बात हुई है भारत हमेशा शोषितों के पक्ष में खड़ा हुआ है,और ऐसा करते हुए उसने कभी शोषक की ताकत और सक्षमता की परवाह नहीं की है।
आपके संघर्ष के साथ हमारे भावात्मक लगाव को चतुराई पूर्वक मिटा देने की कोशिश की गई है। दुर्भाग्य से भारत की मीडिया के बड़े हिस्से ने मुस्लिम विरोधी प्रचार में वर्तमान शासक दल का साथ दिया है जिसके कारण उन्होंने आपके सवाल को सिर्फ मुसलमानों का सवाल बना दिया, जैसा कि पश्चिम के कई देश बहुत पहले से करते आ रहे हैं।
अब मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि हम इस अवस्था तक कैसे पहुँचे जहां भारत और फिलिस्तीन के सम्बन्धों की समृद्ध विरासत को मिटते हुए जरा भी खेद नहीं होता। हम इतिहास के उस मुकाम पर हैं जहां निर्वाचित सरकार को यह भरोसा हो गया है कि बहुमत के बल पर वह हर चीज को कुचल सकती हैं, इतिहास को विकृत कर सकती है।हमने ऐसे उदाहरण अपने देश में भी देखे हैं और अन्य देशों में भी। किसी देश की जनता के विचारों तथा उसी जनता द्वारा निर्वाचित सरकार के विचारों में अंतर होता है। दुर्भाग्य से हमारे पास ऐसी व्यवस्था नहीं है जिससे सरकार के निर्णयों में हस्तक्षेप कर उन पर नियंत्रण रख सकें।यह अगले आम चुनाव से पहले संभव नहीं जो आज से कुछ वर्ष बाद होने हैं।
यहां इजराइल के एक यहूदी और मशहूर वायलिन वादक येहुदी मेनुहिन (Yehudi Menuhin) के शब्दों को याद करना समीचीन होगा,जो उन्होंने 1991ई. में इजराइल का संगीतज्ञों को दिया जाने वाला मशहूर वोल्फ पुरस्कार लेते हुए कहे,”एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि यह भय पर आधारित शासन, जिसमें जीवन की न्यूनतम गरीमा के लिए सम्मान नहीं, अपने से कमजोर लोगों पर यह दमघोंटू शासन कम से कम उन लोगों को तो नहीं लादना चाहिए जो स्वयं ऐसे शासन के भयंकर परिणामों और अविस्मरणीय यातनाओं से परिचित रहे हैं”।
सैकड़ों घायल और मृतक बच्चों के लिए हमारा दिल रो रहा है।स्वयं कोविड 19 की दूसरी घातक लहर से जूझते हुए हमें इस बात की चिंता है कि ऐसे समय में भी आपके लिए दवाइयाँ और टीके उपलब्ध नहीं हैं। पिछ्ले कुछ समय में हमने जो किया उसके लिए फिलिस्तीन के अपने मित्रों से क्षमा चाहते थे।हम आपकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतर सके। हमें हमारे वाचाल मौन के लिए क्षमा कर दीजिए।लेकिन मैं आपको यह विश्वास भी दिलाना चाहता हूँ कि भारत की सभ्यता के मूल्य हर उस शासन से अधिक शक्तिशाली हैं जो हमारे इतिहास और स्मृति को मिटा उसे अपने हितों के अनुकूल बनाना चाहते हैं।
( यह मनोज कुमार झा के इंडियन एक्सप्रेस में छपे लेख(https://rb.gy/vijw64) का शुभेंद्र द्वारा किया अनुवाद है. मनोज झा दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापक हैं और राज्य सभा सांसद भी हैं. शुभेंद्र दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में एम ए के छात्र हैं.)
Very true and true,Mr Jha thanks
Aap ki soch aaj bhi Bharat k os past ko Yaad dilati hai
Jin buniyado or Yeh desh hamesha khada Raha.
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बहुत ही सुंदर लेख, धन्यवाद मेरे अजीज सुभेद्र।
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