मुक्तिबोध शृंखला:17
‘अँधेरा मेरा ख़ास वतन जब आग पकड़ता है’, इस पंक्ति पर ध्यान अटक गया। क्या अँधेरे वतन की बात की जा रही है? या अँधेरे की जो कवि का ख़ास वतन है? क्या इस अँधेरे को आग लग जाती है? वह अँधेरा को कवि का स्वदेश है? मुक्तिबोध का जिक्र आते ही अँधेरा पहला शब्द है जो मन में उभरता है। अँधेरे के साथ और जो भाव आ सकते हैं, वे भी। आशंका, भय, असुरक्षा, आतंक! एक दूसरे प्रसंग में मुक्तिबोध अँधेरे के साथ अपने रिश्ते की बात कुछ इस तरह करते हैं:
“… मेरे लिए अन्धकार तो एक आकर्षण है। अतएव मैं इस ध्वांत को चीरकर उसके सौंदर्य को नष्ट नहीं करना चाहता। मैं तो वस्तुओं को टटोलना चाहता हूँ और उन्हें वैसे ही रखना चाहता हूँ जैसे वे हाथों को लग रही हैं।”
हाथों से देखने में खतरा भी है लेकिन यह खतरा उठाना चाहिए अगर आप खुद कुछ हासिल करने का या खोज लेने का सुख लेना चाहते हैं,
” ..आप आँखों से मत देखिए, पर आपकी स्पर्शानुभूतिवाली उँगलियों से टटोलिए। सम्भव है वे छिद जाएँ। पर इससे आपको नुकसान नहीं होने का। अन्धकार में यही मज़ा है। अन्धकार में कोई द्रौपदी अपनी साड़ी का अंचल फाड़कर अपने (आपके?) घाव को पट्टी नहीं बाँधेगी। आपकी उँगलियों से रक्त बहता जाएगा, और आपका भार भी हल्का होता जाएगा, और आप वस्तु को पहचान भी लेंगे।”
यह पहचान अनुमान है लेकिन वस्तु के सत्य के परिचय का आश्वासन भी,
“आप उसके रूप को देख न सकेंगे, लेकिन उसकी आत्मा आपकी गीली उँगलियों को मिल जाएगी। अन्धकार में इतना पा लेना क्या कम है?”
मुक्तिबोध अतीत के अँधकार के सन्दर्भ में लिख रहे हैं। लेकिन अँधकार या अँधेरे के साथ जिस तरह का रिश्ता बनाने की बात वे करते हैं वह दूसरे प्रसंगों में भी उतना ही सार्थक हो सकता है:
“धूम्र की गहराई या घनापन इतना अधिक हो जाता है कि उसको छेदकर अपनी वस्तु प्राप्त कर लेना सरल काम नहीं है। किन्तु छेदने की हिम्मत करना इतना आकर्षक, उन्मादक होता है कि प्रत्येक व्यक्ति हिम्मत कर ही नहीं सकता।”
अगर अतीत एक प्रकार का अँधेरा प्रदेश है तो खुद अपना मन भी। मनुष्य प्रायः मन के इस अँधरे में उतरने से डरता है। इसके कारण वह कोई स्थिर विश्वास निर्मित नहीं कर पाता:
“मनुष्य के मन में – दिल में – कई तहखाने हैं, एक दूसरे के ऊपर। सबसे नीचेवाले तहखाने – सुशांत निबिड़, तिमिर-मधुरतावाले – में क्या धन छिपा है, कौन-कौन से हीरे-मोती छिपे हैं, ये जाननेवाले इस दुनिया की नज़रों में या तो ऐबनॉर्मल हैं या ढोंगी।”
ऐसे लोग उनसे अलग हैं जो बाहर की ओर ही देखते रहते हैं। जो दृष्टि अत्यधिक बहिर्मुखी होती है वह सही रास्ते का इशारा कर पाए, आवश्यक नहीं,
“मनुष्य की दृष्टि बाहर अधिक देखती है, अन्दर कम। इसलिए उसका न्याय जीवन से अछूता रहता है, उसके मत उसकी परिवर्तनशील बुद्धि की उपज होने से, वे कभी विश्वास होकर जीवन का ध्रुवतारा नहीं हो पाते।”
जबकि अंर्तमुखी दृष्टि के कारण आप ऐसे बिंदु को उपलब्ध कर सकते हैं जो कालातीत है,
“उनकी वाणी का ओज, उनके ह्रदय की प्रथा नहीं है, वह अमर मानवता की पुकार है। वे उस बिंदु से बोलते हैं जो कालातीत है।”
‘हृदय की प्रथा’ पर ध्यान दीजिए। परिपाटीबद्ध संवेदन या भाव तंत्र से स्वतंत्र होना सरल नहीं है, अपनी दृष्टि का बिंदु खोजना आसान नहीं,
“इसके लिए कई जन्म लेने होते हैं। कई दफा मरना होता है, तब समझ में आता है कि मनुष्य अमर है, क्योंकि उसकी आत्मा प्राणियों से लेकर प्रकृति तक फैली होती है। यह सर्वानुभूति ही तो आत्मानुभूति है।”
निराला इसी के आसपास एकदेशीयता की संकीर्णता से बाहर निकल सार्वदेशिकता का आह्वान कर रहे हैं। सर्वानुभूति और आत्मानुभूति के रिश्ते को एक दूसरी तरह गाँधी परिभाषित कर रहे थे। उनके स्वराज के ‘स्व’ का विस्तार प्रत्येक भौगोलिक सीमा का अतिक्रमण करके ही अपना अर्थ प्राप्त करता है। यह संकुचित, आत्मलीन स्व नहीं है। इसमें अनेक स्व समाहित हैं। गाँधी आत्मबल के सहारे स्वाधीनता का संग्राम करना चाहते थे। मुक्तिबोध के अनुसार,
“…आत्मबल नाम की चीज़ मन की कोई एटीट्यूड नहीं है. आत्मबल के लिए किसी ऐसी विशालता का आश्रय लेना होता है जो हमारे जर्जर मन को त्राण दे सके, जहाँ वह अपने प्राणों को टिकाकर – सुरक्षित होकर – जीवन के अंतर्बाह्य संकटों से लड़ सके।”
तो अपने लिए इस विशालता का संधान आवश्यक बल्कि अनिवार्य है। उद्देश्य आख़िरकार स्व का आविष्कार या उसकी रचना है। लेकिन एक प्रामाणिक स्व बाहरी संघर्ष के बिना उपलब्ध भी नहीं किया जा सकता। यह विराटता क्या होगी जो हमें जीवन की तरह उन्मुख रख सके?
“अपनी स्फूर्ति का स्रोत – यानी अपने जीवन का स्रोत – एक ऐसे नित्य प्रकाश से आता रहे जो हमें अपनी निगूढ़ आत्मा में लीन होते हुए भी कर्म की ओर प्रेरित करे। हमें किसी का डर नहीं। हम हरेक से युद्ध कर सकते हैं। अरोरा बोरियालिस का मधुर सौंदर्य हमारे अंतस में तभी छा सकता है।”
इस अंतर्लोक को उद्घाटित करना ही एक चुनौती है। वही अपना देश है। ‘घर की तुलसी’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ देखिए,
“रे यह स्वदेश की खोज वस्तुतः अन्तर के
आकर्षण की ही संगति सामंजस्याकुल
यह आत्मधर्म यह आत्मकार्य”
किससे सामंजस्य की आकुलता है? वह कौन-सा आत्मधर्म और आत्मकार्य है जिसकी आज्ञाओं को सरमाथे लगाना है? उनका पता तभी चल सकता है जब “मानव-वीथी का अनुभव” किया जा सका हो। ‘आत्मधर्म’ और ‘विश्वधर्म’ के बीच जो मार्ग और पुल हैं, उनसे गुजरना, उनपर ठहर कर ‘विश्व-विस्तार’ के रंगरूप में अपने रूप को परखना अनिवार्य है।
घर की तुलसी ही दूर है,
“सात समुन्दर पर लहरती आती है
घर की तुलसी की अकुलाती गंध
गृह-पथ पाना कितना मुश्किल है…”
घर की तुलसी को विदेशी वृक्षों के मुकाबले श्रेष्ठ ठहराने का लोभ नहीं,
“पर हाय विदेशों के वृक्षों से नहीं हुआ
जब गहरा सामंजस्य हृदय का प्राणों का
तो उन वृक्षों के व्यक्तित्वों का दोष नहीं
मुझको मुझसे ही कभी रहा संतोष नहीं.”
अपने आपसे असंतोष, खुद से ही जद्दोजहद, भीतर कोई भारी संघर्ष: मुक्तिबोध में बार-बार इनका जिक्र आता है। इस असंतोष के बिना न तो सृजन हो सकता है, न नई सम्वेदनाएँ गढ़ी जा सकती हैं। ‘पक्षी और दीमक’ में ‘मैं’ और श्यामला के बीच जो बहस होती है, विचारों का द्वंद्व होता है, उसमें किसी का स्वार्थ नहीं है। बिना स्वार्थ से परे हुए इस मार्ग पर चलना और अपने प्राणों के स्वदेश को खोजना सम्भव नहीं:
“यह असंतोष की वह्नि स्वार्थ से परे रही,
वह धूम्रकेशिनी दीप्तनेत्र आलोचन-श्री
मुझको भटकाती चली समुद्र पठारों पर
ध्रुवतारा नक्षत्रों के ऊँचे द्वारों पर।”
इस आग में लेकिन घर द्वार जलकर भस्म हो गए। फिर भी
“वह ज्वलंत-मस्तका प्रकाशवती होकर
वह भूमिवती आकाशवती होकर
वह अर्थमती कह गयी इतना ज़रूर
घर की तुलसी तुमसे इतनी दूर
रेगिस्तानों से ज्यों नदियों का पूर.”
किसी और की भूमि पर रहने की यातना का यह चित्र:
“किसी शिकंजे में जकड़ा यह मर्म
कड़ी किसी वर्दी में जकड़ा मन
कभी-कभी तो पुकार उठता है
यह परधर्म-भयावह-ग्रस्त स्वधर्म.”
मुक्तिबोध ने रेजिमेंटेशन का, विचारों के रेजिमेंटेशन का विरोध किया है। वह सिर्फ विचारों का नहीं होता, भावजगत का भी होता है। आपको दी हुई संवेदनाएँ, भावनाएँ महसूस करनी होती हैं, व्यक्त करनी होती हैं। अपने आपको हासिल करने के लिए इन सबसे युद्ध करना ही पड़ता है, बाह्य का अंतर से युद्ध!
यह राह दुर्गम है, इसमें दुर्घटनाओं की आशंका है:
“..विपथों की विदिशाओं से उस उचित दिशा
में पाता रहा नितांत अँधेरी काल-भैरवी घोर निशा
एकांत अँधेरा दुर्गम पथ
उस ठीक दिशा का सहयोगी वह मार्ग सतत
उस पथ-सा मैं तकलीफभरा
खाई-खड्डों-टीलों-चट्टानों पर चलता
उस जिद्दी पगडण्डी-सा मैं टूटा-बिखरा
हूँ यदपि अदेखा अनजाना अन-पहचाना”
महत्त्वाकांक्षा जगती है, एक भव्य कल्पना कि मैं अँधेरे के निःसंग सरोवर में विराट रक्त कमल की तरह खिलूँ। यह कल्पना मन में रूपायित होती ही है कि फिर वही असंतोष की आग कह जाती है कि घर की तुलसी तुमसे बहुत दूर है।
कृतकार्यता कहाँ है? क्या घर की तुलसी का अर्थ है सीमाबद्धता? जो ‘काल-दिक्-नैरंतर्य-शिखर’ की कल्पना का रहा हो, वह सीमाबद्ध कैसे हो सकता है? लेकिन अपने क्षण, अपने पल की पहचान की पहचान के बिना उसके सिलसिले भी कैसे बाँधे जा सकते हैं?
“पद-पद पर पल-पल में जो बिम्ब दीखते हैं
निज-भाव-प्रेरणा के शत चन्द्र दीखते हैं
उनमें खिल जा !!
अपने पल में तू घुल-मिल जा …”
अपने पल में घुलना, उस क्षण में पूरी तरह रहना ही असली इम्तहान है। पलों की गतिमयता ही जीवन है। घर की तुलसी के करीब रहना, अपने पल में रहना ही स्वदेश उपलब्ध करना है।
घर की तुलसी में आत्मीयता, लघुता तो है ही पवित्रता का बोध भी है। बिना पावन के बोध के बड़ा जीवन नहीं जिया जा सकता। एक दूसरी कविता में वे इस युग की नूतन रामायण लिखने की बात करते हैं, एक और अधूरी कविता में “दुर्दांत ऐतिहासिक स्पन्दन/ के लाल रक्त से” तुलसीदास आज अपनी पीड़ा की रामायण लिखते दिखलाई पड़ते हैं। एक अन्य कविता में तुलसी के पौधे का ठूँठ अचानक आग पकड़ लेता है और उसकी पवित्र भस्मी चेहरे पर लिपट जाती है।
आत्मीयता और पवित्रता का संगम राजनीति में गाँधी ने प्रस्तावित किया। चरखा राजनीति भी था और जीवन जीने का एक आत्मीय तरीका भी। उसके साथ ही मुक्तिबोध की तरह आत्मबल के सहारे अन्याय से संघर्ष करने का गाँधी का संकल्प उनके जमाने में अयथार्थवादी मालूम पड़ा था। स्वयं मुक्तिबोध गाँधी को बुद्धि की जगह भावुकता को बढ़ावा देते देखकर उनसे किंचित आशंकित हैं। लेकिन क्या यह संयोग है कि गाँधी एक चरित्र और प्रतीक के रूप में उनकी रचनाओं में एकाधिक बार आते हैं?
अपने पल को समझ पाना और उसके प्रति सच्चा रह पाना, यह गाँधी तो कह ही रहे थे। ‘मेरे लिए एक बार में एक कदम’ , यह गाँधी का क्षणवादी वक्तव्य माना जा सकता है। अज्ञेय को क्षणवादी कहा जाता है। मुक्तिबोध और अज्ञेय को एक दूसरे के विरोध में रखने की आदत गई नहीं है। जैसे युवा नामवर सिंह ने मुक्तिबोध के मुकाबले अज्ञेय को अमानविक, निःसंग सौंदर्यवादी ठहरा दिया था, वैसे ही प्रौढ़ अशोक वाजपेयी ने अज्ञेय को विवेक और मुक्तिबोध को अतिरेक के भाव से जोड़ा। इस प्रकार की तुलना से शायद दोनों के प्रति अन्याय होता है।
‘यह क्षण’ मुक्तिबोध के आरंभिक दौर की कविता है:
“यह क्षण ऐसा है कि यहाँ पर
अपने में चुपचाप उतर लें।”
और यह इसलिए कि
‘आओ, अपनी शक्ति सम्हालें
ज़रा स्वस्थ हो शांत बनें हम।”
स्वस्थ और शांत हुए बिना अपने अंदर की आग और बाहर के विनाशक तूफ़ान में आत्म क्षोभ के साथ कूदा नहीं जा सकता। आर्दश में करुणा के तट पर जब नए राज्य की स्थापना करनी हो तो उसके पहले
“आत्म-क्षोभन का कर मन्थन
अमृत सत्य का निर्भय सर्जन
आत्मशक्ति का निश्चय पूजन
आत्म-मंदिर लीन नम्र बन
आत्म-विसर्जन, सर्व-स्पर्शन।”
बिना दृढ़आत्मबल के न तो आत्म-विसर्जन संभव है और न सर्व का स्पर्श भी.
“स्वस्थ और शांत हुए बिना अपने अंदर की आग और बाहर के विनाशक तूफ़ान में आत्म क्षोभ के साथ कूदा नहीं जा सकता….”
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