मुक्तिबोध शृंखला:25
‘नए की जन्म कुंडली: एक’ में लेखक या वाचक की मुलाकात अपने एक मित्र से 12 वर्ष बाद होती है। ऐसा मित्र जिसे वह बहुत बुद्धिमान समझता था। वह ऐसा व्यक्ति था जो अपने विचारों को अत्यधिक गम्भीरतापूर्वक लेता:
“वे उसके लिए धूप और हवा जैसे स्वाभाविक प्राकृतिक तत्त्व थे।…दरअसल, उसके लिए न वे विचार थे, न अनुभूति। वे उसके मानसिक भूगोल के पहाड़, चट्टान, खाइयाँ, ज़मीन, नदियाँ, झरने, जंगल और रेगिस्तान थे।”
विचारों के साथ उस मित्र का रिश्ता सतही न था:
“वह अपने विचारों या भावों को केवल प्रकट ही नहीं करता था, वह उन्हें स्पर्श करता था, सूँघता था, उनका आकार-प्रकार, रंग-रूप और गति बता सकता था, मानो उसके सामने वे प्रकट, साक्षात् और जीवंत हों। उसका दिमाग़ लोहे का एक शिकंजा था या सुनार की एक छोटी-सी चिमटी, जो बारीक-से बारीक और बड़ी से-बड़ी बात को सूक्ष्म रूप से और मज़बूती से पकड़कर सामने रख देती है।”
चूँकि विचारों के साथ उसका ऐसा, जीवन-मरण के प्रश्न जैसा रिश्ता था, वह सामान्य व्यक्ति तो नहीं ही था। विचारों के साथ इस गंभीर रिश्ते के कारण उसका इस ज़माने में मिसफिट रहना भी तय था। जिस ज़माने में हर वस्तु की कीमत उपयोगिता के आधार पर तय की जाती है, वहाँ विचारों के साथ इस तरह के उत्कट रिश्ते की कीमत चुकानी पड़ती है। या रिश्ता आख़िरकार आपको क्या हासिल देगा? दुनियादारी सिखलाती है कि वैसे विचारों से मुँह मोड़ लें या उन्हें कहने भीतर दफन कर दें जो जीने के रास्ते में आ जाते हों! विचारों को जो अपनी रक्त-मज्जा का इस प्रकार अंग बना लें, उनकी ज़िंदगी तकलीफदेह होना तय है। वे खुद को जाहिर करते हैं तो किसी बाहरी वजह से नहीं, इसलिए नहीं कि उसका कोई इस्तेमाल हो जाए। और वे खुद को प्रकट करने से घबराते भी नहीं इस आशंका से कि कहीं उनका कोई नुकसान न हो जाए।
ऐसे लोग जब आपको मिलते हैं वे आपके भीतर दबी विचारशीलता को उकसा देते हैं, दे सकते हैं:
“..वही असामान्य मेरी कल्पना और भावना को उत्तेजित करके मुझे, अपने से बृहत् और व्यापक जो भी है, उसमें डुबो देता, चाहे वह इंटीग्रल कैलक्युलस हो, सुदूर नेब्यूला हो, या कोई ऐतिहासिक काण्ड हो, अथवा कोई दार्शनिक सिद्धांत हो, या कोई विशाल सामाजिक लक्ष्य।”
इस डायरी का लेखक अपने बारे में कहता है कि वह सफल और नामी-गिरामी होने के बावजूद सामान्य व्यक्ति था जबकि उसका मित्र असामान्य:
“सामन्य मैं उसको समझता हूँ जिसमें अपने भीतर के सामान्य के उग्र आदेश का पालन करने का मनोबल न हो। …मेरी व्यावहारिक बुद्धि सामान्य-बुद्धि थी। उसकी कार्य शक्ति, आत्मप्रकटीकरण की एक निर्द्वंद्व शैली। हम दोनों में दो ध्रुवों का भेद था। ज़िंदगी में मैं सफल हुआ, वह असफल।”
12 वर्षों बाद दोनों मित्र मिलते हैं:
” … उसने मुझसे कहा कि उसकी पूरी ज़िंदगी भूल का एक नक्शा है। मैं उसके विषाद को समझ गया। वह ज़िंदगी में छोटी-छोटी सफलताएँ चाहता था। उसके पास तो सिर्फ एक भव्य असफलता है।”
सफलता और असफलता, दो ऐसे प्रत्यय हैं जो मुक्तिबोध के साहित्य में लौट-लौट आते हैं। सफलता को लेकर मुक्तिबोध सदा ही सशंकित रहे। अतिरेक की सीमा तक। हरिशंकर परसाई ने ‘मुक्तिबोध:एक संस्मरण’ में उनके स्वाभाव के इस पक्ष के बारे में लिखा है। जबलपुर में परसाई के एक मित्र हनुमान वर्मा से उनकी भेंट हुई और मुक्तिबोध की उनसे पटरी बैठ गई।
“फिर हनुमान अपने घर ले गया। वहाँ अच्छा-सा सोफा था, डाइनिंग टेबल भी थी। मुक्तिबोध को खटका लग गया। वे शिष्ट व्यवहार करने लगे।”
लौटते समय परसाई को उन्होंने कहा कि हनुमान वर्मा उनकी दुनिया के व्यक्ति नहीं। परसाईजी को समझाना पड़ा कि सोफे और टेबल से उन्हें कोई ग़लतफ़हमी न हो जानी चाहिए। लेकिन मुक्तिबोध की रचनाओं में यह आशंका बार-बार उभर आती है कि सांसारिक सफलता के लिए कहीं आत्मा का गला तो नहीं दबाया जा रहा!
पूँजीवाद से मुक्तिबोध की घृणा का कारण यही था कि वह किसी भी कीमत पर सफलता हासिल करने का दर्शन है। ‘मारो-खाओ-हाथ न आओ’ ही पूँजीवाद का चरित्र है। जो पूँजीवाद के तर्क से सहमत हैं और खुद को उसके मुताबिक़ ढाल लेते हैं वे ज़रूर इस सामूहिक संहार में कोई न कोई भूमिका निभा रहे हैं! या तो वे दूसरों को मारेंगे या खुद अपनी रूह को मार डालेंगे।
इस हत्याकांड के बिना पूँजीवाद का कारोबार नहीं चल सकता। वह हमें आपको उपयोगिता या उत्पादकता के पैमाने से ही नाप सकता है। वह उस लोककथा का ठग है जो आपको प्रलोभन तो देता है कि आराम के लिए वह चारपाई दे रहा है। लेकिन उसकी शर्त उस चारपाई में आपका फिट होना है। अगर आपके हाथ, पाँव बाहर निकले तो इस आराम के बदले उन्हें तराश देने का अधिकार वह आपसे ले लेता है। मुक्तिबोध के अनुसार जो जितना ही इत्मीनान में दीखता है, वह उतना ही भग्नदेह या भग्न-आत्मा है।
यह काट-छाँट कोई और नहीं करता, कोई और हमें क़त्ल नहीं करता। लेकिन हम खुद अपनी हत्या करते जाते हैं। क्योंकि हम समझदार हैं और हमें मालूम है कि हमारा फालतूपन हमें संकट में डाल सकता है।
‘गलत फिलॉसफी’ शीर्षक कविता की आरंभिक पंक्तियाँ हैं,
“हाथ काट, जीभ काट, पैर काट
मैंने समझदारी की।
….
मैंने समझदारी की।
घबराए हुए तब तेज-धार छुरी से
ज़िंदगी के छोटे-छोटे सुकुमार
मेमनों की तुरत जिबह की।
रँग गए, तर हुए मेरे हाथ
अपने ही खून से!!”
ज़िंदगी के इन नन्हें मेमनों को क्यों मार डालना पड़ता है?
“साहब का बाग़ वह सामने
पड़ोस का ज़मींदारी खेत वह, क्या करूँ चर आते रहे ये मेमने।
रोज़-रोज़ बखेड़े व लड़ाइयाँ टाल दीं।”
यह बताने की ज़रूरत नहीं कि ये मेमने कौन हैं, किनका खेत वे चर जाते हैं। और क्यों उन्हें मार डालने में ही समझदारी है!
पूँजीवाद में जो सफल दीखता है, वह वास्तव में घायल है। उसने अपना कुछ न कुछ ज़रूर गँवाया है। लेकिन मज़ा यह है कि उसे इसका ख्याल भी नहीं रह जाता। पूँजीवाद आत्मविस्मृति के बिना जीवित नहीं रह सकता। क्या पूँजीवादी कामयाबी के लिए यह बलिदान किया जाना चाहिए? मुक्तिबोध की एक कविता है ‘कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं।
“कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं –
‘सफल जीवन बिताने में हुए असमर्थ तुम!
तरक़्क़ी के गोल-गोल
घुमावदार चक्करदार
ऊपर बढ़ते हुए ज़ीने पर चढ़ने की
चढ़ते ही जाने की
उन्नति के बारे में
तुम्हारी ही ज़हरीली
उपेक्षा के कारण, निरर्थक तुम, व्यर्थ तुम!!‘
तरक्की की राह कोई सीधी नहीं है। उसकी सीढ़ियाँ गोल-गोल, चक्करदार हैं। और इसलिए जो ऊपरी मंजिल पर पहुँच जाता है, वह यह दावा कर सकता है कि वह अपने बलबूते ही तो यहाँ पहुँचा है। इस सफलता में उसका पसीना बहा है। ‘ज़िंदगी का रास्ता’ कविता इस रास्ते के बारे में कहती है:
“आज के समाज में
दूषित उपलब्धि तक पहुँचने के लिए भी
रास्ते टेढ़े-मेढ़े हैं।”
यह चढ़ते जाना क्या है?
“..यह चढ़ते जाना है गोल-गोल
घुमावदार-चक्करदार
जंग लगी पुराने लोहे की
ऊँची-ऊँची, सिकुड़ी-सिकुड़ी, छोटी-छोटी खतरनाक
बल खाती सीढ़ियों पर
(व्यर्थ होती) आर्थिक ज़िंदगी आज की।”
‘ज़िंदगी का रास्ता’ में दिन भर काम से लौटा रामू व्यर्थता के बोझ से दबा सोचता है कि क्या यह बेहतर न था कि वह भी ये सीढ़ियाँ चढ़ने की कोशिश करता?
“उकताकर बहुत बार
आधे-भूखे उदर, हृदय, आत्मा के इस
प्रवंचित जीवन से, सोच बैठता रामू कि किसी तरह
सीढ़ी-दर-सीढ़ी
निज व्यक्तिगत आर्थिक क्षमता की हवेली पर
चढ़ जाना चाहिए
कि जिससे छुटकारा हो दैनिक यंत्रणाओं से।”
मुक्तिबोध का ध्यान उस मध्य वित्त समाज पर है जो इस पूँजीवाद का औचित्य निरूपण करता है। रामू सीढ़ी चढ़ जाए, दूसरों को धकियाते, कुचलते, खुद को सिकोड़ते लकिन वह एक ऐसे कमरे में ही पहुँच पाएगा जिसमें टूटी टाँग वाली कॉट है और उसकी गद्दी को चूहों ने कुतर डाला है:
“माना कि कमरा कुछ बड़ा है
खिड़की है कि जिसमें दूर का
क्षितिज-दृश्य दीखता है, अब भी..”
लेकिन सफलता का यह कमरा है कैसा?
“किन्तु वह कमरा तो है भुतहा
कइयों ने किए वहाँ कामाचार, व्यभिचार कइयों की कदाचित्
भीषणतम हत्याएँ हुई होंगी वहाँ पर।”
‘ कहने दो उन्हें..’ कविता में सफलता की चाँदनी जीवन के जिस प्रसार पर फैली है, वह ऐसा दीखता है
“कटी-कमर भीतों के पास खड़े ढेरों और
ढूहों में खड़े हुए खंभों के खँडहर में
बियाबान फैली है पूनों की चाँदनी,
आँगनों के पुराने-धुराने एक पेड़ पर।
अजीब-सी होती है, चारों ओर
वीरान-वीरान महक सुनसानों की
पूनों की चाँदनी की धूलि की धुंध में।”
जिबह किए गए मेमने, व्यभिचार की स्मृतियाँ और कटी कमर भीतें, खम्भों के खँडहर!
सफलता की, सिर्फ सफलता की एक आँख से जो दुनिया को निहार रही है, वह पूनों की चाँदनी सही नहीं है। सफलता का यह प्रसार भी दम घोंट देनेवाला है। क्योंकि
“‘उन्नति‘ के क्षेत्रों में, ‘प्रतिष्ठा के क्षेत्रों में
मानव की छाती की, आत्मा की, प्राणों की
सोंधी गंध
कहीं नहीं, कहीं नहीं।”
मनुष्यहीन प्रसार या मनुष्याभास के छल के बीच खुद को भुलावा देना क्या ठीक है? क्या इस पूँजीवादी समाज में किसी भी प्रकार की ईमानदार मानवता की, जो निःस्वार्थ पारस्परिकता का ही दूसरा नाम है, कल्पना भी की जा सकती है? मैं अगर आपके लिए उपयोगी नहीं तो मेरे आपके रिश्ते का कोई कारण नहीं। स्वार्थ ही जीवन सिद्धांत है।
‘कहने दो… ‘ की ये पंक्तियाँ:
“पशुओं के राज्य में जो बियावान जंगल है
उसमें खड़ा है घोर स्वार्थ का प्रभीमकाय
बरगद एक विकराल।”
यह बरगद अकेला नहीं है,
“उसके विद्रूप शत
शाखा-व्यूहों निहित
पत्तों के घनीभूत जाले हैं, जाले हैं।
तले में अंधेरा है, अंधेरा है घनघोर…
वृक्ष के तने से चिपट
बैठा है, खड़ा है कोई
पिशाच एक ज़बर्दस्त मरी हुई आत्मा का,
वह तो रखवाला है
घुग्घू के, सियारों के, कुत्तों के स्वार्थों का।”
आज की भाषा-संवेदना में हम पशु, घुग्घू, कुत्ते या सियार को निश्चय की अपनी प्रतीक-योजना के लिए इस्तेमाल नहीं करेंगे। लेकिन मुक्तिबोध स्वार्थ और सफलता के बीच के संबंध की जिस अनैतिक भयावहता की तरफ इशारा कर रहे हैं, उसे ग्रहण करने में कोई उलझन नहीं:
“और उस जंगल में, बरगद के महाभीम
भयानक शरीर पर खिली हुई फैली है पूनों की चाँदनी
सफलता की, भद्रता की,
श्रेय-प्रेय-सत्यं-शिवं-संस्कृति की
खिलखिलाती चाँदनी।”
सफलता हासिल करने के साथ एक अपराध बोध बना रहता है। ‘गलत फिलॉसफी’ का यह अंश:
“चेहरे से चिपक गया एकाएक रँगा हुआ पंजा जब
आईने में दृश्यमान खूनी का खून-रँगा चेहरा तब
तुरत डराने लगा
लगा भरमाने मुझे।”
क्या सफलता के लिए खुद अपना खून किया जा सकता है? क्या वह हमारे लिए है, होनी चाहिए?
“अगर कहीं सचमुच तुम
पहुँच ही वहाँ गए
तो घुग्घू बन जाओगे।
आदमी कभी भी फिर
कहीं भी न मिलेगा तुम्हें।
पशुओं के राज्य में
जो पूनों की चाँदनी है
नहीं वह तुम्हारे लिए
नहीं वह हमारे लिए।”
सफलता के दर्शन का ज़ोर इतना है कि जो इस तर्क को नहीं मनाता उसे शक की निगाह से देखा जाता है। कामयाब लोगों की जमात में शामिल होने का प्रलोभन दिया जाता है:
“सामाजिक महत्त्व की
गिलौरियाँ खाते हुए,
असत्य की कुर्सी पर
आराम से बैठे हुए,
मनुष्य की त्वचाओं का पहने हुए ओवरकोट,
बंदरों व रीछों के सामने
नई-नई अदाओं से नाच कर
झुठाई की तालियाँ देने से, लेने से,
सफलता के ताले ये खुलते हैं,
बशर्ते कि इच्छा हो
सफलता की,
महत्वाकांक्षा हो
अपने भी बरामदे
में थोड़ा सा फर्नीचर,
विलायती चमकदार
रखने की इच्छा हो
तो थोड़ी सी सचाई में
बहुत-सी झुठाई घोल
सांस्कृतिक अदा से, अंदाज़ से
अगर बात कर सको –
भले ही दिमाग़ में
ख़्यालों के मरे हुए चूहे ही
क्यों न हों प्लेग के,
लेकिन, अगर कर सको
ऐसी जमी हुई ज़बान-दराजी और
सचाई का अंग-भंग
करते हुए झूठ का
बारीक सूत कात सको
तो गतिरोध और कंठरोध
मार्गरोध कभी भी न होगा फिर
कटवा चुके हैं हम पूँछ-सिर
तो तुम ही यों
हमसे दूर बाहर क्यों जाते हो?”
सफलता का यह फलसफा लेकिन हर जगह इंसान को खत्म नहीं कर पाता। ऐसे लोग हैं जो इसे नामंजूर कर देते हैं। उनकी ठसक देखिए:
“”जाकर उन्हें कह दो कि सफलता के जंग-खाए
तालों और कुंजियों
की दुकान है कबाड़ी की।
इतनी कहाँ फुरसत हमें –
वक़्त नहीं मिलता है
कि दुकान पर जा सकें।
अहंकार समझो या सुपीरियारिटी कांपलेक्स
अथवा कुछ ऐसा ही
चाहो तो मान लो,
लेकिन सच है यह
जीवन की तथाकथित
सफलता को पाने की
हमको फुरसत नहीं,
खाली नहीं हैं हम लोग!!
बहुत बिज़ी हैं हम।”
किस चीज़ में बिजी हैं ये लोग और किस बल पर? आखिर है क्या उनके पास जिससे वे सफलता का सस्ता सौदा नहीं करना चाहते?
“तुम्हारे पास, हमारे पास,
सिर्फ़ एक चीज़ है –
ईमान का डंडा है,
बुद्धि का बल्लम है,
अभय की गेती है
हृदय की तगारी है – तसला है
नए-नए बनाने के लिए भवन
आत्मा के,
मनुष्य के,
हृदय की तगारी में ढोते हैं हमीं लोग
जीवन की गीली और
महकती हुई मिट्टी को।
जीवन-मैदानों में
लक्ष्य के शिखरों पर
नए किले बनाने में
व्यस्त हैं हमीं लोग
हमारा समाज यह जुटा ही रहता है।”
यह ठसक क्यों न हो आखिर? एक तरफ है सफलता के लिए स्वार्थ की तलवार, तो दूसरी तरफ ईमान का डंडा, बुद्धि का बल्लम, अभय की गेती और हृदय की तगारी!
पूँजीवाद में जो सफल दीखता है, वह वास्तव में घायल है। उसने अपना कुछ न कुछ ज़रूर गँवाया है। लेकिन मज़ा यह है कि उसे इसका ख्याल भी नहीं रह जाता। पूँजीवाद आत्मविस्मृति के बिना जीवित नहीं रह सकता। क्या पूँजीवादी कामयाबी के लिए यह बलिदान किया जाना चाहिए?
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