मुक्तिबोध प्रगतिवादी नहीं रह गए। मार्क्सवादी बने रहे। दोनों में विरोध कुछ लोगों को दीख सकता है। लेकिन मुक्तिबोध के अनुसार मार्क्सवादी होने के कारण ही वे प्रगतिवाद के दायरे से आगे निकल सके। प्रगतिवाद एक समय के बाद एक आग्रह जैसा बन कर रह गया था। एक मायने में दुराग्रह। कम से कम मुक्तिबोध को ऐसा ही प्रतीत होता था। जबकि मार्क्सवाद उनके लिए विज्ञान था। विज्ञान अपने व्यापकतम अर्थ में। विज्ञान जो विज्ञानवादी जड़ता से ग्रस्त नहीं है। वह जो प्रश्न, प्रयोग और परीक्षा पर टिका हुआ है। मार्क्सवाद को शेष विचार-प्रणालियों या दर्शनों से श्रेष्ठ साबित करने के लिए भी उसे विज्ञान कहा जाता है। मुक्तिबोध में भी यह प्रवृत्ति देखी जाती है। फिर भी रचनाकार होने के कारण उनके लिए मार्क्सवाद को एक मूल्य व्यवस्था के रूप में ही श्रेय है। बुद्ध की तरह ही मार्क्स यह कहते जान पड़ते हैं कि दुःख है, दुःख का कारण है और उसका निवारण भी है।
‘समीक्षा की समस्या’ नामक निबंध में मुक्तिबोध ‘ईमानदार प्रखर वैज्ञानिकता’ को मानव धर्म कहते हैं:
“उसमें एक साथ आत्म-निरपेक्षता और ग्रहण (?) आत्मसंबंध, लक्ष्योन्मुखता और विस्तृत अनेकपक्षीय तथ्य संवेदना, तथ्य ग्रहण-क्षमता उपस्थित है। अपने अज्ञान का स्वीकार और ज्ञान का अग्र-वेग भी उसमें है।”
तो वह बहिष्कार, अस्वीकार से अधिक आमंत्रण और स्वीकार है:
“ज्ञान के कण जहाँ भी मिलें, जहाँ भी प्राप्त हों, उन्हें तुरंत अपने आकुल संवेदनों द्वारा उठाकर कृतज्ञ होना, और मुग्ध भाव से उन्हें स्वीकार करना, क्या आवश्यक नहीं है? कोई भी मनुष्य , चाहे कितना ही प्रभावशाली क्यों न हो, सारे ज्ञान का … अधिकारी नहीं है क्योंकि ज्ञान के प्रकाश-वृत्त के आस-पास हमेशा अन्धकार घिरा रहता है।”
यह बात क्या मार्क्स और मार्क्सवाद पर लागू नहीं होती?
मार्क्सवाद इस कारण मुक्तिबोध को आकर्षित करता है कि वह पूँजीवाद की सुसंगत आलोचना है। अब हम यह जानते हैं कि समाज में अगर निर्वैयक्तिकता है, भावशून्यता है, अगर हर चीज़ अजनबी जान पड़ती है और मैं कुछ को अजनबी जान पड़ता हूँ तो इसका कारण मैं नहीं हूँ। सच्चे मानवीय सम्बन्ध क्यों नहीं स्थापित हो पाते, अब मुझे पता है।
पूँजीवाद कविता का दुश्मन है। इसलिए कि वह मनुष्य के सबसे संकीर्ण भाव को उकसाता है। यह वह प्रतिस्पर्द्धा, प्रतियोगिता के नाम पर करता है। वह समाज को असंख्य मानवीय इकाइयों में खंडित कर देता है जो एक दूसरे से मात्र उपयोगिता के कारण जुड़ते हैं लेकिन वास्तव में वे मात्र अपने अहं की पुष्टि के लिए ही ऐसा करते हैं। मेरा भाग्य आपसे जुड़ा है लेकिन वह आपको शोषित करने के लिए मुझे उकसाता है। मनुष्य में जो महान् संभावना है विस्तार की, यह उसे मात्र वस्तुओं के स्वामित्व के अर्थ में ही परिभाषित करता है। जो बात बाहर समाज में परात्मकता को बाधित करती है, वह अपने भीतर के उन भावों को मार डालती है जो हानि-लाभ के ठंडे गणित को सीखने नहीं देते। भावुक होना पूँजीवाद में सबसे बड़ा अवगुण है। मनुष्य अपनी छाया रह जाता है और कविता भी।
“कविता को समस्त भावावेशों से छिन्न कर, इस विशाल परस्पर द्वंदमय महान् गुणों से युक्त वैविध्यपूर्ण जीवन-जगत् के सार्थक स्पंदनों से बहुत दूर हटाकर, यह युग [पूँजीवाद] उसे (कविता को) निष्प्राण अथवा क्षीण छाया समान बना देता है।”
कवि या कलाकार के पास कोई विशाल स्वप्न नहीं रह जाता:
“… पूँजीवाद कवियों को वह विश्व-दृष्टि और विश्व-स्वप्न रखने ही नहीं देता, जो कि दृष्टि या जो स्वप्न जीवन-जगत् की व्याख्या और उसकी विकासमान प्रक्रिया के आभ्यंतरीकरण से ही उत्पन्न होता है। कवि भले ही अपनी आस्था के तत्त्व गिनाए, सच तो यह है कि वह किसी वायवीय मानवता में ही वायवीय आस्था रखता है।”
दृष्टि और स्वप्न के साथ आस्था पर ध्यान जाता है। प्रगतिवाद को अपने लिए संकुचित पाने के बाद भी मुक्तिबोध मानते हैं कि
“छायावाद और प्रगतिवाद के बाद, कोई ऐसी व्यापक मानव-आस्था मैदान में नहीं आई जो जीवन को विद्युन्मय कर दे।”
‘वस्तु और रूप : 3’ में मुक्तिबोध की उलझन दिखलाई पड़ती है। एक तरफ तो वे यह कहते हैं कि उनकी कविता प्रगतिवाद के ढाँचे को अपना नहीं सकी लेकिन साथ ही यह भी कहते हैं कि उन्होंने
“अपने छोटे-से क्षेत्र में, छोटे-से गाँव में, शहर या कस्बे में, भरसक कोशिश की कि उसका फैलाव हो। वह खूब फैला। … मैंने व्यक्तिशः इतर जनों में उसका प्रसार किया। आज भी प्रगतिवादी कविताएँ हमारे निम्न-मध्यवर्ग में बहुत लोकप्रिय हैं।”
क्या वे खुद को सफाई दे रहे हैं कि भले ही उनकी कविता प्रगतिवादी ढाँचे को नहीं अपना सकी, उन्होंने उसके प्रति अपना कर्तव्य पूरा किया। लोकप्रियता से उनका आशय क्या है और क्या वह यथार्थ से अधिक उनकी इच्छा न मानी जाए?
मुक्तिबोध की कविताओं पर आरोप था और आज भी है कि वे लोगों को समझ में नहीं आतीं। इसलिए उनके लोकप्रिय होने का सवाल ही नहीं। मुक्तिबोध समझ में न आने की बात से सहमत नहीं। पूँजीवाद का कविता से शत्रुतापूर्ण रिश्ता इस कारण भी है कि वह लोगों में नासमझी भी भरता है। जो समझ न आए, उसे किनारे कर दो। उसपर भावनात्मक श्रम न करो।
दिक्कत यह हुई कि मुक्तिबोध जिस व्यापक मानव-आस्था और विशाल स्वप्न के अभाव के लिए पूँजीवाद को दोष दे रहे थे, और उसका कारण था जीते जागते इंसान का, उससे जुड़ी हर चीज़ का, भावनाओं का भी वस्तूकरण, उस अभाव का खतरा उस ‘विज्ञान’ या दर्शन में भी था जो मनुष्य को यह विशालता प्रदान करने का भरोसा दिला रहा था। व्यापकता की जगह संकुचन और एकदिशात्मकता का ख़तरा वहाँ भी था।
मुक्तिबोध ने इसी लेख में कहा,
“मनुष्य को बंद संदूक, क्लोज़्ड सिस्टम नहीं मान सकते।“
इस मनुष्य को कैसे पहचाना जाए? वे उनसे सहमत नहीं जो कहते हैं कि
“दीठ से टोहकर नहीं, मन के उन्मेष से उसे जानो। किन्तु हमारा ख्याल है कि दीठ से टोहना भी आवश्यक है।”
यह दीठ क्या है और मन क्या है? क्या मन को विचारधारा नहीं कह सकते? वह दीठ को बाधित करती है या प्रेरित भी। वह जो जैसा है, उसे वैसा देखने से हमें रोक भी देती है। जो मार्क्सवाद को एक आलोचात्मक प्रणाली या मूल्य व्यवस्था की जगह विचारधारा के रूप में प्रस्तावित कर रहे थे उन्होंने भी मनुष्य को एक बंद संदूक बना दिया था जिसकी चाभी उनके पास थी। मार्क्सवाद को व्यावहारिक विज्ञान की तरह ग्रहण करने में भी खतरा था। वह न सिर्फ हमारे लिए यथार्थ को परिभाषित कर रहा था, बल्कि उससे हम किस प्रकार रिश्ता बनाएँ, यह भी क्रमवार बता रहा था। उससे इधर-उधर जाने पर संशोधनवाद का इल्जाम सर पर लगने का भय था। तय कौन करेगा कि क्या दीख रहा है और क्या देखना है! क्या दृष्टि ही सेंसर है? मुक्तिबोध अंतर्निषेधों की खूब चर्चा करते हैं। ऐसे निषेध जो मेरे भीतर हैं और मेरे जाने बिना ही मेरे देखने और महसूस करने के तरीके को तय कर रहे हैं।
कार्ल मार्क्स ने सेंसरशिप पर अपने निबंध में लिखा था कि यह अस्वीकार्य है तो मात्र इसलिए नहीं कि मुझे यह बतलाया जाता है कि मैं क्या लिखूँ बल्कि यह भी कि उसे कैसे लिखूँ। यानी मुझसे मेरी शैली छीन ली जाती है और मुझ पर एक परायी शैली आरोपित कर दी जाती है। इस प्रकार मैं रूपविहीन हो जाता हूँ।
यह मनुष्य की हत्या है क्योंकि मनुष्य है क्या अगर वह रूप नहीं या भंगिमा नहीं जोकि सिर्फ वही है। इंसान का अंदाज़ उससे छीन लो और वह मर जाता है। अगर मनुष्य क्लोज़्ड सिस्टम नहीं तो वह किसी का प्रतिनिधि मात्र भी तो नहीं। वह चाहे वर्ग हो या राष्ट्र हो!
यह बहस अब पुरानी जान पड़ती है। और कई मायनों में अनावश्यक भी। मार्क्सवाद में काफ़ी इजाफा हुआ है। संशोधन अब उतनी बुरी बात नहीं मानी जाती। लेकिन यह बहस मुक्तिबोध के लिए, उनकी पीढ़ी के लिए एक तरह से जीवन-मरण का सवाल थी। इस बहस को मुड़कर देखना यह समझने के लिए आवश्यक है कि आज की हमारी ‘उदारता’ अगर स्वाभाविक जान पड़ती है तो उसके पीछे मुक्तिबोध ने और उनके समानधर्माओं ने काफी खून बहाया है। उनका अपनों से भी जो संघर्ष हुआ, उसकी कीमत है।
असल प्रश्न वस्तूकरण और पार्थक्य से संघर्ष का था। यानी सच्ची स्वाधीनता का। व्यक्ति-स्वातंत्र्य या मनुष्य की मुक्ति का अर्थ यही है। वह अपना निर्णय खुद ले सके, संघर्ष इसका था। मुक्तिबोध ने ठीक ही लिखा कि पूँजीवाद आपको भरम देता है कि आप अपने पुरुषार्थ के बल पर कुछ भी हासिल कर सकते हैं। यानी आप स्वतंत्र हैं। त्रासदी यह है कि जब आप अपना पुरुषार्थ खेलने जाते हैं तो आपको ‘मानव-विकृति की कारक शक्तियों’ के हाथ खेल जाना जाना पड़ता है। आपका पुरुषार्थ किसी और का मुँहताज है। पराक्रम और पुरुषार्थ एक अर्थ में क्रूरता और दूसरे में कायरता है।
इसके अलावा यह बात तो यही कि किसी एक व्यक्ति की स्वतंत्रता तब तक बेमानी है जब तक वह सबकी अवस्था नहीं बन जाती। जब तक वह सामान्य सामाजिक अवस्था नहीं बनती, वह सीमित ही है।
स्वतंत्रता का प्रश्न ही प्राथमिक और अंतिम प्रश्न है। जिसे गाँधी ने स्वराज कहा। स्व न तो पूँजी के हवाले किया जा सकता है, न समुदाय के, न राज्य के, न राष्ट्र के। इस प्रकार स्व की नियति है चिरंतन प्रतिरोध की अवस्था में रहना। एक असमाप्त संघर्ष। स्वतंत्रता के इस प्रश्न को भारत में गाँधी के अलावा शायद किसी और ने इतनी तीव्रता से न महसूस किया, न उसे अपना सबसे बड़ा प्रश्न माना। स्व, अहिंसा, सत्य सब एक दूसरे से जुड़े हैं।
मुक्तिबोध एक दिलचस्प बात यह कहते हैं कि व्यक्ति स्वातंत्र्य का भाव भारत में पैदा नहीं हुआ:
“….इस स्वतंत्रता के, व्यक्ति स्वातंत्र्य के सिद्धांत के लिए रक्ताप्लावित संघर्ष हुए। …अमरीका, फ्रांस और ब्रिटेन की जनता ने भारतीय जन-मन को व्यक्ति-स्वातंत्र्य का यह भाव दिया। आज हमारे संविधान में व्यक्ति-स्वातंत्र्य को जो अपने अंतर्गत किया गया है, उसपर तथा जनता में फैले हुए भाव पर, विश्व की जनता के खून की मुहर लगी हुई है।”
मुक्तिबोध के मुताबिक़ भारतीयों को यह एक प्रकार से सस्ते मिल गया है। हमने इसके लिए खून नहीं बहाया। इसलिए इसका मूल्य भी हम कम ही समझते हैं।
इस व्यक्ति स्वातंत्र्य का आशय यही हो सकता है कि सबको मानवोचित जीवन प्राप्त हो। व्यक्ति स्वातंत्र्य का लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए। व्यक्ति सापेक्षिक प्राणी है, किसी की अपेक्षा ही उसे अर्थ मिलता है, यह समझना भी ज़रूरी है। इसलिए यह संघर्ष सतत आलोचना और समीक्षा का संघर्ष भी। जो है उसे समीक्षात्मक और आलोचनात्मक नेत्रों से देखते रहना।
लेकिन आलोचना का उद्देश्य भी जोड़ना ही है। जो रिक्ति है, उसे भरना है। उसका उद्देश्य विच्छिन्नता नहीं हो सकता। सहानुभूति विकसित करना उसका उद्देश्य है। मार्क्सवाद पूँजीवाद की आलोचना ही है। लेकिन वह मनुष्य की तलाश भी तो है जो पूँजीवादी समाज में खो गया है। सहानुभूति की जगह आलोचना में अगर विलगाव का भाव ही प्रमुख हो तो वह हानि ही करेगी।
इसलिए मुक्तिबोध भिन्न भाव, भिन्न मत के प्रति आदर और सहानुभूति पर बल देते हैं। जो भिन्न है, उसे प्रतिपक्षी या विपक्षी क्यों मानें? वह तो एक अन्य दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रहा है। इस प्रकार वह मुझे संपन्न कर रहा है। मुक्तिबोध यह साहित्य के संदर्भ में लिखते हैं (लेकिन अभिव्यक्ति का संघर्ष क्या मात्र साहित्य का मामला है?):
“समीक्षा एक प्रेम दर्शन है। ऐसा प्रेम दर्शन जो आवश्यकता पड़ने पर अतिशय कठोर होता है, किन्तु सामान्यतः उदार और कोमल होता है।”
एक दूसरी जगह वे लिखे हैं कि आलोचना या समीक्षा में मनुष्य के प्रति भारी श्रद्धा होती है, उसकी संभावनाओं के प्रति। आलोचक की दिलचस्पी जीवन में है या नहीं? क्या अपने सिद्धांत और शास्त्र से आसक्त है या जीवन के प्रति उसमें अनुराग है? क्या वह जीवन में भीगने को, अपना विस्तार करने को तैयार है?