मुक्तिबोध श्रृंखला:31
“वीरान मैदान, अँधेरी रात, खोया हुआ रास्ता, हाथ में एक पीली मद्धिम लालटेन। यह लालटेन समूचे पथ को पहले से उद्घाटित करने में असमर्थ है। केवल थोड़ी-सी जगह पर ही उसका प्रकाश है। ज्यों-ज्यों वह पग बढ़ाता जाएगा, थोड़ा-थोड़ा उद्घाटन होता जाएगा।”
मुक्तिबोध रचना की प्रक्रिया के लिए एक रूपक प्रस्तुत कर रहे हैं। अँधेरी रात, वीरान मैदान और एक खोया हुआ रास्ता। ‘खोया हुआ’ का आशय क्या है? यह वह रास्ता है जो जाना हुआ था और खो गया? यह प्रश्न ‘अँधेरे में’ कविता की खोई हुई ‘परम अनिवार आत्म संभवा अभिव्यक्ति’ के संदर्भ में उठाया जाता रहा है। क्या वह थी और खो गई या वह कभी मिली ही नहीं थी? ‘अँधेरे में’ की आख़िरी पंक्तियाँ हैं,
“वह मेरे पास कभी बैठा ही नहीं था,
वह मेरे पास कभी आया ही नहीं था,
तिलिस्मी खोह में देखा था एक बार,
आख़िरी बार ही।”
और आगे,
“परम अभिव्यक्ति
अविरत घूमती है जग में
पता नहीं जाने कहाँ, जाने कहाँ
वह है।”
इसलिए हर गली, हर रास्ता देखना है, हर चेहरे पर गौर करना है, हर चरित्र में झाँकना है। मालूम नहीं वह अभिव्यक्ति कहाँ हो, कहाँ मिल जाए!
‘काव्य की रचना-प्रक्रिया-1’ में रचनाकार के सामने उसके एक-एक कदम बढ़ाने पर थोड़ा-थोड़ा रास्ता उजागर होता जाता है। क्या उसे पहले से आगे क्या है, उसका पता है?
“चलनेवाला पहले से नहीं जानता कि क्या उद्घाटित होगा। उसे अपनी पीली मद्धिम लालटेन का ही सहारा है। इस पथ पर चलने का अर्थ ही पथ का उद्घाटन होना है, और वह भी धीरे-धीरे, क्रमशः।”
मुक्तिबोध यहीं नहीं रुकते,
“वह यह भी नहीं बता सकता कि रास्ता किस ओर घूमेगा या उसे किन घटनाओं या वास्तविकताओं का सामना करना पड़ेगा। कवि के लिए इस पथ पर आगे बढ़ते जाने का काम महत्त्वपूर्ण है। वह उसका साहस है। वह उसकी खोज है। बहुतेरे लोग… इस तथ्य को भूल जाते हैं, क्योंकि वे उस पथ पर चलना नहीं चाहते…।”
मुक्तिबोध यह कविता या रचना के प्रसंग में लिख रहे हैं कि रचना के मार्ग का नक्शा रचना के पहले नहीं बनाया जा सकता। रचनाकार का सहारा मात्र एक लालटेन है जिसके उजाले के घेरे में जितना रास्ता आता है, उसपर उसे बढ़ते जाना है। यानी एक-एक कदम।
इस रूपक का सामान्यीकरण करने का लोभ होता है। कविता से बाहर जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी। कम से कम एक ऐसा यात्री है जो अपने लक्ष्य के बारे में नहीं दावे से कुछ नहीं कहता। यह नहीं कि वह पूरा रास्ता जानता है। उस चिर यात्री का नाम है मोहनदास करमचंद गाँधी। जीवन के आख़िरी चरण में जब गाँधी एक झंझावात से गुजर रहे हैं, उनकी सहयोगी मीरा बेन उनसे आगे का कार्यक्रम जानना चाहती हैं। गाँधी जवाब में कहते हैं,
“गोरैया को देखो।”
फिर लिखते हैं,
“मेरे लिए एक वक्त में एक कदम।”
एक दूसरे सन्दर्भ में वे यह कहते हैं कि मेरे लिए एक ही कदम काफी है। सुदूर भविष्य में झाँकने और उसका अनुमान करने में उनकी रुचि नहीं।
क्या यह गाँधी की छद्म विनम्रता है ? या हम यह मानें जैसा मुक्तिबोध भी एकाधिक स्थलों पर कहते हैं कि गाँधी के पास कोई वैज्ञानिक दृष्टि नहीं है, इसलिए साम्यवादियों की तरह उनके सामने पथ स्पष्ट नहीं है? पथ का अंतिम बिंदु भी मालूम होना चाहिए और पूरा रास्ता भी? लेकिन फिर मुक्तिबोध कहते हैं कि पथ अजाना है, उसपर क्या मिलेगा, वह भी पहले से नहीं जाना हुआ है। इसलिए पथ पर चलना हमेशा एक अनजान सफर पर निकलने की तरह ही होना चाहिए। उसमें काफी कुछ अप्रत्याशित मिलेगा।
गाँधी को लेकर यह उलझन उनके मित्रों में भी थी जो खुद को वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न मानते थे। गाँधी तो कई बार लगता है, मंजिल ही भूल बैठे हैं। रुक गए हैं या रास्ते पर किसी नितांत अप्रासंगिक वस्तु ने उनको खींच लिया है, अपने में उलझा लिया है।
एक और प्रसंग मंजिल, रास्ते और चलने की बात होने पर प्रोफ़ेसर यशपाल से एक बातचीत का है। उन्होंने कहा कि हाँ! मंजिल मालूम होनी चाहिए लेकिन रास्ते का लुत्फ़ लेना भी ज़रूरी है। वह चलना भी क्या जिसमें आप ज़रा रुके नहीं, आपकी निगाह किसी नज़ारे में उलझी नहीं और आपने मुख्य रास्ता छोड़कर रास्ते के किनारे मैदान में किसी दरख़्त को निहारा नहीं या किसी झरने या सोते में पाँव नहीं भिगोए।
ये दोनों तरीके जीवन के हर प्रसंग को, अगर हम उसे यात्रा मानें, मूल्यवान मानते हैं। कोई अंतिम बिंदु है जिसपर निगाह टिकी रहनी चाहिए और उसके लिए रास्ते के अनुभवों को नज़रअंदाज किया जा सकता है, यह रचनाकार का तरीका नहीं होना चाहिए। लेकिन क्या सिर्फ रचनाकार का?
पहले प्रसंग में मुक्तिबोध जो कह रहे हैं और जो गाँधी कहते हैं और यशपाल भी, वह मुझे जीवन के प्रति औपन्यासिक रवैया जान पड़ता है। उपन्यास जिसमें जीवन के विस्तार और उसके अप्रत्याशित घुमावों को लेकर धीरज ही नहीं, उत्सुकता भी आवश्यक है।
मुक्तिबोध ‘समीक्षा की समस्याएँ’ निबंध में कलाकार के संघर्ष को दोतरफा मानते हैं:
“उसका दूसरा संघर्ष अपने वास्तविक जीवन में अधिकाधिक मानव-अनुभव तथा अधिकाधिक वैविध्य के दर्शन प्राप्त करने से है, अपने को अधिकाधिक संवेदनक्षम, जागरूक और विस्तृत करने से है …”
इस खुलेपन को ‘आत्मग्रस्त सैद्धांतिकता और यांत्रिक भाव-पद्धति’ बाधित करती है। वह मनुष्य के जीवन की बहुमुखता के प्रति ही नहीं, उसकी अप्रत्याशितता के प्रति भी अधीर हो उठती है। ‘साहित्य और जिज्ञासा’ नामक निबंध में मुक्तिबोध ‘सत्य-सामान्यीकरण’ के खतरे से आगाह करते हैं। सामान्यीकरण आवश्यक है लेकिन वह प्रतिनिधि टाइप के निर्माण की हड़बड़ी भी कर सकता है। उसके साथ अगर ‘यथार्थवादी खोज’ की प्रवृत्ति हो जीवन को हम उन समान्यीकरणों के खाँचों में कैद करने के हिंसक लोभ से लड़ पाएँगे।
यथार्थवादी खोज के लिए बालसुलभ जिज्ञासा का साहस चाहिए। जिज्ञासा जीवन के प्रति उत्सुकता और स्वागत भाव एक दूसरे से जुड़े हैं। ‘साहित्य और जिज्ञासा’ निबंध में मुक्तिबोध लिखते हैं,
“‘देखने की इच्छा’, जानने की इच्छा, ‘रहस्य’ की उलझी हुई बातों को सुलझाने की इच्छा कितनी मनोहर और दुर्निवार हो सकती है, यह उसी से जाना जा सकता है जो जिज्ञासा का शिकार है। जिज्ञासा …अपने इच्छित विश्वासों को, अपनी इच्छित आशाओं को उसपर (वस्तु या जीवन पर) लादना नहीं चाहती। वह किसी दुर्भावना से पीड़ित नहीं है, किसी आग्रह और दुराग्रह से ग्रस्त नहीं है, अनुमान और अंदाज़ भटककर रास्ता पा जाने के लिए तैयार हैं…”
मुक्तिबोध को दुख इस बात का है कि ‘जिज्ञासा पर आग्रहों और दुराग्रहों के पुंज’ लद जाते हैं। तब
“हमें एक प्रयासहीन थोथी जिज्ञासा के दर्शन होते हैं, इच्छित विश्वासग्रस्त, दुर्भावनाग्रस्त जिज्ञासा… (जो) मन के विभिन्न स्वार्थ-लक्ष्यों की वासना का आहार बन जाती है।”
‘प्रयासहीन थोथी जिज्ञासा ‘ जैसा पद भी वही मुक्तिबोध ही गढ़ सकते थे जो ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ और ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ जैसे पद ही नहीं अवधारणा भी गढ़ रहे थे। जिस ज्ञान में संवेदना नहीं वह ज्ञान माना जाए या नहीं, यह एक बात है लेकिन वह हमारे काम का नहीं। उसी प्रकार ज्ञान से रहित संवेदना हमारे भीतर जीवन की स्फूर्ति पैदा नहीं कर सकती।
ऐसे लोग हो सकते हैं जो सतही तौर पर जिज्ञासु जान पड़ें लेकिन वास्तव में वे मानसिक और भावात्मक आलस्य के शिकार हों। जिसे जीवन-दृष्टि कहते हैं या विश्व-दृष्टि, और मुक्तिबोध भी इनकी ज़रूरत मानते हैं, वह प्रायः (मात्र अपवादस्वरूप नहीं) हमारे भीतर एक प्रकार का आलस्यपूर्ण अहंकार भर देती है। इसके नतीजे घातक हो सकते हैं। जब जीवन हमें अबूझ जान पड़ने लगता है हम उसपर आरोप लगाते हैं कि वह असत्य है। क्योंकि वह हमारी ‘विश्व-दृष्टि’ के दायरे में बँधने से इनकार करता है।
इस आलसी अहंकार और लक्ष्य-ग्रस्तता के कई त्रासद उदाहरण मानव-जाति के इतिहास में हैं। हिटलर और उसके गिरोह की रक्त-शुद्धता का सिद्धांत एक उदाहरण है। कौन पूर्ण जर्मन है, शुद्ध आर्य रक्त? कैसे तय होगा कि उसमें यहूदी रक्त की मिलावट नहीं है? एक शुद्ध रक्त आर्य-समाज के निर्माण ने इस गिरोह में एक विचार और दृष्टि-अक्षमता भर दी जिससे वे अपने विनाश को सामने देख कर भी पहचान नहीं पाए, स्वीकार करने की बात तो दूर। जब अंत सन्निकट था और हिटलर पराजय से इनकार नहीं कर सकता था तो उसने अपने ‘आदर्श’ में गलती देखने की जगह कहा कि जर्मन जनता ही उसके आदर्शों के योग्य न थी।
एक दूसरा किस्सा रूमानिया में साम्यवादी शासन के पतन का है। भारत की एक कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष नेता रूमानिया में साम्यवादी शासन के अंतिम दिनों में, यानी जो अंतिम साबित होनेवाले थे, वहाँ गए और लौटकर अपनी पार्टी को उन्होंने बतलाया कि रूमानिया की पार्टी का जनता के बीच कितना आदर है और कैसे वह रूमानिया का जनता के हित में विकास कर रही है। उनके लौटने के एक हफ्ते के भीतर ही रूमानिया की जनता ने न सिर्फ कम्युनिस्ट शासन को ध्वस्त कर दिया बल्कि उसके प्रमुख को गोली मार दी। जब इसपर भारतीय पार्टी में बहस हुई कि उसके नेता ने क्यों पार्टी के सामने रूमानिया की गलत तस्वीर रखी तो एक दूसरे नेता ने कहा, गलती न इनकी है, न रूमानिया की पार्टी की है, गलती रूमानिया की जनता की है। वही पार्टी से झूठ बोल रही थी।
यथार्थ को देख न पाना, जीवन को महसूस न कर पाना: यह इसलिए कि हम एक विशेष प्रकार के विचार और विचार-प्रणाली का अभ्यास करते-करते उसके बंदी हो जाते हैं। यही उन्हें हम ख़ास प्रकार की भाव-संवेदनाओं के भी कैदी हो जाते हैं। ‘समीक्षा की समस्याएँ’ में मुक्तिबोध लिखते हैं,
“लेखक को अभिव्यक्ति-साधना में – काव्याभ्यास में – न केवल विशेष प्रकार की अभिव्यक्ति का अभ्यास हो जाता है, वरन् विशेष प्रकार की भाव-संवेदनाओं का भी अभ्यास हो जाता है। क्रमशः दोनों तरह के अभ्यास- भाव-संवेदनाओं की अभ्यासात्मकता और तत्संबंधी अभिव्यक्ति की अभ्यासात्मकता ये दोनों मिलकर लेखक की जिस प्रकार क्षमता बन जाते है, उसी प्रकार वह उसकी कठोर सीमा भी बन जाते हैं।”
क्यों एक भाषा हमें जड़ लगती है, हमारे भीतर ऊब पैदा करती है या मरी हुई लगती है? वास्तव में एक तरह के भाव के अभ्यास के घेरे में कैद हो जाने के चलते भाषा भी निष्प्राण हो जाती है। इसके चलते हमें इत्मीनान हो जाता है कि हम हर चीज़ को पहचान आसक्ति हैं, उसकी व्याख्या कर सकते हैं। लेकिन हम देख नहीं पाते कि जीवन हमसे अलग पनप रहा है,
“इसका परिणाम यह होता है कि निबिड़-से-निबिड़, गहन-से गहन, उसके जो अत्यंत आत्मीय क्षण रहे हैं, उनको भी लेखक सीमाबद्ध काव्याभ्यासात्मक जड़ता के कारण कलात्मक वाणी नहीं दे पाता।”
साहित्य या कला इस आलस्य से मुक्ति के बिना जीवंत नहीं हो सकती। मुक्तिबोध लिखते हैं कि यह जड़ता तोड़ी जा सकती है,
“उसके लिए अनवरत अभ्यास, श्रम, धैर्य, और अपने संपूर्ण जीवनानुभवों के प्रति यथार्थोन्मुख ईमानदारी और सत्यपरायणता चाहिए।”
पाठक भी नए काव्य-प्रयत्नों के प्रति असहिष्णु हो उठते हैं क्योंकि उन्हें भी एक तरह का साहित्य पढ़ते पढ़ते एक प्रकार का अभ्यास हो गया है। नया साहित्य उस अभ्यास को चुनौती देता है, इस कारण पहली प्रतिक्रिया उसे ठुकरा देने की होती है। इस अभ्यासजनित जड़ता से धैर्यपूर्वक और सहानुभूतिपूर्ण संवाद और संघर्ष की आवश्यकता है।
असल बात जीवन के सम्पूर्ण वैभव को और उसकी अनिश्चितता को स्वीकार करने की है। मुक्तिबोध इसी लेख में कलाकार के लिए यह दायित्व निर्धारित करते हैं,
“कलाकार एक विश्व-चेतस् और आत्म-चेतस्, अर्थात् पूर्णतः संवेदनशील जाग्रत मनुष्य हो, और विश्व का प्रत्येक स्पंदन उसके ह्रदय में झनकार उत्पन्न करे, और वह जीवन-जगत् के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया करे।”
‘काव्य की रचना-प्रक्रिया’ में मुक्तिबोध इसी बात को दुहराते हैं,
“सामान्यतः यह देखा गया है कि कवि-व्यक्तित्व … कुछ विशेष भाव-श्रेणियों को ही प्रकट करता रहता है, मानों वे उसके जीवन के स्थायी भाव हों।”
वह उनका इतना अभ्यास कर चुकता है कि उनकी सायासता समाप्त हो जाती है और वे रिफ्लेक्स बन जाते हैं। ऐसे ‘कंडीशंड साहित्यिक रेफ़्लेक्सेस’ का बनना स्वाभाविक है। लेकिन उनके प्रति सचेत रहना भी उतना ही ज़रूरी है। उसके लिए निरंतर आत्म-निरीक्षण की ज़रूरत होती है। यह आत्म-निरीक्षण अपने पूर्व-अभ्यास से मुक्त करने की दिशा में प्रवृत्त करता है। इसकी प्रतीक्षा बहुत आसान है। क्या वह जो उसके सामने है उसकी उपेक्षा कर रहा है, उसे महत्त्वहीन ठहरा रहा है? क्या इसका कारण यह है कि उस उपस्थित को देखने और समझने में उसे मेहनत लगती है? साथ ही जो पहले से उसने मान रखा है, उसे धक्का पहुँचता है? मुक्तिबोध सचेत करते हैं,
“मनोवेगों में, स्वयं स्फूर्ति के अतिरिक्त यांत्रिकता भी होती है। यही यांत्रिकता विवेक की शत्रु है। अपने से ऊपर उठकर सोचने-समझने की शक्ति तथा भोक्ता मन की संवेदना-ये दो छोर हैं, स्रष्टा मन के।”
नई भाव श्रेणियों के पुराने रिफ्लेक्सेज़ से टकराना लाजिमी है। जिस तरह पूँजीवादी रिफ्लेक्सेज़ को झटका लगता है जब कोई कार्ल मार्क्स व्यक्तिगत संपत्ति और मुनाफ़े को जीवन की चालक शक्ति मानने से इनकार कर बैठता है, जिस तरह हिंसा को जीवन-परिवर्तन के लिए अनिवार्य माननेवाले रिफ्लेक्सेज़ को एक गाँधी से सदमा पहुँचता है, जिस तरह एक अंबेडकर जाति के रिफ्लेक्सेज़ को अस्वाभाविक ठहराते हैं, जिस तरह एक सक्षम शरीर की सहजता को विकलांगता चुनौती देती है, जिस तरह साम्यवादी रिफ्लेक्सेज़ को निजता आघात पहुँचाती है या नारीवाद झकझोरता है, जिस तरह नारीवादी रिफ्लेक्सेज़ को क़्वीयर संवेदना चुनौती देती है और कहती है मुझे महसूस करो, मुझे ठुकराओ नहीं, उसी तरह जीवन में हमेशा कुछ ऐसा नया, अपरिचित राह चलते मिलेगा उस लालटेन की रौशनी में जो पाँव बाँध लेगा। जो रास्ते को देखने के साथ कहेगा एक बार आगे बढ़ने के पहले खुद के भीतर भी देख लो। ‘एक टीले और डाकू की कहानी’ के शिला-पुरुष का आर्त-स्वर:
“ओ प्रतीक आत्मा के,
मेरे ही चंगुल से
मुझको तुम मुक्त करो!
चट्टानी सामंजस्य टूट जायँ,
जड़ीभूत संगतियाँ लड़खड़ायँ,
शिलीभूत संतुलन बिगड़ जायँ…”
माँग स्थिरता की नहीं है,
“अनवस्था तेजस्वी व् प्रकाण्ड असंतुलन
मुझे दो
जिससे ब्रह्माण्ड-धूल बनकर मैं
गहन अनंत में संवेदनशील पटल बन सकूँ,
अनेकानेक तारा-रश्मि-उल्का प्रकाश में
उजल सकूँ,
विभिन्न गुरुत्वाकर्षण अनुभव करता हुआ
सीख सकूँ विराट जीवन …”
‘अनेकानेक तारा-रश्मि-उल्का प्रकाश’ ! ‘विभिन्न गुरुत्वाकर्षण’ !! तेजस्वी अनवस्था और प्रकाण्ड असंतुलन!!!
कौन है जो जीवन का प्याला उठाता है?