मुक्तिबोध शृंखला:32
अच्छी कविता और बड़ी कविता में फर्क होता है। अच्छी कविता के नियम बड़ी कविता पर लागू नहीं होते। जैसे आम तौर पर कविता का उद्घोषात्मक होना अच्छा नहीं माना जाता। उपदेशात्मकता और शिक्षापरक होना अच्छी कविता के गुण नहीं माने जाते। लेकिन बड़ी कविता शिक्षापरक, यहाँ तक कि उपदेशात्मक होकर भी बड़ी हो सकती है। मुक्तिबोध की कविताओं के इस पक्ष को सहज ही लक्ष्य किया जा सकता है। जीवन कैसा हो? अच्छा जीवन कैसे जिया जाए या मानवीय जीवन किसे कहते हैं और उसे हासिल करने का तरीका क्या है, मुक्तिबोध की कविताएँ इसकी सीख देती चलती हैं और ऐसा करती हुई दीखती भी हैं। उन्हें जैसे इसकी परवाह नहीं कि उन्हें कविता माना जाएगा भी या नहीं।
मुक्तिबोध की कविताएँ एक ‘मैं’ गढ़ती रहती हैं। वह ‘मैं’ अक्सर अपने आप से बात करता रहता है। उसके मन में एक उधेड़बुन सी चलती रहती है। ज़िंदगी की अपनी राह को लेकर, उस रास्ते पर चलने की अपनी तैयारी को लेकर, कभी कभी रास्ते के चुनाव पर भी। एक घोर आत्म-चेतस् व्यक्ति जो कभी चैन से नहीं रहता। क्योंकि उसकी एक निगाह भीतर को ओर मुड़ी होती है।
आत्मविश्लेषण, आत्मालोचन का स्वर मुक्तिबोध की रचनाओं में मुखर और तीव्र है। कुछ आलोचकों ने इसे मुक्तिबोध के अपने आत्म-संघर्ष का प्रमाण माना है। एक समय उनके पाठकों और आलोचकों के एक हिस्से ने इसे उनके व्यक्तित्व की कमजोरी माना। एक दुर्बल मन जो द्विधाग्रस्त रहता है। संशयग्रस्त। खुद की काटपीट करता हुआ, अपने आप से ही सवाल करता हुआ। जब कुछ ने यह आरोप लगाया तो मुक्तिबोध के प्रशंसक आलोचकों ने इसका प्रत्याख्यान किया। इन कविताओं का संशयग्रस्त व्यक्ति कविताओं का ‘मैं’ है, उसे मुक्तिबोध मान लेना भूल है, मुक्तिबोध की तरफ से उन्होंने वकालत की।
मानो संशय, दुविधा, आत्मविश्लेषण कमजोरी के लक्षण और सबूत हों। वे तो कर्मविमुखता का बहाना भर हैं। लक्ष्योन्मुख स्पष्टता यह बर्दाश्त नहीं कर सकती कि पथिक के हृदय में किसी भी प्रकार का द्वंद्व पैदा हो। यह बहस उनके बीच चल रही थी जो खुद को मार्क्सवादी मानते थे। सकारात्मक मनोभाव और नकारात्मक मनोभाव का विभाजन उनके यहाँ स्पष्ट था। नकारात्मक भाव एक प्रकार के अपराध ही थे। उन्हें प्रकट करना तो दूर, मन में लाना भी पाप था। यह शायद इसलिए कि व्यक्ति की कल्पना उनके मन में एक ‘पार्टी-व्यक्ति’ की थी। पार्टी-कार्यक्रम और पार्टी लाइन पर शक करना क्रान्ति के लक्ष्य से धोखा था। यहाँ आत्मविश्लेषण का मौक़ा ही कहाँ है? बल्कि क्या उसकी आवश्यकता भी है? क्या अत्यधिक आत्मविश्लेषण करनेवाले ऐसे लोग नहीं जो अपनी दुर्बलता के लिए एक सुंदर आड़ खड़ी कर रहे हैं?
मुक्तिबोध आत्मविश्लेषण की अतिशयता के खतरे से परिचित हैं। वे यह भी जानते हैं कि आत्मोन्मुगखता और आत्मग्रस्तता के बीच एक बारीक लकीर है। आत्मग्रस्तता आपको मानवीय संबंध बनाने के लिए अयोग्य कर देती है। 3 सितंबर 1957 को नरेश मेहता को को वे एक पत्र लिखते हैं। नरेश मेहताजी के पत्र का उत्तर लंबे वक्त तक उन्होंने नहीं दिया है। क्यों नहीं दिया?
“मैं कुछ इस तरह अपने खुद के चक्कर में फँसा हुआ था कि कुछ न पूछिए। वह चक्कर कौन सा? केवल आत्म-ग्रस्तता। सिर्फ आत्म-केंद्री प्रवृत्ति। अपने ही आपको अपने ही आपका खग्रास ग्रहण। अब भला सोचिए कि आपके उस अत्यंत स्नेहपूर्ण पत्र का उत्तर देने का मेरे पास सामर्थ्य ही क्या था।”
आत्मग्रस्त मन, व्यक्ति किसी के स्नेह का उत्तर नहीं दे सकता। इसके चलते स्नेह की सामर्थ्य ही उससे छिन जाती है। मुक्तिबोध ने जिस पत्र का उत्तर देने में विलंब किया है, उसने उन्हें विचलित किया है। क्योंकि उनका मित्र उसमें अपने-आप से चिढ़ा हुआ जान पड़ता था। उसमें आत्मोपहास की और आत्मदया की ध्वनि भी थी। मुक्तिबोध इससे चिंतित हो उठे। लेकिन वे इसके कारण को समझने की कोशिश करते हैं,
“मैं प्रगतिवादियों का बाना धारण नहीं करूँगा। जो आदमी आदर्श की ज़्यादा बात करता है, उसके प्रति मुझे संदेह होने लगता है। इसलिए मैं यह नहीं कहूँगा कि मुझे उस पत्र के आत्म स्वर, अन्तः स्वर के प्रति कोई वैधानिक या वैचारिक आपत्ति है। इसके विपरीत, मुझे उस स्वर की घनिष्ठता अत्यंत प्रिय प्रतीत हुई है। … एक साथ अपने प्रति इतना निर्मम और अन्यों के प्रति ममत्वपूर्ण वह स्वर था।”
वह आत्मपरकता मूल्यवान है जो अपने प्रति कठोर हो लेकिन उसके कारण दूसरों के प्रति स्नेह की कमी न आए। मुक्तिबोध को नरेश मेहता की आत्मभर्त्सना से कुछ आश्चर्य हुआ लेकिन उसी से यह मालूम हुआ कि उनका व्यक्तित्व एक उच्चतर स्तर का आकांक्षी है। इसीलिए खुद से असंतुष्ट रहता है। अपने आपको कठघरे में खड़ा करता है। मुक्तिबोध इसे समझते हुए भी आशंका जाहिर करते हैं,
“… यह समझ में नहीं आया कि आत्म-विश्लेषण की गूँजवाला वह स्वर, आगे चलकर कौन-सा रूप लेगा। स्पष्ट कहूँ तो यह है कि आत्म-विश्लेषण के रूप में जो चीज़ भोक्ता के सम्मुख प्रस्तुत होती है वह सही और साधार न भी हो। मन अपने आप से बहुत खेलता है। क्या यह उद्दीष्ट आत्म-विश्लेषण साधार है?”
अगर इस आधार का हमें पता नहीं तो हम अपने साथ नाइंसाफी भी कर जा सकते हैं। मुक्तिबोध नरेश मेहता की आत्मालोचना के प्रति सहानुभूति रखने के बावजूद या उसके साथ ही सावधान करते हैं,
“अपने मन को जानने का, अन्तःप्रकृति की क्षमातों और सीमाओं को पहचानने का, उसकी विभिन्न हलचलों और गतिविधियों को गुनने का अधिकार तो हमें है बशर्ते कि आत्मा को एक अदालत न बनाया जाए।”
अदालत जो सज़ा सुनाती है। फिर भी आत्म-परीक्षण तो मनुष्य का कर्तव्य है। बल्कि वह मानवीय स्थिति से अभिन्न है। जो आत्म-निरीक्षण, परीक्षण और आत्मालोचन की आवश्यकता के बोध से वंचित है, वह मनुष्य है भी या मनुष्याभास मात्र है? इसका कारण प्राणी जगत् में मनुष्य की विशिष्ट स्थिति है। इस धरती पर संभवतः वही एक प्राणी है जिसे यह कर्तृत्व का वरदान या शाप मिला है। यह मानवीय स्थिति की अनिवार्यता है। उसकी विवशता है, चुनाव नहीं है। इस कर्तृत्व के धर्म को छोड़ते ही या उसके प्रति लापरवाह होते ही उसकी मनुष्यता, या कहें उसकी व्यक्तिमत्ता उससे छिन जाती है। प्रायः इसका बोध भी उसे नहीं होता कि कब यह उससे गुम हो गई।
यह अहसास कि उसमें ‘कर्तृत्व’ है, मनुष्य के लिए जितना आनंददायी है, उतना ही पीड़ादायक भी। क्योंकि इसका अर्थ यही है कि उसे चैन नहीं है, उसके लिए विराम नहीं है। कोई मंजिल शायद नहीं, जिसके निकट आते ही उसे लगे कि बस अब मैं पहुँच गया।
मनुष्य का ‘करने’ की अनिवार्यता का बोध उसे सक्रिय रखता है लेकिन पीड़ित भी। करने का अर्थ है सृजन। जो नहीं है उसका सृजन। शेष प्राणियों में प्रकृति से इस प्रकार का विलगाव नहीं हुआ है। इसी कारण उन्हें प्रकृतिस्थ होने की सुविधा है। मनुष्य की प्रकृति से गहन संलग्नता ही उसे भी सृजन की प्रेरणा देती है। उसे प्रकृति के नियमों का, उसके भीतर की योजनाओं का ज्ञान है या वह ज्ञान हासिल करता जाता है। जितना ही वह ज्ञान प्राप्त करता है उतना ही एक प्रकृति के निर्माण का दायित्व बोध उसमें स्वयं गहरा होता जाता है। जैसे प्रकृति उसके सामने खड़ी हो जाती है और चुनौती देती है। प्रकृति में है और उससे बाहर भी है। किसी ने प्राणी की नाभिनाल प्रकृति ने खुद इस तरह नहीं काट दी है। अलग होने की यह वेदना से ही जन्म लेती है प्रकृति को पुनः प्राप्त करने की भयंकर वासना। और वह प्रकृति को नष्ट भी कर सकती है। यह लेकिन अभी जो हम विचार कर रहे हैं, उससे भटक जाना है।
कर्तृत्व लेकिन करने भर से अधिक है। वह सृजन करना है। कुछ निर्मित करना जो अपना हो। स्वयं निर्णय लेने, चुनाव करने के दायित्व बोध के बिना कर्तृत्व नहीं है। मनुष्य अगर निष्क्रिय कर्त्ता है तो उसमें ख़ास ही क्या है? लेकिन उसके सक्रिय होने का अर्थ है, अगर वह सर्जक है, कल्पना करने की क्षमता। यह सिर्फ क्षमता नहीं है, यह उसकी इस कुदरत के द्वारा दी हुई और उसके लिए उसकी जिम्मेदारी है। उसे कल्पना का अधिकार है, ऐसा सोचने पर अहंकार आ सकता है। कल्पना उसका दायित्व है, इस तरह देखने पर उसमें विनम्रता बनी रहती है। क्या वह कुछ नवीन कल्पना कर सकता/सकती है? अगर नहीं तो उसके होने का अर्थ ही क्या है? क्या वह सिर्फ जो हो चुका है, किया जा चुका है, सोचा जा चुका है, उसे दुहरा रहा है?
कर्त्ता के मन को ये प्रश्न उद्वेलित रखते हैं। यह कर्तृत्व भाव ही उसे समीक्षक भी बनाता है। जो किया जा चुका है, किया जा रहा है, उसकी समीक्षा करते जाना कर्तव्य का अंग है। जो किया जाना है, वह बिना समीक्षा के इस कार्य के तय ही नहीं हो सकता। और ऐसा करते ही उसमें असंतोष पैदा होता है। असंतोष और अधूरेपन का अहसास जन्म लेता है। वह जब देखना जानता है तो उसे दृष्टि की सीमा का भी पता चलता है। जितना देखा गया है, जितना भर वह देख सकी/सका है, उसी से मालूम होता है कि सितारों के आगे जहाँ और भी हैं।
अधूरेपन का यह अहसास कितना तीखा है? ‘चकमक की चिनगारियाँ’ कविता की ये पंक्तियाँ:
“अधूरी और सतही ज़िन्दगी के गर्म रास्तों पर,
अचानक सनसनी भौंचक
कि पैरों के तलों को काट-खाती कौन-सी यह आग?
जिससे नाच रहा-सा हूँ,
खड़ा भी नहीं हो सकता, न चल सकता।”
जीवन सतही कई कारणों से हो सकता है। संलग्नताओं से वंचित रहने के कारण। नरेश मेहता के पत्र से लगा था कि वे एक ऊँची ज़िंदगी जीना चाहते हैं। वह क्या है? सतहीपन और अधूरापन कैसे दूर हो? पहले उसका अहसास ज़रूरी है। गतिशीलता जो अपूर्णता से पूर्णता प्राप्त करने के लिए अनिवार्य है। जड़ता से मुक्ति। और वह जड़ता खुद अपनी पैदा की हुई हो सकती है। ‘एक टीले और डाकू की कहानी’ में एक टीला है, स्थिरता की अवस्था जो आख़िरी अवस्था नहीं है:
“चट्टानी कण-कण में
मिट्टी के साथ-साथ
चमकीले जो अणु हैं,
गुण हैं वे।”
और उन गुणों के कारण ही
“विरूपात्मक कोणात्मक
टीला यह औघड़ है ,
यद्यपि जड़
किन्तु भव्य स्थिर क्षमता।”
इस टीले पर दिशाओं के अजनबी दर्रों से एक असभ्य और अकथनीय पीड़ा की अजब कत्थई धूल उमगकर उड़ती है। दूर जामुनी अंबर में नारंगी ज्वाला-सा एक दीप्तिमान तारा जगमगाता है। और यह टीला, यह भव्य स्थिर क्षमता उदास हो उठती है। उसके चट्टानी चंगुल में जो चमकीले अणु हैं, वे कण-कण तड़पते हैं। इस टीले से भीतर के अजाने स्तर पिराते रहते हैं।
तो इस टीले में मृत्कण हैं लेकिन
“सच यह है–
चट्टानी शरीर में मृत्कण के सिवाय भी
…. कई और हैं
और हैं अछोर पर धँसे हुए
चट्टानी चंगुल में फँसे हुए,
भीतर के दीप्तिमान रत्नकण,
पत्थर के कण-कण पर हँसते है
हँसने में दुखते हैं।”
स्थिरता और अस्थिरता के बीच संघर्ष चलता रहता है। स्थिरता आखिर इतिहासक्रम में उपलब्ध की गई है:
“इतिहासिक विवरण दे
निज चरित्र न्यायोचित ठहराते
मृत्कण ये इस प्रकार अपने को सहलाते
किन्तु चैन लेने नहीं देते हैं
रत्नकण।”
इतिहाससम्मत स्थिरता वास्तव में गति ही है, विस्तार जो शिलीभूत हो गया है,
“वह शिला
धरती पर
टूटा हुआ खण्ड है
आकाश-गंगा का ज्योतिमान…”
यह पता तब चलता है जब
“जबर्दस्त हवा एक आती है
उसमें हैं सैंकड़ों प्रवाह और
प्रत्येक धारा में लाख-लाख लहरें हैं
और लहर-लहर में
भाँति-भाँति भिन्न-भिन्न
संवेदन-स्पर्श हैं
प्रत्येक स्पर्श में
प्रजागरित स्वानुभूत ज्ञान-मर्म
एक-एक मर्म में अनगिनत अंगार
…
ऐसी है वह हवा
जिसमें सौ अग्निमान
नभोपुष्प गंध है
अनेक देश-देशों का ज्वलत् जीवनानुभव
परिणति-शक्ति का परिवर्त स्पन्द है।”
अधूरेपन से मुक्ति या असमाप्ति की संवेदना के बिना जीवन सतही हो जाता है। क्या पूर्णता कभी मिल सकती है? यह प्रश्न तो है लेकिन उसके कारण अपूर्णताओं का बंदी होना अपने कर्तव्य से बच निकलना है। जो चाहिए, वह है अनवस्था, अस्थिरता। यह जो हवा झकझोर रही है टीले पर वह अकेली नहीं है,
“नभयात्री ओ पवन
साथ तुम्हारे तो जगधात्री वर्षा है।
प्रहार हो टीले पर,
तड़ित्-पात कर डालो!!”
बारिश के साथ टीले पर बिजली इस तरह गिरे कि वह चूर-चूर हो जाए
“इस तरह चूर्ण चट्टान हो कि रेणु-रेणु
भीतरी पुर्जों को तोड़कर
सूरज पर चले जाएँ
…
अनगिनत प्रकाश-वर्ष गतियों की
यात्राएँ प्राप्त हों
नए नए अनुभव उपलब्ध हों
नव-नवीन द्रव्यों को जन्म दें
…
लाल-तड़ित-धाराएँ
इस कदर झकझोरें
की हृदय-कोष गह्वर में
ज्ञान रुधिर भर जाए!”
इस प्रक्रिया की उत्कटता इस बिंब से ही प्रकट है। ह्रदय कोष के गह्वर में ज्ञान-रुधिर के भर जाने की कामना! फिर वह क्या करेगी?
“सिहर उठे संशोधन-वेदना
पुनः पुनः,
पुनः-पुनः संगठन-वेदनार्त (?)
अनवरत तेजस्वी अनवस्था
व विकसित होता हुआ गतिशील सामंजस्य,
अनवरत असुंतलन,
व विकसित होती हुई
गतिशील संगतियाँ
मुझको दो…”
इस संशोधन-वेदना से, पुनः-पुनः संगठन की वेदना से आर्त अनवरत तेजस्वी अवस्था की आकांक्षा से जो मुक्त है, वह क्या मनुष्य है? और जो वह कहता है कि उसके मन में कभी दुविधा नहीं पैदा होती, जिन्हें अपने ऊपर पूरा विश्वास है क्या वे बुद्धिमान हैं?
“मूर्ख वे कि दावा जो करते हैं
भुगता न झोल कभी
बुद्धिमान वे सच हैं
भुगतते व पार चले जाते जाते हैं
मैं भी स्वयमात्म रूपांतर क्रियाओं में
लीन हूँ।
पार चला जाऊँगा, निश्चित है!!”
मनुष्य को लेकिन पार जाते ही मालूम होता है कि अभी पार जाना शेष है!