मुक्तिबोध शृंखला:35
मुक्तिबोध के मित्र प्रमोद वर्मा ने 6 जनवरी 1958 को उन्हें एक पत्र लिखा। घर, परिवार, हारी-बीमारी की चर्चा के अलावा उसमें श्रीकांत वर्मा के पहले काव्य-संग्रह ‘भटका मेघ’ की समीक्षा को लेकर प्रमोद वर्मा के मन में जो द्वंद्व चल रहा है, उसका जिक्र है:
“श्रीकान्त के ‘भटका मेघ’ की रिव्यू इस महीने जाने को है।….श्रीकांत की कविताओं में कतिपय बिम्बों के पुनरावृत्त होने की प्रवृत्ति तो नहीं दीख रही है? … मुझे उसकी इधर की कविताओं में न अनुभूतियों के नए शब्द दिखाई दे रहे हैं, न बिम्ब-चित्रों के अथवा द्वंद्वलय के नए प्रयोग ही। इस संग्रह में ही (अपेक्षतया कम मात्रा में) आपको अन्धकार, नदी, रात, कोहरा, वंशवट, चिड़िया, चमगादड़ जैसे इमेज कई कविताओं में मिल जाएँगे।”
प्रमोद वर्मा को श्रीकांत वर्मा की कविताओं में बिम्बों और चित्रों का यह दुहराव देखकर चिंता है कि कहीं ये ‘कंडीशंड साहित्यिक रिफ्लेक्सेस’ के लक्षण तो नहीं। उन्हें इसका पता है कि ‘इमेज’ की पुनरावृत्ति एक ही लेखक में होती है और वह कोई दोष नहीं माना जाना चाहिए,
“यीट्स की कविताओं में डांसर का इमेज तो सेंट्रल इमेज है और वह न जाने कितनी बार आता है, परन्तु वह हर बार नए कॉन्टेक्स्ट में ही आता है और नए एसोसिएशन्स जगाता है। इस दृष्टि से वह हर बार पुराना होकर भी नया है।”
इस पत्र का उत्तर मुक्तिबोध ने दिया लेकिन वह अधूरा ही मिला, जैसा मुक्तिबोध रचनावली के छठे खंड को देखकर मालूम होता है। मुक्तिबोध की चिंता उसमें यह है कि कहीं प्रमोद वर्मा के नए कवि की ज़रूरत से ज़्यादा सख्त समीक्षा न कर दें। वे लिखते हैं,
“… श्रीकान्त को अभी रिकग्निशन मिलना बाकी है। … इसलिए फिलहाल उसकी पैरवी और वकालत आवश्यक है। मैं समझता हूँ कि गुणी आलोचक का एक सबसे बड़ा काम यह है कि वह रिकग्निशन की इस प्रोसेस को एक्सेलरेट करवाए। इसके बाद अगर उसे उठना हो तो वह उठे नहीं तो गिर पड़े।”
समीक्षा को मुक्तिबोध प्रेम-दर्शन कहते हैं। समीक्षक को पहले मर्मज्ञ होना चाहिए। जीवन का और रचना का। प्रमोद वर्मा उनके इस पत्र के उत्तर में स्वीकार करते हैं कि नए कवि की सहानभूतिपूर्ण विवेचना की आवश्यकता है। सहानुभूति या अपनापन। शांतिप्रिय द्विवेदी की आलोचना की प्रशंसा करते हुए वे लिखते हैं,
“उनकी आलोचना की मुख्य विशेषता उनका अपनापन (पर्सनल फैक्टर) है। इस तरह की आलोचना के लिए ‘अपनापन’ अत्यंत व्यापक चाहिए तथा समन्वय-बुद्धि (सिंथेटिक थॉट) भी आवश्यक है, क्योंकि भिन्न-भिन्न प्रकार के कवियों तथा अन्य साहित्यिकों के ठीक माप-तोल के लिए अपने मन के विकारों, नियमों और दूषित धारणाओं को सावधानी से हटाना एक ज़रूरी बात हो जाती है।”
मुक्तिबोध लिखते हैं कि ऐसा कर पाने के लिए “उच्च धरातल की आवश्यकता होती है।” यह ऊँची सतह अपने व्यक्तित्व की चहारदीवारी की लाँघकर दूसरों को पहुँचने के क्रम में या उसके बाद ही हासिल की जा सकती है।
मुक्तिबोध सहानुभूति को ज्ञान के लिए आवश्यक मानते हैं और यह बहुत ही मानीखेज है। हमने आज भी इस बात को बहुत कम समझा है,
“सहानुभूति से सूक्ष्म दृष्टि बढ़ जाती है और मानवी मन का ज्ञान अगाध हो जाता है।”
क्या यह आश्चर्य की बात है कि मुक्तिबोध शांतिप्रियजी में जो सूक्ष्म दृष्टि पाते हैं, वही जैनेंद्र में भी? शान्तिप्रियजी में वह रसात्मक सूक्ष्म दृष्टि है तो जैनेंद्र में बौद्धिक सूक्ष्म दृष्टि।
सहानुभूति आपको प्रेरित करती है कि जो आपकी समझ में नहीं आ रहा या अरुचिकर लग रहा है उसे धैर्यपूर्वक समझने का प्रयास किया जाए।
सहानुभूति ठीक है लेकिन जो प्रश्न प्रमोद वर्मा ने उठाए हैं, ये उस दौर के सारे रचनाकारों के प्रश्न हैं। खुद मुक्तिबोध का पूरा लेखन ‘कंडीशंड साहित्यिक रिफ्लेक्सेस’ से स्वयं को और साहित्य के पाठक को मुक्त करने का प्रयास है। यह अनुकूलन कई स्तरों पर होता है। विचार के, संवेदना के अनुकूलन के अनेक उदाहरण हम देख सकते हैं। हमारी इंद्रियाँ एक ख़ास ढर्रे में ढल जाती हैं। एक तरह से देखने, सुनने, सूँघने, स्वाद लेने, स्पर्श करने का अभ्यास लंबे समय तक पीढ़ी-दर-पीढ़ी करते जाने से कुछ भी ‘नया’ हमें सदमा पहुँचाता है। इंद्रियों को झटका लगता है और पहली प्रतिक्रिया अस्वीकार की, रद्द करने की होती है। वह इस कारण कि इन्द्रियों को भी सरल जीवन की आदत पड़ गई होती है। आसानी जो आलस का दूसरा नाम है। इसके कारण इंद्रियाँ यांत्रिक हो उठती हैं। मानो वे अनायास ही ब्रह्माण्ड और विश्व की प्रत्येक गतिविधि को ग्रहण कर सकती हैं।
विचार के मामले में भी यही होता है। सामाजिक परिवर्तन अहिंसा के माध्यम से किया जा सकता है या राजनीति और समाजनीति की धुरी अहिंसा, सत्य , प्रेम और नैतिकता हो सकती है, यह मैक्यावलीय अनुकूलन के कारण स्वीकार करना कठिन था। तिकड़म, जोड़तोड़, हिंसा और दुरभिसंधि के दीर्घ अभ्यास के कारण वृत्तियाँ जड़ीभूत हो गई थीं और गाँधी उन्हें एक अजूबा जान पड़े। गाँधी के जीवन और उनकी मृत्यु से हम जानते हैं कि वृत्तियों की यह जड़ता कितनी हिंसक हो सकती है।
‘कंडीशंड साहित्यिक रिफ्लेक्सेस’ कहें या मुक्तिबोध की भाषा में ही जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि, बात प्रायः एक है। सोचने और महसूस करने की परिपाटी-सी बन जाती है और उसके घेरे में सुख मिलने लगता है। इसका एक समुदाय भी बन जाता है। एक समुदाय जो एक साझा भाषा पर टिका हुआ है। उपमा, उपमान, उपमेय, प्रतीक, मुहावरे, सब जाने-पहचाने!
मुक्तिबोध इस सरलता से सावधान करते हैं। एक जगह वे लिखते हैं आजकल प्रणय भावना समझने में बहुत आसान हो गई है। सरल प्रणय भावना और कठिन प्रणय भावना में क्या अंतर है? साहचर्य जो प्रेम तक जाता है, क्या है? ‘पक्षी और दीमक’ कहानी का प्रसंग जिसमें पुरुष और स्त्री एक कमरे में हैं। स्त्री कुछ पढ़ रही है,
“इस धुँधले और अँधेरे कमरे में वह मुझे सुन्दर दिखायी दे रही है। दीवार पर गिरे हुए प्रत्यावर्तित प्रकाश का पुनः प्रत्यावर्तित प्रकाश, नीली चूड़ियोंवाले हाथों में थमे हुए उपन्यास के पन्नों पर, ध्यानस्थ कपोलों पर, और आसमानी आँचल पर फैला हुआ है। यद्यपि इस समय हम दोनों अलग-अलग दुनिया में (वह उपन्यास के जगत् में और मैं अपने ख्यालों के रास्ते पर) घूम रहे हैं, फिर भी इस अकेले धुँधले कमरे में गहन साहचर्य के सम्बन्ध-सूत्र तड़प रहे हैं और महसूस किए जा रहे हैं।”
‘गहरे साहचर्य के तड़पते संबंध-सूत्र’! ‘रोमांस’-भावना का यह चित्र हिंदी कथा साहित्य में इस तरह नहीं आया था। श्यामला के सुंदर दिखलाई पड़ने में उपन्यास पर पड़ते प्रकाश की भूमिका है। आगे,
“उपन्यास फेंककर श्यामला ने दोनों हाथ ऊँचे करके ज़रा-सी अँगड़ाई ली। मैं उसकी रूप-मुद्रा पर मुग्ध होना ही चाहता था कि उसने एक बेतुका-सा प्रस्ताव सामने रख दिया। कहने लगी, “चलो, बाहर चलें।”
पुरुष को बाहर की चिलचिलाती सफ़ेदी और भयानक गरमी याद आ जाती है:
“भद्रता की कल्पना और सुविधा के भाव मुझे मना करने लगे।”
कुछ ही मिनटों में दोनों बाहर थे, ‘दुपहर के गरम तीर’ चल रहे थे, श्यामला आगे-आगे और उसका ‘प्रेमी’ पीछे,
“…मेरा ध्यान उसके पैरों और तलुओं के पिछले हिस्से की तरफ ही था। उसकी टाँग, जो बिवाइयों-भरी और धूल भरी थीं, आगे बढ़ने में, उचकती हुई चप्पल पर अटकती थीं।”
इस चित्र को ध्यान से देखिए, तेज़ धूप में गरम चिलचिलाते मैदान में एक बिवाई फटे पैरोंवाली नारी के पीछे अनमने भाव से चला जा रहा एक प्रेमी। साहचर्य का यह भाव सरल नहीं है,
“…मैदानों के चिलचिलाते अपार विस्तार में, एक पेड़ के नीचे, अकेलेपन में, श्यामला के साथ रहने की यह जो स्थिति मेरी है उसका अचानक मुझे गहरा बोध हुआ। लगा श्यामला मेरी है, मेरी है और वह भी इसी भाँति चिलचिलाते गरम तत्त्वों से बनी हुई नारी-मूर्ति है। गरम बफती हुई मिट्टी-सा चिलचिलाता हुआ उसमें अपनापन है।”
‘शिक्षिता स्त्री’ जो बहस भी करती है लेकिन वह बहस कैसी है?
“बहस की बातों का संबंध न उसके स्वार्थ से होता है, न मेरे। उस समय हम लड़ भी तो सकते हैं। और ऐसी लड़ाइयों में कोई स्वार्थ भी तो नहीं होता। उसके सामने अपने दिल की सतहें खोल देने में न मुझे शर्म रही, न मेरे सामने उसे। लेकिन वैसा करने में तकलीफ तो होती ही है, अजीब और पेचीदा, घूमती-घुमाती तकलीफ!”
साहचर्य का यह भाव और ऐसे प्रेमी युगल भारतीय जीवन में जाने कब से हैं लेकिन कथा या काव्य में उनके चित्र दुर्लभ ही रहे हैं। मुक्तिबोध की इस कहानी के छह दशक बीत जाने के बाद भी और कहानी तथा कविता की भाषा और शैली में खासी तोड़ फोड़ के बाद भी। मुक्तिबोध नए, कठिन साहचर्य भाव को गढ़ रहे हैं जो ‘अपने निजीपन में बेनिजी’ हो और जिसमें ‘विचित्र पीड़ाएँ हैं, भयानक संताप है और अत्यंत आत्मीय स्तर पर’ एक हो जाना और कभी-कभी बुरी तरह लड़ पड़ना।
लेखक, कलाकार का काम विचार, भाव और संवेदनाओं की नई, अपनी संरचनाएँ गढ़ने का है। अज्ञेय ने उपमानों के मैले होने की शिकायत की थी और प्रतीकों के प्राणहीन हो जाने की। वे उपमा-उपमान की नवीन योजना प्रस्तावित करते हैं। मुक्तिबोध अपनी कविता ‘झरने पुराने पड़ गए’ में उलटी बात कहते जान पड़ते हैं,
“झरने पुराने पड़ गए
उनकी उपमा अब कोई नहीं देता
शायद धोबी दें
जो वहाँ कपड़े फचीटते हैं
या किसान
जो उसमें फँसी हुई गाड़ी घसीटते हैं”
झरने, धोबी और गाड़ी घसीटते किसान का एक साथ यह बिंब! कवि ऐसे झरने की उपमा से परहेज क्यों करे?
“…मैं झरने की उपमा ज़रूर दूँगा
उस सुदूर को
जो बहता हुआ हमारे पास आ रहा है
इसलिए नहीं कि हम नदी या तलाब हैं,
जिसमें मिल जाएगा
बल्कि इसलिए कि हम वे टीले हैं
जिन्हें घाव-ही-घाव हैं
टूटे हैं तड़के हैं
फिर भी ठहराव है
एक रुकाव है, इसीलिए सब तरफ़ चेहरे वे पीले हैं
वह आ रहा है, अनक़रीब है
हमें बहा ले जाएगा!!”
टूटे, घावों से तड़कते टीले, रुकाव का अहसास, पीले चेहरे और बिलकुल ‘अनक़रीब’ बहता आ रहा झरना जो हमें, इन टीलों को बहा ले जाएगा। कविता इसके बाद दूसरा मोड़ लेती है या बेहतर होगा यह कहना कि कविता का ‘लाइटमैन’ एक दूसरी तरफ रौशनी फेंकता है, अतीत के एक भूगोल की ओर जहाँ भीषण संघर्ष के अवशेष हैं,
“पुराने ज़माने में
भयानक परिपाटी-सी
एक घाटी थी।
उसकी वह माटी भी अजीब थी
उसकी गरीबी बदनसीब थी
वहाँ कई लड़ाइयाँ हुई थीं
खूब ठठरियाँ फैली थीं
टूटी हुई हड्डियों के टुकड़े
अभी भी देखे जा सकते हैं”
इनको सिर्फ देखना ही नहीं, निरखा और परखा भी जाना चाहिए, लेकिन क्या उसके लिए वक्त है? ये हड्डियाँ युद्धवीर किसानों की हैं जो ‘मरण-संयोग’ थे और तलवार के घाट उतार दिए गए थे। लेकिन मारे जाने के पहले
“उन्होंने गढ़ और गढ़ियाँ
दुर्ग और किले ढहा दिए
बड़े-बड़े अहंकार और गर्व बहा दिए।”
इस युद्ध भूमि की स्मृति से कविता वर्तमान पर लौटती है। जहाँ कभी किला था, वहाँ अब एक कॉलेज है:
“आज उसी किले के एक हिस्से में
मेरा यह कॉलेज है
टेबल और मेज है
आर्ट्स और साइंस, कॉमर्स हैं,
मुझको यह हर्ष है
कि उसी किले के एक महत् सिंहद्वार के
ऊपर और नीचे के कक्षों में
मुझको बसाया गया
क्वार्टर्स बन गए।”
‘कॉमर्स’ से ‘हर्ष’ की तुक सिर्फ मुक्तिबोध की कविता में मिल सकती है। गद्यात्मक और काव्यात्मक के परिपाटीग्रस्त भेद को मुकितबोध की कविता इस कविता के झरने की तरह ही बहा ले जाती है। सामंती शान का ध्वंस, किसानों की शहादत के बाद उस अन्याय के भूगोल पर आधुनिक शिक्षा केंद्र। इन केंद्रों को इन युद्धों और ‘मरण-संयोग लड़ाकुओं की याद रहनी ही चाहिए।
इस चित्र को भी देखिए, निरखिए और परखिए :
“उजड़े हुए गाँव
और ढहे हुए बुर्जों के ढूहों में
भग्नावशेषों के अजब चक्रव्यूहों में
एक रात अंगार-चंद्र निकल आया था
लाल-लाल गोल धधकता हुआ
अजीब पल लाया था।
कालिमा फैली थी
जिसमें वह भीषण अंगार-चंद्र
कई उलट-फेरों का घोर बल लाया था!!”
मुक्तिबोध की कविता ही यह ‘अजीब पल’ है, या कालिमा पर खिला हुआ भीषण अंगार-चंद्र जिसमें कई उलट-फेरों का घोर बल है। जैसे मुक्तिबोध की रचना हमारे सम्पूर्ण संवेदना-तंत्र को ही झनझना देती है, झकझोर डालती है। कवि को सिर्फ एक बात कह डालने की हड़बड़ी नहीं है। वह आपसे गौर करने को कह रहा है,
“घाटी में ठठरियों
टूटी हुई जाँघों बीच
हड्डी के पंजों बीच
घास निकल आई थी, फूल खिल आए थे
अँधियारा मद्धिम ललाई में
काला और भीषण था
और उस किनारे पर
पुराने दुर्गों के सारे भग्नावशेष दाएँ और बाएँ थे।”
भीषण, रौद्र, बीभत्स और शांत, मधुर, सब साथ हैं। शुक्लजी के विरुद्धों के सामंजस्य की जगह उनका साहचर्य!
मुक्तिबोध की कविता सुन्न पड़ रही इंद्रियों को जगाने की कोशिश कर रही है:
“पी ज़हर यह
जी ज़हर यह सुन्न हुई नाड़ियाँ
गयी अब, पानी सब गया सूख
हृदय में उदासी की फैली हैं मटमैली
कीचड़ की खाइयाँ !!
चक्के टूट गए हाय!!
पिकनिक को निकली हुई
ज़िंदगी की नई बैलगाड़ियाँ
टूट गईं निरुपाय!!”
‘एक राग का राग’ कविता का दुख यह है
“सौंदर्य छूता नहीं
शिराओं में हल्की-सी मूर्छना
चेतना निर्वीर्य!!”
और
“दार्शनिक मर्मी अब
कोई सरगरमी अब
छू नहीं पाती है”
और वह इसलिए कि
“विवेक सताए ना
न ज़िन्दगी को बेचैन करे वह!!”
क्या सिर्फ उकताहट खत्म करनी है, कुछ सनसनी या कुछ और चाहिए?
“मिल गई ऐसी बात
जिससे कि ढीली रगें तन जाएँ
भीतर तनाव हो
व विचारों का घाव हो
कि दिल में एक चोट हो”
क्या मुक्तिबोध की कविता इतना ही करती है?
लेखक, कलाकार का काम विचार, भाव और संवेदनाओं की नई, अपनी संरचनाएँ गढ़ने का है।
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