एक कण्टक पौधा ठाठदार मौलिक सुनील

मुक्तिबोध शृंखला:36

प्रत्येक व्यक्ति एक अभिव्यक्ति है। वह अपने समाज की अभिव्यक्ति है, अपनी परम्पराओं की भी अभिव्यक्ति है, लेकिन सबसे पहले और अंत में वह खुद अपनी अभिव्यक्ति है। जैसा गाँधी ने कहा था, मैं अपना गुरु खुद हूँ। मैंने खुद अपने आपको गढ़ा है, क्या इसे अहंकारपूर्ण उक्ति नहीं माना जाएगा? गाँधी से अलग मुक्तिबोध गुरु की आवश्यकता पर बल देते हैं। ‘ब्रह्मराक्षस’ कहानी को याद कर लें। उनकी कविताओं में उनका गुरु उनका मित्र भी है। जो भी हो, हर व्यक्ति एक अद्वितीय, विलक्षण अभिव्यक्ति है या उसे होना चाहिए।

अभिव्यक्ति के साथ जुड़ी हुई है उसकी भंगिमा। आम तौर पर अभिव्यक्ति सुनते ही विचार का ख्याल आता है। और वह ठीक है। लेकिन विचार की भी भंगिमा होती है। व्यक्ति विचार है तो वह भावलोक भी है। हरेक व्यक्ति एक भिन्न भावलोक। जैसे विचार की भंगिमा होती है उसी प्रकार भाव की भी। यह भंगिमा ही व्यक्ति को परिभाषित करती है। किसी से उसका अंदाज छीन लेना उसका खून ही है। सेंसरशिप का विरोध करते हुए कार्ल मार्क्स ने लिखा था कि वह हमें सिर्फ यह नहीं बताती कि क्या कहना, लिखना या दिखाना है बल्कि वह कैसे किया जाना है, यह भी निर्देशित करती है। वह हमसे हमारा अंदाज छीन लेती है और हमें किसी दूसरे के तय किए अंदाज में जीने, सोचने, महसूस करने को मजबूर करती है। इसीलिए आज के समाज में, जहाँ व्यक्ति की अभिव्यक्ति-संवेदना या जागृति इतनी तीव्र हो, इसके विरुद्ध विद्रोह उठ खड़ा होना स्वाभाविक है।

किसी भी रचनाकार का संघर्ष इसीलिए अभिव्यक्ति का संघर्ष ही होता है। उसका अपना अंदाज होगा, अपनी भंगिमा होगी लेकिन उसका मूल्य तो तभी होगा जब अन्य उसका आदर कर पाएँ, अन्यों में उसके प्रति उत्सुकता हो। इसलिए वह सम्प्रेषणीय भी बनाना चाहती है खुद को। और इसी कारण सम्प्रेषणीयता में बाधा भी आती है। कुछ व्यक्ति (अभिव्यक्ति) कठिन होते हैं। वह कठिनाई अन्य के लिए आमंत्रण भी हो सकती है और उसके भीतर हिंसा भी पैदा कर सकती है। अभिव्यक्ति का एक संकट यह भी है। उसके साथ हमेशा यह जोखिम है।

मुक्तिबोध ने अभिव्यक्ति का खतरा उठाया इस रूप में भी। ‘मुक्तिबोध:ज्ञान और संवेदना’ में नंदकिशोर नवल ने ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे’ शीर्षक अपने निबंध ने ठीक ही मुक्तिबोध के इस संघर्ष का, यानी अपनी शैली, अपनी भंगिमा के संघर्ष का महत्त्व चिह्नित किया है। यह वाक्य अब हिंदी साहित्य का ही नहीं, जनांदोलनों के सबसे लोकप्रिय वाक्यों में से एक बन चुका है। ‘अँधेरे में’ कविता के अनंतिम खंड का यह अंश है जो नारे की तरह छात्र आंदोलनों में इस्तेमाल किया जाता है:

अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे

उठाने ही होंगे।

तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।

पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार

तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें

जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता

अरुण कमल एक।”

प्रायः पाठकों का ध्यान ‘अरुण कमल’ पर ही टिक जाता है। लेकिन यहाँ देखना है उन बाँहों को जिनमें प्रतिपल एक अरुण अमल काँपता रहता है। अक्सर उन बाँहों से ध्यान हट जाता है। खैर! अभिव्यक्ति के खतरे क्या हैं? अभिव्यक्ति ही क्या है? नवलजी ने इस अध्याय में विस्तार से मुक्तिबोध की काव्य भाषा का विश्लेषण किया है और ठीक ही लिखा है कि उन्होंने

सुमधुर लयात्मक किंतु गणित यंत्रीय छंदोंको छोड़कर पद्याभास गद्यको अपनाया जिसमें छंद नहीं, लेकिन काव्य भाषा का भरपूर लयात्मक तनाव मौजूद है।”

मुक्तिबोध में असमाप्ति, अपूर्णता को उनके सारे पाठकों ने लक्ष्य किया है। वह एक निर्माणाधीन व्यक्तित्व हैं जैसे सबको होना चाहिए। प्रत्येक समाज, राष्ट्र, व्यक्ति निर्माणाधीन रह कर ही जीवंत हो सकता है। सिद्ध समाज बंद और प्राणहीन समाज होता है। रामचंद्र शुक्ल ने सिद्धावस्था और साधनावस्था का फर्क किया था। मुक्तिबोध को साधनावस्था का रचनाकार कहा जा सकता है। पुनः नवलजी को ही सुनें,

उनकी काव्य भाषा की यह अन्यतम विशेषता है कि वह लगातार निर्माण की प्रक्रिया में है। इस कारण कभी उसमें पिघले लोहे का ताप और रंग है और कभी ताज़ा काटी जानेवाली मिट्टी की सुगंध। ऐसी स्थिति में नामवरजी के अनुसार यदि “आत्मसंघर्ष समाप्त करके, सुलझा करके जो सिद्ध लेखन हुआ करता है, उस भूमि पर मुक्तिबोध नहीं पहुँच सके” तो इसे उनकी त्रुटि न मानकर गुण ही मानना चाहिए।”

नवलजी ने ही इसी कारण लिखा कि मुक्तिबोध की भाषा कवियों के लिए आदर्श नहीं है। अशोक वाजपेयी ने उन्हें कुलगोत्रहीन रचनाकार कहा है। ऐसा जो किसी का वारिस नहीं, जिसका कोई वारिस नहीं। जिसकी आवाज़ आज़ाद होती है, उसमें बाकी आवाज़ें न हों, यह ज़रूरी नहीं। मुक्तिबोध को पढ़ते हुए आपको एकाधिक बात निराला की याद आ जाती है। ‘मेरे अन्तर’ की ये पंक्तियाँ पढ़िए और ‘राम की शक्तिपूजा’ को याद कीजिए:

पर उसके मन में बैठा वह जो समझौता कर सका नहीं,

जो हार गया, यद्यपि अपने से लड़ते-लड़ते थका नहीं

उसने ईश्वर संहार किया, पर निज ईश्वर पर स्नेह किया।”

और आगे की पंक्तियाँ क्या फिर निराला की एक और कविता की याद आपको नहीं दिलाती?

वह आज पुनः ज्योतिष्कण हित

घन पर अविरत करती प्रहार

                      उठते स्फुलिंग

                      गिरते स्फुलिंग

उन ज्योति क्षणों में देख लिया

करता वह सत्य महदाकार!”

परंपरा का अर्थ क्या है? वह मिल जाती है या अर्जित की जाती है? “एक टीले और डाकू की कहानी’ में परंपरा की इस खोज में लगे लोगों को बतलाया जाता है कि वे इस तलाश में अकेले नहीं हैं,

“… अतीत से भविष्य तक वहनशील

खोजो परम्परा डूबो उस क्षिप्रा में

खोजो परम्परा

वह जो कि अपना ही अनदेखा छोर है

अकेलापन विभ्रम  है

असंगत, वस्तुतः पूर्णोन्मुख कार्य का अभाव है

खोजो परम्परा”

परंपरा अपना अनदेखा छोर है लेकिन उसे खोजना तो पड़ता ही है।

जब हम किसी की विरासत तय करना चाहते हैं तो हम शायद मिलन के बिंदु खोजना चाहते हैं। एक सरल निरंतरता। लेकिन विरासत विच्छिन्नता से भी तय होती है। प्रेमचंद के ‘भक्त’ मुक्तिबोध की कहानियाँ प्रेमचंद से कतई अलग हैं। लेकिन उनमें “स्वाभाविक अच्छाई” की वैसी ही व्याकुल तलाश है जैसे प्रेमचंद में। विरासत का मामला पेचीदा है। मुक्तिबोध का काल बोध कितना विशाल है, यह ‘भविष्य-धारा’ शीर्षक कविता की इन पंक्तियों से जाना जा सकता है,

घने अँधेरे में सुदूर गैसलाइट-सा

वह जल रहा सूर्य

अकेली नीली किरणें फेंक रहा है

                             नीली पतली।

उड़े हुए काले रंग-सा है अपरिसीम

वह दिगवकाश

रश्मि-विकीरण नहीं श्याम शून्य में यहाँ

गुरुत्वाकर्षण विविध ग्रहों के

दिगवकाश की सचिन्त

                     सलवट रेखाओं से

गतिविधि पैदा करते।”

रश्मि विकीरण श्याम शून्य में नहीं हो रहा भले ही वह सूर्य अकेली किरणें फेंकता हुआ दीख रहा हो। विविध ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण सक्रिय हैं। मुक्तिबोध की एक और कविता में विभिन्न गुरुत्वाकर्षणों को अनुभव करने की इच्छा जाहिर की गई है। एक ही नहीं, अनेक प्रकार के गुरुत्वाकर्षण। विभिन्न गुरुत्वाकर्षण के साथ अनेक प्रकार के स्पर्श, अनेकविध संवेदन। “एक टीले और डाकू … ” की ये पँक्तियाँ:

इतने में ज़बर्दस्त एक हवा आती है

उसमें हैं सैंकड़ों प्रवाह

और प्रत्येक धारा में लाख-लाख लहरें हैं

और लहर-लहर में

                  भाँति-भाँति भिन्न-भिन्न

                                     संवेदन-स्पर्श हैं

प्रत्येक स्पर्श में प्रजागरित स्वयंभूत ज्ञान-मर्म

एक-एक मर्म में अनगिनत अंगार

सूरज के संस्कार

ऐसी है वह हवा

               जिसमें सौ अग्निमान नभोपुष्प गन्ध है

अनेक देश-देशों का ज्वलत् जीवनानुभव

परिणति-शक्ति का परिवर्त-स्पन्द है।”

सैंकड़ों प्रवाह, लाख-लाख लहरें, भिन्न-भिन्न संवेदन-स्पर्श, अनगिन अंगार और वह एक में ही! एक हवा में सौ अग्निमान नभोपुष्प-गंध। मुक्तिबोध की कविताओं और आसमान का अहसास कई शक्लों में आता है नभोपुष्प-गंध है तो दूसरी जगह नभोआलाप भी है। जैसे मुक्तिबोध की रचनाएँ ही हों: नभोपुष्प-गंध के साथ नभोआलाप भी। 

जिस बिंदु पर रचनाकार स्थित है, वह भी उसकी ब्रह्मांडीय चेतना का संकेत देता है,

भव्य कुण्डली मार

दीप्त ब्रह्माण्ड-नदी के तेजस्तट पर

खड़ा हूँ मैं

…. और कि छाया मेरी

ब्रह्माण्ड अनेकों पार दूर पृथ्वी पर फैल रही है

….. काल-दिक्-नैरंतर्य-शिखर से बोल रहा हूँ।”

क्या यह अहंकार है? ‘काल-दिक्-नैरंतर्य-शिखर’ पर खड़ा होना क्या सबके बस का है? मुक्तिबोध को पढ़ते हुए आपको निरंतर एक कठिन ऊँचाई का बोध होता रहता है। सिर्फ ऊँचाई का नहीं। विशाल पारावार का। एक सतत प्रवाह का। अगली पीढ़ियों में फिर फिर जन्म लेने का विश्वास:

तुम मेरी परम्परा हो प्रिय

तुम हो भविष्य-धारा दुर्जेय

तुममें मैं सतत प्रवाहित हूँ

तुममें रहकर ही जीवित हूँ”

जिन लोगों में जीवित रहने का आश्वासन है, वे भव्य नहीं हैं, तुच्छ और क्षुद्र हैं किन्तु वे रुद्र हैं, वे स्वयं भीषण क्षोभ हैं, और वे ‘काल-सिंह-आसनस्थ’ हैं। सिंह-आसनस्थ मात्र सिंहासन का विच्छेद नहीं है। वह काल के सिंह को आसन बनाने की चुनौती है।

यह कविता आह्वानपरक है। इसमें उद्बोधन का, ललकार का ज़ोर है। लेकिन उसके साथ जिस दायित्व के निर्वाह का आह्वान है, उसकी जटिलता और उसके रोज़मर्रापन का ब्योरा भी है। परंपरा कैसी है:

उग रहा तुम्हारे अन्तर में सिर उठा

एक कण्टक पौधा

जो ठाठदार

मौलिक सुनील

                      वह मैं ही हूँ!!”

इस ठाठदार पौधे का वर्णन प्यार और गर्व से किया जाता है,

वह ऊँची एक नील कोंपल जिसके प्रदीर्घ पत्तों में बड़े-बड़े काँटे

और पात्र-कगारों पर ऊँचे खुरदुरे शूल

कि पत्तों के पिछले हिस्सों पर सूक्ष्म बहुत बारीक

                                                  कण्टकावलियाँ”

काँटे सोने नहीं देंगे। लेकिन जिसके ह्रदय में यह कंटक-तरु उगा है उसके

चेहरे पर धूल-धूल औ

मरु-प्रसार चमकेगा चट्टानी चिलचिलाहटें होंगी आँखों में!!”

मुक्तिबोध की शैली पर विचार करते हुए ध्यान जाता है कि वे एक-एक संवेदना को सटीक और निश्चित तरीके से व्यक्त करना चाहते हैं। इसलिए मोटी कूची चलाकर वे आगे नहीं बढ़ जाते। कंटक-पौधा आगे कंटक-तरु बन गया गया है। वह ठाठदार है और सुनील है। उसके पत्ते प्रदीर्घ हैं। ‘पत्र-कगार’ पर अगर आप अटक नहीं जाते तो अभी आप मुक्तिबोध के पूरे पाठक नहीं हुए हैं। पत्तों के किनारे के लिए ‘पत्र-कगार’ तो मुक्तिबोध ही लिख सकते हैं। और वही निगाह फौरन पत्र-कगार से “पत्तों के पिछले हिस्सों” पर पहुँच जाती है और उनमें ‘सूक्ष्म बहुत बारीक कंटकावलियाँ” निहारती है। मुक्तिबोध एक सावधान चित्रकार की तरह ब्योरे उभारते हैं।

यह नीला कँटीला पौधा तकलीफ देता है। लेकिन उसका आकर्षण दुर्निवार है। वह साधारण नहीं:

नीला पौधा

यह आत्मज

रक्त-सिंचिता हृदय-धरित्री का

आत्मा के कोमल आलवाल में

वह जवान हो रहा

कि अनुभव-रक्त में-ताल में डूबे उसके पदतल

जड़ें ज्ञान-संविदा

कि पीतीं अनुभव

वह पौधा बढ़ रहा तुम्हारे उर में अनुसन्धित्सु क्षोभ का बिरवा”

जड़ें अनुभव पीतीं हैं और बढ़ती हैं, आगे कविता में वे ‘अनुसन्धानी जड़ें’ हैं जो उस चबूतरे को तोड़ देती हैं जिसने पौधे, बिरवे या तरु को बाँध रखा है। कवि पौधे के बारे में इतना ही कहकर संतुष्ट नहीं है:

इन नील सकंटक पत्रों में है इत्र

प्रेम का

भव्य ज़िन्दगी का सत है।”

आगे फिर यह बिंब जटिल हो उठता है,

कि तेल प्रदाहक है प्राण के नेम का

पर काँटे है

विक्षुब्ध ज्ञान के तीव्र

उद्विग्न वेदनापूर्ण क्षोभ की नोक…”

जो इत्र या जीवन का सत है वह प्राण के नेम का ‘प्रदाहक तेल’ है। हिंदी का ऐसा इस्तेमाल, उसके भीतर छिपी ताकत का ऐसा अहसास किसी और कवि की कविता नहीं कराती। निराला की नहीं, अज्ञेय की नहीं, प्रसाद की नहीं, दिनकर की नहीं। हिंदी के इतने स्तर हो सकते हैं और उसमें इतने तनाव की सृष्टि की जा सकती है, यह किसी और कवि को पढ़कर नहीं मालूम हो सकता। मुक्तिबोध जैसे भाषा की खुदाई करते हैं, उसपर हल ही नहीं ट्रैक्टर चलाते हैं, उसकी चौड़ी हवाओं में उड़ते हैं और उसके नुकीले शिखर पर डैने समेटकर सामने रेगिस्तान के प्रसार पर एक चील की निगाह डालते हैं और उनकी नजर उसमें उग रहे उस नील पौधे पर जा टिकती है। पूर्वा ने ठीक ही कहा कि ऐसा लगता है कि मुक्तिबोध के पास एक खुर्दबीन और एक दूरबीन, दोनों हैं। वे ज़िंदगी को बहुत गौर से देख रहे होते हैं, मानो उसमें डूब गए हों, उसके विस्तार की गहराइयों में कि अचानक उन्हें झटका लगता है और वे वापस इस साधारण जीवन में लौट आते हैं।

मुक्तिबोध खुद बेचैन हैं और उस बेचैनी, व्याकुलता को जो ज्ञान-प्रेरित है, सबमें जगाना चाहते हैं,

भोजन के समय कि कौर उठा

आये मुँह तक कि एक झटका…

अकस्मात् दिखती हैं चारों ओर

अमल दिक्काल-दर्पणावलियाँ ही

उनमें उदास भूखी मुख-छवियाँ झलक उठीं

रास्ते के कागज़ खाती भूखी गाएँ वे

घूरे पर अन्न बीनती गरीब माँएँ वे

गंदे कटाह माँजते हुए बालक-चेहरे

हाय-रे!!”

ठठरी निकली गायों का खुर घिसता यूथ विषण्णता का भाव जगाता है, कागज़ खाती हुई गायों के साथ घूरे पर अन्न बीनतीं माँएँ याद आती हैं।

कविता रचना फिर क्या है? दुख का विष पीना, आपत्ति-धतूरा खाना, भागना, पीटना और पिटना, विश्व को तराशना। लेकिन यह सामने से आलीशान दीखती इमारत के पिछवाड़े पहुँचकर

जहाँ कि काली गलियों की

अति श्याम रंग फैंटेसी

अंत-शंट अँधेर, धुँधलका,

अमिला पानी,गंदी साँस , उबास

सभ्यता की सण्डास कि चोरी और मुचलका 

राख, भाग्य का फेर

चौड़े भांडे, मैले पड़े बर्तन ढेर-के ढेर

मलते पीले मटमैले बालक निस्सहाय”

करना क्या है?

जा घुसो उन्हीं में तडित्-प्राय

तुम हाथ लगाओ, बर्तन मलो बहुत तेजी से 

गलो हृदय में!!

उनकी स्याह निराशा आँखों में आँजो

बर्तन माँजो

उतर जायँ सब मोटे छिलके

घिनी सभ्यता के।

आत्मा का घट रिसे कि ढुलके

किन्तु न रोओ यों करुणा से अबेर-सबेर

 अभी माँजना कई कटाह ढेर-के ढेर!!”

यह काम सभ्यता के ऊपर मैल की इन मोटी परतों को उतारने का है। लेकिन उतना ही नहीं:

बीच सड़क में बड़ा खुला है एक अँधेरा छेद,

एक अँधेरा गोल-गोल निचला-निचला भेद,

जिसके गहरे-गहरे तल में

                         गहरा गन्दा कीच।”

वहाँ बर्तन थे, यहाँ मैनहोल है:

उनमें फँसे मनुष्य…

घुसो अँधेरे जल में

गंदे जल की गैल

स्याह-भूत से बनो, सनो तुम

मैन-होल से मनों निकालो मैल

काल-अग्नि के बनो प्रचंड हविष्य जब कि सभ्यता एक अँधेरी

भीम भयानक जेल

तोड़ो जेल, भगाओ सबको, भागो खुद भी।”

काले चीकट कड़ाह, सभ्यता की इस मैल को हटाना, भीम भयानक सभ्यता की जेल को तोड़ना। कवि की भाषा का संघर्ष यह है।

One thought on “एक कण्टक पौधा ठाठदार मौलिक सुनील”

  1. हिंदी का ऐसा इस्तेमाल, उसके भीतर छिपी ताकत का ऐसा अहसास किसी और कवि की कविता नहीं कराती। निराला की नहीं, अज्ञेय की नहीं, प्रसाद की नहीं, दिनकर की नहीं। हिंदी के इतने स्तर हो सकते हैं और उसमें इतने तनाव की सृष्टि की जा सकती है, यह किसी और कवि को पढ़कर नहीं मालूम हो सकता। मुक्तिबोध जैसे भाषा की खुदाई करते हैं, उसपर हल ही नहीं ट्रैक्टर चलाते हैं, उसकी चौड़ी हवाओं में उड़ते हैं और उसके नुकीले शिखर पर डैने समेटकर सामने रेगिस्तान के प्रसार पर एक चील की निगाह डालते हैं और उनकी नजर उसमें उग रहे उस नील पौधे पर जा टिकती है। पूर्वा ने ठीक ही कहा कि ऐसा लगता है कि मुक्तिबोध के पास एक खुर्दबीन और एक दूरबीन, दोनों हैं। वे ज़िंदगी को बहुत गौर से देख रहे होते हैं, मानो उसमें डूब गए हों, उसके विस्तार की गहराइयों में कि अचानक उन्हें झटका लगता है और वे वापस इस साधारण जीवन में लौट आते हैं।

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