मुक्तिबोध शृंखला:37
जिस सृष्टि को हम जानते हैं उसमें मनुष्य अकेला प्राणी है जिसके पास सृजन की क्षमता है। सृजन की क्षमता के मायने क्या हैं? मनुष्य ही अपनी प्रजातिगत सीमा को जानता है और उसका अतिक्रमण भी कर सकता है। प्रजातिगत सीमा या विवशता के दायरे में मनुष्येतर सृष्टि रहती है। अपने संरक्षण और अपनी अभिवृद्धि की क्रिया प्रत्येक प्राणी करता है। मनुष्य भी। लेकिन वह उससे आगे भी जाता है। वह अनिवार्य के दायरे से निकलकर अतिरिक्त के मैदान में भ्रमण करना चाहता है। कह सकते हैं कि यह अतिरिक्त ही उसकी मनुष्यता को परिभाषित करता है। अधूरेपन के अहसास से पीड़ित मनुष्य स्वयं को पूर्ण करने की यत्न योजना करता है। अधूरापन, अपर्याप्तता के बोध के कारण खुद में कुछ जोड़ने, कुछ नया जानने की प्रेरणा मिलती है। इसी के कारण हम अपनी ऐंद्रिक बाध्यताओं और सीमाओं का अतिक्रमण कर भिन्न (मनुष्येतर) संवेदनाओं से भी युक्त होते हैं।
यह अतिरिक्तता प्रजातिगत सीमाओं में और उनके बाहर हासिल की जाती है। अन्य प्रजातियों से मनुष्य के संबंध बनाने के प्रयास, और वह मात्र उन्हें अपनी प्रजाति की अभिवृद्धि के लिए उपयोगी मानकर नहीं, जाने कब से किए जा रहे हैं। ऐसा करते हुए मनुष्य अन्य प्रजातियों के कुछ अंश खुद में शामिल करता जाता है। मनुष्य के संवेदना तंत्र में जो जटिलता आती जाती है, वह इस कारण भी।
इस जटिलता का एक कारण यह भी है कि मनुष्य जो कुछ भी करता है, उसे वह विचार का भी विषय बना लेता है।
मनुष्य जिस भूगोल और जिस काल में रहता है उसके बोध से वह सीमित नहीं रहता। वह इनके परे भी जा सकता है, जाता है। वह इनका अतिक्रमण कर सकता है, यह बोध उनके भीतर रहते हुए भी उसे है। इसके चलते उसमें मात्र अतीत का बोध नहीं, बल्कि भविष्य का बोध भी सक्रिय रहता है। ठीक ही कहा गया है कि मनुष्य को भविष्य की स्मृति भी रहती है। वह अपने अतीत की संतान है लेकिन वह खुद अपना अतीत सृजित भी करता है। जैसे भविष्य। वर्तमान में रहते हुए अतीत और भविष्य के बोध के कारण उसमें विच्छिन्नता और निरंतरता, दोनों उसे विचलित करती हैं। मुक्तिबोध ‘काल-दिक्-नैरंतर्य के शिखर’ से विश्व, और मनुष्यता के प्रसार की निरीक्षक दृष्टि को ही मानवीय दृष्टि मानते हैं। सही मायनों में मानवीय।
अतीत का सृजन या अतीत से विछोह, उस अतीत में लौट जाने की इच्छा! उसी प्रकार एक भविष्य का निर्माण जो वर्त्तमान से असंतोष के कारण और असंतोष का कारण, दोनों ही है। अतीत, वर्तमान और भविष्य के बीच एक संबंध की कल्पना या चेतना भी मनुष्य की विशेषता है। अतीत बोध से रिक्त और भविष्य की कल्पना से रहित मनुष्य को मनुष्य मानने में कठिनाई है। जो इस क्षण से आगे और पीछे की कल्पना से शून्य है, उसे इस क्षणकी भी चेतना नहीं है। क्योंकि यह क्षण तो एक सम्बन्ध-संजाल में ही अपना अर्थ ग्रहण कर पाता है।
मुक्तिबोध के आरमभिक दौर की एक कविता है, “लोभनीय लोक,” उसमें अतीत ही भविष्य का आभास देता है,
“क्यों अपार लोभनीय लोक का अंतराल-आलोक
दिखा देती हैं ये
…. क्यों मेरे मन के पाखी को सहसा उकसा देती हैं ये
मन के एक अकेले कोने में हँसती फिरती
नीली परछाईं-सी
यह कोई धुँधली स्मृति-रेखा ही है
जो आज बता ही देती है
यों किसी मनोहर भावी की
सम्भाव्य रूपरेखाएँ सब”
जो अनिर्मित है उसकी चेतना भी है,
“अरे! अनिर्मित नक्षत्रों की
द्युति-मेघों की सरिताएँ
मेरे अंतर में प्रवाहिता, व्यथिता हैं
यदपि आज स्मृति-रूपा हैं
वे मेरी सत्य-शक्तियों की
पर सहसा आज स्वचेत हुईं”
मानवीय होना प्रयत्नसाध्य है। मानवीय अवस्था प्रदत्त प्रतीत होती है। यानी प्रत्येक मनुष्य मानवीय हो ही, यह एक हद तक ही ठीक है। ‘मुक्तिबोध:ज्ञान और संवेदना’ नामक अपनी पुस्तक में नंदकिशोर नवल लिखते हैं,
“मनुष्य समाज और प्रकृति को बदलने की क्रिया में भाग लेता है और उस प्रक्रिया में स्वयं बदल जाता है। … वह उसी हद तक मनुष्य है, जिस हद तक वह सृजनकर्ता है। मुक्तिबोध ने अपने लेखन से मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी को ‘सृजनात्मक व्यक्तित्व’ में रूपांतरित करने का भरसक प्रयास किया है।”
नंदकिशोर नवल का कहना है कि तुलसीदास के बाद चरित्र की बुनियाद पर ऐसा गहरा प्रभाव डालने का यह दूसरा बड़ा प्रयास है। इस साम्य और तुलना को लेकर विवाद हो सकता है। यह भी दिलचस्प है कि एकाधिक स्थलों पर मुक्तिबोध पीड़ा की रामायण और अग्नि के स्वर्णाक्षरों से लिखी जानेवाली नई रामायण जैसे प्रयोग करते हैं। अपनी कविताओं में वे तुलसी और प्रेमचंद को याद करते हुए, उनके पात्रों को भाव-पुंज के रूप में प्रस्तुत करते हैं। भगवान राम की शबरी और ऊर्मिला उनकी कविताओं में प्रकट होती हैं। इससे कुछ लोगों को असुविधा हो सकती है लेकिन रचनाकार के रिश्ते इतने ही विचित्र और विविध प्रकार के होते हैं। लेकिन अभी हम इसपर विचार नहीं कर रहे।
सृजन का अर्थ क्या है? क्यों मनुष्य सृजन करते हुए ही खुद को मनुष्य जान पाता है? सृजन का अर्थ ही है एक ऐसी वस्तु का निर्माण जो पहले से वजूद में नहीं है। साथ ही खुद से अलग एक अस्तित्व। जो बनाई जाती है या जिसका सृजन किया जाता है उसपर सृजन करनेवाले का स्वामित्व एक हद तक ही रहता है। सृजित वस्तु का अस्तित्व स्वतंत्र है और वह सर्जक के साथ खुद एक तनावपूर्ण संबंध का निर्माण करती है। क्या सृजन करते समय मैं अपने ही अस्तित्व को खुद से अलग करता हूँ? क्या मेरी सृजित वस्तु मुझे खुद को एक नई निगाह से देखने की प्रेरणा है या बाध्यता?
सृजन अपने व्यक्तित्व एक अंश को स्वयं से अलग करना ही नहीं है, वह संबंधों की नई चेतना है। अपने परिवेश, प्रकृति, समाज, इतिहास, भविष्य सबके साथ रिश्तों की चेतना सृजन में मौजूद है। वह रिश्तों को नए सिरे से गढ़ना भी है। रिश्तों को खोजना भी है। मुक्तिबोध की रचनाओं में संबंधों की तलाश की उत्कटता से उनके प्रत्येक पाठक को उत्तेजित करती है। नए संबंध का अर्थ है खुद को नया करना। इस तरह मनुष्य निरंतर अपना नया सृजन करता रहता है। खुद को गढ़ना, खुद को नया करना! रूपांतर या व्यक्तित्वांतरण, मुक्तिबोध के प्रिय पद हैं।
रूपान्तरण या व्यक्तित्वांतरण सम्भव नहीं है जबतक नया परिचय स्थापित न किया जाए। ‘मुझे याद आते हैं’ में उनके चित्र हैं जिनसे घुल मिल जाने की तड़प है:
“दूर-दूर मुफलिसी के टूटे-फूटे घरों में
सुनहले चिराग बल उठते हैं;
आधी-अँधेरी शाम
ललाई में निलाई से नहाकर
पूरी झुक जाती है
थूहर के झुरमुटों से लसी हुई मेरी इस राह पर!”
आप इस चित्र में मुफलिसी और सुनहरे चिराग, ललाई में निलाई से नहाई आधी-अधूरी शाम पर ध्यान ज़रूर दें। आगे,
“धुँधलके में खोए इस
रास्ते पर आते-जाते दीखते हैं
लठधारी बूढ़े-से पटेल बाबा
ऊँचे-से किसान दादा
वे दाढ़ीधारी देहाती मुसलमान चाचा और बोझा उठाए
माएँ, बहनें, बेटियाँ –
सबको ही सलाम करने की इच्छा होती है,
सबको राम-राम करने को चाहता है जी
आँसुओं से तर होकर प्यार के…”
‘ज़िंदगी का रास्ता’ शीर्षक कविता में सृजन के संघर्ष की कहानी कही जाती है। सृजन का संघर्ष कड़ा है लेकिन उसमें सृजन की विजय होती ही है,
“सुबह से लगाकर तो शाम के किनारे तक,
फूलों के ताज़ा ओठों खिली मुस्कान-से
तो ताराओं के इशारे तक,
(रास्ते पर चलते अथवा कहीं पर
करते हुए मेहनत)
कष्टजीवी चिर-व्यस्त
रामू के सर्जनशील भाव चलते ही रहते हैं।”
सृजन कोई घटना नहीं है, वह मानव-स्वभाव है, उसकी रोज़ाना की ज़िंदगी का हिस्सा। सृजन अपना महत्त्व स्थापन है, लेकिन अहं-सिद्धि के रूप में नहीं:
“अंदर, अंतःसलिला में
अंधता, उपेक्षा की बर्फ गलती रहती है।
खुली आँखों, खुले अन्तर घूमने पर मुष्यों के धकधक करती प्राणमयी
कहलती-फिरती दुनिया के क़दमों को चूमने पर,
ज़िंदगी में हिम्मत का, ताकत का झरना झरता रहता है;
आत्मा गीली रहती है (मस्तक में घूमनेवाली) कथाओं से मानवी,
व दिल ऊँचा रहता है विचारों की पताका-सा व स्वच्छ रहता मस्तिष्क
प्रतिच्छाया लिए हुए मानव के रूप की।
रास्ते पर चलते हुये,
करते हुए मेहनत,
सुनहली आभाएँ फैलती हैं विचारों के धूप की।
चिर-व्यस्त रामू के
सृजनशील भाव चलते रहते हैं।”
जान-संघर्षों में रामू निज को तदाकार-संलग्न पाता है, गहन सहचरता के बोध से आँसू उठ आते हैं और वह वर्तमान जीवन की दुःस्थिति में जो गहरे जन-संघर्षों की है, उसकी वेगवान गति में रामू अपना स्थान खोज लेता है और इसके कारण,
“अपना ही पुनःशोध
रामू को होता है, होता है पुनर्बोध स्वयं का!”
यह पुनर्बोध बिना अपने एक हिस्से के बलिदान के संभव नहीं। इसलिए सृजन के लिए विसर्जन अपने व्यक्तित्व का, जिस रूप में वह है, अनिवार्य है।
व्यक्तित्वांतरण एक मुश्किल और तकलीफ़देह प्रक्रिया है। आत्मा की तैयारी, उसका अभ्यास करना पड़ता है:
“किसी एक बलवान तम श्याम लुहार ने बनाया
कण्डों को वर्तुल ज्वलंत मण्डल।
स्वर्णिम कमलों की पाँखुरी-जैसी ही
ज्वालाएँ उठती हैं उससे,
और उस गोल-गोल ज्वलंत रेखा में रक्खा
लोहे का चक्का चिनगियाँ स्वर्णिम नीली व लाल-लाल
फूलों-सी खिलतीं।
कुछ बलवान जन साँवले मुख के
चढ़ा रहे लकड़ी के चक्के पर जबरन
लाल-लाल लोहे की गोल-गोल पट्टी
घन मार घन मार
उसी प्रकार अब आत्मा के चक्के पर चढ़ाया जा रहा
संकल्प शक्ति के लोहे का मजबूत
ज्वलंत टायर!!”
यह दृश्य मुक्तिबोध को बहुत प्रिय है और ‘अँधेरे में’ कविता के अलावा भी अन्य स्थलों पर मिलता है जैसे उनके बहुत सारे बिंब अलग-अलग कविताओं में बार-बार इस्तेमाल किए जाते हैं। अन्य कवि प्रायः ऐसा नहीं करते। मुक्तिबोध को इसकी परवाह नहीं कि उनपर दुहराव का आरोप लगाया जाएगा। वे जिस संवेदना-रूप का सृजन कर रहे है, उसका अभ्यास पाठक को करवाना ही है। व्यक्तित्वांतरण की प्रक्रिया में यंत्रणा है लेकिन उसका सौंदर्य और उल्लास उस यंत्रणा को सह्य बल्कि स्वागतयोग्य बना देता है:
“गेरुआ मौसम, उड़ते हैं अंगार,
जंगल जल रहे ज़िंदगी के अब
जिनके कि ज्वलत् प्रकाशित भीषण
स्कूलों से बहतीं वेदना नदियाँ
जिनके कि जल में सचेत होकर सैकड़ों साड़ियां ज्वलंत अपने
बिम्ब प्रसारित करती हैं प्रतिपल।”
ये वेदना नदियाँ कैसी हैं? इनमें प्रवाहित होनेवाला जल क्या है?
“वेदना-नदियाँ जिनमें कि डूबे हैं, युगानुयुग से
पिताओं की चिंता का उद्विग्न रंग भी,
विवेक-पीड़ा की गहराई बेचैन,
डूबा है जिसमें श्रमिक का संताप।
माँओं के आँसू।
वह जल पीकर,
मेरे युवकों में व्यक्तित्वांतर
विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह से करते हैं संगर,
मानो कि ज्वाला-पंखुरी-दल में घिरे हुए वे सब
अग्नि-कमल के केंद्र में बैठे।”
लोहे के चक्के पर टायर चढ़ाने वाले दृश्य की स्वर्णी कमलों की पाँखुरी जैसी ज्वालाओं से इस ज्वाला-पंखुरी-दल की तुलना कीजिए। वेदना नदियों के जल के प्रसंग में माँ, पिता और श्रमिक के एक साथ उल्लेख पर भी ध्यान दीजिए। यह पूरी प्रक्रिया माँ और पिता के आ जाने से कितनी आत्मीय हो उठी है! राजनीति की निर्वैयक्तिता को तोड़कर मुक्तिबोध उसे एक निजी अनिवार्यता बना देते हैं, एक घरेलू आवश्यकता।
सृजन उद्देश्यपूर्ण है। अगर वह सृजन है। वह एक समस्या का उत्तर है। और वह समस्या, दुर्भाग्य से, कभी मानव-इतिहास में पूरी तरह सुलझाई नहीं जा सकी। मुक्तिबोध के काम्य साम्यवादी समाज में भी नहीं। ‘चकमक की चिनगारियाँ’ में वे इस सरल प्रश्न को उतने ही सरल और सीधे तरीके से पूछते हैं,
“मुझ पर क्षुब्ध बारूदी धुँए की झार आती है
व उन पर प्यार आता है
कि जिनका तप्त मुख
सँवला रहा है धूम लहरों में
कि जो मानव भविष्यत् युद्ध में रत है
जगत् की स्याह सडकों पर।
कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
सभी प्रश्नोत्तरी की तुंग प्रतिमाएँ
गिराकर तोड़ देता हूँ हथौड़े से
कि वे सब प्रश्न कृत्रिम और
उत्तर और भी छलमय”
कृत्रिम प्रश्न और छलमय उत्तर के जाल से मुक्त करना खुद को, बल्कि उसके प्रलोभन से बचना आसान नहीं। लेकिन अगर ऐसा नहीं किया गया तो सृजन भी छला है। इसलिए सवाल सीधा है,
“समस्या एक
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव
सुखी, सुन्दर व शोषण-मुक्त
कब होंगे?”
इस प्रश्न की निपट निबंधात्मक गद्यात्मकता से आप चकित रह जाते हैं! लेकिन जैसे मुक्तिबोध की कविता यह फैसला सुनाती है कि पूँजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता वैसे ही वह यह सीधा सवाल भी कर सकती है। और इसी समस्या के समाधान के लिए
“…मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
उमगकर
जन्म लेना चाहता फिर से,
कि व्यक्तित्वांतरित होकर,
नये सिरे से समझना और जीना
चाहता हूँ, सच!!”
जन्म लेना एक बार नहीं बार-बार! यह संघर्ष कभी खत्म नहीं होता. इसलिए सृजन की संभावना अपार है। कोई अंतिम बिंदु, विश्राम का नहीं:
“नहीं होती, कहीं भी ख़तम कविता नहीं होती
कि वह आवेग-त्वरित काल यात्री है।
व मैं नहीं उसका कर्ता,
पिता-धाता
कि वह कभी दुहिता नहीं होती,
परम स्वाधीन है वह विश्व-शास्त्री है।
गहन-गंभीर छाया आगमिष्यत् की
लिए, वह जन-चरित्री है।”
इसके हरेक शब्द को ठहर-ठहर कर पढ़िए। और आगे बढ़िए,
“नए अनुभव व संवेदन
नएअध्याय-प्रकरण जुड़
तुम्हारे कारणों से जगमगाती है
व मेरे कारणों से सकुच जाती है”
तुम्हारे कारणों से जगमगाहट और अपने कारणों से संकोच! इस विनम्रता के बिना सृजन कैसे और क्योंकर हो? और इस अहसास के बिना कि सृजित पर अधिकार करके सर्जक उसकी ह्त्या कर देता है. याद यह रखना है कि वह परम स्वाधीन है! हमेशा अधूरी ही है और रहेगी यह सृजन की यात्रा। कविता कभी पूरी नहीं होगी और मैं भी बार-बार जन्म लेता रहूँगा!