मुक्तिबोध शृंखला:38
“मुक्तिबोध की कविताओं में सदैव एक साथीपन का भाव है.” शमशेर बहादुर सिंह ने ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ की भूमिका में लिखा. इसके साथ यह कि मुक्तिबोध की कविता जैसे “हमारी बातें हमीं को सुनाती हो और हम अपने को एकदम चकित होकर देखते हैं, और पहले से और भी अधिक पहचानने लगते हैं.”
साथीपन, मित्रता और क्या है अगर वह हमारा आइना नहीं जिसमें देखते हुए हम खुद को पहले से अधिक पहचानने लगते हैं. ‘अँधेरे में’ कविता के पहले अंश में पदचाप सुनाई देती है जिससे दिल की धड़कन बढ़ जाती है. जो सुनाई देता है, लेकिन नहीं देता दिखाई, वह कौन है? कविता में आगे एक आकार उभरता है. क्या वह इस ध्वनि का ही रूप है? लेकिन वह दिखाई तो देता है पर जाना नहीं जाता. और बाद में जब सलिल के तम श्यान शीशे में एक चेहरा उभरता है तो वह समझ में नहीं आता. कविता फिर जंगल के बीच एक खोह में मशाल के लाल प्रकाश के धुंधलके में वह दिखलाई देता है: गौर वर्ण, सौम्य मुख, दीप्त दृग, भव्य आजानुबाहु!
इस रहस्यमय व्यक्ति को देखकर अंग-अंग में अजीब एक थरथराहट दौड़ जाती है. वह भय की नहीं है. “संभावित स्नेह-सा प्रिय रूप देखकर” जैसे रोमांच हो उठे, वैसी ही भावना है. वह
“रहस्यमय व्यक्ति
अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है
पूर्ण अवस्था वह
निज-सम्भावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिभाओं की,
मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,
हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,
आत्मा की प्रतिमा.”
यह रहस्यमय व्यक्ति बार-बार लौटता है, अवसर, अनवसर, सुविधा-असुविधा का खयाल किए बगैर! उसकी पुकार कैसी है?
“सूनापन सिहरा
अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले उभरे,
शून्य के मुख पर सलवटें स्वर की,
मेरे ही उर पर धँसाती हुई सिर,
छटपटा रही हैं शब्दों की लहरेंमीठी हैं दुःसह!!
….
कोई मेरी बात मुझे बताने के लिए ही
बुलाता है—बुलाता है
हृदय को सहला मानो किसी जटिल
प्रसंग में सहसा ओठों पर
होंठ रख, कोई सच-सच बात
सीधे सीधे कहने को तड़प जाए,
और फिर वही बात सुनकर धँस जाए मेरा जी-”
वह जो प्रतीक्षातुर है, द्युतिमय मुख और प्रेम भरा चेहरा, जो बार-बार आता है न सुने जाने के बावजूद वह कौन है? कविता में वह दीखता नहीं. साँकल की आवाज़ से अनुमान होता है कि उसके चेहरे पर खिलती हैं सुबहें और गालों पर चट्टानी चमक पठार की और आँखों में किरणीली शांति की लहरें उठ रही हैं. दरवाज़े के पार से भी वह दीखता है और
“उसे देख, प्यार उमड़ता है अनायास!
लगता है—दरवाजा खोलकर
बाँहों में कस लूँ,
हृदय में रख लूँ
घुल जाऊँ, मिल जाऊँ लिपटकर उससे”
यह जिसका आकर्षण दुर्निवार है लेकिन जिससे मिलना और जिसे सुनना खतरे से खाली नहीं क्योंकि वह मन का चैन हर लेता है, नींद भुला देता है, वह कौन है?
मुक्तिबोध की कविताओं में मित्र की तलाश इतनी उत्कट है कि प्रेमी और मित्र के बीच की रेखा मिटती जान पड़ती है. मित्र वही हो सकता है जो बार-बार लौटे और जो मात्र मेरे अस्तित्व का समर्थन न करे! मित्रता इस प्रकार दुखदायी है. लेकिन बिना मित्र के जीवन सार्थक भी नहीं. ‘बिना तुम्हारे’ शीर्षक कविता में मित्रता या स्नेह के अभाव का भीषण भाव है,
“बिना तुम्हारे बंजर होगा आसमान
ऊजाड़ होगी सारी ज़मीन!!”
फिर, उसी धधकते हुए सूर्य
के तले प्रखर,
सब ओर चिलचिलाती काली चट्टानों पर
ठोकर खाता, टकराता भटकेगा समीर!!
भौहों पर धूल-पसीना ले, तन-मन हारा,
बेचैन रहूँगा फिरता मैं मारा-मारा,
देखता रहूँगा क्षितिजों की
सब तरफ गोल-गोल लकीर!!”
इस बिंब को भी देखिए. इसकी भव्यता और इसकी तड़प को! मैं सब कुछ करूँगा, सारे कर्तव्य का निर्वहन, लेकिन मित्रविहीन
“मैं किसी पहाड़ी टीले पर निःसंग एक
श्यामल विहंग
देखता रहूँगा निर्निमेष
धूप की दहकती छाती में, जी में,
प्रति निमिष रेंगता हुआ काल धीमे-धीमे”
यह भी मुक्तिबोध का एक प्रिय बिंब है: किसी ऊँचाई पर, शिखर पर निःसंग एक श्यामल पक्षी. इस कविता में ‘आसमान के तल में जलते हुए काल’ और ‘जलते मैदानों की आँच लिए सैंकड़ों मील पारकर आती तेज़-रफ़्तार हवा’ को महसूस कीजिए. उस हवा के
“कन्धों पर चढ़,
साथ हमेशा
घूमता फिरूँगा,
देखूँगा प्रतिपल जलते हुए देश
के नए-नए जीवन-प्रदेश
क्लेश के.”
जलता हुआ देश कौन सा है जिसमें क्लेश के जीवन-प्रदेश भरे हुए हैं? जवाब यह हो सकता है कि कौन-सा देश है जो ऐसा नहीं है! मनुष्य की स्थिति क्या कभी इससे पूरी तरह मुक्त हो पाएगी? इसीलिए मनुष्य हमेशा ही इस क्लेश के भाव से पीड़ित रहने को बाध्य है. वह हमेशा ही वेदना के प्रदेश का वासी ही होगा अगर वह जाग्रत संवेदना युक्त है तो!
मित्रता के बिना, मित्रता के प्रेमभाव के बिना क्या जीवन की यह वेदनापूर्ण यात्रा की जा सकती है? अगर वह नहीं है तो भी उसकी अनुपस्थिति की चेतना तो है ही. वही मुझे संभाल लेगी क्योंकि उसकी अनुपस्थिति में भी उसके होने का एक आश्वासन तो है:
“यद्यपि, मेरे मुँह पर होगा
धूल के बवंडर का पल्ला,
या सभी तरफ से वीरानी का हमला,
फिर भी सूनेपन के आईने में
चमकेगा लगातार
मेरी आँखों में रमे हुए
मीठे आकारों का निखार.”
और वह जो नहीं है, वह मुझे इस हाल में भी देखती रहेगी,
“मैं जिधर दृष्टि डालूँगा, पाऊँगा सखेद
साँवले, हरे, भूरे, सफ़ेद
मैदानों के फैलावों पर तैरती हुई
झिलमिल-झिलमिल मुख छवि मुझको
देखती हुई
ज्योत्स्नाशाली निज मानव-रूप बना
मुझको देखेगी मनोमन्थिनी मरीचिका.”
यह सारी भव्यता, ये सारे बिम्ब जो प्राणों के अभिन्न अंग हैं, वे सब स्नेह के बिना, मित्रता के अभाव में व्यर्थ हैं,
“…बिना तुम्हारे, यह यथार्थ
हो जाएगा उद्भ्रांत व्यंग्य
श्री-हीन दीन !!”
मित्रताविहीन जीवन श्री–हीन है, दीन है. मित्र लेकिन कठिन है! वह कौन है और क्या करता है? ‘उपकृत हूँ’ कविता में वह मित्र प्राणों का सहचर है:
“मेरे अन्तर के, प्रकाश-विह्वल पृथ्वी के
चारों ओर घूमनेवाले हे कोमल ग्रह!
साथ-साथ रवि-पथ पर चलनेवाले साथी!
कितनी मूल्यवान है तेरे प्रगतिमान तन-मन की छाया…”
लेकिन कोमलता के पीछे, “मीठी मुस्कानों के पीछे निष्ठुर व्यंग्य” है जिनकी चोटों से “धुँधले सपनों की माया” फट जाती है. आत्म-वंचना, क्षुधित अहं और यश-अर्जन की आकांक्षा की वंचना का उद्घाटन यह मित्र, सहचर का यह निष्ठुर व्यंग्य करता है. इससे कष्ट तो होगा लेकिन ऐसा करने के लिए कृतज्ञता ही है,
“हे प्राणों के सहचर,
केवल एक व्यंग्य से तुमने मेरे मर्मस्थल में
कितनी यातनाओं के गहरे अर्थ भर दिए,
मानो सारा विश्व ही मिल गया मुझे एकदम.
और खुल गईं तहें मानवी छुपे मर्म की.”
मित्र के प्रति इस प्रकार की निष्ठुरता क्यों? ‘हाशिए पर कुछ नोट्स’ में अपने प्रिय को आलोचनात्मक दृष्टि से परखते रहना ही मित्रता के कर्तव्य का सच्चा निर्वहन है,
“मित्र के व्यक्तित्व में गुणों को अपेक्षा किए बिना मैं कैसे रह सकता हूँ? उसमें उन गुणों का जो पूरा मनोहर समुदाय है, वह यदि न हो, तो बताइए, मित्र कैसे मोहित हो, उसमें वह ललक कैसे पैदा हो?”
मित्रता क्या है अगर उसका आधार एक मूल्य-वयवस्था न हो ?
“यदि एक-दूसरे में गुणों की अपेक्षा न रहे तो मित्रता रह ही नहीं सकती… .एक विशेष प्रकार के स्नेह का नाम मित्रता है. वह अपने प्रिय के पूरे व्यक्तित्व के आकलन-ग्रहण पर टिकी हुई है.”
यह सामाजिक अर्थ में जिसे दोस्ती कहते हैं, वह नहीं. मेरे पिता कल बहुत अफ़सोस के साथ अपने एक प्रिय से बढ़ती दूरी के बारे में बता रहे थे. वे, जिनकी विद्वत्ता, मेधा और सांसारिकता से विरक्ति के कारण अब मुसलमानों के प्रति विद्वेष से मलिन होते जा रहे हैं, ऐसा देखकर पिता को तकलीफ़ थी. यह वे अपने स्नेहपात्र को कहें या न कहें? अगर नहीं तो फिर मुक्तिबोध के अनुसार वह सामाजिक दोस्ती भर है. हमारी मित्र से कोई मानवीय अपेक्षा नहीं.
हाँ! इसका खतरा है कि कहीं मित्र पर आप खुद को तो आरोपित नहीं कर रहे? ‘गोरा’ में गोरा और विनय के बीच के द्वंद्व को याद कीजिए.
यह प्रश्न ‘हाशिए पर कुछ नोट्स’ में उठता है:
“..भय तो यह है कि कहीं उसके गुणों के आकलन की आड़ में अपनी पसंदगी तो उस यथार्थ पर नहीं थोप रहे हैं. मानव-यथार्थ का ताना-बाना बहुत गहरा और सूक्ष्म होता है. हमें उस यथार्थ का सिर्फ विश्लेषण करके छोड़ देना चाहिए. यदि वह विश्लेषण हमारे अनुकूल न निकले तो दुखी होने की ज़रूरत नहीं और सचमुच अनुकूल निकले तो बात ही क्या है!”
फिर क्या मित्र के साथ एक प्रकार की दूरी रखना उचित है? जिससे स्नेह है अगर उससे दूरी हो तो गड़बड़ी पैदा हो सकती है,
“मित्र के घनिष्ठ संबंध के अलावा उससे जो हमने दूरी कायम करके रखी है,…उस दूरी के थूहर जंगल में सब पाप-छायाएँ इकट्ठी हो जाती हैं.”
मित्रता में इस तरह एक उत्तरदायित्व का भाव है. परस्परता का अर्थ ही यह है. लेकिन उस संबंध में निवेश बहुत गहरा होता है. ‘आत्मा के मित्र मेरे’ शीर्षक कविता मानो इसी पर विचार करती है. मित्र कौन है?
“जैसे आत्म-परिचय सामने ही आ रहा है मूर्त होकर:
जो सदा ही मम-हृदय-अंतर्गत छुपे थे
वे सभी आलोक खुलते जिस सुमुख पर!
वह हमारा मित्र है,
आत्मीयता के केंद्र पर एकत्र सौरभ. वह बना,
मेरे हृदय का चित्र है!”
लेकिन उसमें इतना दम हो कि वह मेरे हृदय को निज हृदय पर झेल सके. मित्रता कहाँ आरम्भ होती है? उसका प्रदेश कौन-सा है?
“पितृ-मन की स्नेह-सीमा का जहाँ है अंत,
छलछल मातृ-उर के क्षेम-दर्शन के परे जो लोक,
पत्नी के समर्पण-देश की गोधूलि-संध्या के क्षितिज के पार,
जो विस्तृत बिछा है प्रांत”
उस प्रांत में जो प्राण मात्र अपनी व्यक्तिमत्ता के सहारे चल रहे हैं उन्हें अचल विश्वास का वरदान जो देता है, वह मित्र है.
“अपने हृदय के रक्त की ऊषा
पथिक के क्षितिज पर बिछ जाए,
जिससे यह अकेला प्रांत भी निःसीम परिचय की मधुर संवेदना से
आत्मवत् हो जाए
ऐसी जिस मनस्वी की मनीषा,
वह हमारा मित्र है
मात-पिता-पत्नी-सुहृद पीछे रहे हैं छूट
उन सबके अकेले अग्र में जो चल रहा है
ज्वलत् तारक-सा,
वही तो आत्मा का मित्र है.”
‘मेरे मित्र, सहचर’ और ‘मेरे सहचर मित्र’ मुक्तिबोध की दो कविताएँ हैं. कौन हो सकता है सहचर? पहली कविता में इस अभीष्ट, काम्य मित्र का विराट चित्र खींचा जाता है,
“मेरे मित्र, सहचर
….
क्षितिज की जलती हुई भौंहों की रेख वह
तुम्हारी भौंहों को चूमती ही रही है.
अग्नि-परीक्षा से दहकते मैदान
तुम्हारे प्राणों में समाते ही रहे हैं.
….
भव्याकार काली-काली ढकती चट्टान
तुम्हारी छाती की संवेदनोंभरी गुरु
हिम्मत में डूबी है कि डूबती ही रही है.”
यह मित्र हिन्दुस्तानी गलियों के अँधेरे में ज़िन्दगी के प्यास भरे, भूख भरे, अकुलाती बुद्धि के संघर्ष देखता है. इसके कारण इस मित्र में एक भव्य भाव बसा हुआ है. उसके
“क्षितिज के घनश्याम
हृदय में जलते हुए वज्र-सा फँसा हुआ
आधा खुला गोल लाल सूरज आधा धँसा है
किरनीला खंजर तेरी मुस्कानों में बसा है.”
सत्य की पीर इस मित्र को बेचैन रखती है. यह व्याकुल-ह्रदय मित्र दूसरी कविता ‘मेरे सहचर मित्र’ में लौटता है:
“मेरे सहचर मित्र
ज़िंदगी के फूटे घुटनों से बहती रक्तधार का जिक्र न कर,
क्यों चढ़ा स्वयं के कन्धों पर
यों खड़ा किया
नभ को छूने, मुझको तुमने!”
मित्र के वक्षस्थल के भीतर अंतस्तल का विप्लव उमड़ रहा है. उसके हृदय में अनुभव-हिम-कन्या गंगा-यमुना का जल प्रवाहित है. वह मित्र मुझे, मेरे जीवन को उठाने आया है. ‘अँधेरे में’ कविता में वह शिखरों क यात्रा पर ले जाना चाहता है. शिखरों के संधि-गह्वर को रस्सी के पुल पर आप ही चलकर पार करने को कहता है. मेरे सहचर मित्र में ‘अँधेरे में’ का प्रिय प्रकट होता है. वह
“बैठा है पत्थर-कुर्सी पर आजानुबाहु
वह सहसा उठ
आँधी-बिजली-पानी के क्रुद्ध देवता-से
घुस पड़े भव्य उत्तर का अभिवादन प्रचंड
उससे विशाल आलिंगन कर
सहसा वह बहस छेड़ देता
मानव-समाज-रूपांतर विधि
की धाराओं में मग्न
मानवी प्राणों के
मर्मों की व्यथा-कथा..अंगार-तपस्या पर
मानव-स्वभाव के प्रश्नों पर,
मानव-सभ्यता-समस्या पर.”
इस बहस को सुनने से ही मालूम होता है कि
“…तुमने कन्धों पर
सहसा मुझको
क्यों खड़ा किया नभ को छूने
अपने से दुगुना बड़ा किया
जिससे पैरों को उँगली पर
तनकर ऊँची गर्दन कर दोनों हाथों से
मैं स्याह चन्द्र का फ्यूज बल्ब
जल्दी निकाल
पावन प्रकाश का प्राण-बल्ब
वह लगा सकूँ
जो बल्ब तुम्हीं ने श्रमपूर्वक तैयार किया
विक्षुब्ध ज़िंदगी की अपनी
वैज्ञानिक
प्रयोगशाला में.”
मित्र का कर्तव्य मित्र को जाग्रत रखना है, अपनी सारी संभावनाओं के प्रति. मित्र मित्र के जीवन में कैसे शामिल होता है और उसे कैसे सक्रिय रखता है? उसमें खुद अपने प्रति, जीवन के प्रति विश्वास कैसे पैदा करता है?
“खूँखार, सिनिक, संशयवादी
शायद मैं कहीं न हो जाऊँ,
इसलिए, बुद्धि के हाथों पैरों की बेड़ी
ज़जीरें खनकाकर तोडीं
तुमने निर्दय औजारों से,
टूटती बेड़ियों की नोकों
से ज़ख्म हुआ औ’ खून बहा
यह जान तुरत
अपने अनुभव के गंधक का
चुपड़ा मरहम मेरे व्रण पर तुमने सहसा.”
इस भीषण स्पर्श की तेज़ दवा से पूरी देह झनझना जाती है और ढीली नसें तन जाती हैं:
“जब दीप्त तुम्हारी आँखों में
मेरी ताकत बढ़ गई स्वयं.
तुम कर्मवाद के धीर दार्शनिक-से लौटे
गंभीर-चरण चुपचाप कदम.”
यह मित्रता भावुक निर्भरता को टूक-टूक कर देती है और मित्र को स्वतंत्र करती है. इस स्वतंत्रता में आराम कहाँ?
“
“
खुदा सलामत रखे आपको!
आप परवरिश ए लौह व क़लम करते रहेंगे;
जो दिल पर गुजरती है रक़म करते रहेंगे!!!!??
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