मुक्तिबोध शृंखला:39
“एक निर्मल निश्चल आत्मीयता मुक्तिबोध के स्वभाव की लुभावनी खूबी थी. एक साथ ही एक बेचैनी—अपने आपको जानने की, अपने आसपास की दुनिया और उसके लोगों को, उनके और अपने, उनके और दूसरों के संबंधों को समझने की …सच्चाई को, ज़िंदगी के अर्थ को किसी तरह हासिल कर लेने की तड़प.”
अपने मित्र मुक्तिबोध की, ‘ज़िंदगी और साहित्य’ के संस्कार में जो उनसे कतई भिन्न थे, रचनाओं को उनकी मृत्यु के कोई डेढ़ दशक बाद संपादित करते हुए नेमिचंद्र जैन ने यह लिखा. उनके कोई एक दशक बाद नंदकिशोर नवल ने ‘मुक्तिबोध:ज्ञान और संवेदना’ में लिखा,
“मुक्तिबोध की कविताएँ पढ़ते समय जो चीज़ हमारा ध्यान सर्वप्रथम आकर्षित करती है, वह है…ओजस्विता और उदात्तता.”
नेमिजी ने उनमें जिस तड़प और बेचैनी को महसूस किया वही इस उदात्तता का कारण है. मुक्तिबोध का शायद ही कोई पाठक उनकी रचनाओं के आवेश से अछूता रह पाया हो. प्रायः आवेश, ओजस्विता को बौद्धिकता और विवेक के लिए बाधक माना जाता है. शायद इसीलिए अशोक वाजपेयी ने अज्ञेय में विवेक देखा मुक्तिबोध में नहीं. लेकिन भावनाओं में एक सूक्ष्म दृष्टि होती है और उसकी व्यापकता भावनाओं की व्यापकता से तय होती है. मुक्तिबोध ने विवेक और भावना के बीच की कल्पित खाई को ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान की अपनी अवधारणाओं से पाट दिया था. एक के बिना दूसरे का महत्त्व यदि शून्य नहीं तो अल्प है. इसीलिए मुक्तिबोध की कविताओं की तीव्र और गहन ऐंद्रिकता से अप्रभावित रहना कठिन है, वहीं उनको पढ़ते वक्त ही मार्क्स की यह बात समझ में आती है कि इंद्रियाँ ही सिद्धांतकार होती हैं.
नवलजी ने निराला की यह शिकायत दर्ज करते हुए कि
“हिंदी के नवीन पद्य साहित्य में विराट् चित्रों के खींचने की तरफ कवियों का उतना ध्यान नहीं, जितना छोटे-छोटे सुंदर चित्रों की ओर है”,
उनकी इस माँग को मुक्तिबोध के प्रसंग में उद्धृत किया,
“अभी हमारे नवीन साहित्य को समयानुकूल परिमार्जित और भी विराट् भावनाएँ मिलनी चाहिए.”
नवलजी ने ठीक ही भावनाओं के परिमार्जन और विराटता की अनुभूति के लिए प्रत्येक प्रकार की संकीर्णता से मुक्ति की निराला की युक्ति की तरफ ध्यान दिलाया है. निराला के अनुसार,
“कला में देश-भाव की जो संकीर्णता थी, आदान-प्रदान की सहृदयता ने उसे तोड़ दिया, कला की सृष्टि व्यापक विचारों से होने लगी और हर जाति की उत्तमता से प्रेम-संबंध जोड़कर लोग उससे अपनी जातीय कला की प्रभावित करने लगे.”
एकदेशीयता की जगह सार्वदेशिकता की निराला की आकांक्षा पूरी नहीं हो सकती यदि आदान-प्रदान की सहृदयता न हो. हर जाति की उत्तमता से प्रेम सम्बन्ध जोड़ने पर भी ध्यान दीजिए. प्रेमचंद के घनिष्ठ जैनेंद्र कह रहे थे कि हमें प्रत्येक धर्म में निहित पवित्रता के जल से स्वयं को सिक्त करना चाहिए. उसका स्रोत संसार के किसी भी कोने में क्यों न हो. मात्र उसी भूगोल से जुड़ी वस्तु को महान और पवित्र मानना जिससे हमारा संबंध संयोग का मामला है, हमारे निर्णय का नहीं, एक प्रकार की क्षुद्रता है. यह आश्चर्य की बात नहीं कि भारत के उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों में यूरोप, अमरीका, अफ्रीका, प्रत्येक के प्रति खुलापन और स्वागत भाव था.
प्रेमचंद यह कह सकते थे कि उपन्यास और नई काट की कहानी की प्रेरणा यूरोप से मिली. उन्होंने दास्तानगोई को उपन्यास से बेहतर साबित करने की कोशिश न की हालाँकि उससे परिचय में उनसे कौन प्रतियोगिता कर सकता था? बाद में निर्मल वर्मा जिस विचार से कुंठित हुए कि भारतीय किस्म का उपन्यास विकसित नहीं हो पाया, उससे न सिर्फ प्रेमचंद, बल्कि उनसे भिन्न जैनेंद्र और अज्ञेय आदि पीड़ित नहीं रहे. वे जिन्होंने भारतीय जन को जी जान से चाहा. उर्दू ने तो ‘नॉवेल’ को उर्दू बना लिया और उससे उसे कोई शर्मिन्दगी न थी.
सार्वदेशिकता, आदान-प्रदान, जहाँ भी जो उत्तम है वहाँ से उसे ग्रहण करने की प्रस्तुति के कारण एक प्रकार का साहस-भाव भी विकसित हुआ. जो परिचित नहीं है, उसकी तरफ बढ़ने की प्रवृत्ति. इसी कारण हजारीप्रसाद द्विवेदी इस्लाम के दृप्त मुख के व्यंग्य से आहत नहीं हुए जो उस भूमि में समानता का सन्देश लेकर आया था जो जाति की विचारधारा के कारण खंड-खंड में विभाजित थी. और सरोजिनी नायडू अजान सुनकर एक विश्वव्यापी भ्रातृत्व या बंधुत्व के भाव से आप्लावित हो उठती थीं. इसमें कोई हीन भावना न थी. ईसा से न्यायपूर्ण सेवा और पड़ोसीपन के भाव को ग्रहण करने में गाँधी को संकोच नहीं आनंद ही हुआ. विश्व से संवाद करने की उत्सुकता और तत्परता ने आत्मविश्वास में वृद्धि ही की.
इसका प्रत्युत्तर भी विश्व ने दिया. एक गुलाम मुल्क, उपनिवेश से एक आवाज़ उठी जिसने यूरोप, जापान जैसे राष्ट्रवादी गर्व से पीड़ित प्रदेशों को राष्ट्रवाद की हिंसा से सावधान किया. रवि बाबू को दुनिया ने अपने कवि की मान्यता दी. उसी तरह जैसे गाँधी से ईसा का भूला हुआ संदेश सुनने दुनिया के हर कोने से ईसाई भारत पहुँचे. रवि बाबू और गाँधी के कारण एक उपनिवेश दुनिया भर के मुक्तिकामियों के लिए तीर्थस्थल में बदल गया. युद्धक्रांत विश्व ने शांति के दूत के रूप में नेहरू को स्वीकार किया.
नेमिजी ने मुक्तिबोध में जिस निर्मल निश्छलता के दर्शन किए वह संभवतः उस काल की देन थी. एक दूसरे से वैसे नहीं मिलना जैसे तलवार ढाल से मिलती है. समानता इसलिए कि समान धरातल पर ही एक दूसरे से गले मिला जा सकता है. मैं आपको मित्रता का वरदान देना चाहता हूँ और इसके लिए मेरे आपके बीच जो शोषक और शोषित का हीन रिश्ता है उससे आपको मुक्त करना चाहता हूँ.
एक अतिरिक्त रूप से सचेत, संदेहशील स्वभाव की जगह निष्कवच आश्वस्ति उसे लेकर भी जो आपको अपना शत्रु मानता है, यह मात्र गाँधी की खासियत ही न थी. रणनीतिक व्यक्तित्व की जगह ईमानदार व्यक्तित्व का निर्माण स्वाधीनता आंदोलन की परियोजना का अंग था. यह भी ताज्जुब नहीं कि व्यक्तिगत ईमानदारी मुक्तिबोध की एक चिंता थी. एक मार्क्सवादी व्यक्तिगत ईमानदारी की बात क्यों कर रहा था?
व्यक्ति की पूर्णता का उद्घाटन, उसे प्रत्येक प्रकार की शृंखला से, संकोच से मुक्त करना, यही लक्ष्य हो सकता है. व्यक्ति न तो राष्ट्र की कृति है, न किसी विचारधारा की, वह खुद अपने को सृजित करता है. इसलिए मुक्तिबोध प्रगतिवाद प्रेरित यांत्रिक रूप से चलनेवाले राजनैतिक-सामाजिक विचार भाव, यांत्रिक ओज और यांत्रिक छंदों के त्याग की घोषणा करते हैं. यह इसलिए कि
“काव्य में मनुष्य की सामाजिक-राजनीतिक इयत्ता ही नहीं प्रकट होनी चाहिए…किंतु पूर्ण मनुष्य के दर्शन, मानव-जीवन के सभी पक्षों के दर्शन होने चाहिए, स्पंदनशील वैविध्यपूर्ण महान् गुणों से युक्त साहसिक मानव-जीवन की प्रतिष्ठा होनी चाहिए.”
नवलजी ने ठीक ही स्पंदनशील वैविध्यपूर्ण महान् गुणों से युक्त साहसिक मानव-जीवन की प्रतिष्ठा की मुक्तिबोध की महत्त्वाकांक्षा को नोट किया है. मनुष्य के जीवन को न तो उसकी आर्थिक आवश्यकताएँ सीमित करें, न राजनीति उसकी मनुष्यता को संकुचित करे. मुक्तिबोध के उस कथन को प्रायः उद्धृत किया जाता है कि
“पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?”
या
“तय करो किस ओर हो तुम?”
तो फिर पूर्ण मनुष्य क्यों राजनीतिक मनुष्य से श्रेष्ठ है? शायद यह भी कहा जा सकता है कि यह राजनीति को भी विस्तार देने का प्रयास था.
हंगारी लेखक नेमेथ लैस्लो ने ‘गाँधी की मृत्यु’ नामक नाटक की भूमिका में इस प्रश्न पर विचार किया है कि राजनीति को उसकी मैकियावेलीय विभाजनकारिता और रणनीतिक चतुराई भरी क्रूरता से मुक्त कर धर्म की उच्च भूमि पर गाँधी ने कैसे प्रतिष्ठित किया. धर्म जो नैतिकता का दूसरा नाम है. इस तरह राजनीति जीवन जीने का एक तरीका ही थी और उसमें अनैतिकता का स्थान कैसे हो सकता था? किसी भी छल का? फिर क्या राजनीतिक मनुष्य हीनतर मनुष्य नहीं?
हीनता, क्षुद्रता के भावों से अनथक संघर्ष मुक्तिबोध-काल के प्रायः सभी बड़े लोग कर रहे थे. नकली महानता को भी वे पहचानते थे और उससे किसी तरह की घबराहट उन्हें न थी. “अँधेरे में” के उस प्रसंग को याद कीजिए,
“‘दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर
दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट
कोई भी मुर्गा
यदि बाँग दे उठे ज़ोरदार
बन जाए मसीहा”
महानता के छद्म को, उसके प्रचार को भेदकर यह पहचानना है, जैसा मुक्तिबोध की कविता ‘चुप रहो, मुझे सब कहने दो’ करती है,
“हैं बँधे खड़े
ये महत्, बृहत्,
जिनके मुँह से प्रज्ज्वलित गैस-सी साँस-आग
वे इस ज़मीन में गड़े खड़े;
मशहूर करिश्मोंवाले गहरे स्याह तिलिस्मी तेज़ बैल
तगड़े-तगड़े
अपने-अपने खूँटों से सारे बँधे खड़े;
यह खूँटा स्वर्ण-धातु का है,
रत्नाभ दीप्ति का है,
आत्मैक ज्योति का है,
स्वार्थैक प्रीति का है.”
यह महानता का आभास है लेकिन यह निश्चल, निःस्वार्थ प्रीति नहीं, चमक नकली है, आतंरिक प्रकाश नहीं है और इसी कारण इसका परिणाम क्षुद्रता ही हो सकती है,
“…इसीलिए जो कुछ भी उनने किया
धूल बन गया,
जो कुछ भी उनने छुआ
भूल बन गया;
देदीप्यमान रेडियम मनोहर भावों का
क्रमशः काले जड़ सीसे में
परिवर्तित होता गया
कि वह प्रतिकूल बन गया
कि वे बड़े-बड़े पर्वत अँधियारे कुएँ बन गए
जो कल थे कपिला गाय आज तेंदुए बन गए.”
मनुष्य के बदल जाने, उसके तुच्छ हो जाने की यह श्याम-कथा बहुत भयानक है. इस प्रक्रिया के विरुद्ध संघर्ष, मनुष्य के मनुष्य बने रहने का संघर्ष उतना ही भीषण है! मुक्तिबोध की रचनाएँ इस भयंकर संघर्ष को, उसकी यातना को तो चित्रित करती ही हैं, इस संघर्ष के आनंद को भी. यह संघर्ष साधारण जीवन जीते हुए किया जाता है. उसी बीच ऊँचेपन की संभावना है. मुक्तिबोध के ‘एक विखंडित, अप्रकाशित उपन्यास’ के ये अंश देखिए:
“हवा में अकस्मात् एक संगीत-सा गूँजा. मीठा संगीत-गुलाबी संतोष और महकती तृप्ति का शांत, विकच, आकर्षणमय उल्लास. इमली के विशाल वृक्षों के अंतराल से अगरम मिट्टी और छोटी-छोटी पत्तियों की गंध-कुछ ठंडी, कुछ गर्म-उभरकर सड़क पर आ रही थी. गोविन्द ने साइकिल ठीक कर ली.”
मुक्तिबोध की विशालता, उच्चता के बीच अचानक दैनिक साधारणता हस्तक्षेप करती है. जिस जीवन के बीच इसे हासिल करना है, वह आपको पीस डालता है,
“आनंद के शरीर की मानो संधियाँ टूट गयी थीं. अपने अस्त-व्यस्त अंगों को संभालता, शाम के रंगीन वातावरण से उल्लास की भिक्षा माँगता हुआ वह उठ खड़ा हुआ.”
उल्लास की उपलब्धि क्या इतनी सरल है?
“शहर के पास पूरब के क्षितिज पर मिल के भोंपू से हलके धुँए के धब्बे निकल रहे थे. दूर से ही मुहल्ले की सडकों की हवा में धूल का कुहरा छाया हुआ था, जिसमें अब राह के किनारों पर खड़े खोमचों के दिए जल उठे थे.”
और
“गोविन्द को लगा जैसे उसकी नसों में लाल आनंदमय रक्त के स्थान पर एक विचित्र प्रकार का तारकोली काला, गाढ़ा रसायन बह रहा है.”
रक्त और तारकोली रसायन, इन दोनों के विरोध को नोट कीजिए. मुक्तिबोध की कहानियों को पढ़ते हुए कई सुधी पाठक उलझन में पड़ जाते हैं क्योंकि उनमें कहानीपन नहीं मिलता. लेकिन वे मूड्स या भाव-स्थितियों की कथाएँ होती हैं और उनको हिंदी में और किसी ने इस प्रकार चित्रित नहीं किया. मुक्तिबोध रोज़मर्रेपन के बीच सतह से ऊपर उठ पाने की संभावना और उसकी जद्दोजहद को नोट करते हैं और सहानुभूतिपूर्वक चित्रित करते हैं. प्रायः जन-संकुल संसार में प्रकृति इन भावों का संबल बन जाती है. मुक्तिबोध प्रकृति में कोमल और उदात्त दोनों के एक साथ दर्शन करते हैं.
इसी विखंडित उपन्यास में जिस सड़क पर आनंद चल रहा है, उसके किनारे किसी
“मुसलमान टालवाले ने लकड़ी की टाल लगा ली थी उस टाल के पीछे कुछ नीम के ऊँचे-ऊँचे सरसराते, सुडौल वृक्ष थे. आनंद को नीम के वृक्ष हार्दिक मित्र के समान प्रतीत होते. यद्यपि नीम के पत्ते कडुए और निबौरियाँ उपयोगिता रहित लगतीं, तो भी आम्र-मंजरी के गंधमय वृक्षों का अनादर न करते हुए भी, उसको वे सरल, स्वाभाविक नीम के पेड़ अपने प्राणों के समीप रहते से लगते.”
दृश्य निर्माण करते हुए साधारण के बीच उदात्त-भाव की संभावना का चित्रण मुक्तिबोध अत्यंत कौशल के साथ करते हैं. इसमें वे चित्रकारों जैसी एकाग्रता के साथ शब्दों का प्रयोग करते हैं. मानो वे रंग हों, रेखाएँ हों और उन्हीं में गंध और स्पर्श भी हो. मुक्तिबोध की आदत है प्रायः व्याख्या की. लेकिन ऐसे स्थलों पर वे मात्र चित्र उपस्थित करते हैं,
“पुराने पुख्ता मकान का दुमंजिला. ठंडा एकांत कमरा … खुली चौड़ी खिड़की और सामने का दृश्य…
हरे-हरे मैदान के विस्तार जो बीच-बीच में रास्तों की लम्बी-भूरी रेखाओं से अंकित हो और दूर-दूर अंतरों पर खड़े वृक्ष-समूहों से दिखाई दे रहे हैं. उनके बीच में सडकों के किन्हीं किनारों पर कहीं-कहीं सफ़ेद पुती मस्जिद, मंदिर या समाधि के पवित्र आधार उस हरे दृश्य के निस्सीम विस्तार को अधिक मानवीय मैत्रीमय बना दे रहे हैं. और इस मैदान के अनंतर दूर गेरुई इमारतें, छोटी नम्र. छोटी रेलगाड़ी के स्टेशन की इमारतों के पास से ऊपर हवा में तैरता हुआ हल्का, अस्पष्ट धुँआ. और उसके पार ऊँचे-ऊँचे एक-दूसरे से घुले-मिले वृक्ष शिखरों के लंबे-घने हरे-साँवले मेघ जिनपर दूरी के नीलेपन में धुले हुए और उसके बाद, फिर धुँधले-धुँधले कुछ मिले (!) सफ़ेदी लिए हुए नील-नीले मैदानों के छोर जो आसमान की झुकी गोल सीमा में खो जाते हैं, गुम हो जाते हैं.”
इतना लंबा उद्धरण देने का कारण सिर्फ यह है कि मुक्तिबोध की भाषा और उनकी कला क्षमता पर प्रायः उनकी राजनीति, जैसा आलोचक उसे देखते हैं, हावी रहती है. मुक्तिबोध मूलतः और अंततः कलाकार हैं, इस बात को भूल जाने पर हम इन दृश्यों पर भी नहीं ठहर पाते, जल्दी-जल्दी मुक्तिबोध क्या कहना चाहते हैं, यह जान लेने की हड़बड़ी में पड़ जाते हैं.
विस्तृत मैदान, ऊँचे वृक्ष, टीले, उनके नीचे खड़ी गाय या बकरी का मनोहर दृश्य देखते-देखते अचानक कहीं
“दस रुपए पड़े मिल जाएँ तो आज की समस्या हल हो”: मुक्तिबोध के दृश्यों में यह भाव-द्वंद्व प्रायः मिलता है.
लेकिन दस रुपए की उधेड़बुन में लगा हुआ यह मन ही इस मैदान, उन दरख्तों और उस विस्तार का अनुभव करता है. इस अनुभव को गौण न मानना चाहिए. यह ठीक है कि हम इस हालत में हैं कि
“हवा सिर पर से लहराती हुई
गुजर जाती है
धमनियों में घुस नहीं पाती
पहचानें ज़रा-सी छूती हैं
उड़ जाती हैं
दिल में
बस नहीं पातीं.”
और इसी वजह से, ‘हर चीज़, जब अपनी’ कविता कहती है कि इसी वजह से दुनिया किसी को रेट के ढेर-सी लगती है तो किसी को बेर सी जिसको वह तोड़े और खा जाए, किसी को आलू-सी,
“किसी को बौनी-ही-बौनी,
चपटी-ही-चपटी”
दुनिया को चटकर जाने की जो क्षुद्र क्षुधा है, उससे लड़कर जिएँ कैसे? एक साधन है:
“दिल में एक याद
चिलचिलाती-चिलकती रहती है
उन लोगों की
जिनके चेहरों पर वीरान खंडहरों की धूप और
घने पेड़ों के साए मंडलाया करते हैं
जो मारे-मारे-से हमारे-से
ईंट के सहारे अकेले लेटते हैं
धूल के बवंडर-सा वक्त समेटते हैं…”
ये लोग
“बहुत गुरूर से
जो सिर्फ इन्सान होने की हैसियत रखते हैं
जैसे आसमान, या पेड़, या मैदान
अपनी-अपनी शान और शख्सियत रखते हैं.”
सिर्फ इंसान होने की हैसियत का गुरूर, जैसे आसमान, पेड़, मैदान की अपनी-अपनी शान और शख्सियत! सिर्फ इतना ही तो चाहिए!