मुक्तिबोध शृंखला की 40वीं और अंतिम कड़ी
तकरीबन 20 वर्ष पहले पढ़ी फ्रांसिस व्हीन लिखित कार्ल मार्क्स की जीवनी का अंतिम अंश या उस अंश में चित्रित मार्क्स को भूलना मुश्किल है। यह एक पत्रकार की वृद्ध मार्क्स से मुलाक़ात का वर्णन है। समंदर की लहरें पछाड़ खा रही थीं। पत्रकार ने मार्क्स से पूछना शुरू किया, “क्या है…?” उसकी बात लहरों के शोर में डूब गयी। उसने सवाल दुहराया, “क्या है…?” और मार्क्स ने उत्तर दिया, “संघर्ष!”
संघर्ष, केवल संघर्ष: जीवन का अर्थ यही है। लेकिन यहाँ ग़लतफ़हमी की गुंजाइश है। संघर्ष क्या सिर्फ संघर्ष के लिए? क्या जीवन मात्र संघर्षों का एक सिलसिला है,और कुछ नहीं? इसके खतरनाक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। अगर यह बाहरी संघर्ष है तो क्या हमेशा प्रतिपक्ष या विपक्ष का चुनाव करते रहना है? संघर्ष को उसी तरह पूजनीय नहीं बनाया जा सकता जैसे पूँजीवाद में पूँजी या पैसे को और फिर उसके उत्तर में क्रांति को पूजनीय बना दिया जाता है. सतत क्रांति का नारा सतत शत्रु संधान में बदल जा सकता है।
व्यक्ति का और समाज का मूल्य इसी कारण इससे तय होता है कि वह संघर्ष किसलिए किया जा रहा है। उस संघर्ष का मूल्य उसके उद्देश्य से निर्धारित होगा, उसकी ‘सफलता’ से नहीं। संघर्ष मात्र एक शब्द नहीं, प्रत्यय है। उसके साथ जिस दूसरे शब्द या विचार की तरफ मुक्तिबोध ध्यान दिलाते हैं, वह है प्रयत्न। मुक्तिबोध के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे जितने परिणति के नहीं,उतने प्रयत्न के रचनाकार हैं। प्रयत्न जिसका कोई अंतिम बिंदु नहीं है। कहीं विश्राम नहीं है। हर मंजिल जैसे आगे के लिए एक इशारा ही है।
हजारीप्रसाद द्विवेदी ने रवींद्रनाथ टैगोर के हवाले से इसी बात को यों कहा,
“राजोद्यान का सिंहद्वार कितना ही अभ्रभेदी क्यों न हो, उसकी शिल्पकला कितनी ही सुंदर क्यों न हो, वह यह नहीं कहता कि हममें आकर ही सारा रास्ता समाप्त हो गया। असल गंतव्य स्थान उसे अतिक्रम करने के बाद ही है, यही बताना उसका कर्तव्य है।”
द्विवेदीजी इसके बाद लिखते हैं कि
“फूल हो या पेड़, अपने आप में समाप्त नहीं हैं। वह किसी अन्य को दिखाने के लिए उठी हुई अंगुली है। वह इशारा है।”
रास्ता कहीं समाप्त नहीं होता। लेकिन रास्ता तो है। शमशेर बहादुर सिंह ने ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ की भूमिका में लिखा,
“मुक्तिबोध हमेशा एक विशाल विस्तृत कैन्वास लेता है: जो समतल नहीं होता: जो सामाजिक जीवन के ‘धर्मक्षेत्र‘ और व्यक्ति चेतना की रंगभूमि को निरंतर जोड़ते हुए समय के कई काल-क्षणों को प्रायः एक साथ आयामित करता है। …इतिहास के संघर्ष-एक षड्यंत्र का-सा जाल फैलता-सिमटता है. और इस जाल में हम और आप, अनजाने तौर से, और अनिवार्यतः ,फँस गए हैं–और निकलने का रास्ता खोज रहे हैं–मगर कहीं कोई रास्ता नहीं है–और फिर भी पक्का विशवास है कि रास्ता है, रास्ता है… .”
मुक्तिबोध ने इस छटपटाहट को अपने ज़माने की खूबी बतलाया। ‘तार सप्तक’ के दूसरे संस्करण के लिए वक्तव्य के जो प्रारूप उन्होंने लिखे, उनमें से एक प्रारूप में, जो रचनावली के पाँचवे खंड में संकलित है, वे अपने समय, अपने समकालीनों के संघर्ष के विषय में लिखते हैं,
“उस संघर्ष की धारा में सामाजिक, राजनैतिक और व्यक्तिगत संघर्ष आ मिले थे। जीवन अपनी सर्व-साधारणता में असाधारण हो उठा था, उसकी अवस्था में एक व्यवस्था पैदा हो रही थी। जिज्ञासा,सम्मोह,साहस, कौतूहल,निष्ठा और तत्परता ज़िंदगी को नए-नए क्षेत्रों में ले जाती। कभी यह ज़िंदगी शिखर पर चढ़ जाती और मज़ा आ जाता। कभी वह निचले अँधेरे खड्डे में जा गिरती , और नैराश्यमूलक उत्तेजना सिर पर सवार हो जाती।”
जिसे स्वाधीनता आंदोलन का दौर कहते हैं, उस समय शिखर पर चढ़ने की चुनौती स्वीकार करने की महत्त्वाकांक्षा साधारण हो उठी थी. नेहरू ने गाँधी के विषय में लिखा कि उन्होंने उन जैसे सादहरण लोगों को एक बहुत ऊँची सतह पर जीवन जीने के लिए प्रेरित किया और उनकी कामयाबी यह थी कि मामूली लोग इस ऊँचाई पर बहुत लंबे वक्त तक रहे। चाहे तो इस काल को भारत का ‘अध्यात्म काल’ कहा जा सकता है। औपनिवेशिक शासन से स्वाधीनता मिलते ही हम ‘सांसारिक काल’ में आ गिरे। संघर्ष बड़े नहीं रह गए,तुच्छता ने उन्हें ग्रस लिया।
प्रायः नेहरू युग और उत्तर नेहरू युग का उल्लेख किया जाता है। एक स्वप्न काल या रोमैंटिक दौर और दूसरा उस रोमान के टूटने का। लेकिन दोनों प्रक्रियाएँ साथ-साथ चल रही थीं। मुक्तिबोध लिखते हैं,
“सन् 1943 के ज़माने से लेकर सन् 52-53 के काल-खण्ड में जो जीवन-ज्ञान मुझे प्राप्त हुआ, वह नहीं होना चाहिए था। मानव-मूल्य गिरते जा रहे थे, मनुष्य संबंध गँठीले और उलझे हुए हो रहे थे, छोटी-छोटी और अत्यंत तुच्छ बातों के लिए घनघोर संघर्ष हो रहा था।”
नेहरू सारे जीवित राजनेताओं में, मुक्तिबोध के साम्यवादी होने के बावजूद, उनके सबसे प्रिय थे। शायद इसीलिए कि महानता, उदात्त और आध्यात्मिक की स्मृति उनमें जीवित थी। नेहरू को पार्टी और समाज में क्षुद्रता के प्रसार से उलझन और ऊब होती थी। सामाजिक संबंध एक ऊँचे धरातल पर कैसे बनें? यह चिंता नेहरू की थी। इसकी उद्विग्नता शेष राजनेताओं में नहीं दिखलाई पड़ती। साम्प्रदायिकता से नेहरू का विरोध इसलिए भी था कि वह एक क्षुद्र, मनुष्य-शंकालु दिमाग के दिमाग की उपज थी और सामाजिक मन मस्तिष्क को तंग भी करती थी।
इस टुच्चेपन और क्षुद्रता के बीच अंतहीन पथ के यात्री के मन में संघर्ष खुद से भी होता रहता है। उसके भीतर भी छील-छाल चलती रहती है। अनवरत संशोधन। ‘एक आत्म वक्तव्य’ का आरम्भ है,
“…और तब
मेरा सर दुखने लगता है,
धुँधले-धुँधले अकेले में, आलोचनाशील
अपने में से उठे हुए धुएँ की ही चक्करदार
सीढ़ियों पर चढ़ने लगता हूँ।”
प्रयत्न के साथ आलोचना अनिवार्य है। वह भी आत्मालोचन। जो किया उसीपर फिर-फिर विचार। और संशोधन। इस प्रकार हम कई बार मरते हैं और कई बार जन्म लेते हैं:
“और हर सीढ़ी पर लुढ़की पड़ी एक-एक देह ,
आलोचन-हत मेरे पुराने व्यक्तित्व,
भूतपूर्व, भुगते हुए, अनगिनत ‘मैं‘.”
अपनी ही आलोचना के अस्त्र से मैं अपने भीतर के अनगिनत ‘मैं’ को समाप्त करता हूँ। और आगे बढ़ता हूँ या ऊपर चढ़ता हूँ। अमूमन मुक्तिबोध के साहित्य में घुमावदार सीढ़ियाँ सफलता की हुआ करती हैं, यहाँ लेकिन वे अपने भीतर आलोचनाशीलता की चक्करदार सीढ़ियाँ हैं। जो ‘मैं’ हताहत हैं, उन्हीं पर चढ़कर चलना है:
“उनके शवों, अर्ध-शवों पर ही रखकर
निज सर्व-स्पर्श पैर,
मेरे साथ चलने लगता भावी-कर-बद्ध
मेरा वर्तमान!”
सर्व-स्पर्श पैरों पर ध्यान जाना चाहिए और भावी के कर से कर बाँधे चलते वर्तमान पर भी। भावी की चेतना है, दिशा का ज्ञान है। उद्देश्यहीनता नहीं। लेकिन इस यात्रा या आरोहण में जो किया, उसपर विचार का क्रम टूटता नहीं,
“किन्तु, पुनः-पुनः,
उन्हीं सीढ़ियों पर नए-नए आलोचक नेत्र,
(तेज़ नाक वाले तमतमाए-से मित्र)
खूब काट-छाँट और गहरी छील-छाल,
रंदों और बसूलों से मेरी देखभाल,
मेरा अभिनव संशोधन अविरत
क्रमागत।”
आलोचना मित्र-धर्म है। और ये मित्र चौकन्ना रहते हैं, सतत सक्रिय। रंदों और बसूलों से देखभाल करनेवाले दोस्त भी क्या खूब हैं! संशोधन निरंतर और बिना रुके होता है और वह एकबारगी हो जाए, ऐसा नहीं; वह क्रमागत है।
खोज मामूली नहीं है:
“अभी तक
सर में जो तड़फड़ाता रहा ब्रह्मांड,
लड़खड़ाती दुनिया का भूरा मानचित्र
चमकता है दर्दभरे अँधेरे में वह”
यह विश्व यात्रा है जिसमें ‘मैं’ रोज़-रोज़ कटता-छँटता है और बनता ही रहता है। बिना दर्द यह सफर नहीं। काट-छाँट, आत्मालोचन का औजार क्या है?
“उसी विश्व यात्रा में, चट्टानों बीच,
किसी झुकी सँवलायी साँझ
मुझे मिला (हृदय-प्रकाश-सा) अकेले में
बिजली से जगमगाता घर,
जिसके इर्द-गिर्द कुछ अँधियाले पेड़
मानो सधे हुए, घने बहुत घने, बड़े-बड़े दर्द।”
पेड़ और दर्द का यह चित्र “अँधेरे में’ कविता की याद दिलाता है,
“सूनी है राह, अजीब है फैलाव,
सर्द अँधेरा।
ढीली आँखों से देखते हैं विश्व
उदास तारे।
हर बार सोच और हर बार अफ़सोस हर बार फ़िक्र
के कारण बढ़े हुए दर्द का मानो कि दूर वहाँ, दूर
वहाँ अँधियारा पीपल देता है पहरा।”
इन दर्द के पेड़ों के बीच जो बिजली (हृदय-प्रकाश) से जगमगाता घर है उससे
“…निकल आया एक
चौड़े माथे वाला, भोला,प्रतिभा का पुत्र
…
पहचाना मुझे, और हँस चुपचाप,
मेरे खाली हाथों में रख गया
दीप्तिमान रत्न -“
यह रत्न वास्तव में ‘मैंने’ ही खोजा था :
“भयानक वीरानों में घूमकर
खोजा था जो सार-सत्य
आत्म-धन
छटपटाती किरनों का पारदर्शी क्वार्ट्ज़,
किरनें कि आलोचनाशील, धारदार
उपादान
जिनकी तेज नोकों से अकस्मात्
मेरी काट-छाँट छील-छाल
लगातार।”
इसीलिए ‘मैं’ पूरा नहीं:
“इसीलिए, मेरी मूर्ति अधबनी अधबनी अभी तक…”
क्या यह अधबनापन शर्म की बात है? क्या ‘इस अधबने-पने का गरीब दृश्य’ सभाओं में तिस्कृत होगा? किनके द्वारा?
“अर्थहीन समर्थों के द्वारा कहीं वह
निकाला न जाए.”
‘अर्थहीन समर्थ’ या पूरे बने हुए अपने नहीं लगते:
“लाख-लाख आँखों से देखता हूँ दृश्य
पूरे बने हुओं के ही ठाठदार अक्स,
ऐसा कुछ ठाठ –
मुझे गहरी उचाट,
लगता है वे मेरे राष्ट्र के नहीं हैं।”
राष्ट्र, देश, ये शब्द मुक्तिबोध की रचनाओं में कसरत से इस्तेमाल किए जाते हैं। उनकी रचनाओं में भारत, हिन्दुस्तान का जिक्र भी बार-बार आता है। वह साँवला, दुबला, अपनी पतली टांगों पर चलता हिंदुस्तान है। उसके साथ ही वे समय, काल को भी अमूर्त नहीं छोड़ते। वे बीसवीं सदी के पांचवें दशक की बात कर रहे हैं, उसमें जीवित और अपना अर्थ तलाश कर रहे ‘रामू’ की कथा कह रहे हैं, यह वे अस्पष्ट नहीं छोड़ते। इसके बावजूद देश या राष्ट्र उनकी कविताओं में जितने भूभाग नहीं उतने मूल्यों के प्रदेश हैं। जैसे दिनकर ने भारत के बारे में लिखा कि वह स्थान का वाचक नहीं है, गुण विशेष नर का है। अगर हम उन गुणों और मूल्यों के साझीदार हैं तो एक राष्ट्र के हैं, वरना नहीं। इस पराएपन के बीच रहते
“उचटता ही रहता है दिल,
नहीं ठहरता कहीं,
ज़रा भी।”
पूरे, बने हुओं की दुनिया से उचटा यह मन जैसे इलाका-बदर, अपने साथी खोजता है:
“…अब नए-नए मेरे मित्रगण
मेरे पीछे आये हुए युवा-बाल-जन,
धरित्री के धन,
खोजता हूँ उनमें ही
छटपटाती हुई मेरी छाँह,
…. छिपी हुई कहीं कोई गहरी पहचान,
समशील, समानधर्मा कहीं कोई है?”
समानधर्मा आस-पास ही थे, हैं। मुक्तिबोध ने लिखा,
“मनुष्य-संबंधों की भीषण गिरावट के बीच, मनुष्य दीप्ति के जो प्रकाशमान दृश्य मेरे सामने आए, उन्हीं के सहारे मेरा जीवन आगे बढ़ता रहा। दृश्य और अदृश्य सहस्रों कोमल स्पर्शों ने संयुक्त रूप से मन की रचना कर डाली। …उन्हीं के सहारे अनवस्था व्यवस्थाबद्ध होने लगी। वेदना सोचने के लिए बाध्य हुई।”
इसका आख़िरी वाक्य बहुत मानीखेज है,
“तब कहीं…मालूम हुआ कि ऋजु रेखा, वस्तुतः वक्र रेखा का ही एक विशिष्ट उदाहरण मात्र है, और प्रकृति एक-धन-एक-बराबर-दो के गणितीय नियम को अनिवार्यतः स्वीकार नहीं करती।”
गणित के दो जोड़ दो बराबर चार के नियम मनुष्यों के समाज पर व्यक्तियों पर लागू नहीं किए जा सकते. मुक्तिबोध मार्क्सवादी होने के बावजूद, या साथ ही यह बार-बार कह रहे थे. मनुष्य को अगर आर्थिक इकाई में शेष नहीं किया जा सकता, अगर उसकी आध्यात्मिकता को सांसारिकता बाँध नहीं सकती तो उसे पार्टी-मनुष्य में भी शेष कर देना एक तरह की क्षुद्रता है जैसे नेहरू के अनुसार उसे साम्प्रदायिक घेरे में बांध देना उसके विस्तारशील स्वभाव से द्रोह है, एक तरह का छोटापन है. इतना ही नहीं, नेहरू राष्ट्र, प्रगति के तर्कों के आधार पर जीवित, स्पंदनशील मनुष्य की व्याख्या के विरुद्ध थे. इंजीनियरों को दिया गया उनका व्याख्यान याद करना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा,
“मुझे मालूम है कि आप अपनी तकनीक और नियमों से इस या उस धातु, पत्थर या लोहे या किसी भी ऐसी चीज़ की कठोरता और ताकत को माप सकते हैं… एक व्यक्ति की ताकत, दृढ़ता की माप कैसे करेंगे? एक पदार्थ के रूप में एक व्यक्ति न सिर्फ एक कठिन पदार्थ ही बल्कि एक उत्तेजक पदार्थ भी है क्योंकि यह जीवंत पदार्थ है, एक वर्धमान पदार्थ है, परिवर्तनशील और गतिशील वस्तु है. कोई भी दो व्यक्ति एक से नहीं हैं और हमें इस प्रकार के पदार्थ से निर्माण करना है…”.
मुक्तिबोध बार-बार मनुष्य की विलक्षणता को, मनुष्यों के बीच के संबंधों को, उनकी उन्मुक्तता को, प्रत्येक मनुष्य की छाती में हीरा देखने की बात कर रहे थे, प्रत्येक ‘आत्मा अधीरा’ को पहचानने की कोशिश कर रहे थे. यह तत्कालीन भारतीय मार्क्सवाद में मनुष्य की अवधारणा को लेकर एक क्रांतिकारी हस्तक्षेप था. पूँजीवाद मनुष्य को क्षुद्र बनाता है तो किसी और को पूँजीवाद के ध्वंस के नाम पर मनुष्य को सीमित करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता. मार्क्सवाद ने प्रत्येक वस्तु में छिपे मानवीय संबंध को उद्घाटित करने का दायित्व दिया था लेकिन पार्टियों के कार्यक्रम ने मनुष्य से सत्ता ही छीन ली थी. मुक्ति के नाम पर व्यक्ति को बंदी बनाया जा सकता था. इसलिए हमेशा मनुष्य से, व्यक्ति से मुखातिब रहने की सावधानी रखनी ही थी. फिर भी बिना व्यापकता, परस्परता के इस व्यक्ति को भी हासिल नहीं किया जा सकता था. तुच्छ जीवन से मुक्ति कैसे हो? अपने आत्म वक्तव्य में ही आगे मुक्तिबोध ने लिखा,
“मैं उन सौभाग्यशाली व्यक्तियों में से हूँ, जिसे अपने गली-कूचे में रहनेवालों से का स्नेह प्राप्त हुआ…उनके पेचीदा संघर्ष, अथाह प्रेम करने का उनका हार्दिक सामर्थ्य, और बौद्धिक जिज्ञासा के साथ-ही-साथ उनकी साहसिक पहल, उनकी रोमैंटिक कल्पना, उनकी राजनैतिक आशा-आकांक्षाएँ, उनके समाजनैतिक स्वप्न मेरे चारों ओर चक्कर लगाने लगे.”
‘समाजनैतिक स्वप्न’ पर हमारा ध्यान जाना चाहिए. ‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?” में यह प्रश्न छिपा हुआ है कि तुम्हारे समाजनैतिक स्वप्न क्या हैं?
गाँधी मुक्तिबोध के लिए आदर्श थे या नेहरू उन्हें प्रिय थे तो संभवतः नैतिकता पर उनके ‘अव्यावहारिक’ आग्रह के कारण ही. एक साधारण मनुष्य जीना चाहता है लेकिन वह एक भला जीवन जीना चाहता है, एक नैतिक जीवन .इसके उदाहरणों के दर्शन रोजाना ही होते रहते हैं और उस वजह से
“मेरी परिस्थिति अब विस्तृत हो गयी, वह फैलकर मैदान बन गयी, मैदान बनकर फैलती हुई वह पूरी पृथ्वी बन गयी. मेरी चहारदीवारी अब पीछे-पीछे हटने लगी और क्षितिज में विलीन होती हुई मुझे दिखाई दी. चेहरे अब सुन्दर हो उठे. मनोहर ज्योति से चमकती आँखें अब मुझसे बातचीत करने लगीं.”
मुक्तिबोध फिर इस बात पर जोर देते हैं कि सवाल सिर्फ एक बड़ी विचारधारा का नहीं, असली सवाल यह है कि मनुष्य से आपका रिश्ता इंसानी रिश्ता है या नहीं,
“यह बात संदेह के परे है कि सच्चा आशावाद मनुष्य की ज्वलंत वास्तविक ऊष्मा से उत्पन्न होता है, केवल भविष्य स्वप्न से नहीं.”
क्या मैं प्रत्येक व्यक्ति की ऊष्मा का, उसके आलोक का अनुभव कर पाता हूँ? ‘अँधेरे में’ कविता के अंत में कमरे में सुबह की धूप के आते ही
“सब ओर विदुत्तरंगीय हलचल
चुम्बकीय आकर्षण. प्रत्येक वस्तु का निज-निज आलोक,
मानो कि अलग-अलग फूलों के रंगीन वातावरण हैं बेमाप,
प्रत्येक अर्थ की छाया में दूसरा आशय झिलमिला रहा-सा”
प्रत्येक व्यक्ति का एक आलोक है जिसमें दूसरे का अर्थ झलक उठता है. इसीलिए वह अनखोजी अभिव्यक्ति हर कहीं हो सकती है,
“विदुल्लहरिल वही गतिमयता,
उद्विग्न ज्ञान-तनाव वह
सकर्मक प्रेम की वह अतिशयता”
वह लगातार-लागतार जग में घूमती है,
“इसीलिए मैं हर गली में
और हर सड़क पर
झाँक-झाँक देखता हूँ हरेक चेहरा,
प्रत्येक गतिविधि,
प्रत्येक चरित्र,
व हर एक आत्मा का इतिहास,
….
प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति.”
इस अंश के हरेक शब्द और पद पर ठहरना होगा. फिर उस खोज का अर्थ समझ में आएगा जो खत्म नहीं होती:
खोजता हूँ पठार..पहाड़..समुन्दर
“जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-सम्भवा.”
वह परम अभिव्यक्ति आत्म-संभवा ही होगी!
मुक्तिबोध एक चिर स्थानांतरगामी प्रवृत्ति पर बल देते हैं. क्या आप एक ‘भविष्य’ में स्थिर हो गए हैं या आपकी माइग्रेशन इंस्टिंक्ट ज़िंदा है? मुक्तिबोध का साहित्य यही प्रश्न करता है.