Guest Post by Yogesh Pratap Shekhar
फरवरी के महीने से विश्वविद्यालय परिसर में विद्यार्थियों का आना-जाना शुरू हो गया है । परिसर गुलज़ार रहता है । कक्षा के बाहर छोटे-छोटे समूहों में उन की आवाजाही और उन के बीच किसी भी विषय की चर्चा मन को एक सुकून देती है । कहीं-कहीं दोस्ती और आकार लेता प्रेम भी महसूस होता है । यह भी अत्यंत सहज एवं स्वाभाविक लगता है । विश्वविद्यालय केवल कक्षा मात्र के लिए नहीं होते न ! वहाँ एक नई दुनिया होती है । नए संबंध भी बनते हैं । पिछले एक माह से परिसर में लौटी रौनक़ मन में उत्साह जगाती है । फिर आया मार्च का महीना । होली के त्योहार का महीना ! रंग और गुलाल का उत्साह ! चार दिन की छुट्टी से पहले परिसर में ‘होली-मिलन समारोह’ आयोजित हुआ ।
उत्साह से भरी होली की गतिविधियों के दौरान अचानक ही ‘भगवा झंडा’ परिसर में लहराया जाने लगा । ‘जय श्रीराम’ के नारे भी सुनाई दिए । होली में ‘जय श्रीराम’ के नारे ! सोचने मात्र से ही मन सिहर उठता है । होली और छठ ऐसे त्योहार हैं जिनमें न तो पुरोहित की ज़रूरत होती है और न ही किसी प्रकार के कर्मकांड की । ‘होलिका-दहन’ की परंपरा भी इस पर्व में ब्राह्मण-पौराणिक वर्चस्व की स्थिति को प्रदर्शित करती लगती है । ऐसा इसलिए कि होली की पूरी संकल्पना और इस पर्व के मिज़ाज को देखकर ‘होलिका-दहन’ का इस से ठीक-ठीक जुड़ाव महसूस नहीं होता ।
भगवा झंडा:जय श्रीराम
होली में ‘जय श्रीराम’ नारा लगाने की पूरी प्रक्रिया यह स्पष्ट करती है कि न केवल हिंदुओं के ‘मानस’ पर बल्कि उन की पूरी जीवन-पद्धति पर ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं उस के सहयोगी तथा आनुषंगिक संगठनों ने कब्ज़ा कर लिया है । होली से पहले सरस्वती-पूजा मनाई जाती है । उस में मूर्ति-विसर्जन का जुलूस जब निकलता है तो अब गगनभेदी ‘जय श्रीराम’ के नारे सुनाई पड़ते हैं । समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिक इस का अध्ययन कर इसे विवेचित कर सकते हैं कि यह पूरी प्रक्रिया कैसे विस्तार ग्रहण कर रही है। क्या इसका संबंध हिंदुओं के भीतर बढ़ रहे हीनता-बोध से है? उनके भीतर लगातार भरे गए डर से है ?
‘हिंदू समाज’ : नए ‘जागरण’ की प्रतीक्षा
आख़िर क्या कारण है कि हिंदू अपना सारा ‘विधान’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं उस के सहयोगी संगठनों की वांछित व्याख्याओं तथा प्रारूपों को सौंपते जा रहे हैं ? रामनवमी में लगाया जाने वाला झंडा ‘लाल'( जिसे बोलचाल में ‘महवीरी झंडा’ कहते हैं) से कैसे ‘भगवा’ में बदल गया और किसी भी हिंदू समुदाय को तनिक भी आपत्ति नहीं हुई । क्या ऐसी कल्पना की जा सकती है कि यदि ‘भगवा’ रंग छोड़ कर किसी दूसरे रंग के झंडे का इस्तेमाल होता तो तब भी हिंदुओं का समुदाय इसी प्रकार उदासीन बना रहता ? शायद नहीं । इस से क्या यह निष्कर्ष निकालना ठीक होगा कि धर्म और राजनीति का जो ज़हरीला मिश्रण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं भारतीय जनता पार्टी ने खड़ा किया हुआ है उसे हिंदू जनता समझ नहीं पा रही है ?
क्या ‘हिंदू समाज’ एक नए ‘जागरण’ की प्रतीक्षा में है ? या फिर यह कहना ठीक होगा कि मुसलमानों एवं ईसाइयों से नफ़रत और अपने लिए असुरक्षा से उत्पन्न एक ‘नशे’ ने हिंदू समाज को पूरी तरह अपनी गिरफ़्त में ले लिया है ? क्या हिंदू इसे समझ पा रहे हैं कि उन की धार्मिक एवं सांस्कृतिक परंपराओं को इन का ही नाम ले कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उस के सहयोगी संगठन अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं ?
क्या हिंदुओं में इतनी चेतना शेष है कि वे मान पाएँ कि ‘जय श्रीराम’ का नारा शुद्ध रूप से राजनैतिक है और यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं उस के सहयोगी संगठनों का नारा है क्योंकि रामानन्द सागर निर्मित ‘रामायण’ के पहले हिन्दुओं की दुनिया में इस नारे का कोई अस्तित्व ही नहीं था । राम का नाम सामान्य अभिवादन में प्रकट होता था जो ‘राम-राम’, ‘जै राम जी की’ और ‘जय सियाराम’ जैसे आत्मीय संबोधनों में बिना किसी नफ़रत तथा आक्रामकता के सीधे अभिवादन करने वाले और सामने वाले के दिलों को छूता था ।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं उस के सहयोगी संगठनों ने ‘राम’ को उन की पूरी ‘मर्यादा’ से ही नहीं बल्कि ‘सीता’ से भी अलग कर दिया है । ‘जय श्रीराम’ में सीता की कोई जगह नहीं है । आज तुलसीदास भी अगर होते तो वे निश्चित ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं उस के सहयोगी संगठनों को त्याग देते क्योंकि वे साफ़-साफ़ कह चुके हैं कि “जाके प्रिय न राम-वैदेही, तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ।” ऐसा नहीं है कि ऐसा सिर्फ़ राम के साथ ही हो रहा है । हनुमान जो भक्ति में आदर्श माने जाते हैं उन की भी आक्रामक छवि निर्मित कर एक क्रुद्ध हनुमान के ‘स्टिकर’ वाहनों पर देखे जा रहे हैं । शिव जो जनता के बीच ‘भोले-भंडारी’ के रूप में समादृत हैं उन को ‘महाकाल’ की आक्रामक छवि में सीमित किया जा रहा है । इन सब से यह स्पष्ट है कि अपनी जिस उदारता और खुलेपन पर हिंदुओं को भरोसा है उसी को उन से जानबूझकर छीना जा रहा है और वे इस से अनजान बने हुए हैं या इसे नज़रअंदाज़ कर रहे हैं ।
हिंदू ‘ख़तरे’ में हैं
इस पूरी प्रक्रिया को देख कर सच में लगता है कि हिंदू ‘ख़तरे’ में हैं । पर यह ‘ख़तरा’ मुसलमान और ईसाई नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं उस के सहयोगी संगठन हैं । हिंदू धर्म, हिन्दू जीवन-पद्धति और हिंदू पर्व-त्योहार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं उस के सहयोगी संगठनों से मुक्ति के लिए छटपटा रहे हैं । ये पर्व-त्योहार सदियों के अभ्यास, संस्कृतियों के मेलजोल से बने हैं। इन्हें मनाते समय हम अनजाने ही अपने पूर्वजों को भी याद करते हैं। इन्हें इस पारंपरिकता से वंचित कर एक जैसा बनाया जा रहा है।
कोई भी पर्व-त्योहार आज जिस रूप में मनाया जाता है उस रूप तक पहुँचने में वह काफ़ी मिश्रण की प्रक्रिया से गुज़रा है । आज भारत में हिंदुओं का कोई भी ऐसा पर्व-त्योहार नहीं है जिस में आर्य-आर्येतर या बौद्ध या इसलाम या ईसाई परंपरा का कुछ न कुछ मेल न हो । उदाहरण के लिए दीपावली में ‘पटाखे’ चलाने की परंपरा बन गई है । यह अलग बात है कि पर्यावरण की दृष्टि से यह ठीक नहीं है । पर इतना स्पष्ट है कि पटाखा बारूद आने के बाद सम्भव है और बारूद सब से पहले भारत में मंगोल ले कर आए । बाद में बाबर का प्रसिद्ध प्रयोग तो है ही । ऐसे ही अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं । हिंदी के प्रसिद्ध लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी ने तो कई फूलों तक को आर्येतर स्रोतों से आया हुआ माना है । पर आज धीरे-धीरे हिंदुओं के पर्व-त्योहार अपनी विशिष्टता खोते चले जा रहे हैं । इन्हें इस पारंपरिकता से वंचित कर एक जैसा बनाया जा रहा है। राम की हिंदू देवी देवताओं में जगह है लेकिन वे सबके ऊपर नहीं। लेकिन ‘जय श्रीराम’ वास्तव में राम का भी जय घोष नहीं है। वह एक घृणा से भरे मन का आवरण है।
होली के रंग पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं उस के सहयोगी संगठनों का ‘रंग’ हावी है और हिंदू जनता को नफ़रत तथा घृणा की ‘भंग’ दे दी गई है । पता नहीं यह ‘तरंग’ कब समाप्त होगी ?
( The author teaches at the Central University of South Bihar)
जी सर बिलकुल सही बात है। हिंदू समाज अब अपने पर्व- त्योहार के साथ – साथ अपनी पहचान भी भूलते जा रही है और संस्कृति, सभ्यता की कोई बात ही नहीं है।
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