Guest Post by Salik Ahmad.
Originally published by The India Forum as The Shattering of The Muslim Hope in India(https://rb.gy/jfnxtz)
कुछ रोज पहले, एक शाम अपने दोस्त के साथ दिल्ली की भागदौड़ भरी जिंदगी से वक्त निकालकर, काई से काली पड़ चुकी अपनी छत पर बैठा, पीले आसमान के नीचे खड़े ठूँठे रूख को देख रहा था। मेरा दोस्त, जो एक बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में काम करता है, अपने अनुभवों के बारे में बताते हुए कह रहा था कि कैसे उसका ऑफिस उसके लिए एक अजनबी जगह है।
मेरे दोस्त कहता है, “वहाँ हर कोई मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों से कितना बेखबर है। मैं रोज लिंचिंग का नया वीडियो, नफरत उगलनेवाला भाषण, जनसंहार (Genocide)को उकसाने वाला कार्टून देखता हूँ लेकिन जब मैं ऑफिस जाता हूं तो वहां लोगों में चर्चा होती है, सबसे अच्छी सुशीज (Sushis) कहां मिलती है, और केक सबसे बेहतर कौन बनाता है। गुप्ता सांता का खेल चलता है और लोग अपनी तरक्की की योजनाएँ बनाने में मशगूल हैं। मैं ऑफिस को अचंभे के साथ देखता हूं और सोचता हूँ कि यह कैसी जगह है, या फिर मैं किसी दूसरे जमाने में आ गया हूँ।”
फिर हमें उन दोस्तों की फिक्र होती है जो बेहद सांप्रदायिक माहौल में काम करते हैं जहां उनके साथ काम करने वाले बात-बात पर उनके धार्मिक विश्वासों पर फब्तियाँ कसते हैं और तब हमें एहसास होता है कि एक शांत वातावरण का होना भी एक रहमत है। और हाँ, जब हम अनौपचारिक क्षेत्रों में काम कर रहे मुसलमानों – यानी फेरीवालों और रिक्शा चलानेवालों – के बारे में सोचते हैं कि वे रोज न जाने क्या-क्या सहन करते होंगे, तो हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
अंग्रेजी न्यूज़ रूम में काम करने वाले एक अखबारी पत्रकार होने के नाते मैं अधिकांशतः ऐसे अनुभवों से बचा रहा। मैंने ऐसे संपादकों के साथ काम किया है जो वास्तव में धर्मनिरपेक्ष थे। इसका एहसास मुझे बाद में हुआ कि उनमें कुछ ऐसे भी थे जो सिर्फ ऑफिस के दबाव के कारण धर्मनिरपेक्ष थे। विचारधारा के मामले में ये बहुत कच्चे साबित हुए।
जब आसमान में अँधेरा छाने लगा और नीचे गली में खेल रहे बच्चों की आवाज धीरे धीरे मंद पड़कर गायब होने लगी तब उठकर मैं अपने दोस्त के साथ टहलने निकला, तब हमारी बातचीत उस विषय की ओर मुड़ गई जो आज नौजवान और अभिजात मुसलमानों के बीच चर्चा का मुख्य विषय है: क्या हमें हिंदुस्तान छोड़ देना चाहिए?
जब मैं अपने विचारों को शब्द देने की कोशिश करता हूं तो क्रोध की लहर मन में उठती है, लेकिन इसके साथ ही अभिव्यक्ति को संतुलित रखने का भाव भी मन में है। इसका कारण या तो कानून का डर है या फिर विचारों को ‘स्वीकृति की सीमा’ में रखने की चिंता। यह नियंत्रण और दमन का पहला संकेत है, क्योंकि यह मेरी आवाज को बांध देता है, मेरे शब्दों की सीमाओं को पहले से निर्धारित कर देता है, और हक़ के लिए उठने वाली मेरी आवाज को पहले ही घोंट देता है। यह कितना गज़ब है कि कानून और सार्वजनिक विमर्श को नियंत्रित करने वालों का गठजोड़ पहले सुबूतों को मिटाता है और अंततः न्याय का गला घोंट देता है।
एक वक्त ऐसा था जब मुझे भारतीय गणराज्य के आश्वासनों पर यकीन था, लेकिन वक्त केगुजरने के साथ और कुछ दर्दनाक अनुभवों के बाद मैं इसकी असली शक्ल को पहचानने लगा। जब इसका जन्म हुआ तब वास्तव में यह ऐसे नवजात शिशु की तरह था जिसमें अनेक संभावनाएं थी, लेकिन जैसे गणराज्य में यह बाद में तब्दील हुआ, और किसी दवाब में नहीं अनेक बार खुद की मर्जी से, इससे यही लगता है कि इसको लेकर शुरुआती अनुमान गलत थे और झूठी उम्मीदों पर टिके थे। कभी कभी यह ठिठका जरूर मगर अपने गुनाहों पर कभी पछताया नहीं। इसके पास एक प्रगतिशील संविधान है जो इसे वे तमाम शक्तियाँ देता है, जिसके बूते यह खुद को धर्मनिरपेक्ष गणराज्य में विकसित कर सके, लेकिन यह फिर भी कभी धर्मनिरपेक्ष नहीं बन सका। इसके उलट अब यह पूरी तरह बहुसंख्यकवादी राज्य में तब्दील हो चुका है।
यदि यह समझना हो कि भारतीय राज्य ने अपने मुस्लिम नागरिकों के साथ कैसा बर्ताव किया है तो फरवरी 2020 में दिल्ली में भड़के दंगों में पुलिस द्वारा 23 वर्षीय फैजान की प्रताड़ना इसका सबसे बेहतर रूपक है। एक नौजवान, दूसरे मुसलमान नौजवानों के साथ दर्द से कराहता हुआ जमीन पर पड़ा हुआ है और पुलिस लाठियों से कुचलते हुए उसे राष्ट्रगान गाने के लिए विवश कर रही है। बाद में फैजान की मृत्यु हो गई या कहें कि राज्य द्वारा उसकी हत्या कर दी गई। आज 2 साल बाद भी वह अपनी कब्र में इंसाफ की राह देख रहा है। 1962 में न्यूयॉर्कर के लिए लिखे गए निबंध Letter From a Region in My Mind में अश्वेत अमरीकी लेखक जेम्स बाल्डविन ने लिखा था “उनके पास जज हैं, अदालत है, बंदूकें हैं, कानून है- एक शब्द में कहें तो उनके पास ताकत है, लेकिन यह ताकत जुर्म की है जो डर पैदा करती है इज्जत नहीं, और इसे किसी भी कीमत पर खत्म किया जाना है”।
फैजान की मां का चेहरा मेरी आंखों और स्मृति में है। मेरी आंखों और स्मृति में 2002 के कुतुबुद्दीन अंसारी की आँखों का डर और दया की याचना है, उस महिला की आँखों के आंसू भी है जिससे उस स्कूल में घुसने के लिए बुर्का उतरवाया गया जिसमें वह सालों से पढ़ा रही है, उन मुसलमानों के चेहरे हैं जिन्होंने झूठे मुकदमों में अपनी पूरी जवानी जेल में गुजार दी, हर बार जब उनके हाथ दुआ के लिए उठते हैं तब उन मुसलमानों की आँखों में जो दर्द होता है वह भी मेरी आँखों और स्मृतियों में है।
नेल्ली से लेकर हाशिमपुरा और भागलपुर से लेकर गुजरात सब कुछ मेरी आँखों और स्मृति में है। मैं धर्म संसद और बुल्ली बाई मामलों में राज्य की उदासीनता देखता हूँ। शुक्रवार के दिन गुड़गाँव में नमाज पर रोक और तबलीगी जमात पर इसके झूठे दोषारोपण को देखता हूं। मैं देखता हूं कि पुलिस ने मेरे शिक्षण संस्थानों, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिल्लिया इस्लामिया में घुसकर मारपीट की और विद्यार्थियों को अपंग और अंधा कर दिया। वे जगहें जो कभी जीवन्तता और हँसी से गुलजार रहा करती थीं उन्हें दहशत और बर्बादी के डरावने मंजरों में बदल दिया। यह भी मेरे सामने है कि आजाद भारत में मुसलमानों के लिए इंसाफ के सबसे बड़े मसले पर,यानी 1992 में बाबरी मस्जिद, राज्य बुरी तरह विफल रहा। जब यह फैसला आया तब मैंने खुद को बुरी तरह ठगा महसूस किया।
भारत की न्यायपालिका जिस पर मेरे अधिकारों और आजादी की रक्षा की जिम्मेदारी है उसने देश के अन्य संस्थानों की अपेक्षा मुझे अधिक निराश किया है। जिन्होंने मुसलमानों पर गोलियाँ चलाई, उन पर बम फेंके, और उनके नरसंहार की धमकियां दी उन्हें जमानत देने में न्यायाधीशों की कलम तेजी से चलती है। लेकिन मुसलमानों को बहुसंख्यकों और राज्य के अत्याचार से बचाने में और उनके विरुद्ध हुए अपराधों में उन्हें न्याय देने में ऐसी तत्परता बिल्कुल नहीं दिखाई जाती। न्यायाधीशों के गढ़े गए शब्द मसलन जीवन पद्धति (Way of Life), संभावना की प्रबलता (Preponderance of Probabilities), और सामूहिक चेतना (Collective Conscience) उस व्यवस्था के प्रमुख आधार बन गए हैं जो अन्याय और अत्याचार करती है।
न्याय बुनियादी मानवीय जरूरत है। इसकी अनुपस्थिति मन में गहरी बेचैनी पैदा करती है। न्यायाधीशों को यह बात समझनी होगी कि इंसाफ टुकड़ों में नहीं दिया जाता, यहाँ- वहाँ खैरात की तरह। इंसाफ बिना शर्त और किसी भी कीमत पर होना चाहिए। मैं त्वरित न्याय की भी मांग नहीं कर रहा, न्याय के लिए आवश्यक जरूरी वक्त लिया जा सकता है, लेकिन जब फ़ैसला हो तब ऐसा होना चाहिए जो मन को हरा कर दे। इंसाफ ही वह कारण है जिससे आप किसी देश को मोहब्बत करते हैं आप किसी ऐसे देश से मोहब्बत कर ही नहीं सकते जहां आपको इंसाफ ना मिले। इस बात के एहसास में ही वह कारण छुपा है कि मैं इन दिनों क्यों इतना बेचैन महसूस करता हूं।
NCERT पाठ्य पुस्तकों, सिनेमा, अखबारों, चालाकी भरे 50 शब्द के संपादकीयों के माध्यम से यह बात लगातार स्थापित करने की कोशिश की जाती रही कि भारत एक न्यायप्रिय देश है, लेकिन मैंने ऐसा कभी महसूस नहीं किया। मेरे व्यक्तित्व के निर्माण के दिनों में पूरी व्यवस्था मुझे उस चीज पर यकीन दिलाने की भरपूर कोशिश में लगी रही जिस चीज का वास्तव में कोई वजूद ही नहीं है। इसने मेरे मस्तिष्क को द्वंद्व में डाल दिया। यदि अत्याचारी व्यवस्था खुलकर अपनी असली शक्ल में आती तो मैं इसे जल्दी पहचान जाता लेकिन कुछ मरीचिकाओं ने मुझे भ्रमित किया और मेरे मन में इतने दिनों तक संशय बना रहा।
इस संगठित मनोवैज्ञानिक हमले ने लाखों मुसलमानों की तरह मुझे एक ऐसे इंसान में तब्दील कर दिया जो अपनी मजहबी पहचान को लेकर हीनता बोध से ग्रस्त है, जो खुद को दूसरे मुसलमानों से अलग दिखाने की बेइंतहा कोशिश करता है, मुल्लाओं पर तंज कसने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देता, कपड़े पहनते समय सफाई को लेकर अधिक सजग है, लोगों को यह बताने के अनेक रास्ते ढूंढ लेता है कि वह एक पढ़े लिखे मुसलमान परिवार से ताल्लुक रखता है, धर्मनिरपेक्षता को आवश्यकता से अधिक प्रदर्शित करता है, हिंदुस्तान के लिए अपनी मोहब्बत को बढ़-चढ़कर प्रदर्शित करता है और जब भाजपा की आलोचना करता है तब साथ में ओवैसी की आलोचना करना भी नहीं भूलता। हमेशा खुद को छीलते रहना और दिन-रात इस फिक्र में रहना कि लोग मेरे बारे में क्या राय रखते हैं एक थकाने वाला अनुभव रहा है।
गुजरते वक्त ने मुझे यह एहसास दिलाया कि मैं लोगों को खुश करने की नाकाम कोशिश कर रहा था। और फिर यह सब मैं कर किसके लिए रहा था? उस बहुसंख्यक आबादी के लिए जिसके एक बड़े तबके ने पहले ही मेरी बर्बादी में अपनी चुनावी, आर्थिक, सामाजिक सहमति प्रदान कर दी है। मैं जिंदगी भर उन पूर्वग्रहों से लड़ता नहीं रहना चाहता जो उन्होंने मेरे ऊपर लाद दिए। ‘अच्छे मुसलमान’ की उनकी धारणा के अनुसार मैं नहीं चल सकता और न ही उनका विश्वास जीतने के लिए अन्य मुसलमानों को खुद से दूर ही कर सकता हूँ। मैंने यह भी सीखा है कि जो अपनी मीठी मीठी बातों के पीछे घृणा छुपाए हुए हैं उन्हें समझाना मेरा काम नहीं है। यदि वे चाहते हैं कि नफरत उनकी जिंदगियों को बर्बाद न करे तो इसकी कोशिश उन्हें खुद करनी चाहिए।
सच कहूँ, अब मुझे फर्क नहीं पड़ता। मुझे फर्क नहीं पड़ता कि हिंदुस्तान किस दिशा में जा रहा है, अब न मैं भाईचारे का पाठ पढ़ाना चाहता हूं, न ही मैं देश की सामासिक संस्कृति को बचाने की कोशिश ही करता हूँ, जिसकी अपेक्षा कुछ अभिजात मुसलमान मुझसे करते हैं। ना मैं इस विषय में कोई सलाह देना चाहता हूं। मुसलमान नौकरशाह, जनरल, लेखक, नए युग के जमींदार जो कोशिश करना चाहते हैं, कर सकते हैं, उन्हें मेरी ओर से मुबारकबाद। पर मुझे लगता है उनके यह प्रयास अपने समुदाय की समझ और हितों से पैदा नहीं हुए बल्कि उसमें खुद के पद, प्रतिष्ठा और सत्ता में हिस्सेदारी को बचाए रखने की कवायद है।
एक मित्र के दादाजी ने अपना अनुभव साझा करते हुए कहा था कि आजादी के बाद के दशक में जब कोई मुसलमान अपने ऑफिस में कोई सामान्य सी चीज भी माँगता तो उस पर फब्ती कसी जाती : “अभी तो दिया था पाकिस्तान फिर आ गए माँगने”। विभाजन की ऐसी सपाट और विकृत समझ के कारण इस धारणा ने अत्यंत उदार तबकों में भी घर कर लिया था। यही कारण है कि जब कोई मुसलमान बिना क्षमा प्रार्थी हुए अपने अधिकारों और बराबरी की नागरिकता की मांग करता है तो वह बहुसंख्यक आबादी की आँखों में चुभता है। मेरे पूर्वज और पिताजी समान अधिकारों और न्याय की मांग करते वक्त सशंकित होते होंगे लेकिन मैं नहीं होता। जो अधिकार मेरे हैं वे मुझे चाहिए और वह भी संपूर्णता में।
कभी-कभी मन में है ख्याल तो आता है कि क्या मुझे यह देश छोड़ देना चाहिए? क्या मैं चुनौतियों से भाग रहा हूँ? फिर उनका क्या जो देश नहीं छोड़ सकते? क्या मुझे यहाँ रह कर अपने हिस्से की लड़ाई नहीं लड़नी चाहिए? क्या सुरक्षा की फिक्र कोई वाजिब फिक्र नहीं है? मेरे दोस्त जिनके अभी छोटे छोटे बच्चे हैं उन्हें फिक्र होती है कि उनके बच्चों को स्कूल में नफरत का सामना करना पड़ता होगा, वे किसी भी मुल्क में रहे लेकिन नफरत से नहीं बच सकते। उन्हें अपने अभिभावकों की भी चिंता होती है जो या तो देश को छोड़ने योग्य अवस्था में नहीं है या ऐसा करने की उनकी इच्छा नहीं है। जो लोग आज 40 पार कर चुके हैं कि उन्हे सबसे बड़ा मलाल है- कि जब उनके पास मौका था उन्होंने हिंदुस्तान छोड़ क्यों नहीं दिया।
मैं हिंदुस्तान में सिर्फ इसलिए रहना चाहता हूँ क्योंकि इससे मेरा नाता है। मैंने अपने जीवन के 30 वर्ष यहां गुजारे हैं। यही मुल्क है जो मेरी सामाजिक आकांक्षाओं को संतुष्ट करता है। मुझे पता है अपने मुल्क को छोड़ना कितना दर्दनाक होता है चाहे ऐसा जबरदस्ती करना पड़े या खुद की मर्जी से। मैं जिन्हें जानता हूं, मेरा परिवार, मेरे दोस्त, वे लोग जिन्हें मैं आदर्श मानता हूँ, वे भी जिनसे मैं नफरत करता हूँ वे सब यहीं तो हैं। यही मेरी दुनिया है। मुझे मालूम है कि धूप खिलने पर कैसा लगता है और बरसात मन पर कैसा असर डालती है। अपने आप को यहाँ से उखाड़ कर ऐसी जगह रोप देना जहाँ की सुबह से भी मैं अनजान हूँ, कितना डरावना ख्याल है। मुझे नहीं लगता कि साफ सुथरी चिकनी सड़कें और पश्चिमी दुनिया की चकाचौंध मेरे खयाल को बदल देगी। मैं दुनिया को सफाई कर्मचारी की निगाह से नहीं देखता।
यह रात बहुत लंबी है मुझे नहीं पता कि इसकी सुबह कब होगी। लेकिन मुझे उम्मीद है कि वह सुबह देख सकूँगा जो अपने साथ इंसाफ की गूंज और बौछारें लेकर आएगी।
(सालिक अहमद दिल्लीवासी पत्रकार हैं और अनुवादक शुभेंद्र दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में शोधार्थी है)
I am also waiting for those day, when hindu, muslim, sikh, parsi, low caste Or any one who is in India can live in from Kashmir to Kanyakumari, but I know it will never happen it’s just I am dreaming of , the demon is in DNA of everybody.
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