भारतीय फ़ासीवाद और प्रतिरोध की संभावना : आशुतोष कुमार

Leading Critic Ashutosh Kumar, Editor ‘Aalochana’ , who teaches at Department of Hindi, Delhi University will be delivering the sixth lecture in the ‘Sandhan Vyakhyanmala Series’ ( in Hindi) on Saturday,13 th August,  2022, at 6 PM (IST).

He will be speaking on ‘ भारतीय फ़ासीवाद और प्रतिरोध की संभावना’ ( Indian Fascism and Possibility of Resistance) 

This online lecture would be held on zoom and will also be shared on facebook as well : :facebook.com/newsocialistinitiative.nsi

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Organised by :NEW SOCIALIST INITIATIVE ( NSI) Hindi Pradesh 

संधान व्याख्यानमाला : छठा वक्तव्य 

विषय : भारतीय फ़ासीवाद : प्रतिरोध की संभावना 

वक्ता : अग्रणी लेखक एवं संपादक ‘आलोचना’

आशुतोष कुमार 

हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय 

शनिवार, 13 अगस्त, शाम 6 बजे 

सारांश :

भारतीय फ़ासीवादऔर प्रतिरोध की संभावना 

कुछ  प्रश्न:
क्या भारत की वर्तमान परिस्थिति को फासीवाद के रूप में चिन्हित किया जा सकता है? अथवा क्या इसे केवल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण , धार्मिक कट्टरता और रूढ़िवाद की राजनीति के रूप में देखा जाना चाहिए? यह सवाल महत्वपूर्ण इसलिए है किस के जवाब पर इस परिस्थिति से मुकाबला करने की रणनीति निर्भर करती है।

अगर यह फासीवाद है तो इसके उद्भव और वर्तमान शक्ति-सम्पन्नता के आधारभूत कारण क्या हैं? क्या यह केवल वैश्विक वित्तीय पूंजीवाद के संकट की अभिव्यक्ति है, जैसा कि प्रभात पटनायक जैसे अर्थशास्त्री समझते हैं?

 क्या भारतीय फ़ासीवाद जैसी किसी अवधारणा के बारे में सोचा जा सकता है? या यह सिर्फ एक वैश्विक प्रवृत्ति है ?

अगर यह फ़ासीवाद नहीं है तो क्या यह पश्चिम और पश्चिमपरस्त राजनेताओं और बौद्धिकों द्वारा अन्यायपूर्ण ढंग से दबाए गए हिन्दू राष्ट्रवाद का उभार है, जैसा कि के भट्टाचार्जी जैसे सावरकरी टिप्पणीकार दावा करते हैं?

क्या यह संघ के बढ़ते लोकतंत्रीकरण के चलते उसके नेतृत्व में वंचित- उत्पीड़ित जन समुदाय द्वारा किया गया सत्ता परिवर्तन है, जिसने कुलीन वर्गों की कीमत पर अकुलीनों को शक्तिशाली बनाया है? जैसा कि अभय कुमार दुबे और बद्री नारायण जैसे सामाजिक लेखक संकेत करते हैं?

 क्या वर्तमान सत्ता संतुलन को बदला जा सकता है? इसे कौन कर सकता है और कैसे?

कुछ बातें

फ़ासीवाद का सबसे बड़ा लक्षण कार्यपालिका,विधायिका और न्यायपालिका के एक गठबंधन के रूप में काम करने की प्रवृत्ति है। लोकतंत्र में इन तीनों के अलगाव और इनकी स्वायत्तता पर इसलिए जोर दिया जाता है कि कोई एक समूह राजसत्ता का दुरुपयोग न कर सके। तीनों निकाय एक दूसरे पर नजर रखने और एक दूसरे को नियंत्रित करने का कार्य करें। इस व्यवस्था के बिना एक व्यक्ति और एक गुट की निरंकुश तानाशाही से बचना नामुमकिन है।

अयोध्या-विवाद से लेकर गुलबर्ग सोसाइटी जनसंहार  और छतीसगढ़ जनसंहार तक के मामलों में हमने सुप्रीम कोर्ट को संविधान-प्रदत्त नागरिक अधिकारों और न्याय की अवधारणा के विरूद्ध राज्य के बहुमतवादी फ़ैसलों के पक्ष में खड़े होते देखा है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने धन-शोधन निवारण अधिनियम के अन्यायपूर्ण प्रावधानों के खिलाफ दी गई याचिका पर राज्य के पक्ष में फैसला दिया है. सीएए और धारा 370 के निर्मूलीकरण जैसे मामलों में चुप्पी साधकर भी उसने नागरिक अधिकारों के विरुद्ध राजकीय निरंकुशता का समर्थन किया है.

नाज़ी जर्मनी में ग्लाइसेशतुंग या समेकन के नाजी कानूनों के जरिए इसी तरह राज्य के सभी निकायों को सकेन्द्रित और एकात्म बनाया था.  हिटलर की तरह मुसोलिनी ने भी ‘राष्ट्र-राज्य सर्वोपरि’ के सिद्धांत के तहत न्यायपालिका को पालतू बनाने का काम किया था. भारत में भी हमने गृह मंत्री अमित शाह को सबरीमाला  मामले में  सुप्रीम कोर्ट को चेतावनी देते देखा है.

भारत में फ़ासीवाद के सभी जाने पहचाने लक्षण प्रबल रूप से दिखाई दे रहे हैं। एक व्यक्ति की तानाशाही और व्यक्ति पूजा का व्यापक प्रचार। मुख्य धार्मिक अल्पसंख्यक समूह के विरुद्ध नफरत, हिंसा और अपमान का अटूट सिलसिला। अल्पसंख्यकों के खिलाफ अधिकतम हिंसा के पक्ष में जनता के व्यापक हिस्सों का जुनून। विपक्ष की बढ़ती हुई असहायता। स्वतंत्र आवाजों का क्रूर दमन। दमन के कानूनी और ग़ैरकानूनी रूपों का विस्तार। मजदूरों और किसानों के अधिकारों में जबरदस्त कटौती। आदिवासियों, दलितों और स्त्रियों के सम्मान के संघर्षों का पीछे ढकेला जाना। शिक्षा पर भगवा नियंत्रण। छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकारों का विलोपन। फ़ासीवादी प्रचार के लिए साहित्य, चित्रकला, मूर्तिकला, सिनेमा और दीगर कला-विधाओं के नियंत्रण और विरूपण को राज्य की ओर से दिया जा रहा संरक्षण और प्रोत्साहन।

अभी भी कुछ लोग भारत में फासीवादी निज़ाम से सिर्फ इसलिए इंकार करते हैं कि इस देश में गैस चैंबर  स्थापित नहीं किए गए हैं। उन्हें समझना चाहिए कि भारतीय फ़ासीवाद ने फ़ासीवाद अतीत से बहुत कुछ सीखा है। उसने समझ लिया है कि भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण  देश में  भौतिक गैस चैंबर से कहीं अधिक असरदार और स्थायी  व्यवस्था है देश के भीतर सामाजिक और  मनोवैज्ञानिक गैस चैम्बरों का विस्तार।

लगभग समूचे देश को एक ऐसे सांस्कृतिक गैस चेंबर में बदल दिया गया है, जिसमें एक व्यक्ति और एक विचारधारा की गुलामी से इनकार करने वाले स्वतंत्रचेता जन अपने जीवित होने का कोई मतलब ही ना निकाल सकें।

यूरोप की लोकतांत्रिक परम्पराओं के कारण फ़ासीवादी राज्य की स्थापना के लिए कानूनी बदलावों की जरूरत थी. भारत में ‘भक्ति-परम्परा‘ की जड़ें बहुत गहरी हैं. शर्तहीन-समर्पण का संस्कार प्रबल रहा है. क्या यह भी एक कारण है कि भारत में यूएपीए और अफ्स्पा जैसे कुछ विशेष कानूनों के अलावा व्यापक कानूनी बदलावों की जरूरत नहीं पड़ी है?

फ़ासीवाद की मुख्य जीवनी शक्ति नफ़रत की भावना है। हमारे देश में वर्ण व्यवस्था और जाति प्रथा के कारण अपने ही जैसे दूसरे मनुष्यों से तीव्र नफरत का संस्कार हजारों वर्षों से फलता फूलता रहा है। वोट तंत्र ने इस नफरत को उसकी चरम सीमा तक पहुंचा दिया है। क्या भारतीय फ़ासीवाद नफरत के इस चारों ओर फैले खौलते हुए समंदर से उपजे घन-घमंड के रूप में ख़ुद को जनमानस में स्थापित कर चुका है?

इस बातचीत में मैं ऐसे ही कुछ सवालों के जरिए यह देखने की कोशिश करूंगा कि क्या हम ‘भारतीय फासीवाद’ की कोई व्यवस्थित  सैद्धांतिकी निर्मित करने के करीब पहुँच गए हैं. ऐसी किसी संभावित सैद्धांतिकी की रूपरेखा  क्या होगी और इस उद्यम से हम अपने किन सवालों के जवाब हासिल करने की उम्मीद कर सकते हैं. 

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