Guest post by MAYA JOHN
यह लेख डेक्कन हेरल्ड में लिखे गए लघु लेख का हिन्दी रूपान्तरण है।
रात के अंधेरे में महिला पहलवानों से दिल्ली पुलिस की हालिया हाथापाई के बाद उनका आँसुओं से भरा चेहरा दिखा। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त यह महिला पहलवान सत्तारूढ़ पार्टी के सांसद और भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष द्वारा महिला पहलवानों के कथित यौन उत्पीड़न के खिलाफ लगातार विरोध प्रदर्शन कर रही हैं। पिछले कुछ महीनों में आरोपी सांसद के खिलाफ इन विरोध प्रदर्शनों का यह दूसरा दौर है। विडम्बना है कि सुप्रीम कोर्ट में मामला पहुँचने के बाद ही आरोपी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज हो पाई। आरोपी के खिलाफ लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण (पोक्सो) अधिनियम के तहत मामला दर्ज होने के बावजूद उसकी अभी तक गिरफ्तारी नहीं हुई है, और यहाँ तक कि वो अभी भी कुश्ती संघ के अध्यक्ष पद पर आसीन है। पहलवानों के यूँ सुबकते चेहरे, उनके अपमान और हताशा हमारे ज़मीर को भी झकझोरते हैं कि आखिर हमारे देश की क्या हालत हो रही है।
सत्तासीन दल और उनके समर्थक अपनी पक्षपाती राजनीति से पैदा हो रहे खतरे को आसानी से नज़रअंदाज़ करने में लगे हुए हैं। जब हाथरस (उत्तर प्रदेश) में सामाजिक रूप से ‘अन्य’ समझे जाने वाले दलित समुदाय की पीड़िता के साथ बलात्कार हुआ तो लोगों की भावनाएँ कम आहत होते हुए दिखीं। आगे जब 15 अगस्त, 2022, को देश अपना 75वाँ स्वतंत्रता दिवस मना रहा था, तब हमने देखा कि कैसे बिल्कीस बानो मामले में गैंगरेप और हत्या जैसे संगीन अपराध करने वाले मुजरिमों को सज़ा-माफी के सारे नियमों को धता बताते हुए सज़ा-मुक्त कर दिया गया। इस मामले में भी जनता में आक्रोश उतना नहीं दिखा क्योंकि ज़ाहिरा तौर पर हम समझ सकते हैं कि बढ़ते सांप्रदायिक विभाजन ने जनता की चेतना को कुंद कर दिया है। इन दोनों ही मामलों में, सत्तासीन ताकतों द्वारा पीड़िताओं को न्याय से वंचित करने की कवायद देखने को मिली। देश में गहरे सामाजिक वैमनस्य की भावनाएँ इसके लिए एक व्यापक सामाजिक आधार बना देती हैं। यही कारण है कि यौन हिंसा की पीड़िताओं को बदनाम करने और आरोपियों को बचाने में मीडिया का एक खेमा, सत्तारूढ़ राजनेताओं और प्रशासन का नापाक गठजोड़ वृहद प्रश्न चिन्ह के दायरे में नहीं आ पाता।
हालांकि, यौन हिंसा की वारदातों को छिपाने की बदस्तूर कोशिशें होती रही हैं, मगर इस बार हमारे देश को एक बेहद ही कड़वे सच का सामना करना पड़ रहा है। इस बार शिकायतकर्ताएँ कोई आम महिलाएँ नहीं हैं, मगर वो हैं जिन्होंने देश की प्रतिष्ठा को बढ़ाने का काम किया है। जिन पहलवानों को पहले ‘भारत की बेटी’ कहकर नवाज़ा गया उन्हें आज बदनाम और प्रताड़ित किया जा रहा है, और उन्हें न्याय के लिए सड़कों पर आने को मजबूर कर दिया गया है। महिला पहलवानों के साथ हुआ वाकिया भी इस तरह की अंतहीन घटनाओं की पुनरावृत्ति की श्रंखला का एक अंश बनता हुआ दिख रहा है। आज कई लोगों में ऐसा पराजय-बोध घर गया है कि उन्हें लगता है कि हुकूमत के काले कारनामों से बेफिक्र सोये हुए जनमानस को जगाया ही नहीं जा सकता।
प्राचीन भारत के महाकाव्य, महाभारत की कहानी हमारे दौर में व्याप्त नैतिक असमंजस्ता को समझने के लिए हमारी मददगार हो सकती है। यूं तो यह कहानी कुरु वंश के कौरवों और पांडवों की संपत्ति को लेकर आपसी कलह का वृतांत है, किन्तु द्रौपदी के अपमान के बदले के सवाल ने इस कलह को धर्मयुद्ध में बदल दिया। भरे दरबार में पाँच पांडवों की पत्नी, द्रौपदी को सबके सामने निर्वस्त्र किया गया, और राजा धृतराष्ट्र मूकदर्शक बने रहे। यहाँ तक कि कुरु वंश के बुजुर्ग, भीष्म पितामह और नीतिराज विदुर भी चुप रहे। मगर, कौरवों से विकर्ण और युयुत्सु ने इस घृणित कृत्य के खिलाफ आवाज़ उठाई। युयुत्सु गांधारी की सेविका से धृतराष्ट्र का पुत्र था। राजा का बेटा होने के नाते वो राज्य व्यवस्था का हिस्सा बना। किन्तु, जन्म के कलंक के कारण उसकी अपने कौरव भाईयों से दूरी थी। उसे एक नैतिक योद्धा के तौर पर याद किया जाता है। गौरतलब है कि कुरुक्षेत्र के युद्ध के शंखनाद से पहले जब कौरव और पांडव आमने-सामने खड़े थे, तब धर्मराज युधिष्ठिर ने वहाँ मौजूद सभी योद्धाओं का आह्वान किया कि अगर उन्हें लगता है कि दूसरा पक्ष के साथ सत्य खड़ा है तो वो अपना पक्ष बदल सकते हैं। जहाँ विकर्ण नैतिक असमंजसता के बावजूद भी कौरवों के साथ बना रहा, वहीं युयुत्सु ने अपने पारिवारिक मोहपास को तोड़कर सत्य एवं न्याय का रास्ता चुना।
आज हमारे समय में भी कई सत्ता-लोलुप्ता से ग्रसित धृतराष्ट्र मौजूद हैं। भीष्म और विदुर भी निश्चित मौजूद हैं जिनकी प्रतिबद्धता सत्ता के साथ बंधे होने और न्याय-पथ पर चलने की ज़रूरत के बीच बंटी हुई है। विकर्ण जैसे भी मौजूद हैं जो सत्ता के नैतिक रूप से पतित कारनामों से अनभिज्ञ नहीं हैं, पर फिर भी सत्ता-उन्मुखी बने हुए हैं। मगर, आज के दौर में भी कई युयुत्सु ज़रूर होंगे जिनकी अंतरात्मा उन्हें भारत की संघर्षरत महिला पहलवानों के साथ खड़ा होने और यौन अपराधों के दंडाभाव की संस्कृति के खिलाफ आवाज़ उठाने का सही रास्ता चुनने को पुकारेगी।
आज रोती हुई महिला पहलवानों की तस्वीर देश की अंतरात्मा को झकझोर रही है। आम विमर्श में यौन अपराधों की शिकायतकर्ताओं के ही चरित्र पर सवालिया निशान लगा दिया जाता है। उन्हें यह हमेशा सीख दी जाती है कि वो खुद को परम्पराओं की लक्ष्मण रेखा में बांध कर रखें या अपनी आत्मरक्षा के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से सशक्त बनें। गौर करने वाली बात है कि यह वो पहलवान महिलाएं हैं जिनको अनुशासन और दृढ़ता का प्रशिक्षण मिला है, और जो मानसिक और शारीरिक तौर पर सशक्त हैं। फिर भी, इंतहा देखिए कि आज की व्यवस्था आरोपी को बचाने के लिए इन्हें भी निरीह बनाकर इनके साहस को तोड़ने के अक्षम्य प्रयास में लगी हुई है। आज जब उनके वजूद और राष्ट्र के स्वाभिमान को कुचला जा रहा है तो क्या हम इस त्रासदी के मूकदर्शक बने रह सकते हैं? यह संघर्ष इस देश की औसत महिला के लिए आशा की एक किरण है। हमारे आँखों के सामने सत्य और न्याय के लिए लड़ा जा रहा समकालीन महाभारत कई युयुत्सुओं की प्रतीक्षा कर रहा है जो यह सुनिश्चित कर सकें कि सत्य की रोशनी पक्षपात के अंधकार द्वारा निगल न ली जाए।
The original article in English can be found at: https://www.deccanherald.com/opinion/comment/what-does-it-say-about-us-1219081.html
लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं और लगभग दो दशकों से महिला आंदोलन से संबन्धित रही हैं