Guest post by VAIBHAV SINGH
अरुंधति राय के खिलाफ अपशब्दों की, गाली-गलौच की, आरोपों की हिंसा ने हमें एक बार फिर यह प्रश्न पूछने के लिए विवश कर दिया है – क्या हमने सचमुच अपने देश में सभ्यता व सहिष्णुता के महान मूल्यों की रक्षा करने के दायित्व से छुटकारा पा लिया है? कहीं हम पूरे राष्ट्र को ‘डिसोसिएटिव आइडेंटिटी डिसआर्डर’ (खंडित व्यक्तित्व मनोरोग) का शिकार बनते तो नहीं देख रहे हैं जिसमें किसी व्यक्ति नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र के चरित्र में परस्पर विरोधी मूल्य इस प्रकार विषैले कांटों की तरह उग आते हैं कि राष्ट्र का पूरा व्यक्तित्व चरमराने या दिग्भ्रमित होने लगता है! एक सभ्य-लोकतांत्रिक देश के रूप में आत्मछवि और हिंसक बाहरी आचरण में जितना गहरा भेद पैदा हो जाता है, वह राष्ट्र की आत्मा मार देता है। जिसने भी स्वयं में अनूठी लेखिका को जीप के बोनट से बांधने की कल्पना की, उसे संभवतः अंदाजा भी नहीं था कि वह केवल एक वक्तव्य नहीं दे रहा है, बल्कि मनुष्यता के सभी संभव परिकल्पनाओं के विरुद्ध अपराध कर रहा है। ऐसी कल्पना में बीमार विचारशून्यता ही नहीं बल्कि भयानक सड़ांध, विकृति और मनोरोग की झलक मिलती है। परेश रावल के अरुंधति के विरोध में लिखे ट्वीट से उल्लसित सोशल मीडिया के एक समूह ने तो अरुंधति राय की सामूहिक ढंग से हत्या कर उनके शव को पाकिस्तान में दफनाने की वकालत भी कर डाली।