‘मेरे लिए लेस्बियन होने का सबसे बढ़िया पहलू है मज़ेदार सेक्स’

Published originally in English  here

Translated by AKHIL KATYAL

मैंने हाल ही में एक डोक्युमेंटरी फिल्म देखी, प्रतिभा परमार की १९९१ में बनायीं हुई खुश, जो कि दक्षिण ऐशिआयि एल.जी.बी.टी (लेस्बियन, गे, बिसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर)  लोगों कि अलग-अलग ज़िन्दगी के बारे में थी। एक लेस्बियन महिला से जब फिल्म में पुछा गया कि ‘लेस्बियन होने का सबसे बढ़िया पहलु क्या है?’ तो उसका जवाब था ‘मेरे लिए लेस्बियन होने का सबसे बढ़िया पहलु है पूरी तरह से ख़ुशगवार, मज़ेदार सेक्स!’ फिर वो महिला, पूरे नब्बे दशक के फैशन में सजी हुई, ऐसे मुस्कुराई,
कि लगा  कि वहीं उसी वक्त, उसी जगह, उसे अपने मज़ेदार सेक्स के सारे पल याद आ गयें हों।
मुझे, एक क्युइर एक्टिविस्ट के नाते, जो कि इस फिल्म के बनने के समय कुछ आठ साल कि थी और जो कि सार्वजनिक ढंग से एल.जी.बी.टी लोगों के बारे में न्यायालयों में और पत्रकारों से बोलती आई है, एक भी ऐसा पलयाद  नहीं आ रहा है, जब मैंने सेक्स के बारे में कुछ लिखा या बोला हो। अपने हकों कि खोज में हम अपने आप को पीड़ित या इज्ज़तदार बनाने में उलझे रहे। इस सब में सेक्स कहीं खो सा गया।
ऐसे देश में जहाँ ज्यादातर लोगों को, ख़ास तौर से महिलाओं को, ये नहीं मालूम कि क्लिटोरिस (भगशेफ) क्या होता है, या संतोषजनक सेक्स का अनुभव कैसा होता है, वहां हमें उन क्युइर महिलाओं के नाते – जिन्हें इन अनुभवों का विशेषाधिकार मिल चूका है – इन चीज़ों को सबके सामने लाना चाहिए (सबके बिस्तरों में लाना चाहिए)। ऐसे देश में जहां प्रचलित धारणायें हैं ‘पेहली रात’, ‘शादी से पहले सेक्स बुरा है’, ‘लड़कों के साथ पेहली बार हमेशा दर्द होता है’ ‘गर्ल-ऑन-गर्ल एक्शन’ (लेस्बियन पोर्नोग्राफी स्ट्रेट (विषमलिंगी) आदमियों के लिए – देखने में भद्दी और वास्तिविकता के नाते बिलकुल ठंडी), वहां हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम महिलाओं के जिस्मों कि बात करें, उन जिस्मों में आनंद को अनुभव करने कि अपार काबलियत कि बात करें। ये आनंद, ये मज़ा अपने साथ में भी है, कुछ गैर-मामूली हुनर वाले आदमियों के साथ में भी है, और (उम्मीद है) ज़्यादातर महिलाओं के साथ में भी है
‘मेरे लिए लेस्बियन होने का सबसे बढ़िया पहलु है मज़ेदार सेक्स!’ लो, मैंने कह दिया। और कहते हि सशक्त महसूस कर रहीं हूँ। इस क्रैश कोर्स के तहत, मेरे कुछ हल्के सुझाव:
* क्लिटोरिस (भगशेफ) को अभी गूगल करो, या उसके बारे में कहीं से भी पता लगाओ!
* ‘सेक्सुअल अंग’ जैसी कोई चीज़ नहीं होती। तुम्हारा पूरा शरीर सेक्सुअल है। बात है बस उसका पूरा एहसास
करने कि।
* महिलाएं भी हस्त-मैथुन (मैसटरबेट) कर सकतीं हैं और करतीं हैं और इसमें कुछ अप्राकृतिक/असामान्य/गलत/अधर्मी नहीं।
* सेक्स सिर्फ कोई एक चीज़ करने का नाम नहीं है। वो जो मशहूर सवाल है ‘क्या तुम वो कर चुकी हो?’ उसके झट बाद ये पूछना चाहिए ‘क्या किया?’ सेक्स तो उन बहुत सारी क्रियायों का नाम है जो कि तुम कर सकती हो, जो तुम्हारे मन में आये, जैसा मूड हो, जैसा दिन लगे, जैसी तुम्हारी (हममें से कुछ के लिए?) पोलिटिक्स हो।
* सेक्स सभी शामिल लोगों को खुश और संतुष्ट रखने का नाम है (अजीब है कि जो बिलकुल ज़ाहिर है वो भी कहना पड़ता है!)।
* सेक्स एहेम है, लेकिन ना हि वो सब कुछ है, और ना हि वो तुच्छ है। वो है, अब क्या कहें, जो वो है।
* तुम्हारा हक़ है कि तुम जब चाहो जिसके साथ चाहो सेक्स करो, भले हि वो किसी भी वर्ग, जाती, लिंग, धर्म, जगह, या रिलेशनशिप स्टेटस कि हो, बस इस बात क्या ध्यान रखो कि तुम उन औरों पर और अपने पर  मेहरबान रहो।
मैं कोई उपदेश नहीं देना चाहती थी। लेकिन जैसा तुम देख सकती हो, मैं कुछ ऐसा हि कर गयी  इन चीज़ों के बारे में बातें करना इतना ज़रूरी है, कि कभी कभी कोई भी आड़े-टेड़े ढंग इस्तमाल हो जाते हैं
तो अब हम सब एक नेक काम ये कर सकतें हैं, कि जहाँ भी और जिससे भी, हम ये कहें कि ”मेरे लिए…होने का सबसे बढ़िया पहलु है मज़ेदार सेक्स”। ये एक चीज़ तुम्हारी ख़ुशी के लिए क्या गज़ब कर सकती है। मेरी बात मानो (मैं गर्व से कहती हूँ), मुझे पता है

3 thoughts on “‘मेरे लिए लेस्बियन होने का सबसे बढ़िया पहलू है मज़ेदार सेक्स’”

  1. ye sb shoukh to nawabo ke baare me suna tha!!!!ye himmat bhi nawabo ke paas hi hoti hai!!!desh ke ek bade rangkarmi hai…..bhopal ke……unki baat yaad aa gayi…unhone keha…”tum Indians ko to Malum tk nahi hota hai ‘what is fuck!’ aur zindagi nikal jaati hai ”
    ek student ne jawab diya to use class se bahar ka raasta dikhla diya. usane Bola ki ‘Hm aam aadmi aapke terah professional ‘fucker’ to hai nahi…. mehnat karte hai raat me simple tarike se karte hai aur fir savere uth kr kaam pr chale jaate hai’. creation to hm bhi karte hai aapki terah pr nawabo wala shoukh nahi palate hai!!!!

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  2. शौक तो सबके होते हैं न, जीतेन्द्र साहब?

    सिर्फ नवाबों के नहीं। और ‘नवाबियत’ भी सबकी होती है, सिर्फ गिने चुने नवाबों कि नहीं। दक्षिण एशिया में सामान लिंग के लोगों के रिश्तों को आम तौर से ‘शौक’ या ‘आदत’ के नज़रिए से देखा गया है। आपका भी कुछ ऐसा हि ख़याल लगता है। बी.बी.सी हिंदी के श्री राजेश प्रियदर्शी का भी कुछ ऐसा हि नज़रिया था जब उन्होनें जुलाई २००९ में लिखा कि इस मामले में ‘लोग आँख मारकर कहते थे, “इनके शौक़ ज़रा अलग हैं.” ‘नवाबी शौक़’, ‘पटरी से उतरी गाड़ी’, ‘राह से भटका मुसाफ़िर’ जैसे जुमलों में तंज़ था लेकिन तिरस्कार या घृणा की जगह एक तरह की स्वीकार्यता भी थी। हमारे स्कूल में बदनाम मास्टर थे, हमारी गली में मटक-मटकर चलने वाले ‘आंटी जी’ थे, भारत की राजनीति में कई बड़ी हस्तियाँ थीं जिनकी ‘अलग तरह की रंगीन-मिजाज़ी’ के क़िस्से मशहूर थे…’

    बात ये नहीं कि ‘शौक’ कि परिभाषा सही है या गलत। बात ये भी नहीं कि वो सामान लिंग के लोगों के रिश्तों को समझने के लिए सक्षम है या नहीं है। असल बात तो ये है, कि अगर ये ‘शौक’ है, तो कौन-कौन ये शौक पालता है, कौन-कौन ये शौक पाल सकता है। क्या वो सिर्फ नवाब हैं? क्या वो ‘आम आदमी’ नहीं हैं? हमारे ‘आम आदमी’ या ‘आम औरत’ के गुमां कभी कभार ठन्डे पड़ जाते हैं। हम सोचते हैं कि हमें सब पता है इस ‘आम आदमी’ के बारे में, इस ‘सिम्पल’ आदमी के बारे में! राजेश साहब ने तो हर गली में ढूंढ निकाले ये शौक, हर स्कूल में, हर राजनितिक पार्टी में।

    हिंदी साहित्य को हि ले लीजिये। सूर्य कान्त त्रिपाठी निराला जी कि लिखी ‘कुल्ली भाट’ – उनके दोस्त कुल्ली कि जीवनी। कुल्ली, वो दोस्त जिनके प्रलोभनों में कभी निराला का भी मनोरंजन हुआ था, निराला समझ नहीं पाए थे कि कुल्ली उनके साथ हल्की हल्की प्यार भरी छेड़खानी कर रहें हैं। निराला इसको बाद में चटखारे लेते हुए बतातें हैं, ख़ुशी से, बिना किसी घृणा के। और इस जीवनी के शुरुवात में हि, उसके पुरलेख में हि, निराला जी कह गए कि ‘कुल्ली के गुण बहुतों में हैं’। कि ‘कुल्ली के गुण’ आम हैं। कि वो आम हैं, कि वो हर वर्ग के लोगों में हैं, कि हर तबके के लोग ये ‘शौक’ पालते हैं, इसका प्रमाण हिंदी साहित्य हमें बार बार देता है।

    कमलेश्वर के ‘एक सड़क सत्तावन गलियाँ’ में सरनाम सिंह जो कि शिवराज से प्रेम करता है, वो एक ट्रक ड्राईवर है। गिन्तांजलि श्री के ‘तिरोहित’ में जो दो महिलाएं एक दुसरे के साथ अलग अलग खेल खेलती हैं, वो भारत के एक छोटे से शहर के निम्न मध्यम वर्ग से हैं। एक दुसरे कि छतों पर अठखेलियाँ करना, साथ में सोना, अपने हर एहसास को बांटना। और अमरकांत के ‘सुखा पत्ता’ में मनमोहन जो कि अपने दोस्त कृष्ण पर लट्टू है, जो कि उसे एक मर्मभेदी प्रेम-पत्र भेजता है, जो उसके संग रहना चाहता है, वो तो बलिया का एक आम लड़का है। हालि में अगर आप माया शर्मा कि किताब ‘लविंग विमेन: बीईंग लेस्बियन इन अनप्रिवीलेज्ड इंडिया’ को पढ़ें तो भारत के छोटे छोटे कस्बों से, श्रमिक वर्गों से अनेक उन इस्त्रियों के सच्ची कहानियाँ है, जो कि एक दुसरे को चाहती हैं, एक दुसरे कि लालसा रखती हैं, एक दुसरे पर मरतीं हैं। तो ‘नवाबियत’ तो नवाबों के सर के ऊपर से फिसल कर सबके पास पहले से हि पहुँच रखी है। ये शौक तो हमेशा से हि आम हैं।

    और एक छोटी सी बात। हम किस चीज़ को ‘आम’ कहें और किस चीज़ को ‘नवाबी शौक’ ये तो हमारे पर निर्भर करता है। सेक्स आम है, मज़ेदार सेक्स कि इच्छा भी आम है। उसको ‘नवाबी शौक’ कह कर हम उसको केवल कुछ गिने चुनों के पल्लू में क्यूँ डाल रहें हैं? वो तो सभी का है।

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  3. Waah Katyal Sahab, kya saaf reply kiya aapne, aapko sadhuwaad.
    Lekin mujhe itna bataiye ki jab ye chizen itni aam ho chukin hain ki chahe Rickshaw-wala ho ya adarniya Pradhanmantri ji hon, sab janetey hain ki homosexual mentality koi ajoobi aur nayee cheez nahi hai aur kai logon ka to yhan tak manna hai ki almost 40% of Indians ya to Bisexual hain ya Queer hain, lekin fir bhi itni hichak, itna dar aur itna gussa kyun hai in logon ke khilaf hamare mann me…..!!! Hum inhe bhi samaj ke mukhyadhara me kyun nahi accept karte hain….!!! Kyun sirf straight sex waley hi sahi hain, baqi sab paapi ya ghalat…..???
    Adarniya Katyal ji aur Jitendraji, aap dono se uttar ki apeksha hai, dhanyawad, Baboosahab Muzaffarpur.

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