निनाद: कुलदीप कुमार

Guest post by KULDEEP KUMAR

जिन लोगों को यह ग़लतफ़हमी थी कि भारतीय जनता पार्टी हिन्दू धर्म और हिन्दुओं की बहुत बड़ी हितैषी है और व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक जीवन में शुचिता की हिमायती है, उनकी यह ग़लतफ़हमी अब तो दूर हो जानी चाहिए. उसके शासन वाले राज्य उत्तराखंड में एक संन्यासी गंगा को स्वच्छ किये जाने और अवैध खनन को रोके जाने की मांग को लेकर अनशन करता रहा लेकिन पार्टी और सरकार के कान पर जूँ तक न रेंगी. गंगा का सभी भारतवासियों, विशेष रूप से हिन्दुओं, के लिए भावनात्मक महत्व है. अनशन भी शासन के विरोध में नहीं बल्कि एक सकारात्मक मांग को उठाने के लिए किया गया था. लेकिन स्वामी निगमानंद न तो राज्य सरकार का ध्यान अपनी ओर खींच पाए और न ही मीडिया का. जब उनकी ओर ध्यान गया तब तक बहुत देर हो चुकी थी.पंजाबी सूबे की मांग को लेकर अनशन करने वाले दर्शन सिंह फेरुमान की मृत्यु के बाद शायद यह पहला अवसर है जब किसी ने अनशन के कारण प्राण त्यागे हैं.
दरअसल भाजपा को केवल उन्हीं संन्यासियों की ज़रुरत है जिनका राजनीतिक इस्तेमाल किया जा सके. क्योंकि उसे हिन्दू धर्म से कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए उसे इस बात से भी परेशानी नहीं होती कि सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर संन्यास ग्रहण करने के बाद कोई व्यक्ति सांसद, विधायक या मुख्यमंत्री कैसे बन सकता है. भगवा वस्त्र अग्निशिखा का द्योतक है जिसमें संन्यासी के सांसारिक जीवन के सभी सूत्र जल कर भस्म हो चुके हैं. पारंपरिक धारणा है कि संन्यास लेते ही व्यक्ति का दूसरा जन्म हो जाता है. इसीलिए उसका नया नाम रखा जाता है और संन्यास-पूर्व जीवन से उसका नाता सदा-सर्वदा के लिए टूट जाता है. लेकिन भाजपा के संन्यासी न केवल राजनीतिक आन्दोलनों में भाग लेते हैं, वे उसके सदस्य भी बनते हैं, चुनाव लड़ते हैं और स्वयं सत्तासीन होते हैं. क्षुब्ध होने पर वे भाजपा छोड़ कर अलग पार्टी बनाते हैं और जब उसे कोई नहीं पूछता तो फिर से पुरानी पार्टी में लौट आते हैं. संन्यास की अवधारणा, उसकी हज़ारों साल पुरानी परम्परा और आध्यात्मिक अंतर्वस्तु का इससे बड़ा तिरस्कार और अपमान और क्या हो सकता है?

इसलिए आश्चर्य नहीं कि भाजपा को जान बचाकर भागने वाले व्यवसायी योगी रामदेव रास आते हैं पर एक महत उद्देश्य के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले संन्यासी निगमानंद नहीं.

जिन्हें संघ परिवार और भाजपा के वैचारिक उत्स के बारे में जानकारी है, उन्हें इस प्रकार के घटनाक्रम पर अफ़सोस तो होता है, पर अचरज नहीं. संघ परिवार और उसके सदस्यों ने जिस हिंदुत्व को अपनी केन्द्रीय विचारधारा बनाया है, उसका हिन्दू धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है. 1923 में विनायक दामोदर सावरकर ने ‘एक मराठा’ के छद्मनाम से ‘हिंदुत्व’ नामक  पुस्तिका लिखी थी जिसमें उन्होंने ज़ोर देकर कहा था कि हिंदुत्व को हिन्दू धर्म से न मिलाया जाए. दोनों बिलकुल अलग-अलग चीज़ें हैं. हिंदुत्व एक राजनीतिक अवधारणा है जो भारत की राष्ट्रीयता को परिभाषित करती है. यहाँ यह उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा कि हिंदुत्व की अवधारणा के जनक सावरकर स्वयं ईश्वर में विश्वास न करने वाले नास्तिक थे और खुद को रेशनलिस्ट यानी विवेकवादी बताते थे. उनकी हिंदुत्व की अवधारणा को आधार बनाकर ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सिद्धांत विकसित किया था. भाजपा की राजनीति का यही वैचारिक संसार है. क्योंकि स्वामी निगमानंद का किसी राजनीतिक लड़ाई में इस्तेमाल नहीं हो सकता था, इसलिए भाजपा और उसकी राज्य सरकार के लिए वे अनुपयोगी थे.

जिन तथाकथित संतों-महंतों के खिलाफ उन्नीसवीं सदी में स्वामी दयानंद सरस्वती ने हिन्दू समाज के भीतर सुधार आन्दोलन चलाया था और अंधविश्वास, जातिप्रथा तथा अन्य कुरीतियों को समाप्त करने के लिए आर्यसमाज की स्थापना की थी, उन्हीं तथाकथित संतों-महंतों को भाजपा और संघ परिवार के संगठनों ने राम जन्मभूमि आन्दोलन के दौरान राजनीतिक महत्व दिया और धर्म संसद जैसी संस्थाओं का गठन किया. एक समय तो ऐसा भी आया जब लगने लगा कि इस तरह की संस्थाएं उसी तरह का वर्चस्व स्थापित करना चाहती हैं जैसा पंजाब में 1980 के दशक में अकाल तख़्त का हो गया था. जैसा कि सभी जानते हैं और स्वयं भाजपा नेता सुषमा स्वराज ने भोपाल में 14 अप्रैल, 2000 बेबाकी के साथ स्वीकार किया था कि राम जन्मभूमि आन्दोलन शुद्ध रूप से राजनीतिक आन्दोलन था और उसका धर्म के साथ कोई सम्बन्ध नहीं था. लेकिन क्या यह सही नहीं कि संघ परिवार के विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल और भाजपा जैसे सदस्य संगठनों ने इस आन्दोलन के दौरान हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं का जमकर दोहन किया? राम को जेल की सलाखों के पीछे दिखाने वाले पोस्टरों का खुलकर इस्तेमाल हुआ और लालकृष्ण आडवाणी रामरथ पर आरूढ़ होकर ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ का नारा लगाते हुए देश भर में घूमने लगे. लेकिन इसके पीछे मंदिर बनाने का नहीं, सरकार बनाने का लक्ष्य था. इसलिए केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार बनते ही आन्दोलन भी ठंडा पड़ गया और अब तक ठंडा ही पड़ा है, हालांकि उसमें गर्मी लाने की कोशिश भी चलती रहती है.  लेकिन भाजपा की कोई कोशिश हिन्दू धर्म की सारवस्तु, व्यापकता, सर्वसमावेशी चरित्र  और उदार रूप को अपनाने की नहीं है. उसने ऐसे संतों-महंतों को ही राजनीतिक महत्व दिया है जो हिन्दू धर्म और समाज में आयी विकृतियों के लिए ज़िम्मेदार हैं.

अब फिर से वह बाबा रामदेव के माध्यम से उस राजनीतिक ज़मीन को फिर से पाना चाहती है जो उसने पिछले सालों में धीरे-धीरे खो दी है. सार्वजनिक जीवन में शुचिता लाने और भ्रष्टाचार मिटाने का आन्दोलन वह अपने या अपने सहयोगी दलों के बलबूते पर नहीं चला सकती क्योंकि हमाम में सभी नंगे हो चुके हैं. कर्नाटक में भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री बी एस येद्दियुरप्पा ने अपने ही रिश्तेदारों को ज़मीन एलॉट कर दी. बाद में अदालत के आदेश के बाद उन्हें वह आदेश रद्द करना पड़ा. इस पर भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उनका यह कहकर बचाव किया कि येद्दियुरप्पा ने जो कुछ किया वह अनैतिक तो हो सकता है, पर वह गैरकानूनी नहीं था. यानी भाजपा को अनैतिकता से कोई परहेज़ नहीं है. कर्नाटक सरकार में मंत्री रेड्डी बंधुओं द्वारा वहां और आन्ध्र प्रदेश में अवैध खनन के ज़रिये की जा रही लूट से सभी परिचित हैं. लेकिन भाजपा ने इस सबके खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया. फिर उसके भ्रष्टाचारविरोधी अभियान पर किसको भरोसा होगा?

यही कारण है कि वह बाबा रामदेव जैसे राजनीतिक रूप से महत्वाकांक्षी योगशिक्षक और अण्णा हजारे जैसे गैर-राजनीतिक समाजसेवी का दामन थामने को मजबूर है. संघ परिवार ने अण्णा हजारे के प्रति वैसा ज़बरदस्त समर्थन प्रकट नहीं किया है जैसा बाबा रामदेव के प्रति कर रहा है. क्योंकि रामदेव भगवा वस्त्रधारी हैं, इसलिए हिन्दू जनमानस में उनके प्रति यूं भी श्रद्धा है. इसका राजनीतिक लाभ उठाना ही प्रमुख लक्ष्य है. लेकिन इस क्रम में भाजपा यह भूल रही है कि नव्य-उदारवादी आर्थिक नीतियाँ जिस माहौल का निर्माण कर रही हैं और भ्रष्टाचार के फलने-फूलने के लिए जिस तरह की नयी-नयी प्रक्रियाएं अस्तित्व में आ रही हैं, उन्हें समझे और बदले बगैर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना संभव नहीं है. वर्तमान भ्रष्टाचारविरोधी आन्दोलन का एक कमज़ोर पक्ष यह भी है कि वह लोकपाल के हाथ में असीमित अधिकार देना चाहता है. लेकिन यदि इस बात की कोई गारंटी नहीं कि देश का प्रधानमंत्री भ्रष्ट नहीं होगा, तो इसकी ही क्या गारंटी है कि लोकपाल के पद पर नियुक्त होने वाला  व्यक्ति का दामन बेदाग़ रहेगा? बेहतर होगा कि भाजपा एक राजनीतिक दल की दृष्टि से इन प्रश्नों पर विचार करे और साधू-सन्यासियों की बैसाखियों का सहारा लेना छोड़े.

(यह लेख जनसत्ता में “निनाद” नामी स्तम्भ में पूर्व प्रकाशित है.

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