[यह लेख “बस्ती तो बसते बसती है” शीर्षक से आउटलुक हिंदी के स्वाधीनता विशेषांक में छपा है.]
अब जबके हर तरफ यह एलान हो चुका है के दिल्ली १०० बरस की हो गयी है और चारों ओर नई दिल्ली के कुछ पुराने होने का ज़िक्र भी होने लगा है, इन दावों के साथ साथ कि “दिल्ली तो सदा जवान रहती” है और “देखिये ना अभी कामनवेल्थ खेलों के दौरान यह एक बार फिर दुल्हन बनी थी”, वगेरह वगेरह, तो हमने सोचा के क्यों न इन सभी एलाननामों की सत्यता पर एक नजर डाल ली जाए, और इसी बहाने उस दिल्लीवाले से भी मिल लिया जाए जो इस अति प्राचीन/ मध्यकालीन/ आधुनिक नगरी का नागरिक होते हुए भी वैशवीकरण के झांसे में इतना आ चुका है के वो अपने आप को २१वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में आने वाले आर्थिक संकट को पछाड देने वाले चमचमाते भारत देश की राजधानी का शहरी होने का भरम पाले हुए है.
अब सब से पहले तो यह फैसला कर लिया जाए के नई दिल्ली है किस चिड़िया का नाम? पाकिस्तान के मशहूर व्यंग कार इब्न-ए–इंशा ने अपनी विख्यात पुस्तक उर्दू की आखरी किताब में एक अध्याय लाहौर के बारे में लिखा है. इस अध्याय में इंशा कहते हैं “ किसी ज़माने में लाहौर का एक हुदूद-ए–अरबा (विस्तार) हुआ करता था अब तो लाहौर के चारों तरफ लाहौर ही लाहौर वाके (स्थित) है और हर दिन वाके-तर हो रहा है”
एक फर्क है, इब्न-ए-इंशा के लाहौर में पुराना लाहौर और नया लाहौर दो अलग अलग चीज़ें नहीं हैं मगर दिल्ली के मामले में ऐसा नहीं है, एक समय था के नई दिल्ली में बाबू बसा करते थे और नई दिल्ली के पास शाहजहानाबाद था जो शहर था, अब नई दिल्ली वालों के हिसाब से पुराना शहर सिर्फ शादी के कार्ड, आचार मुरब्बे और हार्डवेअर खरीदने की जगह है, या उसे इस लिए बनाया गया है के उनकी पार्टियों के लिए बिरयानी, चाट, कुल्फी वगेरह मुहैया करवाए और जब उनके विदेशी मित्र या एन आर आई सम्बन्धी यहाँ आयें तो उन्हें इस जीते जागते संघ्राल्य के दर्शन करवा सकें. मुसलमान और सिख वहाँ धार्मिक कारणों से भी जाते हैं, मगर उनकी बात अलग है वो तो अल्प संख्यक हैं हम तो आम लोगों की बात कर रहे हैं.
नई दिल्ली शासकों का शहर है यहाँ देश का भविष्य निर्धारित किया जाता है और ऐसा तब से हो रहा है जब से नई दिल्ली बनी है. राम भला करे, सरदार शोभा सिंह का और उनके साथ के दुसरे ठेकेदारों का जिन्होंने ने लुटियनस व बेकर साहेब के नक्शे के हिसाब से नई दिल्ली बनाई. रायसीना की पहाड़ी से जार्ज पंचम की मूर्ती तक, गोरों के लिए एक खुली सड़क थी, इसे किंग्स वे (राज पथ) कहते थे, जार्ज पंचम की मूर्ती को दिल्ली की धूप से बचाने के लिए एक छतरी के नीचे बिठाया गया था, किंग्स को एक और सड़क काटती थी जो क्वींस वे(जन पथ) कहलाती थी इन सड़कों पर रिक्शा, तांगे साईकिल चलाने की इजाजत तब नहीं थी, आज भी नहीं है. तब हम गुलाम थे, अब नहीं हैं, सड़कों और ट्रेफिक पुलिस को अभी इस तब्दीली की खबर किसी ने नहीं दी है.
खैर इसे छोडिये हम शोभा सिंह और उनके साथी ठेकेकेदारों की बनायीं हुई नई दिल्ली की बात कर रहे, उन्ही शोभा सिंह की जिन्होंने भगत सिंह के खिलाफ हल्फिया ब्यान दिया था और नई दिल्ली की एक बोहत बड़ी ट्रेफिक सर्कुलेटरी का नाम विंडसर प्लेस से बदल कर उनके नाम पर किया जाने वाला है. यह अभी तक नहीं पता चल पाया के यह सम्मान उन्हें नई दिल्ली के प्राथमिक श्रेणी के ठेकेदार होने की वजह से दिया जा रहा है यह अव्वल दर्जे के मुखबिर होने की वजह से. यह कहना भी मुश्किल है के मुखबिरी ठेकेदारी के मार्ग प्रशस्त करती है या ठेकेदारी मुखबिरी में मदद गार साबित होती है.
बहरहाल जो नई दिल्ली इन लोगों मिल कर बनाई वो इस से पहले के १००० बरसों में दिल्ली में बनने वाली ७ दिल्लियों से अलग थी. लाल कोट, सीरी, तुगलकाबाद, जहाँपनाह, फिरोजाबाद (कोटला फिरोज़शाह), पुराना किला और शाहजहानाबाद इन सभी शहरों को बनाने वाले यहाँ रहने आये थे, नई दिल्ली को बनाने वाले भारत को लूटने आये आये थे और आज भी नई दिल्ली के निवासियों के बहुमत का पेशा यही है.
नई दिल्ली एक पूरी तरह से नया बनाया जाने वाला शहर था और शहर रातों रात नहीं बनते, तो नई दिल्ली को बनने में भी कई साल लगे, यह सही है के राजधानी को १९११ में दिल्ली ले आया गया था मगर तब तक नई दिल्ली तैयार नहीं थी काफी समय तक विसरॉय साहेब को दिल्ली यूनिवर्सिटी में वाईस चांसलर के वर्तमान दफ्तर मैं रहना पड़ा जो आज भी ओल्ड वाईस रीगल लाज कहलाता है.
वो सारी की सारी इमारतें जो आज नई दिल्ली की विरासत के नाम से पेश की जा रही हैं दरअसल १९३० के बाद बनी हैं, राष्ट्रपति निवास, संसद भवन , नार्थ और साउथ ब्लाक, इंडिया गेट आदि सभी. पुरातात्विक संरक्षण के कानून के अनुसार केवल वो ही इमारतें संरक्षण की सूची में लाइ जा सकती हैं जो कम से कम सौ बरस पुरानी हों. इन सब को इस सूची में आने के लिए २५ बरस इन्तेज़ार तो करना ही पड़ेगा.
सवाल यह है के फिर १०० बरस पूरे होने का यह शोर क्यों है, मामला साफ़ है कोई भी इमारत १०० बरस पुरानी नहीं है लेकिन अगर इस पूरे क्षेत्र को संरक्षित सूची में ले आया गया तो सारे मंत्रियों और बड़े बाबूओं के के बड़े बड़े बंगले संरक्षित सूची में आ जायेंगे दुनिया भर की नज़रें अंग्रेजों की बनायीं हुई राजधानी की तरफ लग जायेंगी और कोई यह नहीं पूछे गा के ३५० बरस पुराने शाहजहानाबाद को संरक्षित क्यों नहीं किया
असल मकसद नई दिल्ली और उसके विशेष निवासियों के हितों की रक्षा है हमारी धरोहर का संरक्षण नहीं. यह वो जगह है जहाँ के निवासी अपने इलाके को भारत का पर्याय समझते हैं. यहीं बैठ कर दरिद्रता की रेखा के नीचे रहने वालों को दी जाने वाली रियायतें समाप्त की जाती हैं यहीं शिक्षा को व्यसाय बनाने की और स्वास्थ सेवाओं को निजी कारोबार बनाने की योजनाएं देश के विकास के नाम पर बनाई जाती हैं. यहीं मुफ्त में बिजली पानी और टेलीफ़ोन की सुविधाएँ प्राप्त करने वाले लोग गरीबों को यह बताते हैं के सुविधाएँ निशुल्क तो उपलब्ध नहीं करवाई जा सकतीं.
इसी नई दिल्ली के चारों और नई दिल्ली रोज फैल रही है, इब्ने इंशा ने लाहौर के चारों ओर फेलते हुए लाहौर की तुलना एक नासूर से की थी एक ऐसा घाव जो लगातार फेलता जाता हो, दिल्ली की हालत भी कुछ ऐसी ही होती जा रही है. बोहत सी पुरानी बस्तियों और पुराने गाँव इस लगातार पसरते हुए महानगर ने लील लिए
नई दिल्ली के चारों तरफ जो फैलाव हुआ है उसमें ऐसे इलाके भी हैं जहाँ आम तौर पर धनवान और प्रभावी लोग ही रहते हैं, ऐसे लोग जो अपनी गर्भवती बहुओं को हर बार विदेश भेज देते हैं और ऐसा तब तक करते रहते हैं जब तक वो पुत्र को जन्म नहीं दे देतीं, इन इलाकों में महिलाओं की जनसंख्या के आँकड़े हरियाणा पंजाब और राजस्थान से भी बुरे हैं. ऐसे कोई लोग अगर कभी गिरफ्तार हुए होंगे तो ऐसा बड़ी खामोशी से हुआ होगा क्योंके आज तक किसी चैनल ने यहन्यूज़ ब्रेक नहीं की है. बलात्कार के मामले में दिल्ली देश के हर शहर से आगे है इतना आगे के अब पुलिस प्रमुख केवल अमरीकी नगरों के अपराध आंकड़ों की तुलना मैं ही दिल्ली को पीछे दिखा सकते हैं.
दिल्ली वो शहर है जहाँ लोग एक दूसरे का खून इस लिए कर देते हैं के उन्हें ओवरटेक करने से रोका क्यों गया, यह वो शहर है जहाँ व्यापार, ज़मीन की खरीद और फरोख्त और सरकारी नौकरियां सब से बड़े पेशे हैं जमीन के हर सौदे मैं धान्दली होती है, हर व्यापारी टैक्स की चोरी करता है हर सरकारी अफसर किसी न किसी ढंग से ऊपर की कमाई के रास्ते ढूँढता है और ढूँढ लेता है और फिर यह सब मिलकर भ्रष्टाचार के खिलाफ नारे लगाते हैं, टेलिविज़न चैनल को इंटरव्यू देते हैं जंतर मंतर पर धरना देते हैं और इंडिया गेट पर मोम बत्ती भी जलाते हैं
यह वो शहर है जो १९८४ में या तो सिक्खों की हत्याओं में शामिल था या कायरों की तरह छुपके बैठा था और अफवाहें फैला रहा था सिर्फ मुठ्ठी भर कलाकार थे जो सड़कों पर आये थे. किसी गुंडे का हाथ पकडना बूढों औरतों और बच्चों के लिए, जगह छोड़ देना दिल्ली के मर्दों की शान के खिलाफ है, अपनी बारी का इन्तेज़ार करने से हमारी मर्दानगी पर आंच आती है.
यह शहर कमजोर पर डंडा चलाने में माहिर है, जिस की जितनी बड़ी गाडी है वो उतना ही बड़ा दादा है, शहर की योजना बनाने वाले भी इसी मर्ज़ के शिकार हैं अब पैदल चलने वाले और साईकिल चलाने वाले किसी और शहर में रहें क्योंके इस शहर में उनके लिए जगह है ही नहीं. शहर में जमीन के इस संकट को ध्यान में रखते हुए ही राज्य सरकार और न्याययालों ने कई बरस पहले ही सारी फक्ट्रियां बंद करने के आदेश जारी कर दिए थे. न मजदूर होंगे न साईकिल चलाएंगे जो फुट पाथ बचे हैं उनपर कूड़े के ड्लाओ और पुलिस चोकियों के बाद जगह ही कहाँ बची है के पैदल चलने वाले शहर का रुख भी करें.
तो यह है वो नई दिल्ली जिसने अपने अस्तित्व के १०० सालों में १००० साल से ज्यादा पुरानी शहरी धरोहर को लग भग पूरी तरह भुला दिया है, १९४७ के बाद जिस तेज़ी से इस शहर की काया पलट हुई आबादी लग भग पूरी तरह बदली और ३००,००० का शहर १४०००००० का शहर हो गया, समुदायों में, बिरादरियों में, सम्प्रदायों में जो रिश्ते बने थे जो संतुलन स्थापित हुआ था वो सब क्षण भर में नष्ट हो गया और फिर उसे स्थापित करने की कोई कोशिश नहीं की गयी, मुट्ठी भर पागल लोगों के करने से यह होने वाला नहीं था, सुभद्रा जोशी , डी.आर.गोयल. अनीस किदवाई जैसे लोग लगे रहे मगर मोहब्बत के तिनकों से नफरत का सैलाब कहाँ रुकता.
नई दिल्ली को शहर कहना आसान नहीं है, मीर तकी मीर ने कहा है के
“बस्ती तो फिर बस्ती है –बस्ते बस्ते बस्ती है”
कोई जगह शहर तब बनती है जब उसे बसे हुए कई सदियाँ बीत गयी हों, उस का आपना संगीत हो, अपना शिल्प हो, अपना खास भोजन हो, जीने की अपनी विशिष्ट लय और ताल हो, अपने मेले ठेले हों, तीज तहवार हों जहाँ यह सब न हो और जहाँ से कहीं और जाने के लिए रात के ८ बजे के बाद कोई साधन भी उपलब्ध न हो, जहाँ सारे बाज़ार रात को ८ बजे तक बंद हो जाएँ और जहाँ चाय की दूकान भी ९ बजे के बाद खुली न मिले, ऐसी जगह सरकारी दफ्तर के सामने वाली गली तो हो सकती है शहर नहीं.
आपको यकीन नहीं आता पंडारा रोड, औरंगजेब रोड, मान सिंह रोड, अकबर रोड, मोती लाल नेहरु मार्ग, मौलाना आज़ाद रोड ,पंडित पन्त मार्ग, रकाब गंज रोड, भगवान दास रोड, कपरनिकस मार्ग, गोल्फ लिंक्स, तुगलक रोड वगेरह पर चाय की दूकान, खाने के लिए कुछ भी, पीने के लिए पानी, घर जाने के लिए बस या लघु शंका के समाधान के लिए निर्मित कोई सुविधा ढूँढ कर तो देखिये. विष्णु खरे ने अपने संकलन “सब की आवाज के पर्दे में” इस इलाके का ज़िक्र एक कविता में किया है उन्हें शक है के यहाँ केवल भूत परत रहते हैं क्योंके उन्होंने यहाँ दिन में कभी इंसान को देखा ही नहीं.
इस शहर में बुहत सा पैसा बुहत जल्दी आ गया है, ज़मीन की बढती हुई कीमत, टैक्स न देने की खानदानी परंपरा, जहेज के लिए किसी भी हद से गुजर जाने की आदत इस सब ने जो बेतहाशा दौलत दी है उसे हजम कर पाना आसान नहीं नौ दौलते (नव धनाड्य) लोगों के शहरों में यही होता है, अगर नौ दौलते पिछली पीढ़ियों के नुकसानों की भरपायी की कोशिश भी कर रहे हों तो मामला और गंभीर हो जाता है अगली दो तीन पीढ़ीयों तक इस शहर की हालत और बिगड़ेगी जब तक नई दिल्ली सच मच पुरानी नहीं हो जाती असल में शहर नहीं बन जाती तब तक यह ओछे नव धनाड्यों का शहर ही रहेगी और तब तक औरतें बूढ़े बच्चे गरीब और कमज़ोर लोग इस शहर में असुरक्षित ही रहेंगे.
शायद सन १९९८ की बात है, मै लोदी रोड की किसी गली में खड़ा रास्ता पूछ रहा था| एक भाई ने कहा, मै उससे बात करने की कोशिश क्यों कर रहा हूँ| चुप खड़ा हो गया| कुछ देर बाद एक बुजुर्गवार किसी मकान से निकले| मैंने रास्ता पूछा| उन्होंने कहा, मेरे साथ हो लो, में उधर ही जा रहा हूँ| मै भी चल दिया| गंतव्य पर पहुच कर मैंने शुक्रिया कहा तो वो हाथ पकड़ कर रो दिए बोले बेटा तुम भगवान हो, मैंने आज पन्द्रह बीस दिन बाद किसी से बात की है|
पर क्या करे आज मुझे भी रोजगार के लिए इसी दिल्ली में आना पड़ा क्योकि यहाँ के दैत्यों में मेरे मुल्क भारत का विकास नहीं होने दिया|
LikeLike
शहरों में लगातार ऐसे हालात बन रहे हैं जहाँ कोई बात करने वाला नहीं है, भारत के दूसरे महानगरों में भी ऐसा ही या इस से ज्यादा भी हो रहा है
रोज़गार के लिए आप यहाँ आये और आप को विरोध का सामना नहीं करना पड़ा जैसा हमारे देश के सब से बड़े महानगर में लोगों को करना पड़ता है
कम अज कम इस अंतर को तो रेखांकित करना ही चाहिए था. रहा भारत का विकास न होने का मामला तो उसके लिए ज़िम्मेदार दैत्यों का बसेरा केवल
मेरा शेहर दिल्ली में ही नहीं है झारखण्ड, उड़ीसा, मध्य प्रदेश वगेरा की खदानों के मालिक भी इन्हीं का हिस्सा हैं हैं, रणवीर सेना बनाने भू स्वामी
भी इन्हीं में हैं, एकाधिकार रखनेवाले इजारेदार पूंजीपति और तीस साल में सब से ज्यादा धनि हो जाने वाले भाई भी हैं जिन की जड़ें नीम का थाना और
झुंझुनू से ले कर सूरत ग्वालियर और न जाने कहाँ कहाँ पाई जाती हैं दिल्ली में तो उनके प्रतिनिधि राज काज का काम देखते हैं असल सत्ता तो
कहीं और ही बिराजमान है . तो जो कुछ बुरा इस देश में हो रहा है उस सब के लिए दिल्ली वासियों को ज़िम्मेदार ठहरा देना आसान तो है सही नहीं.
LikeLike
उचित बात है कि जो कुछ भी इस देश में हो रहा है उस के लिए दिल्ली वासियो को जिम्मेदार ठहरा देना सही नहीं| मगर दिल्ली आज भी एक शहर नहीं है, कई शहर है| मगर जब एक बाहरी आदमी दिल्ली कि बात करता है तो उस चेहरे की बात करता है जो वह देखता है| उचित है कि दिल्ली में आपको विरोध नहीं सहना पड़ता, परन्तु आज के दिल्ली वाले (पुरानी दिल्ली वाले नहीं) आपको पिछड़ा, गवार, चोर और परजीवी ही समझते है| उन के पास सत्ता के घोड़े की नकेल है, बाकी भारत के पास पूंछ भी नहीं| जिस तरह दूसरे महानगर वाले समझते है कि देश को सारा टेक्स वो अपने घर से लाकर देते है, इसी तहह ये दिल्ली सोचते है कि सत्ता उनकी रखैल है|
अगर दिल्ली में बैठे हुक्मरान दिल्ली वगैराह महानगर के बाहर भी देश देख पाते तो देश का समग्र विकास होता और न हमें बाहर से आने की जरूरत रहते न उन्हें हमारा विरोध करने की|
खैर, जो भी है, जिस रसोई में बर्तन होंगे, आवाज तो करेंगे ही|
LikeLike
एक दिल्ली कापसहेड़ा बोर्डर और मदनपुर खादर वाली है, जहां लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर जहन्नुमी दडबों में भरे पड़े हैं.. इनमें से कुछ दिल्ली से सटी फैक्ट्रियों में बेहद मुश्किल हालात में १२-१२ घंटे खटने के बाद मुश्किल से कुछ घर भेजने लायक कमाते हैं. बाकी इस राक्षसी मशीननुमा शहर के कलपुर्जों में तेल की तरह पिसते हैं.. लेकिन उनके लिए दो गज ज़मीन नहीं है यहाँ की खूबसूरत नीट एंड क्लीन सडकों पर .. इसलिए शाम को डीटीसी, आरटीवी आदि में ठूंसकर वापस इन कांसंट्रेशन कैम्पों में भेज दिए जाते हैं… किसी दिन ७२९ नंबर की बस का सफ़र जिसने किया है वह जानता है. और एक दिल्ली जेएनयू/हैबिटेट सेंटर/ सेमीनार हाल में बसती है, हवाई क्रांतियों, रोमांस और ड्राइंग रूम क्रांतिकारियों की दिल्ली
LikeLike
इस यकीन से शुरूआत करना के आप को जो पता है वही सच है दरअसल बौह्त सी गलत धारणाओं का आधार है
जे एन यू / हैबिटैट/सेमिनार को एक कर के देखने में जो पूर्वाग्रह निहित है शायद उसकी ओर कभी आप का ध्यान गया ही नहीं
बिनायक सेन ने दो साल जनु में पढाया है, जे एन यू के कई छात्र आपातकाल का विरोध करने के अपराध में डी आई आर और मीसा
जैसे काले कानूनों के अधीन जेल में रहे उनमें से कई अभी तक जन आंदोलनो के साथ जुडे हैं
और आम जनता की दुर्गति के खिलाफ लड़ने वाले कब से बौद्धिक संघर्ष और बुद्धिजीवियों के खिलाफ हो गए
ऐतिहासिक रूप से केवल लम्पट और फासीवादी ही बुध्हिजीवियों के विरोधी रहे हैं . रहा ७२९ नम्बर की बस में
यात्रा करने का सवाल तो १९७५ में संजय गाँधी के दिल्ली को साफ़ करने के अभियान के बाद मंगोलपुरी, नन्द नगरी
खिचड़ी पुर, सीमापुरी , सीलमपुर, वेलकम आदि आदि में बसें नहीं जाती थीं मगर वहाँ जिन लोगों को लाकर फ़ेंक दिया गया था
उनको संगठित करने वाले वहाँ जाते थे और उन्ही के प्रयासों से ही बसों का उन इलाकों में आना जाना शुरू हुआ
आप से पिछली पीढ़ी के लोग शायद राजनीतिक रूप से इतने परीपक्व नहीं थे जितने आज के नौजवान हैं मगर वो पूरी तरह निकृष्ट भी नहीं थे
LikeLike
मैं बौद्धिक वर्ग के खिलाफ नहीं हूँ, बल्कि मैं खुद जेएनयू का ही विद्यार्थी हूँ, छात्र आन्दोलन में हिस्सा भी लेने की कोशिश करता हूँ, दरअसल मेरा कमेन्ट बहुत व्यक्तिगत किस्म की चिंताओं से निकला है, जिसमें किसी ज़मीनी संघर्ष का हिस्सा न बन पाने का डर छिपा हुआ है.. खीज का नतीजा.. एक गाँव और आन्दोलन की पृष्ठभूमि होने के कारण दिल्ली में अजीब महसूस करता हूँ… कई बार निराशा होती है कि क्या सेमीनार हाल से निकल कर ये चीज़ें उन तक पहुचेंगी जिनके बारे में ये बातें की जाती रही हैं, . हाँ यह सच है कि देश के लोग लड़ते हैं अपनी अपनी तरह से.. और हमें भी अपने तरीके निकालने होंगे उनसे जुड़ने के…. कई बार यही लगता है कि कम से कम एक बेहतर समन्वय हो संघर्ष और चिंतन में..
फिर से पढ़ने पर अतिशयोक्ति नज़र आयी अपने कमेन्ट में.. आपने एक सधा हुआ जवाब दिया, जिसके लिए शुक्रिया.
LikeLike
nice
LikeLike
मुझे लगता है एक नहीं कई दिल्लियां हैं. एक अपने सत्ता के मद, धन के अहंकार मेम डुबी दिल्ली है. तो दुसरा उस दर्प को दुत्कारने वाली. एक ओवर टेक पे गाली देने वाली है तो एक साथ साथ चल के रास्ता बताने वाली भी. एक से शोषण का शिकंजा और मजबुत होता है तो एक से मुक्ति की किरण भी निकसित होती है. बड़े बड़े स्काई स्क्रैपर्स के साथ वैसी दिल्ली भी है जहां मकान के ऊपर मकान चढें हुएं है. इतना कुछ देखने के बाद भी लगता है दिल्ली कितनी अन्देखी रह गई है. इतना कुछ जानने के बाद भी लगता है कि दिल्ली को और भी जानना है. आखिर यों ही जौक़ ने नहीम कहा था, कौन जाये जौक़ ये दिल्ली की गलियां छोड़कर…
LikeLike
Kahna hoga ki nayi diili ke nayepan ki jo aapne panne khole hai wo jhkjhor dene ke liye kafi hai
LikeLike
Khushwant Singh in his latest column wrote about his late father Sardar Shobha Singh. He is hurt by describing his father as “mukhbir” and “halfiya biyan” against Shaheed Azam Bhagt Singh. According to Khushwant Singh his father was in the gallery from where Shaheed Azam thrown bomb. His father just described the happening and recognized the two young men. Shaheed Azam himself owns the act. Sardar Shobha Singh did not do the mukhbiri. I think Sohail Hashmi has to respond on Khushwant Singh statement.
LikeLike
The word Mukhbir is a derivate from Khabar, Khabar means news or information, akhbaar is the plural of news and Mukhbir is the one who brings or communicates the news or information. this is what Shobha Singh did. this action or the fact that he was one of the leading contractors who built new Delhi or a combination of both could have informed the decision to knight him. I fail to understand why must I respond to Khuswant Singh. The Wodiyars, the Nizams and the Marathas collaborated with the British against Tipu Sultan, The Rulers of Gwalior Collaborated with the British against Rani Luxmi Bai and Shobha Singh was a witness against Bhagat Singh. Who do you think had to do the responding ?
Not I, I am sure.
LikeLike
Jis nazariye se dekhen us nazariye se dilli ko payenge. Satta ki hod mein chipe darindon ke nazariye se dekhen; to aap andhera hi payenge; magar purani dilli ki chahat ke nazariye se dekhen to aap muskurayenge. Yahan insaan aaj bhi doosre ki madad ke liye tayaar khada hai, bus aap boliye toh sahi. Dilli insaan ko thoda sa rukha karti hai, toh zindagi jeene ka andaaz bhi sikati hai! Yahan payar bhi hai aur power bhi. Bus yeh samjhiye aaj aap kis se mile?
LikeLike
हम मिले उसी से जो राह चलते टकरा गया| किसी के चेहरे पर नहीं लिखा कि वो इंसान है कि नहीं| मगर फर्क है कि किसको दिल्ली ने अदब दिया, किसे अदा| मगर आज दिल्ली दिलवालो की नहीं, दिल का हल्ला मचने वालों की है|
LikeLike
It is interesting to note from Sohail that Mukhbir مخبر is from Khabar. By affixing prefix and suffix and derivatives there are many words like khabar nawees خبرنویس , khabeerخبر, bakhabar باخبر, khaba rasan خبر رساں (one who communicate news) and many many words. But Mukhbir is never used for one who “one who brings or communicates the news or information”. It is same like informer, a derivative of information.
LikeLike