अस्सी के दशक में उत्तर भारत के कुछ शहरों में एक पोस्टर देखने को मिलता था।
रामबिलास पासवान के तस्वीर वाले उस पोस्टर के नीचे एक नारा लिखा रहता था ‘मैं उस घर में दिया जलाने चला हूं, जिस घर में अंधेरा है।’ उस वक्त़ यह गुमान किसे हो सकता था कि अपनी राजनीतिक यात्रा में वह दो दफा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आनुषंगिक संगठन भारतीय जनता पार्टी का चिराग़ रौशन करने पहुंच जाएंगे। 2002 में गुजरात जनसंहार को लेकर मंत्रिमंडल से दिए अपने इस्तीफे की ‘गलति’ को ठीक बारह साल बाद ठीक करेंगे, और जिस शख्स द्वारा ‘राजधर्म’ के निर्वाहन न करने के चलते हजारों निरपराधों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा, उसी शख्स को मुल्क की बागडोर सम्भालने के लिए चल रही मुहिम मंे जुट जाएंगे।
मालूम हो कि अपने आप को दलितों के अग्रणी के तौर पर प्रस्तुत करनेवाले नेताओं की कतार में रामबिलास पासवान अकेले नहीं हैं, जिन्होंने भाजपा का हाथ थामने का निर्णय लिया है।
रामराज नाम से ‘इंडियन रेवेन्यू सर्विस’ में अपनी पारी शुरू करनेवाले और बाद में हजारों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म का स्वीकार करनेवाले उदित राज, जिन्होंने इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई में संघ-भाजपा की मुखालिफत में कोई कसर नहीं छोड़ी, वह भी हाल में भाजपा में शामिल हुए हैं। पिछले साल महाराष्ट्र के अम्बेडकरी आन्दोलन के अग्रणी नेता रिपब्लिकन पार्टी के रामदास आठवले भी भाजपा-शिवसेना गठजोड़ से जुड़ गए हैं। भाजपा से जुड़ने के सभी के अपने अपने तर्क हैं। पासवान अगर राजद द्वारा ‘अपमानित’ किए जाने की दुहाई देते हुए भाजपा के साथ जुड़े हैं तो उदित राज मायावती की ‘जाटववादी’ नीति को बेपर्द करने के लिए हिन्दुत्व का दामन थामे हैं, उधर रामदास आठवले राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से खफा होकर भाजपा-शिवसेना के महागठबन्धन का हिस्सा बने हैं।
इसमें कोई दोराय नहीं कि इस कदम से इन नेताओं को सीटों के रूप में कुछ फायदा अवश्य होगा। पासवान अपने परिवार के जिन सभी सदस्यों को टिकट दिलवाना चाहते हैं, वह मिल जाएगा, वर्ष 2009 के चुनावों में जो उनकी दुर्गत हुई थी तथा वह खुद भी हार गए थे, वह नहीं होगा ; उदित राज सूबा यू पी से कहीं सांसदी का चुनाव लड़ लेंगे और अपने चन्द करीबियों के लिए कुछ जुगाड़ कर लेंगे या आठवले भी चन्द टुकड़ा सीटें पा ही लेंगे। यह तीनों नेता अपनी प्रासंगिकता बनाए रख सकेंगे, भले ही इसे हासिल करने के लिए सिद्धान्तों को तिलांजलि देनी पड़ी हो।े
इसके बरअक्स विश्लेषकों का आकलन है कि इन नेताओं के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आनुषंगिक संगठन भाजपा के साथ जुड़ने से उसे एक साथ कई फायदे मिलते दिख रहे हैं।
अपने चिन्तन के मनुवादी आग्रहों और अपनी विभिन्न सक्रियताओं से भाजपा की जो वर्णवादी छवि बनती रही है, वह तोड़ने में इनसे मदद मिलेगी; दूसरे, 2002 के दंगों के बाद यह तीनों नेता भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति की लगातार मुखालिफत करते रहे हैं, ऐसे लोगों का इस हिन्दुत्ववादी पार्टी से जुड़ना, उसके प्रधानमंत्राी पद के प्रत्याशी मोदी की विवादास्पद छवि के बढ़ते साफसुथराकरण अर्थात सैनिटायजेशन में भी मदद पहुंचाता है। यह अकारण नहीं कि कुछ ने संघ-भाजपा के इस कदम को उसकी सोशल इंजिनीयरिंग का एक नया मास्टरस्ट्रोक कहा है। एक अख़बार में प्रकाशित एक आलेख ‘नरेन्द्र मोदी की आर्मी’ में – जिसने दलित वोटों का प्रतिशत भी दिया है, जिसका फायदा भाजपा के प्रत्याशियों को मिलेगा।
मालूम हो कि दलितों के एक हिस्से का हिन्दुत्व की एकांगी राजनीति से जुड़ना अब केाई अचरजभरी बात नहीं रह गयी है। अगर हम अम्बेडकर की विरासत को आगे बढ़ाने का दावा करनेवाली ‘बहुजन समाज पार्टी’ को देखें तो क्या यह बात भूली जा सकती है कि उत्तर प्रदेश में राजसत्ता हासिल करने के लिए नब्बे के दशक में तथा इक्कीसवीं सदी की शुरूआत में इसने तीन दफा भाजपा से गठजोड़ किया था।
और यह मामला महज सियासत तक सीमित नहीं है। ‘झोत’ जैसी अपनी चर्चित किताब – जिसका फोकस संघ की विघटनकारी राजनीति पर था – सूर्खियों में आए तथा अन्य कई किताबों के लेखक रावसाहब कसबे भी इक्कीसवी सदी की पहली दहाई की शुरूआत में शिवसेना द्वारा उन दिनों प्रचारित ‘भीमशक्ति शिवशक्ति अर्थात राष्ट्रशक्ति’ के नारे के सम्मोहन में आते दिखे थे। मराठी में लिखी अपनी कविताओं के चलते बड़े हिस्से में शोहरत हासिल किए नामदेव ढसाल, जिनके गुजर जाने पर पिछले दिनों अंग्रेजी की अग्रणी पत्रिकाओं तक ने श्रद्धांजलि अर्पित की थी, वह लम्बे समय तक शिवसेना के साथ सक्रिय रहे थे। विडम्बना यही थी कि वह सूबा महाराष्ट्र में अम्बेडकरी आन्दोलन में रैडिकल स्वर को जुबां देने के लिए, ‘दलित पैंथर’ के नाम से एक राजनीतिक संगठन की स्थापना करने के लिए चर्चित रहे थे, जिसने सत्तर के दशक के शुरूआती दिनों में शिवसेना के गुण्डों से मुकाबला किया था।
रेखांकित करनेलायक बात यही है कि हिन्दुत्व की राजनीति के साथ दलित अग्रणियों के बढ़ते सम्मोहन का मसला महज नेतृत्व तक सीमित नहीं है। समूचे दलित आन्दोलन में ऊपर से नीचे तक एक मुखर हिस्से में – यहां तक की जमीनी स्तर पर के कार्यकर्ताओं तक – इसके प्रति एक नया सम्मोहन दिख रहा है। विदित है कि यह सिलसिला भले पहले से मौजूद रहा हो, मगर 2002 में गुजरात जनसंहार के दिनों में इसकी अधिक चर्चा सुनने को मिली थी। गुजरात के साम्प्रदायिक दावानल से विचलित करनेवाला यही तथ्य सामने आया था कि दंगे में दलितों और आदिवासियों की सहभागिता का। स्वतंत्र प्रेक्षकों, शोधकर्ताओं और सामाजिक कार्यकर्ता सभी इस बात पर सहमत थे कि उनकी सहभागिता अभूतपूर्व थी। दलितों-आदिवासियों के हिन्दुत्वकरण की इस परिघटना को स्वीकारते हुए हमें इस तथ्य को भी स्वीकारना पड़ेगा इन समुदायों में ऐसे तमाम लोग भी थे जिन्होंने अपने आप को खतरे में डालते हुए मुसलमानों की हिमायत एवं रक्षा की थी।
अब वे दिन बीत गए जब अम्बेडकर ने खुलेआम ऐलान किया था कि ‘वह भले ही हिन्दू होकर पैदा हुए हों, लेकिन वह हिन्दू के तौर पर नहीं मरेंगे’ (1937) और उसी समझदारी के तहत अपने अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म का स्वीकार किया ; आज अपने आप को उनके अनुयायी कहलानेवालों के एक हिस्से को इस बात से कत्तई गुरेज नहीं कि वे सावरकर और गोलवलकर जैसों के विचारों पर आधारित हिन्दु धर्म की एक खास व्याख्या के साथ नाता जोड़ रहे हैं।
निश्चित ही अपने आप को अम्बेडकर के सच्चे अनुयायी के तौर पर पेश करनेवाले ये सभी अम्बेडकर की इस भविष्यवाणी को याद करना नहीं चाहते होंगे जब उन्होंने कहा था कि
‘हिन्दू राज अगर हक़ीकत बनता है तो निःस्सन्देह वह इस देश के लिए सबसे बड़ी तबाही का कारण होगा। हिन्दू चाहें जो भी कहें, हिन्दू धर्म स्वतंत्राता, समता और भाईचारे के लिए खतरा है। इसी वजह से वह जनतंत्र से असंगत बैठता है। हिन्दू राज को किसीभी कीमत पर रोका जाना चाहिए।’
संघ-भाजपा के प्रति उमडे इन सभी में उमडे ‘प्रेम का खुमार’ और इनके द्वारा भाजपा का दामन थामने का यह सिलसिला निश्चित ही इस बात को विलुप्त नहीं कर सकता कि भाजपा के मातृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मनुस्मृति के प्रति अपने सम्मोहन से कभी भी तौबा नहीं की है। वही मनुस्मृति जिसने शूद्रों अतिशूद्रों एवं स्त्रिायों को सैंकड़ों सालों तक तमाम मानवीय अधिकारों से वंचित रखा था। याद रहे कि स्वतंत्रा भारत के लिए संविधाननिर्माण की प्रक्रिया जिन दिनों जोरों पर थी, उन दिनों संघ परिवार की तरफ सेे नये संविधान निर्माण के बजाय हिन्दुओं के इस प्राचीन ग्रंथ ‘मनुस्मृति’ से ही काम चलाने की बात की थी। अपने मुखपत्र ‘आर्गेनायजर’, (30 नवम्बर, 1949, पृष्ठ 3) में संघ की ओर से लिखा गया था कि
‘हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विलक्षण संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु की विधि स्पार्टा के लाइकरगुस या पर्सिया के सोलोन के बहुत पहले लिखी गयी थी। आज तक इस विधि की जो ‘मनुस्मृति’ में उल्लेखित है, विश्वभर में सराहना की जाती रही है और यह स्वतःस्फूर्त धार्मिक नियम -पालन तथा समानुरूपता पैदा करती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं है।’’
हालांकि इधर बीच गंगा जमुना से काफी सारा पानी गुजर चुका है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि मनुस्मृति को लेकर अपने रूख में हिन्दुत्व ब्रिगेड की तरफ से कोई पुनर्विचार हो रहा है। फरक महज इतनाही आया है कि भारतीय संविधान की उनकी आलोचना – जिसने डा अम्बेडकर के शब्दों में कहा जाए तो ‘मनु के दिनों को खतम किया है’ – अधिक संश्लिष्ट हुई है। हालांकि कई बार ऐसे मौके भी आते हैं जब यह आलोचना बहुत दबी नही रह पाती और बातें खुल कर सामने आती हैं। विश्व हिन्दू परिषद के नेता गिरिराज किशोर, जो संघ के प्रचारक रह चुके हैं, उनका अक्तूबर 2002 का वक्तव्य बहुत विवादास्पद हुआ था, जिसमें उन्होंने एक मरी हुई गाय की चमड़ी उतारने के ‘अपराध’ में झज्जर में भीड़ द्वारा की गयी पांच दलितों की हत्या को यह कह कर औचित्य प्रदान किया था कि
‘हमारे पुराणों में गाय का जीवन मनुष्य से अधिक मूल्यवान समझा जाता है।’
मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्राी के तौर पर अपने कार्यकाल में , उन दिनों भारतीय जनता पार्टी की नेत्राी उमा भारती ने गोहत्या के खिलाफ अध्यादेश जारी करते हुए मनुस्मृति की भी हिमायत की थी । (जनवरी 2005) वक्तव्य में कहा गया था कि ‘मनुस्मृति में गाय के हत्यारे को नरभक्षी कहा गया है और उसके लिए सख्त सज़ा का प्रावधान है।’ चर्चित राजनीतिविद शमसुल इस्लाम ने इस सिलसिले में लिखा था कि ‘आज़ाद भारत के कानूनी इतिहास में यह पहला मौका था जब एक कानून को इस आधार पर उचित ठहराया गया था कि वह मनुस्मृति के अनुकूल है।’ (‘द रिटर्न आफ मनु, द मिल्ली गैजेट, 16-29 फरवरी 2005)। संघ-भाजपा के मनुस्मृति सम्मोहन का एक प्रमाण जयपुर के उच्च अदालत के प्रांगण में भाजपा के नेता भैरोंसिंह शेखावत के मुख्यमंत्राीत्व काल में नब्बे के दशक के पूर्वार्द्ध में बिठायी गयी मनु की मूर्ति के रूप में मौजूद है। इस तरह देखें तो जयपुर हिन्दोस्तां का एकमात्र शहर है जहां मनुमहाराज हाईकोर्ट के प्रांगण में विराजमान हैं और संविधाननिर्माता अम्बेडकर की मूर्ति प्रांगण के बाहर कहीं कोने में स्थित है।
कोई यह कह सकता है कि यह तमाम विवादास्पद वक्तव्य, लेख या घटनाएं अब अतीत की चीजें बन गयी हैं, और हकीकत में संघ-भाजपा के दलितों के प्रति नज़रिये में, व्यवहार में जमीन आसमान का अन्तर आया है।
इसकी पड़ताल हम मोदी के नेतृत्व में गढ़े गए ‘गुजरात मॉडल’ को देख कर कर सकते हैं, जहां सामाजिक जीवन में – शहरों से लेकर गांवों तक – अस्पृश्यता आज भी बड़े पैमाने पर व्याप्त है, जबकि सरकारी स्तर पर इससे लगातार इन्कार किया जाता रहता है। कुछ समय पहले ‘नवसर्जन’ नामक संस्था द्वारा गुजरात के लगभग 1,600 गांवों में अस्पृश्यता की मौजूदगी को लेकर किया गया अध्ययन जिसका प्रकाशन ‘अण्डरस्टैण्डिंग अनटचेबिलिटी’ के तौर पर सामने आया है, किसी की भी आंखें खोल सकता है।
मन्दिर प्रवेश से लेकर साझे जलाशयों के इस्तेमाल आदि तमाम बिन्दुओं को लेकर दलितों एवं वर्ण जातियों के बीच अन्तर्क्रिया की स्थिति को नापते हुए यह रिपोर्ट इस विचलित करनेवाले तथ्य को उजागर करती है कि सर्वेक्षण किए गए गांवों में से 98 फीसदी गांवों में उन्हें अस्पृश्यता देखने को मिली है। गौरतलब था कि 2009 में प्रकाशित नवसर्जन की उपरोक्त रिपोर्ट पर मुख्यधारा की मीडिया में काफी चर्चा हुई और विश्लेषकों ने स्पंदित/वायब्रेन्ट कहे जाने वाले गुजरात की असलियत पर सवाल उठाए।
इस बात को मद््देनज़र रखते हुए कि यह रिपोर्ट ‘समरस’ के तौर पर पेश किए जानेवाले गुजरात की छवि को पंक्चर करती दिख रही थी, घबड़ायी मोदी सरकार ने आननफानन में सीईपीटी विश्वविद्यालय के विद्धानों को ‘नवसर्जन’ की उपरोक्त रिपोर्ट की पड़ताल एवं समीक्षा करने के लिए कहा। दरअसल सरकार खुद को क्लीन चिट देने के लिए इतनी बदहवाससी थी कि उसने इस प्रायोजित अध्ययन के अलावा एक दूसरा तरीका भी अपनाया। उसने सामाजिक न्याय मंत्राी फकीरभाई वाघेला की अध्यक्षता में विभिन्न सम्बन्धित विभागों के सचिवों की एक टीम का गठन किया जिसे यह जिम्मा सौंपा गया कि वह रिपोर्ट के निष्कर्षों को खारिज कर दे। इस उच्चस्तरीय कमेटी ने अपने मातहत अधिकारियों को आदेश दिया कि वह गांव के अनुसूचित जाति के लोगों से यह शपथपत्र लिखवा ले कि उनके गांव में ‘अस्पृश्यता’ नहीं है।
प्रख्यात समाजशास्त्राी घनश्याम शाह सीईपीटी की रिपोर्ट की समीक्षा करते हुए लिखते हैं (डब्लू डब्लू डब्लू काउंटरव्यू डाट आर्ग, 13 नवम्बर 2013) और कहते है कि कितने ‘‘हल्के’’ तरीके से सरकार ने भेदभाव की समस्या की पड़ताल की है। वह बताते हैं कि ‘‘न केवल विद्धानजन बल्कि सरकार भी यही सोचती है कि अगर उत्सव में या गांव की दावत में दलितों को अपने बरतन लाने पड़ते हैं या सबसे आखिर में खाने के लिए कहा जाता है, तो इसमें कुछ गडबड़ नहीं है।’
एक अन्य विचलित करनेवाला तथ्य है कि सरकारी रिपोर्ट वर्णाश्रम में सबसे नीचले पायदान पर समझे जानेवाले वाल्मिकियों की स्थिति पर सिर्फ मौन ही नहीं रहती बल्कि उनका उल्लेख तक नहीं करती। उनका समूचा फोकस बुनकरों पर है – जो सामाजिक तौर पर अधिक ‘स्वीकार्य’ कहे जानेवाला दलित समुदाय है। निश्चित ही वाल्मिकियों का अनुल्लेख कोई मानवीय भूल नहीं कहा जा सकता। उनके विशाल हिस्से का आज भी नारकीय कहे जानेवाले कामों में लिप्त रहना, जहां उन्हें आए दिन अपमान एवं कभी कभी ‘दुर्घटनाओं’ में मौत का सामना करना पड़ता है, अब ऐसी कड़वी सच्चाई है, जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता। वैसे यह कोई पहली दफा नहीं है कि सरकार ने उनके वजूद से ही इन्कार किया हो। तथ्य बताते हैं कि वर्ष 2003 में गुजरात सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह शपथपत्र दाखिल किया था कि उनके राज्य में हाथ से मल उठाने की प्रथा नहीं है, जबकि कई अन्य रिपोर्टों एव इस मसले पर तैयार डाक्युमेंटरीज में उसकी मौजूदगी को दिखाया गया है। वर्ष 2007 में जब टाटा इन्स्टिटयूट आफ सोशल साइंसेज ने अपने अध्ययन में उजागर किया कि राज्य में 12,000 लोग हाथ से मल उठाते हैं,, तब भी राज्य का यही रूख था।
यह भी मुमकिन है कि जनाब नरेन्द्र मोदी चूंकि इस अमानवीय पेशे को ‘अध्यात्मिक अनुभव’ की श्रेणी में रखते आए हैं, इस वजह से भी सरकार खामोश रही हो। याद रहे कि वर्ष 2007 में जनाब मोदी की एक किताब ‘कर्मयोग’ का प्रकाशन हुआ था। आई ए एस अधिकारियों के चिन्तन शिविरों में जनाब मोदी द्वारा दिए गए व्याख्यानों का संकलन इसमें किया गया था, जिसमें उन्होंने दूसरों का मल ढोने, एवं पाखाना साफ करने के वाल्मिकी समुदाय के ‘पेशे’ को ‘‘आध्यात्मिकता के अनुभव’’ के तौर पर सम्बोधित किया था। (http://blogs.timesofindia.indiatimes.com/true-lies/entry/modi-s-spiritual-potion-to-woo-karmayogis)
किताब में मोदी लिखते हैं:
‘‘मैं नहीं मानता कि वे (सफाई कामगार) इस काम को महज जीवनयापन के लिए कर रहे हैं। अगर ऐसा होता तो उन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी इस काम को नहीं किया होता ..किसी वक्त उन्हें यह प्रबोधन हुआ होगा कि वाल्मिकी समुदाय का काम है कि समूचे समाज की खुशी के लिए काम करना, इस काम को उन्हें भगवान ने सौंपा है ; और सफाई का यह काम आन्तरिक आध्यात्मिक गतिविधि के तौर पर जारी रहना चाहिए। इस बात पर यकीन नहीं किया जा सकता कि उनके पूर्वजों के पास अन्य कोई उद्यम करने का विकल्प नहीं रहा होगा। ’’(पेज 48-49)
गौरतलब है कि जाति प्रथा एवं वर्णाश्रम की अमानवीयता को औचित्य प्रदान करनेवाला उपरोक्त संविधानद्रोही वक्तव्य टाईम्स आफ इण्डिया में नवम्बर मध्य 2007 में प्रकाशित भी हुआ था। यूं तो गुजरात में इस वक्तव्य पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई, मगर जब तमिलनाडु में यह समाचार छपा तो वहां दलितों ने इस बात के खिलाफ उग्र प्रदर्शन किए जिसमें मैला ढोने को ‘‘आध्यात्मिक अनुभव’’ की संज्ञा दी गयी थी। उन्होंने जगह जगह मोदी के पुतलों का दहन किया। अपनी वर्णमानसिकता के उजागर होने के खतरे को देखते हुए जनाब मोदी ने इस किताब की पांच हजार कापियां बाजार से वापस मंगवा लीं, मगर अपनी राय नहीं बदली।
वह 1956 की बात है जब आगरा की सभा में डा अम्बेडकर ने वहां एकत्रित दलित समुदाय के बीच एक अहम बात कही थी। अपने आंखों में आ रहे आंसूओं को रोकने की कोशिश करते हुए उन्होंने कहा कि ‘मेरे पढ़े लिखे लोगों ने मेरे साथ धोखा किया।’ सत्ता एवं सम्पत्ति की हवस में लिप्त और उसके लिए तमाम किस्म के मौकापरस्त गठबन्धन करने पर आमादा उनके तमाम मानसपुत्रों या मानसपुत्रियों को देख कर – जो ‘हमारे वक्त़ के नीरो’ की पालकी उठाने के लिए बेताब है – यही लगता है कि उनकी भविष्यवाणी कितनी सही थी।
(‘जनसत्ता’ में प्रकाशित लेख का अविकल रूप)
इस अत्यंत गम्भीर और बेहद प्रासंगिक लेख के लिए साधुवाद !
आश्वस्त रहें क्योंकि समय लिखेगा दलित आंदोलन के निहित आदर्शों और मूल्यों से दगा करने वालों इन सिद्धांतविहीन मौकापरस्तों का भी इतिहास। हालाँकि, सत्ता और धन लोभ से हिंदुत्व की पालकी ढोने को लालायित इन ‘कहारों’ को देख कर यह बुनियादी सवाल उठना भी लाजमी है कि क्या वाकई दलित आंदोलन के अपने कुछ ‘आदर्श’ और ‘मूल्य’ भी हैं ? और अगर हैं भी तो सिद्धांतों को दरकिनार करने वाला एक मौकापरस्त दलित नेतृत्व उन आदर्शों और मूल्यों को कैसे इतनी आसानी से अपनी ढाल बना ले सकता है? मिसाल के तौर पर मैं याद करना चाहूंगा उदित राज जी के उस लाजवाब तर्क को जो उन्होंने पिछले दिनों भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने के बाद एक खबरिया चैनल द्वारा आयोजित चर्चा के दौरान पेश किया। उदित राज ने बाबा साहब के धर्म परिवर्तन की व्याख्या करते हुए यह विचार प्रस्तुत किया कि अंबेडकर ने बाहर से आये (ईसाईयत जैसे) किसी धर्म को स्वीकार करने के बजाय हिंदुस्तान में ही पनपे बौद्ध धर्म को अपनाया था! अब इस विशिष्ट तर्क में अन्तर्निहित फासीवादी रुझान को समझने के लिए भी क्या हमें किसी विशेषज्ञ द्वारा प्रस्तुत सूक्ष्म विवेचना की बांट जोहनी पड़ेगी ? यह हमारे दौर की ‘त्रासदी’ नहीं तो और क्या है ? फ़िलहाल तो हँसोढ प्रवृत्ति मुझे बार -बार यह टिप्पणी करने के लिए उकसा रही है कि ‘राम चंद्र कह गए सिया से ऐसा कल जुग आयेगा, मदारी बन कर संघी मोदी, दास, विलास, राज सबको नचाएगा।’
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शांत : दलबदल चालू है
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*जसबीर चावला *
यूँ ही कम थी रीढ़ की हड्डीयां
कुछ लग गई
बनना था जिन्हें केंचुआ
तनते कैसे
बिना शर्म हया के रेंग रहे
दल से दल
दलदल में पेल रहे
मानते हैं
संतुष्ट सूअर अच्छा है
असंतुष्ट सुकरात से
लोकतंत्र खेल रहे
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राम की माया
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राम जी की कृपा
रामकृपाल रामविलास रामदास
‘उदित’हो गये
‘भागीरथ’प्रयत्न किया
‘मन मुदित हो गये
बरसों जम कर कोसा
शब्दबाण चलाये
‘मिठी लगे तेरी गारी रे’
किसी ने छेड़ा
कुपित हो गये
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राष्ट्रीय प्रवक्ता का यू टर्न
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सड़क पर चलनें के अपने नियम हैं
सुरक्षा सुगमता के लिये
राईट लेफ़्ट वन वे
जरुरत पर यू टर्न
घूम कर तीन सौ साठ डिग्री भी
राजनीति के क़ायदे बड़े अजीब हैं
प्रवक्ता को इलहाम हो जाये
टीपू सुल्तान मीर जाफ़र बन जाये
राजनीति की सड़क पर अबाउट टर्न होते हैं
दल से दलदल में आना
नपुंसक तर्क के जाल में उलझाना
करंसी चेस्ट से कुछ लालीपाप बँटे होगें
वरना कोई ‘यूँ’ ही ‘यू’ टर्न नहीं लेता
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